परमागमस्य जीवं निशिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम्।
सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्।।पुरुशार्थ सिद्धि-2।।
मैं (आचार्य अमृतचन्द्र) परमागम के प्राण, जन्मान्धों द्वारा किये गये हाथी विषयक स्वरुप विधान, जो कि एक एक अंग के ग्रहण करने से विहित हुआ, का निषेध करने के समान है तथा सम्पूर्ण नयों में प्रकट होने वाले विरोध का नाष करने वाले अनेकान्त को नमस्कार करता हूँ।
जैनधर्म प्रामाणिक विचार और आचार का समन्वित योगभूत प्रयोग है। यह जीवमात्र की प्रगति हेतु आध्यात्मिक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण एवं पोषण करता है। इसने अनेकान्त के प्रस्तुतिकरण से सूक्ष्मातिसूक्ष्म मनोगत भावों और शुद्धि के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। अनेकान्त के सफल प्रयोग को स्याद्वाद कहते है जो वाणी को अहिंसक, मैत्रीपूर्ण तथा दुराग्रह रुपी ग्रह से मुक्त करता हुआ आत्मा को उसके चरम लक्ष्य मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।
अनेकान्त का निवास मन, मस्तिष्क बुद्धि में है वह कण्ठ, वाणी एवं शब्दों में स्याद्वाद के रूप में अथवा सापेक्षवाद का परिवेश धारण कर अवतरित होता है। नाना वचन विलास रूपी कलेवरों की आत्मा अनेकान्त है। अनेकान्त सापेक्षवाद का जनक है। सापेक्षवाद अर्थात् किसी अपेक्षा से सम्मुखासीन व्यक्ति के कथन के दृष्टिकोण को दुराग्रह से न ठुकराने से विष्व के मानव समुदाय में अशांति का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।
अनेकान्त का उद्गम अनेक धर्म वाली वस्तु के परस्पर में विरुद्ध दिखने वाले किन्तु सत्यभूत स्वभावों की समशिष्ट से होता है आगम के आधार से कुछ परिभाषायें दृष्टव्य है- ‘‘को अणेयंतो णाम? जच्चंतर ’’।
अनेकान्त किसको कहते हैं, जात्यन्तर भाव को अनेकान्त कहते है। अनेक धर्मों (स्वभावों) के एकरसात्मक मिश्रण से जो स्वाद (जात्यन्तर भाव) प्रकट होता है उसे अनेकान्त कहते हैं।
‘‘ यदेव तत् तदेवातत् यदेवैकं, तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत्,
यदेव नित्यं तदेवानित्यं इत्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिश्पादकपरस्परविरुद्धषक्तिद्वयप्रकाषनमनेकान्तः।’’
(समयसार आत्मख्याति परिशिष्ट)
जो वस्तु तत् है वही अतत् है जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व की उत्पादक परस्पर विरुद्ध दो “शक्तियों का प्रकाशन अनेकान्त है।
‘‘अनेके अन्ताः धर्मा सामान्यविषेशपर्यायाः गुणा यस्येति सिद्धानेकान्तः।’’
जिसके सामान्य विशेष पर्याय व गुणरूप अनेक अन्त या धर्म हैं वह पदार्थ अनेकान्त रूप सिद्ध होता है। अनेकान्त को प्रमाण भी कहते हैं। (अनेकान्तः तावत् प्रमाणं) एक-एक अंग के ज्ञान को नय कहते हैं। आ० समन्तभद्र ने कहा है-
अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंषधीः।
नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः।। अष्ट सहस्री ?
अनेक रूप वाले पदार्थ का ज्ञान प्रमाण या अनेकान्त है तथा उसके अंश ज्ञान को नय कहते है। नय सापेक्ष होता है वह विरोधी अन्य धर्मों का अपेक्षी होता है। अन्य विरोधी स्वभाव का निराकरण करने वाला दुर्नय है। प्रमाण सकलादेशी है, नय विकलादेशी है। उदाहरणार्थ अग्नि में उष्णता प्रताप, प्रकाश, आदि गुण धर्म हैं तथा इनके विरोधी भी गुणधर्म हैं भले ही वे विभाव हों।
इन सभी को प्रमाण या अनेकान्त युगपत् ग्रहण करता है। अलग-अलग इनको ग्रहण करने हेतु भिन्न-भिन्न नय चाहिए। कहा भी है, ‘‘प्रमाणशं नया उक्ताः’’। अर्थात नय प्रमाण के अंश हैं।
नयों को दृष्टिकोण व अपिमूद्ध कह सकते हैं, जैसे विभिन्न कोणों से किसी पदार्थ के चित्र लिए जाते हैं। यद्यपि ये चित्र सभी उसी पदार्थ के हैं तथापि वे सभी भिन्न-भिन्न दिखाई पड़ते हैं। कुछ चित्र तो बिल्कुल विरोधी ज्ञात होते हैं। उनको देखकर दर्शक को ऐसा लगता है मानों वे चित्र किन्हीं पृथक् पदार्थों के हों।
परन्तु तथ्य यह है कि वे सब उसी एक पदार्थ के हैं तथा विरुद्ध होते हुए भी अविरुद्ध हैं। इसी प्रकार नयों के द्वारा जब पदार्थो के निरूपण किये जाते हैं तो विरोधी भी ज्ञात होते हैं। कभी- कभी ज्ञाता संशय में पड़ जाता हैं। किन्तु जिसने प्रमाण के द्वारा पदार्थ को ग्रहण कर लिया है उसके लिए वे दृष्टियाँ विस्मयकारी न होकर वस्तु को सिद्ध करने वाली है। कहा भी है,
‘‘प्रमाणप्रकाषितार्थविषेशप्ररूपको नयः।’’
‘‘ प्रमाणप्रविभक्तार्थविषेशव्यन्जको नयः।’’
प्रमाण से गृहीत अनन्त धर्मात्मक जीवादि पदार्थों के जो विशेष धर्म है, उनका निर्दोष कथन करने वाला नय है। नय सापेक्षवादी है। जैसे एक पिता के कई पुत्र भिन्न-भिन्न सत्ता वाले हैं फिर भी उनमें भाई चारे का नाता है उसी प्रकार सभी नय प्रमाण के पुत्र या अंश है सापेक्ष हैं। तभी वे सम्यक् कहलाते हैं।
नयों के मूल में दो भेद हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक तथा पर्याय ही जिसका प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक कहलाता है। द्रव्यार्थिक के 10 भेद एवं पर्यायार्थिक के छः भेद है। आचार्य ने तत्वार्थसूत्र में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, सममिरूढ और एवं भूत, सात नयों का उल्लेख किया है।इन सबका स्वरूप आगम से अवलोकनीय है। ये मूल नयों के उत्तर भेद हैं। अध्यात्म में मूल दो नय हैं। निश्चय एवं व्यवहार।
”निष्चिनोतीति निश्चयः“।
