जो नित्य मुक्तीमार्ग रत्नत्रय स्वयं साधें सही।
वे साधु संसाराब्धि तर पाते स्वयं ही शिव मही।।
वहं पे सदा स्वात्मैक परमानंद सुख को भोगते।
उनकी करे हम अर्चना, वे भक्त मन मल धोवते।।१।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिसमूह! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
साधु चित्त के समान स्वच्छ नीर लाइये।
साधु चर्ण धार देय पाप पंक क्षालिये।।
प्राकृतीक निर्विकार नग्नरूप को धरें।
मुक्तिवल्लभा तथापि शीघ्र आपको वरें।।१।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण कांति के समान पीत गंध लाइये।
साधु चर्ण चर्चते समस्त ताप नाशिये।।प्राकृतीक.।।२।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र रश्मि के समान धौत शालि लाइये।
चर्ण के समीप पुंज देत सौख्य पाइये।।प्राकृतीक.।।३।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के सुगंधि पुष्प थाल में भरे।
कामदेव के जयी जिनेन्द्र-पाद में धरें।।प्राकृतीक.।।४।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरिका इमर्तियाँ सुवर्ण थाल में भरे।
भूख ब्याधि नाश हेतु आप अर्चना करें।।प्राकृतीक.।।५।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नदीप में कपूर ज्योति को जलाइये।
साध्वृंद पूजते सुज्ञान ज्योति पाइये।।प्राकृतीक.।।६।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट गंध अति सुगंध धूप खेय अग्नि में।
अष्ट कर्म भस्म होत आप भक्ति रंग में।।प्राकृतीक.।।७।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम संतरा बदाम थाल में भरे।
पूजते हि आप चर्ण मुक्ति अंगना वरे।।प्राकृतीक.।।८।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंध आदि अष्ट द्रव्य अर्घ ले लिया।
सुख अनंत हेतु, आप चर्ण में समर्पिया।।प्राकृतीक.।।९।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु पद में धारा करूँ, चउ संघ शांति हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख हेत।।१०।।
शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
पुष्पांजलि:।
चिच्चैतन्य सुकल्पतरु, आश्रय ले सुखकार।
शिवफल की वांछा करें, नमूँ साधु गुणधार।।
जैवंत साधुवृंद सकल द्वंद्व निवारें।
जैवंत सुखानंद स्वात्म तत्त्व विचारें।।
जै जै मुनीन्द्र नग्नरूप धार रहे हैं।
जै जै अनंत सौख्य के आधार भये हैं।।१।।
गुरुदेव अट्ठाईस मूलगुण को धारते।
उत्तर गुणों को शक्ति के अनुसार धारते।।
श्रुत का अभ्यास द्वादशांग तक भी कर रहें।
जिन रूप से ही मोक्षपद साकार कर रहें।।२।।
ग्रीषम ऋतू में पर्वतों पे ध्यान धरे हैं।
वर्षा ऋतू में वृक्षमूल में हि खड़े हैं।।
ठंडी ऋतू में चौहटे पे या नदी तटे।
निज आत्मा को ध्यावते शिवपथ से नहिं हटे।।३।।
बहु तप के भेद सिंह-निष्क्रीडितादि हैं।
उनकी सदा करें न तन से ममतआदि हैं।।
तप ऋद्धि बुद्धि ऋद्धि क्रिया विक्रिया ऋद्धी।
रस ऋद्धि औ अक्षीणऋद्धि औषधि ऋद्धी।।४।।
नाना प्रकार ऋद्धियों के नाथ हुए हैं।
सिद्धी रमा से भी वे ही सनाथ हुए हैं।।
इनके दरश से भव्य जीव पाप को हरें।
आहार दें नवनिधि समृद्धि पुण्य को भरें।।५।।
इनकी सदैव भक्ति से, जो वंदना करें।
वे मोहकर्म की स्वयं ही खंडना करें।।
मिथ्यात्व औ विषय कषाय दूर से टरें।
स्वयमेव भक्त निजानंद पूर से भरें।।६।।
गुणथान छठे सातवें से चौदहें तक भी।
संयत मुनी ऋषि साधु कहाते हैं सभी भी।।
वे तीनन्यून नव करोड़ संख्य कहे हैं।।
बस ढाई द्वीप में अधिक इतने ही रहे हैं।।।७।।
इन सर्व साधुओं की नित्य अर्चना करूँ।
त्रयकाल के भी साधुओं की वंदना करूँ।।
गुरूदेव! बार बार मैं ये प्रार्थना करूँ।
निजके ही तीन रत्न की बस याचना करूँ।।८।।
नाम लेत ही अघ टले, सर्वसाधु का सत्य।
केवल ‘ज्ञानमती’ मिले, जो अनंतगुण तथ्य।।९।।
ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्य: जयमाला अर्घ्यं …।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
—उपजाति छंद—
श्री पंचकल्याणमहार्हणार्हा, वागात्मभाग्यातिशयैरुपेता:।
तीर्थंकरा: केवलिनश्च शेषा:, स्वस्तिक्रियां नो भृशमावहंतु।।१।।
ये शुद्धमूलोत्तरसद्गुणानां, आधारभावादनगारसंज्ञा:।
निर्ग्रंथवर्या निरवद्यचर्या:, स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।२।।
ये चाणिमाद्यष्टसविक्रियाढ्या:, तथाक्षयावासमहानसाश्च।
राजर्षयस्ते सुरराजपूज्या:, स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।३।।
ये कोष्ठबुद्ध्यादिचतुर्विधर्द्धि-रवापुरामर्षमहौषधर्द्धी:।
ब्रह्मर्षयो ब्रह्मणि तत्परास्ते, स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।४।।
जलादिनानाविधचारणा ये, ये चारणाग्न्यांबरचारणाश्च।
देवर्षयस्ते नतदेववृन्दा: स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।५।।
सालोकलोकज्जवलनैकतानं, प्राप्ता: परंज्योतिरनंतबोधम्।
सर्वर्षिवंद्या: परमर्षयस्ते, स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।६।।
श्रेणिद्वयारोहणसावधाना:, कर्मोपशांतिक्षपणप्रवीणा:।
ये ते समस्ता मुनयो महान्त:, स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।७।।
समग्रमध्यक्षमिताश्च देश-प्रत्यक्षमत्यक्षसुखानुरक्ता:।
मुनीश्वरास्ते जगदेकमान्या:, स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।८।।
उग्रं च दीप्तं च तपोभितप्तं, महच्च घोरं च तरां चरन्त:।
तपोधना निर्वृतिसाधनोक्ता:, स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।९।।
मनोवच:कायबलप्रकृष्टा:, स्पष्टीकृताष्टांगमहानिमित्ता:।
क्षीरामृतास्राविमुखा मुनीन्द्रा: स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।१०।।
प्रत्येकबुद्धप्रमुखा मुनीन्द्रा: शेषाश्च ये ये विविधर्द्धियुक्ता:।
सर्वेपि ते सर्वजनीनवृत्ता:, स्वस्तिक्रियासुर्जगते हिता न:।।११।।
शापानुग्रहशक्तिताद्यतिशयै-रुच्चावचैरंचिता:।
ये सर्वे परमर्षयो भगवतां, तेषां गुणस्तोत्रत:।।
एतत्स्वस्त्ययनादपैति सकल:, संक्लेशभाव: शुभ:।
भाव: स्यात् सुकृतं च तच्छुभविधे-रादाविदं श्रेयसे।।१२।।
इति स्वस्त्ययनं मन:प्रसादनविधानम्।