जो निःशेष रूप से चुन लेता है अर्थात् अभेदग्राही है वह निश्चय नय है।
”भेदोपचाराभ्यां व्यवहृतीति व्यवहारः“।
जो भेद और उपचार से कथन करता है, व्यवहार करता है वह व्यवहार है।
संक्षेप में निम्न प्रकार छः नय जानना चाहिए।
कौन सा नय किस अवस्था में प्रयोजनीय है इसे दृष्टि में रखकर आ0 कुन्दकुन्द देव समयसार में कहते है,-
सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभाव दरिसीहिं।
व्यवहार देसिदा पुण जे दु अपरमेठ्ठिदा भावे।।
अर्थ – जो शुद्ध नय तक पहुँचकर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रवान् हो गये हैं,अर्थात् परमभावदर्षी है उनको तो शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है किन्तु जो अपरम भाव में (गृहस्थ की अपेक्षा पाँचवें गुणस्थान तक तथा मुनि की अपेक्षा छठवें-सातवें गुणस्थान में स्थित हैं। उनके लिए व्यवहार नय का उपदेष करना चाहिए।
प्रमाण शस्त्रों में कहा है कि प्रश्नवषात् एक ही वस्तु में विधि निषेध कल्पना सप्तभंगी है। पदार्थ के विषय में सात ही प्रश्न उपस्थित हो सकते हैं अतः सातों का समाधान रूप सप्तभंगी नय का विधान है। इसे स्याद्वाद कहते हैं। सापेक्ष कथन को स्यात् पद से युक्त कर स्यादवाद का प्रयोग होता हैं।
स्यात् का अर्थ ‘कथंचत्’ या किसी अपेक्षा से है। जितने भी वाक्य प्रयोग हैं उनमें सदैव अपेक्षा समाविष्ट रहती है। बिना अपेक्षा के शब्द या वाक्य प्रयोग होता ही नहीं है। वस्तुतः जब ज्ञाता का अभिप्राय असमीचीन होता है तब वह उसी वाक्य को निरपेक्ष रूप में सर्वथा सत्य घोषित करता है। एक धर्म को मुख्य करना और दूसरे विरोधी धर्म को गौण करना अभीष्ट है। न कि नाष करना या निषेध करना।
सारांश यह है कि अनेकान्त हृदय है तो सापेक्षनय या स्याद्वाद उसका मुख है। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती ने स्याद्वाद चन्द्रिका में उपर्युक्त अनेकान्त और स्याद्वाद का प्रयोग प्रतिफल पग-पग पर किया है। प्रस्तुत टीका की संज्ञा स्याद्वाद चन्द्रिका सार्थक ही है। इसमें पद-पद पर व्यवहार निष्चय नयों की, व्यवहार निष्चय क्रियाओं की और व्यवहार-निश्चय मोक्षमार्ग की परस्पर में मित्रता होने से इसका विषय स्याद्वाद सहित है।
माता जी समन्वित दृष्टिधारक, विशाल हृदय एवं नय-निष्पक्ष व्यक्तित्व की धनी हैं। वे परम विदुषी न्याय प्रभाकर हैं उनका सर्वांगीण दृष्टिकोण अनेकान्त के प्ररूपण में सर्वत्र प्रकट होता है।आग्रह तो तो उनको छू तक नहीं गया है। वे आगम की वाणी को अपनी वाणी मानती हैं अपनी वाणी को आगम नहीं। उनकी नयों की निष्पक्षता ही तत्व की साधक है।
नियमसार प्राभृत निश्चय प्रधान ग्रन्थ है। इसमें सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का वीतराग स्वरूप मुख्य रूप से विवक्षित है। आ० कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार और चारित्र पाहुड में सराग रत्नत्रय को प्रधान मानकर वर्णन किया है अतः उससे पृथक् नियमसार के नाम के अनुरूप ही साधुओं को व्यवहार से ऊपर उठकर निश्चय मोक्षमार्ग अपनाने को उपदेश दिया है।
निश्चय के कथन को ही पाठक सर्वथा रूप में ग्रहण न कर ले इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर पू० माता जी ने यथास्थान प्रायः निष्चय के साथ व्यवहार के कथन को भी युक्ति के आधार पर प्रस्तुत किया है। दोनों नयों में मध्यस्थता ही जिनेन्द्र प्रभु की देषना का फल प्राप्त करने का उपाय है।
शुद्ध नय आत्मा के स्वरूप में विद्यमान कर्मोपाधि निरपेक्ष सामान्य शुद्ध स्वभाव पर दृश्टि डालता है इसकी अपेक्षा सर्व संसारी जीव शुद्ध हैं। पू० माता जी गाथा संख्याक 6 की टीका के अन्तर्गत कहती है, यहाँ नय विवक्षा दृष्टव्य है।
”इतो विस्तरः – इमेऽश्टादष दोशाः नैते जीवस्वभावाः यद्यपि अशुद्धनयेन सर्वसंसारिजीवेषु दृष्यन्ते तथापि
”सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया” इति वचनात् शुद्धनयाभिप्रायेण तेषामपि न सन्ति।
किच एते औपाधिकभावा एव।”
यहाँ यह अवलोकनीय है कि व्यवहार की उपादेयता का इस टीका में पर्याप्त वर्णन करते हुए भी वे शुद्ध नय को भूलती नहीं हैं। पू० माता जी ने मंगलाचरण में ही ”वाक्यषुद्ध्यैनयसिद्ध्यै च स्याद्वादामृतगर्भिणीम्।“ कहकर स्पष्ट किया है कि वाणी स्याद्वाद रूपी अमृत से परिपूर्ण होती है। उसके आश्रय से ही प्रमाण और नय की सिद्धि हो सकती है।
यही लक्ष्य है।आगे “लोक संख्या 5 में”भेदाभेदत्रिरत्नानां“ का उल्लेख कर यह मन्तव्य प्रकट किया है कि निश्चय के साधक के रूप में व्यवहार रत्नत्रय का प्ररूपण इस टीका के अन्तर्गत किया जायेगा। इससे भी अनेकान्त निरूपण का भाव स्पष्ट होता है।
गाथा क्रमांक 18 की टीका के अन्तर्गत प्रातः स्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्द देव के आशय के अनुकूल ही माता जी व्यवहार नय से जीव को कर्म का कर्ता और भोक्ता तथा अशुद्ध नय से क्रमश कर्मज भावों का कर्ता भोक्ता और शुद्ध नय से शुद्ध भावों का कर्ता-भोक्ता निरूपित करती हैं। वर्णन अवलोकनीय है उन्हीं का स्वोपज्ञ हिन्दी अनुवाद निम्न है –
”टीका – पूर्वोक्त गुणपर्यायों से सहित यह जीवात्मा, जिसके उपादान कारण पुद्गल हैं ऐसे पौद्गलिक द्रव्य कर्मों का करने वाला और भोगने वाला होता है। यह व्यवहार नय का कथन है।“
शंका – तब तो निश्चय नय से यह कत्र्ता और भोक्ता नहीं है। यह बात अर्थापत्ति से सिद्ध हो गई है।
समाधान – ऐसी बात नहीं है बल्कि निश्चय नय से यही आत्मा कर्म से उत्पन्न हुए रागद्वेश आदि भावकर्मों का करने वाला और भोगने वाला होता है। यहाँ अशुद्ध निश्चय नय समझना चाहिए।“
”यह आत्मा अनादिकाल से कर्मां से बंधा हुआ होने से कर्म का कर्ता होता है ……………..।“
”इसलिए ये सभी अपने अपने गुणस्थान के योग्य उदय में आये हुए कर्मों के भोक्ता कहलाते हैं। यह सब कथन व्यवहार नय की अपेक्षा से ही है।
किन्तु निश्चय नय से कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मोहरागद्वेश आदि भावों के और ज्ञान दर्शन में किए गये प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय आदि भावों के भी कर्ता होते हैं। ये सभी भाव पूर्व में संचित किये गये कर्मों के उदय से होते हैं। अतः ये कर्म के लिए कारणरूप भी कहलाते हैं। सभी जीव पुद्गल कर्म के उद्य से उत्पन्न हुए इष्ट-अनिष्ट पंचेन्द्रिय विषयों को और उनसे होने वाले सुख दुःख को भोगते हैं इसलिए भोक्ता कहलाते हैं।
यहाँ निश्चय शब्द से अशुद्ध निश्चय लेना चाहिए। ……………. शुद्ध निश्चय से तो यह जीव सहज शुद्ध निज ज्ञान, दर्शन सुख, वीर्य, सत्ता आदि भावों का कत्र्ता-भोक्ता है।
शुद्ध निश्चय से आत्मा शरीर रहित निष्क्रिय है ऐसी स्थिति में वह शुद्ध भावों का कर्ता और भोक्ता कैसे हो सकता है ? यह शंका उपस्थित होने पर माता जी ने समाधान किया है कि मुक्त जीवों के कर्म निमित्त से होने वाली क्रियायें नहीं है किन्तु स्वाभाविक क्रिया ऊर्ध्वगमन तथा स्वभावोत्थ अनन्त ज्ञान एवं सुख के अनुभव रूप आदि क्रियायें तो उनमें भी हैं अतः उनके भी शुद्ध भावों का कर्तापना और भोक्तापना अच्छी तरह घटित होता है।
दूसरी बात यह है कि अनेकान्त होने से हम जैनों के यहाँ कोई दोष नहीं आता है (किच अनेकांतत्वात् न कश्चिद् दोषोऽवतरति अस्माकम्) आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी कहा है ”स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तं।“ एवं वचनों की निर्दोषता का कारण भी अनेकान्त ही है।
इसी प्रकरण में नय विवक्षा एवं गुणस्थान परिपाटी से जीव के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का विस्तृत निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त हिन्दी भाषा में पृथक् से (टीका के अतिरिक्त खुलासा) नियमसार में कुन्दकुन्द स्वामी के तथा गोम्मटसार में आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के आशय को स्पष्ट करते हुए कहा है कि कर्म का कर्तृत्व सयोग केवली तक भी है, और उदयागत फल के अनुभव में रति-अरति का अभाव होने से हर्ष-विषाद न होने से इन्द्रिय जन्य सुख-दुःख भी नहीं होते हैं।
अतः दशवें गुणस्थान तक ही कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व, समम्यना चाहिए। इसमें भी दशवें गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व, निर्विकल्प ध्यान में शुद्धोपयोग होने से संभव नहीं है। अबुद्धि पूर्वक अवश्य है। इन्हीं सब विषयों का स्याद्वाद चन्द्रिका टीका में गुणस्थान एवं नयों की अपेक्षा किया गया है। अध्यात्म एवं आगम-सिद्धान्त दोनों के कथन को ध्यान में रखकर ही निरूपण है।
अध्यात्म के शुद्धनय के निरूपण को ही एकान्त से सर्वथा सत्य मानने वाले निश्चयाभाषियों के लिए माता जी का उक्त उपदेश, मार्गदर्शन है। पंडित प्रवर बनारसी दास ने भी कहा है –
सर्वथा प्रकार करता न होय कबही।
तैसे जैनमती गुरूमुख एकान्त पक्ष सुनि ऐसे ही मानै सो मिथ्यात्व तजैं कबही।
जौलों दुरमती तौलों करम को करता है सुमती सदा अकरतार कह्यौ सबही।
जाके हिय ज्ञायक स्वभाव जग्यो जब ही सौं सो तौ जगजाल सौं निरालो भयो तब ही।।
निश्चयमबुध्यमानो यो निष्चयतः तमेव संश्रयति।
नाशयति करण-चरणं स एव बहिरालसो बालः।।
नियमसार की गाथा क्रमांक 26 ”अत्तादि अत्तमज्झं“ इत्यादि की टीका में परमाणु का अनेकान्त के परिप्रेक्ष्य में जो स्वरूप स्पश्टीकरण स्याद्वाद चन्द्रिका में किया गया है वस्तुतः अत्यन्त प्रामाणिक है। माता जी ने निरूपण किया है कि परमाणु में पुनः दूसरा भेद नहीं हो सकता है अतः वह कथचत् अन्त्य है, प्रदेश भेद का अभाव होने पर भी इसमें गुणों से भेद होता है अतः वह कथंचित् सूक्ष्म होते हुए भी स्थूल कार्य की उत्पत्ति होने में कारण होने से कथचित् स्थूल है।
द्रव्यत्व को नहीं छोड़ने से यह कथचत् नित्य है। बन्ध पर्याय की अपेक्षा से एक गुण दूसरे गुण से संक्रमण करता है अतः कथ×िचत् अनित्य है। प्रदेष रहित पर्याय की अपेक्षा से कथचित् एक है अनेक प्रदेशी स्कन्ध रूपी परिणमन की शक्ति वाला होने से कथचित अनेक हैं। कार्य हेतु से अनुमान का विशय होने से कथचित् कार्य लिंग है और प्रत्यक्ष ज्ञान की विशय ऐसी पर्यायों की अपेक्षा से कथचित् कार्यलिंग नहीं है।
उपरोक्त वर्णन में पदार्थ में विद्यमान परस्पर दो विरुद्ध शक्तियों का प्रकाशन कथचित् वाद या स्याद्वाद से किया गया है। यह अनेकान्त शैली का श्रेष्ठ उदाहरण यहाँ अपेक्षाओं को स्पष्ट करना आवष्यक समझकर माता जी ने यह विधि अपनाई है। वही जैनी नीति है। कहा भी है –
तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात् तथा प्रतीतेस्तव तत्कथचत्।
नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेर्निषेधस्य च शुन्यदोषात्।।
जिनागम में काल द्रव्य को वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व का कारण निरूपित किया गया है। जीवों की आयु को भी संचालित करने वाला कालद्रव्य निश्चय और व्यवहार रूपों में दो प्रकार का है। आयुकर्म के निषेकों की निर्जरा काल द्रव्य ही करवाता है। इस प्रकरण को गाथायुग्म संख्या 31-32 के भावार्थ को स्तुत्य ढंग से माता जी ने लिखा है। प्रथम ही हम उन गाथाओं को यहाँ उद्धृत करना चाहेंगे –
समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं अहव होइ तिवियप्पं।
तीदो संखेज्जावलि हदसंठाण (सिद्धाण) प्पमाणं तु।।
जीवादु पुग्गलादोऽणंतगुणा भावि संपदी समया।
लोयायासे संति य परमट्टो सो हवे कालो।। 32।।
समय और आवलि के भेद से काल दो प्रकार का है अथवा तीन प्रकार का है। अतीत काल संख्यात आवली से गुणित संस्थान प्रमाण है जीव और पुद्गल से अनन्त गुणा भविश्यत् काल है। वत्र्तमान काल समय मात्र है। जो लोकाकाष के एक प्रदेष पर स्थित हैं वे कालाणु परमार्थ काल है।
“निश्चयव्यवहाररूपं कालद्रव्यं सदाप्रवाहरूपेण आगच्छत् सत् जीवस्यायुर्निशेकान् निर्जरयति इति विज्ञाय निजायुशः
क्षणं प्रत्येकमनघ्र्यमिति निश्चित्य कालस्यैकापि कला धर्ममन्तरेण न यापनीया।”
इसका आशय यह कि अपनी आयु के प्रत्येक क्षण अमूल्य मानकर काल की एक कला (अंश) भी धर्म के बिना नहीं बितानी चाहिए।
आगमानुसार ही माता जी की यह अवधारणा है कि जिनेन्द्रदेव का उपदिष्ट तत्वज्ञान व्यवहार और निश्चय दोनों नयों के आधीन है। किसी एक नय के द्वारा ही सदैव वस्तुतत्व का विवेचन जिनमत से बाहर की वस्तु है। स्याद्वाद चन्द्रिका में गाथा क्रमांक 46 के तात्पर्यार्थ के निम्न अंश में यह निर्दिष्ट किया है कि असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उभयनयायत्त परमेश्वरी देशना को अंगीकार करता है। शब्दों का अवलोकन करें –
”असंयत सम्यग्दृष्टिजीवः व्यवहारनिष्चयोभयनयायत्तां देशनामवाप्य“
आगे हिन्दी अनुवाद के भावार्थ में यह प्रकट किया है कि सभी जीवों में शुद्ध निश्चय नय से स्वभाव स्थान आदि असंख्यात लोक प्रमाण विभाव एवं शरीर संस्थान आदि नहीं हैं जो भी संसारी-मुक्त भेद, पर्यायों के सुख दुःख आदि हैं वे व्यवहार नय या अशुद्ध निश्चय नय से ही हैं। अतः सुखी होने का उपाय करना उचित है। मनुष्य जन्म की यही सफलता है।“
अनेकान्त जिनशासन ही ऋषिगणसम्मत आर्ष मार्ग है। जैनागम का चिन्ह ही अनेकान्त है। पदार्थ में विद्यमान परस्पर विरोधी धर्म भी नय विवक्षा से अस्तित्व में सिद्ध होते हैं। व्यवहार नय से संसारावस्था में प्राप्त शरीर ही आत्मा का आकार है तथा वह साकार है किन्तु कर्मोदय जन्य निमित्त आकार से रहित होने के कारण निश्चय नय से आत्मा निराकार वर्णित किया जाता है। आर्यिका जी ने, ”आर्षतो नयविवक्षातो न कष्चिद्दोशोऽवकाषं लभते।“ आर्ष वचन में नय विवक्षा से दोष नहीं है, कहकर हमें आर्ष मार्ग के प्रति ही निष्ठावान किया है।
ऊपर कहा जा चुका है कि शुद्ध नय से सभी संसारी जीव शुद्ध हैं इस विषय में भ्रम निवारण की आकांक्षा से अथवा कहीं पाठक एकान्त निश्चयाभासी होकर सर्वथा शुद्ध न मान ले इसके निरसन हेतु गाथानुक्रम 47 की टीका के भावार्थ में उन्होंने कहा है, ”व्यवहार नय से जीव दो प्रकार के हैं, संसारी और मुक्त न कि निश्चय नय से।
अतः दोनों नयों के बल से परस्पर में विरुद्ध का भी अविरुद्ध करके जो श्रद्धान करते हैं, जानते हैं और मानते हैं वे ही सम्यग्दृष्टि हैं और एकान्त से जो जीव को सिद्ध सदृश मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं, अपने तथा पर के “शत्रु हैं उनके मोक्षमार्गपना कभी भी सिद्ध नहीं होता है।“ इस प्रकरण की पुष्टि में निम्न उदाहरण प्रस्तुत है –
जीवष्चेत् सर्वतः शुद्धो मोक्षादेषो निरर्थकः।
नेष्ट मिष्टत्वमत्रापि तदर्थं वा वृथा श्रमः।।
अर्थ– यदि जीव सर्वथा शुद्ध है तो मोक्ष का उपदेश निरर्थक है किन्तु यह इष्ट नहीं है अर्थात् मोक्ष का उपदेश सार्थक ही है। दूसरे, मोक्षहेतु श्रम करना भी व्यर्थ होगा। स्पष्ट ही है सभी महापुरुषों ने मोक्ष मार्ग के लिए कठोर तपश्चर्या रूप श्रम किया है इसलिए वे श्रमण कहलाते हैं।
“उपरोक्त गाथा के वर्णन से स्पष्ट है कि टीकाकत्री ने स्याद्वाद चन्द्रिका टीका के द्वारा आ० कुन्दकुन्द के नियमसार के अन्तर्गत गूढ़ रहस्यों को अनेकान्त नय निरूपण के द्वारा उजागर किया है। उनका यह हितकर मार्ग दर्षन कितना प्रशंसनीय है कि अत्यन्त कठिन भी नयचक्र को गुरु के प्रसाद से प्राप्त कर अपनी शक्ति अनुसार चारित्र का अवलम्बन लेकर अपने शुद्ध आत्मा का अभ्यास करना चाहिए।“ बिना चारित्र के शुद्ध आत्मतत्त्व का अभ्यास अशक्य है। एकान्त निश्चयावलम्बन से पंडित बनारसीदास ने ‘अर्ध कथानक’ में अपनी दुर्दशा की भावाभिव्यक्ति निम्न शब्दों में की है –
करनी को रस मिट गयो मिल्यो न आतम स्वाद।
भई बनारसी की दशा जथा ऊँट को पाद।।
इस जैनागम में आ० कुन्दकुन्द देव ने आत्मा के शुद्ध भाव की चर्चा की है (शुद्ध उपयोग अधिकार) निश्चय एवं व्यवहार नयों से शुद्ध स्वरूप एवं विभाव स्वभाव वर्णन किया है। उस निरूपण के हार्द को स्पष्ट करने हेतु माता जी द्वारा की गईं टीका बहुत महत्वपूर्ण है। उसमें उन्होंने द्रव्य-गुण-पर्यायों का विस्तार करके स्थिति स्पष्ट की है। शंका समाधान शैली में यह अवलोकनीय हैं। गाथा 49 की टीका का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है –
शंका – जीव द्रव्य तो त्रिकाल शुद्ध है उसकी गुण पर्यायें ही अशुद्ध है। इसलिए द्रव्यार्थिक नय से जीव द्रव्य शुद्ध है और पर्यायार्थिक नय से अषुद्ध है, ऐसा कहना चाहिए ?
समाधान – ऐसा नहीं है।
शंका – क्यों ?
समाधान – आर्ष ग्रन्थों में सुना जाता है ”गुण और पर्यायों वाला ही द्रव्य है।” ऐसा सूत्र का कथन है। इसका अर्थ है कि गुण-पर्यायों का समूह ही द्रव्य है। तन्मय है1। पुनः द्रव्य तो तीनों काल शुद्ध रहे और गुण-पर्यायें अशुद्ध रहें यह कैसे सम्भव है, क्योंकि गुण-पर्यायों के बिना द्रव्य का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता। इसलिए जब अथवा जिस नय से द्रव्य शुद्ध है तब उसी नय से गुण-पर्यायें भी शुद्ध है।“
आगे इसी प्रकरण में आलाप पद्धति’ के कथन को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है जिसमें नयों के भेद सोदाहरण निरूपित किए है।
इस कथन से जाना जाता है कि शुद्ध द्रव्यार्थिक और शुद्धपर्यायार्थिक इन दोनों नयों से सभी संसारी जीव सिद्धों के समान शुद्ध है, उनकी गुण पर्यायें भी सिद्धों की गुण-पर्यायों सदृश शुद्ध ही है। उसी प्रकार अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय से और अशुद्ध पर्यायार्थिक नयों से संसारी जीव अशुद्ध है उनकी गुण पर्यायें भी अशुद्ध ही है।
गुण धु्रव रूप और पर्यायें उत्पाद-व्यय हैं और इन सबका आधार द्रव्य ही है। इनके प्रदेश द्रव्य से भिन्न नहीं हैं। यहाँ कुन्दकुन्द स्वामी के प्रवचनसार की गाथा क्रमांक 129 को माता जी के कथन के समर्थन में उद्धृत करना अप्रासंगिक न होगा,
उप्पादट्ठिदि भंगा विज्जन्ते पज्जएसु पज्जाया।
दव्वे हि संतिणियदं तम्हा दव्वं हवे सव्वं।। 129।।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायों में विद्यमान है और पर्यायें द्रव्य में नियम से होती है अतः द्रव्य ही सब कुछ है वही उत्पाद रूप, व्यय रूप और ध्रौव्य रूप है।
गाथा 49 की टीका के अन्त में माता जी ने तात्पर्यार्थ रूप एक उपादेय विचार दिया है –
”सिद्धसद्षोऽहं इति मत्वा अहंकारवषेन प्रमादीभूय विशयकशायमयगृहस्थाश्रमे एव न आसक्तिर्विधेया।“
मैं सिद्ध समान हूँ ऐसा मानकर अहंकार के वश से प्रमादी होकर विषय कषायमय ऐसे गृहस्थाश्रम में ही आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।
जिन सिद्धान्तनुसार जीव के पाँच असाधारण भाव है। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक। इनमें से औदयिक भाव, बन्ध के कारण हैं किसी अपेक्षा से किन्हीं औदयिक भावों को मंगल का कारण भी कहा गया है यथा –
”औदयिकादि भावैः मंगलम्।“ (धवला पुस्तक 1. मंगलाचरण) पारिणामिक भाव निश्क्रिय हैं बन्ध और मोक्ष के हेतुओं में इनका हस्तक्षेप नहीं है शोक तीन भाव मोक्ष के हेतु हैं, यथा –
मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रौपषमिकक्षायिकाभिधाः।
बन्धमौदयिको भावो निश्क्रियो परिणामिकः।। पच्चाध्यायी।
‘स्याद्वाद चन्द्रिका में माता जी ने इनकी हेयोपादेयता वर्णित की है। आ० कुन्दकुन्द देव ने नियमसार प्राभृत की गाथा क्रमांक 50 के अन्तर्गत तत्त्व अर्थात् शुद्ध पारिणामिक भाव को उपादेय कहा है जो कि शुद्ध, ध्येयरूप है। पू० माता जी का एतद्विशयक स्पश्टीकरण दृष्टव्य है –
”पहले ही कहा है कि शुद्धनय से जीव को कर्म मल का सम्पर्क नहीं है अतः ये भी सभी सम्यक्त्व, चारित्र आदि (मनुष्य गति आदि प्रशस्त औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, मिश्रभाव) भाव हेय ही हैं, किन्तु अशुद्ध नय से हेय नहीं है क्योंकि व्यवहार नय से जीव के कर्म बन्ध है, अतः उसको दूर करने के लिए रत्नत्रय के अन्तर्गत होने से सम्यक्त्व आदि भाव उपादेय भी है। ऐसा जानकर एकान्त दुराग्रह न हो जावे इसलिए अपनी योग्यता के अनुसार नयों का आश्रय लेकर व्यवहार मोक्षमार्ग रूप साधन के बल से निश्चय मोक्षमार्ग का साधन करके सिद्धि प्रसाद पर आरोहण करना चाहिए।“
इस निरुपण से रत्नत्रय के अंगभूत तीनों सम्यक्त्व, संयमासंयम, सराग संयम, उपशम चारित्र, क्षायिक चारित्र की अपेक्षित उपादेयता नय विवक्षा से सिद्ध होती है। जिनागम को पढ़ने से पूर्व एवं सदैव ही नयों की निष्पक्षता आवश्यक है। ज्ञानमती माता जी जितनी दृढ़ता से व्यवहार एवं अशुद्ध नय का प्रतिपादन करती हैं उतनी ही दृढ़ता से निश्चय नय एवं शुद्धनय का पक्ष प्रस्तुत कर उसका समर्थन करती हैं। उन्हें दोनों नयों में मध्यस्थता है। किसी भी नय का आग्रह उन्हें छू तक नहीं गया है। आगम में यह कहा भी गया है कि जो व्यवहार और निश्चय को तत्वरूप से जानकर मध्यस्थ (निष्पक्ष) होता है यही शिष्य जिन देशना के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है।
मध्यस्थता सहित ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा जाता है ‘स्याद्वाद चन्द्रिकाकत्री’ सम्यग्ज्ञान के दोष संशय, विमोह, विभ्रम, वर्णित कर नय सापेक्षता स्थापित करती हैं। गाथा संख्या 51 की टीका पर दृष्टिपात करना योग्य है –
”उभय कोटि स्पर्शी ज्ञान को संशय कहते हैं, जैसे यह ठूंठ है या पुरुष। परस्पर सापेक्ष दोनों नयों से वस्तु का ज्ञान न होना विमोह है। जैसे गमन करते हुए पुरुष के तृण लग जाने पर ‘कुछ लग गया है’ ऐसा विकल्प होना या दिशाभ्रम हो जाना। अनेकान्तात्मक वस्तु को यह नित्य ही है या क्षणिक ही है ऐसा एकांत रूप से ग्रहण करना विभ्रम है जैसे सीप में चाँदी का ज्ञान कर लेना। इन तीनों दोषों से रहित जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान है।
आत्मस्वरूप या अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करना ही मोक्ष है। उसकी प्राप्ति हेतु व्यवहार और निश्चय दोनों की उपयोगिता प्रस्तुत कृति में गाथा सं० 52 में वर्णित करते हुए कहा गया है –
”इदमत्रतात्पर्यं-व्यवहारनयेन आप्तादिश्रद्धानं दृढीकृत्य निश्चयनयेन सिद्धसदृशनिजपरमात्मतत्त्वस्य भावनया स्वशक्तिमुपबृह्ंयता सता त्वया स्वानन्तचतु- श्यव्यक्त्यर्थं प्रयत्नो विधेयः।“
प्रकृत टीकांश से आगे हिन्दी अनुवाद में व्यवहार का यथायोग्य महत्व स्थापित करते हुए उसे निश्चय के साधन हेतु से वर्णित किया गया है। विरलेही प्राणी जिस आत्मतत्त्व को लक्ष्य में लाते हैं ऐसा वह अत्यन्त आश्चर्य का करने वाला आत्मतत्व सदा इस लोक में जयवन्त है।
भावार्थ – यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि महान् अध्यात्म शिरोमणि श्री कुन्दकुन्द देव इस ग्रन्थ के कर्ता हैं और यह नियमसार भी अध्यात्म ग्रन्थ है। फिर भी यहाँ पर उन्होंने सम्यग्दर्शन के तीनों लक्षण ही व्यवहारपरक किए हैं। जो व्यवहार सम्यग्दर्शन को हेय दृष्टि से देखते हैं उन्हें इन पर विचार करना चाहिए।
तथा कुन्दकुन्द से भी पहले गुणधर आचार्य हुए हैं उन्होंने भी व्यवहार परक ही लक्षण किया है (टीका देखें) खास बात यही है कि इस व्यवहार सम्यग्दर्शन से ही निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अतः इनमें परस्पर में साध्यसाधन भाव या संबंध है। व्यवहार सम्यग्दर्शन साधन है ओर निश्चय सम्यग्दर्शन साध्य है ऐसा समझना।
इस विषय में आगम में अनेकों प्रमाण हैं आगम प्रमाण तो निर्णय हेतु अन्तिम प्रमाण है। जहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान, तर्क आदि से निर्णय न हो सके वहाँ आगम ही निर्णायक प्रमाण होता है। आगम को न मानकर, सूत्रों को देखकर भी जो निश्चय-व्यवहार की साध्य साधकता को स्वीकार नहीं करता है उसका श्रद्धान मिथ्या ही है।
केवल शुद्ध अध्यात्म या निश्चय की चर्चा करने से ही सम्यक्त्व नही होता हैं साध्य-साधकता के विषय में पू० माता जी ने अनेकों उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, फिर भी ‘पंचास्तिकाय1’ के अंशों को यहाँ विशय की पुष्टि करने हेतु प्रस्तुत करना मुझे अभीष्ट प्रतीत होता है।
”निश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्वोद्दिष्टव्यवहारमोक्षमार्गनिर्देषोऽयम्।“
निश्चय मोक्षमार्ग के साधन रूप से पूर्वोदृष्टि व्यवहार मोक्षमार्ग का यह निर्देश है।
”व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम्।“
“व्यवहार मोक्षमार्ग से साधित निश्चय मोक्षमार्ग का यह स्वरूप दिखाया जाता है।“ कितना स्पष्ट है आ० अमृतचन्द्र जी का उल्लेख। इन दोनों गाथाओं की पूरी टीका अवश्य पठनीय है। यहाँ विस्तार के भय से नहीं लिखी है। पुनश्च पू० माता जी ने स्याद्वाद चन्द्रिका में स्थान स्थान पर इन नयों का साध्य साधन भाव सिद्ध किया है।
उपरोक्त भाव को आवश्यक क्रियाओं भक्ति, वंदना आदि के माध्यम से सिद्ध करते हुए माता जी ने लिखा है –
”तथा चाग्रे निश्चयपरमावष्यकाधिकारो वक्ष्यते, सोऽपिव्यवहारमन्तरेण कथं संभवेत्।“
आगे निश्चय परमावश्यक अधिकार कहा जावेगा, वह भी बिना व्यवहार आवश्यक क्रिया के कैसे संभव होगा। अर्थात् नहीं होगा। गाथा क्रमांक 79 और व्यवहार चारित्राधिकार का तात्पर्य लेखिका ने बहुत ही निर्देशक पद्धति से प्रस्तुत किया है। अनेकान्त से ही सिद्धि है। का हिन्दी अनुवाद अनुशीलन करने योग्य है।
”यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जो लोग व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त करना चाहते हैं वे जिन शासन से बहिर्मुख अपनी वंचना करने वाले ही हैं। ऐसा जानकर सर्व तात्पर्य से भेद चारित्र का पालन करके हे भव्य जीवो। तुम लोग सिद्धि पत्तन की निकट कर लेवो।“
नय चक्र में यही बात स्याद्वाद चन्द्रिका टीका के उपरोक्त अंश के समर्थन हेतु अवलोकनीय है –
णो ववहोरण विणा णिच्छय सिद्धी कया वि णिद्विट्ठा।
साहणहेऊ जम्हा तम्हा य सो भणिय ववहारो।।माइल्ल धवल कृत।।
यहाँ स्पष्टीकरण है कि निश्चय का साधन हेतु होने से ही व्यवहार संज्ञा होती है।
गाथा सं० 88 की टीका के अन्तर्गत बृहत्प्रतिक्रमण के“उम्मग्गं परिवज्जामि- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रलक्षणो जिनोक्तस्वर्गापवर्गमार्गः ततोऽन्य एकान्तवादि परिकल्पित उन्मार्गः“वाक्यांश के आशय को स्पष्ट करते हुए पू० माता जी ने युक्ति, उदाहरण और तर्क द्वारा इसी विषय को पुष्ट किया है, उसमें नयों की अपेक्षा से निम्न भाव गर्मित हैं –
निश्चय का साधक होने से व्यवहार रत्नत्रय जिनमार्ग ही है उन्मार्ग नहीं। ऊपर संस्कृत टीका में स्वर्ग और मोक्ष दोनों को प्रदान करने वाला मार्ग कहा गया है। भक्तामर स्तोत्र में भी भगवान की दिव्य ध्वनि का ”स्वर्गापवर्गगममार्गविमार्गणेष्ट: सद्धर्मतत्त्व कथनैकपटुस्त्रिलोक्या।“ के अनुसार यही भाव व्यक्त किया गया है।
अर्थात् स्वर्ग को प्रदान करने वाला एवं परम्परा से मोक्ष का साधक व्यवहार धर्म भी सद्धर्म है, जिनमार्ग है। जैसे कुम्हार के चक्र, चीवर, दण्ड आदि के बिना घड़ा आदि नहीं बन सकता उसी प्रकार व्यवहार के अभाव में निश्चय की सिद्धि नहीं हो सकती इसलिए व्यवहार और निश्चय की परस्पर तीव्र मित्रता ही जानकर अपनी पदवी अनुसार हम सभी को व्यवहार रूप जिन शासन में प्रवृत्ति विधेय है। पुनः मुनि अवस्था में निश्चय रत्नत्रय अथवा निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर नयातीत अवस्था प्राप्त करनी योग्य है। वही परमार्थ प्रतिक्रमण, कारण समयसार होता है।
यहाँ माता जी के कथन समर्थन में दो निम्न आगमोल्लेख करना चाहूँगा।
स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां यो भावयति अहरहः स्वमिहोपयुक्तः।
ज्ञानक्रियापरस्परतीव्रमैत्री-पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः।।
अर्थ – स्याद्वाद के कौशल और सुनिष्फल संयम के द्वारा जो अपनी आत्मा को तल्लीन होकर भाता है और ज्ञान एवं क्रिया की मित्रता अर्थात् दोनों की समिष्ट सम ने जिसे पात्र बना दिया है ऐसा कोई एक (विरला) इस भूमिका को प्राप्त करता है। यहाँ स्पष्ट है कि ज्ञान का संबध स्याद्वाद से है तथा क्रिया का तात्पर्य दृढ़ मुनिचर्या से है।
2.कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खातिक्कंतो पुण भणिदो जो सो समयसारो।।
अर्थ – कर्म जीव में बंधा है या नहीं बँधा है यह नयपक्ष है। जो समयसार बतलाया गया है वह तो पक्षातिक्रान्त है। (न वहाँ व्यवहार का प्रयोग है न निश्चय का) प्रस्तुत पूर्वोक्त साध्य साधक भाव को स्याद्वाद चन्द्रिका में प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना एवं चारित्र आदि के प्रकरणों में शुद्धपयोग रूप शुक्लध्यान संभव न होने से साधुवर्ग एवं श्रावक वर्ग सभी के लिए व्यवहार को शरण रूप में प्रतिपादित करती हैं। प्रायः भावार्थ में निश्चय आराधना आदि रूपों को ही परम उपादेय स्वीकारती है निम्न वाक्य ध्यान देने योग्य है,
”पुनः निश्चयालोचनासिद्ध्यर्थं भावना भावनीया निरन्तरं भवता।“
यहाँ यह साफ तौर पर प्रकट है कि जो मात्र व्यवहार में डूबे हैं क्रिया कांड में ही मग्न हैं तथा निश्चय का लक्ष्य जिनको नहीं है वे व्यवहाराभाषी हैं सम्यक्त्व से दूर हैं। निश्चय मोक्षमार्ग की, स्वात्मपरिणाित की जिनकी भावना निरन्तर है उनका व्यवहार वस्तुतः व्यवहार है नियमसार टीका में सर्वत्र यही अभिप्राय है।
टीकाकत्री आर्यिका ज्ञानमती माता जी ने नियमसार के मुख्य अभिधेय निश्चय मोक्षमार्ग, अभेद रत्नत्रय या निर्विकल्प ध्यान को ही अंतिम सारांश रूप में स्थापित किया है। कहीं भी व्यवहार को पृथक से मोक्षमार्ग नहीं कहा है। इसकी सीमा मात्र निश्चय तक पहुँचने की है। साक्षात् मोक्षमार्ग तो निश्चय मोक्षमार्ग ही है।
इसीलिए चतुर्थ, पच्चम, एवं स्वस्थान अप्रमत्त व्यवहार मोक्षमार्गीय गुणस्थानों को मोक्षमार्ग नहीं कहा गया है। मोक्षमार्ग का अंशमात्र प्रतिपादित किया है जो कि कुन्दकुन्द के निश्चयपरक व्याख्यान का सार है। माता जी ने गाथा संख्या 4 की टीका में प्रवचनसार जी के आधार पर इसी आशय सो निम्न वाक्य लिखा है –
”अथवा प्रमत्ताप्रमत्त मुनीनामपि मोक्षमार्गो व्यवहारनयेनैव परम्परया कारणत्वात्।“
अथवा छठे सातवें गुणस्थान कत्री प्रमत्त और अप्रमत्त मुनियों के भी मोक्षमार्ग व्यवहार नय से ही है क्योंकि वह परम्परा से (मोक्ष का) कारण है। निश्चय से तो अयोग केवलियों के अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रय परिणाम ही मोक्षमार्ग है। क्योंकि वह साक्षात् अनन्तर क्षण में मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है अथवा भाव मोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाशा में क्षीण कषायकत्री मुनि का अन्तिम समयकत्री परिणाम भी निश्चय मोक्षमार्ग है। इसको उपादेय करके भेद रत्नत्रय स्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिए।
अध्यात्म में मूल दो नय हैं। निश्चय और व्यवहार। नय (नयन, नेत्र) का पर्यायवाची होने से चक्षु के समान है। चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। वह वर्ण और आकार को बिना स्पृष्ट किये असंलग्न रहकर ग्रहण करती है। उसी प्रकार नय भी ज्ञेय वस्तु को पकड़ते नहीं है। नय तो जानने के लिए हैं न कि पक्ष ग्रहण के लिए।
एक समय में जो नय प्रयोजनवान होता है वह अन्य समय में अप्रयोजनीय होता है। निश्चय नय पदार्थ के मूल तत्व, शुद्धतत्व, पर संबध रहित तत्व को देखता है एवं व्यवहार नय पर के आश्रय सहित, मिले हुए संबंधात्मक रूप को विषय करता है। व्यवहार नय भी सत्य है किसी अवस्तु का कथन नहीं करता। यह किसी व्यक्ति के बाहरी फोटो के समान है।
निश्चय नय तथ्य है। किसी मनुष्य के अन्तरंग एक्सरे फोटो के समान दोनों का विषय विरुद्ध है पर सापेक्षता से दोनों ही अविरुद्ध हैं। एक ही वस्तु का विवेचन गौण मुख्य कल्पना से ज्ञाता करता है किन्तु नयों की निष्पक्षता पथ्य है जिसका अत्यन्त महत्व है।1 आचार्य अमृतचन्द्र जी ने गोपिका के घी निकालने हेतु मथानी के रस्सी के छोरों को क्रमश आकृषित एवं ढीला करके किये गये प्रयत्न के समान जैनी नीति को बताया है।
अर्थात् एक ही नय को सदैव ग्रहण नहीं किया है, मुख्य किये रहने से ही तत्व की प्राप्ति नहीं होती है। जिस समय निश्चय नय को मुख्य करते हैं तो व्यवहार को गौण करते हैं। तथा अनन्तर समय में निश्चय को गौण और व्यवहार को मुख्य करना ही पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि कोई नय सर्वथा न तो उपादेय है न हेय। प्रयोजन से ही सत्यार्थता अथवा असत्यार्थता होती है। जब उभय नय कथ्य वस्तु का ही कथन करते हैं तब झूठ का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
नय तो शब्द है शब्द के अस्तित्व होने में झूठ – सच का प्रश्न ही नहीं उठता। एक नय की अपेक्षा दूसरा नय असत्यार्थ उल्लिखित किया जाता है। निश्चय की अपेक्षा व्यवहार असत्यार्थ है तो व्यवहार की अपेक्षा निश्चय भी असत्यार्थ है। किन्तु प्रमाण, जो दोनों का जनक है, की अपेक्षा दोनों ही सत्य है। किसी अकेले नय से काम नहीं चलता। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति सभी जिनेन्द्र देव कथित अनेकान्तात्मक सम्पूर्ण नयात्मक निरूपण को निःशंक होकर सत्य मानता है यह सम्यक्त्व का निःशंकित अंग है कहा भी है,
सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञैः।
किमु सत्यमसत्यं वा, न जातु शकेति कर्तव्या।। 23।।
उपरोक्त सम्पूर्ण विषयों की चर्चा सहित निष्पक्ष नय निरूपण पूज्य माता जी का ध्येय रहा है। वे पाठकों को नियमसार की विषय वस्तु को स्पष्ट दिखाना चाहती है। यहाँ मैं उनके कुछ शब्दों को हिन्दी अनुवाद के रूप में प्रस्तुत करना अभीष्ट समझता हूँ ताकि नयों के विषय में भ्रम न रहे। उनका समीचीन स्वरूप बोध हो सके। गाथा क्रमांक 165 की टीका से उद्धृत अंश निम्न है –
”इसी का विस्तार करते हैं यहाँ पर (अध्यात्म में) व्यवहार नय पराश्रित है और निश्चय नय अपने आश्रित है। इसी विवक्षा से यह कथन किया गया है। इसलिए अपने से भिन्न अनन्त सिद्ध जीव, अनन्त संसारी जीवों का समूह पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य तथा उनकी गुण पर्यायें ये सब ‘पर’ शब्द से कहे जाते हैं।
ज्ञान-दर्शन और आत्मा पर को जानते हैं, देखते हैं, प्रकाशित करते है, यह कथन भी पर के आश्रित होने से पर निमित्त की अपेक्षा रखने से पराश्रित हैं। ऐसा व्यवहार नय ग्रहण करता है परन्तु यह नय अपनी मूल आत्मा को कदाचित् ग्रहण नहीं करता जैसे कि चक्षु इन्द्रिय रस को ग्रहण नहीं करती है उसी प्रकार निश्चय के द्वारा अपनी आत्मा से अतिरिक्त कुछ भी ग्रहण नहीं होता जैसे कि रूप को ग्रहण करने में रसना इन्द्रिय व्यापार नहीं करती।
तात्पर्य यह हुआ कि यहाँ पर व्यवहार नय असत्यार्थ है, मिथ्या है या असत्य है ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए। बल्कि वह अपने विषय को कहने में समीचीन (सत्य) ही है। ऐसा जानकर परस्पर विरोधी भी नयों के समीचीन स्वरूप को समझकर मैत्री को स्थापित करते हुए आपको अनेकान्त से वस्तु स्वरूप को समझना चाहिए।“
व्यवहार के अन्तर्भेद उपचरित असद्भूत व्यवहार के प्रयोग का निम्न उदाहरण स्याद्वाद चन्द्रिका से यहाँ प्रस्तुत है –
”यद्यपि सिद्धाः परमात्मानः सर्वथाशक्तिमन्तः स्वाधीनास्तथापि उपचरितासद्भूत व्यवहारनयेन अनेनैव श्री कुन्दकुन्ददेवकथनानुसारेण च कथचित् परद्रव्याश्रिता अपि गीयन्ते।“
यद्यपि सिद्ध भगवान सर्वशक्तिमान हैं, स्वाधीन है। तथापि उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से और श्री कुन्दकुन्द देव की इसी कथानुसार वे कथंचित् पर के आश्रित भी कहे जाते हैं।
जिन पदार्थों का सम्बन्ध नहीं है बिल्कुल पृथक् हैं उनका भी अन्य पदार्थों से सम्बन्ध बताना उपचार कहलाता है जैसे घी का घड़ा। इसी प्रकार पर द्रव्य सिद्ध भगवान से पृथक् द्रव्य है उसके आश्रित सिद्ध भगवान को निरूपित करना उपचार है स्वरूप भिन्न होने से असद्भूत है। यह नय भी आ० कुन्दकुन्द को स्वीकार है।
माता जी ने भ्रम निवारण हेतु प्रकृत स्थल पर नय विवक्षा को खोल दिया है ताकि नियमसार के हार्द को हृदयंगम किया जा सके। माता जी ने नय निरूपण में गाथा 19 की टीका में आलाप पद्धति के अनुसार द्रव्यार्थिक नय के 10 भेदों का तथा पर्यायर्थिक नय के छह मेदों का उल्लेख किया है उनका नामोल्लेख मात्र पाठकों हेतु सार रूप में यहाँ किया जाता है।
‘स्याद्वाद चन्द्रिका’ टीका में माता जी ने यथास्थान स्याद्वाद रूप सप्तभंगी नय का भी प्रयोग पदार्थ निर्णय हेतु किया है वे सप्तभंग निम्न प्रकार हैं।
1. स्यादस्ति
2. स्यान्नास्ति
3. स्यादस्तिनास्ति
4. स्यादवक्तव्य
5. स्यादस्त्यवक्तव्य
6. स्यान्नास्त्यवक्तव्य
7. स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य।
इनका स्वरूप प्रस्तुत टीका ग्रन्थ व अन्य ग्रन्थों से ज्ञातव्य है। यहाँ प्रकृत उपयोगी लक्षण ज्ञातव्य हैं इनसे जैन दर्शन के महत्वपूर्ण अंग अनेकान्त एवं उसके परिवेश का स्वरूप अवबोधन होगा। कुछ पुनरावृत्ति भी हो तो दोष नहीं है।
1. अनेकान्त – यदेव तत् तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिश्पादकपरस्परविरुद्ध “क्तिद्वय- प्रकाशनमनेकान्तः। (समयसार आत्मख्याति परिषिष्ट)
जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व की निष्पादक (उत्पन्न करने वाली, सिद्धि करने वाली) परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन अनेकान्त है।
2. स्याद्वाद – स्यात् कथचित् विवक्षितप्रकारेणनेकान्तरूपेण वदनं वादो जल्पः कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वादः। (समयसार तात्पर्यवृत्ति स्याद्वाद अधिकार) स्यात् अर्थात कथचित् या अपेक्षा से विवक्षित प्रकार से अनेकान्त रूप से, वदना बोलना, वाद करना, जल्प करना, प्रतिपादन करना स्याद्वाद है।
3. नय (1) अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः।
विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय है।
(2) वस्तुन्यनेकान्तात्मनि हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य प्रापणप्रवणप्रयोगो नयः।
अनन्त धर्मात्मक वस्तु में हेतु की मुख्यता से साध्य विशेष को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग नय है।
4. सप्तभंगी – एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेश्टेन च प्रमाणेनाविरुद्धः विधिप्रतिशेधकल्पना सप्तभंगी विज्ञेया। (तत्त्वार्थ राज वर्तिका)
प्रश्न के अनुसार एक वस्तु में प्रमाण से अविरूद्ध विधि प्रतिशोध धर्मों की कल्पना सप्तभंगी है।
ग्रन्थ विस्तार के भय से यहाँ नाम मात्र लिखे हैं। सोदाहरण न्याय ग्रन्थों से है। कोमलता गुण से यह टीका आशोर्वाद रूप गुण प्रदान करती है जैसे चांदनी का स्पर्श कोमल एवं सुखद होता है तद्नुरूप ही यह प्रभावकारी है। जैसे चन्द्रिका के प्रकाश में वस्तुओं का सम्यक् परिज्ञान होता है उसी प्रकार स्याद्वाद चन्द्रिका से अर्थावबोध सुगमता से होता है।
जैसे नयनों का संबंध प्रकाश से होता है प्रकाश के द्वारा, चांदनी के द्वारा नेत्र इन्द्रियां अपना कार्य करने में सरलता, सहजता से ही समर्थ होती हैं। उसी प्रकार स्याद्वाद चन्द्रिका से नय ज्ञान को बल मिलता है। नय सिद्धि हेतु यह टीका अत्यंत उपयोगी है। अनेकान्त एवं स्याद्वाद नय का विषय अत्यंत कठिन है।
नयचक्र के ज्ञान के बिना, उसके सही सटीक प्रयोग के बिना व्यक्ति अपनी ही हानि करता है। इसमें अर्थात नय प्रयोग में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है। सावधानी यहां यही है कि नयों के विषय में निष्पक्षता हो। आ० अमृतचन्द्र जी ने नयचक्र के असमीचीन प्रयोग के खतरे से निम्न आर्या में सावधान किया है,
अत्यन्तनिषितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रं।
खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानां।।
स्याद्वाद चन्द्रिकाकत्री ने भी सर्वत्र इसी का ध्यान रखते हुए अर्थात् जिनेन्द्र भगवान का अत्यंत तीक्ष्ण धार वाला नयचक्र उसको धारण करने वाले अज्ञानी प्रयोक्ता का मस्तक काट देता है, उसकी अत्यंत हानि करता है, दृष्टिकोण सम्मुख रखते हुए नयप्रयोग कौशल का पाठ सिखाया है।
नयों की सीमा है यह तो शब्द रूप है। शब्द मात्र संकेत करने वाले होते हैं। जितने शब्द हैं उतने ही नय हैं1(अगले पृष्ठ पर)।
सभी विकल्पात्मक हैं। नियमसार की प्रस्तुत टीका में व्यवहार से निश्चय और निश्चयोपरान्त निर्विकल्पता, निश्चय समाधि निश्चय आवश्यक आदि का विधान माता जी ने सुष्ठु स्पष्ट किया है।
नय शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार है,
अर्थात् जो किसी एक लक्ष्य या वाच्य पदार्थ पर ले जाता है वह नय है। स्याद्वाद चन्द्रिका वस्तुतः स्याद्वाद शैली में नयों के प्रयोग द्वारा पदार्थ के विभिन्न पहलुओं, पाश्वों का निर्णय कराने की ओर अग्रसित करती है। इस टीका को नय समूह की विस्तारक या नयचक्र का पल्लवन कहना अधिक उपयुक्त होगा।
जिस नियमसार के अध्यात्म रस में आ० कुन्दकुन्द देव ने पाठकों को डुबोने का लक्ष्य रखा है उस रस के स्थायी भाव, उद्दीपन भाव और संचारी भावों की समश्टि कर उसे आनंद विभोर करने का कार्य स्याद्वाद शैली से ज्ञानमती जी ने सफलता के साथ सम्पन्न किया है।
मूल ग्रंथ में कहां क्या छिपा है उस पर माता जी की दृश्टि सहजता से ही पड़ी है, उसका प्रकटीकरण बिना नय विवक्षा से संभव नहीं था। इसके नामकरण में भी यही उद्देश्य प्रकट होता है। जैसे किसी वस्तु को चार आंखों से देखा जाता है उसके सभी पाष्वों को घुमा फिराकर अवलोकित किया जाता है ऐसे ही पदार्थवलोकन इसमें किया है।