(१७८)
माता को भेजा समाचार, और नगर अयोध्या सजवाया।
रत्नों के तोरणद्वार बने, भू पर था स्वर्ग उतर आया।।
बन उपवन लगे महकने सब, वसुधा फूलों सी मुस्कायी।
सावन सी चली समीर और, हो हरी हरी भू हरषायी।।
(१७९)
अब राज्य विभीषण को देकर, लंका नगरी से चले राम।
स्मृतियाँ ताजी हो आयीं, उस रस्ते से निकला विमान।।
सीता के संग बातें करते, जब निकट अयोध्या के पहुँचे।
देखा आते भरतेश्वर को, श्रीराम तुरंत नीचे उतरे।।
(१८०)
भरतेश्वर ने करजोड़ राम के, चरणों की फिर पूजा की।
श्रीराम भुजाओं में भरकर, आलिंगन में ले लिया तभी।।
वह भ्रातमिलन की शुभबेला, सचमुच में बड़ी निराली थी।
पहले ना ऐसा कभी हुआ, ऐसी न कहीं भी लाली थी।।
(१८१)
श्रीरामलखन और भरत भ्रात,पुर में प्रवेश जब करते हैं।
आ गया स्वर्ग मानों भूपर, सब ऐसा स्वागत करते हैं।।
उस दिवस अयोध्यावासी की, जनता के थे सौभाग्य जगे।
तुम एक चांद की कहते हो, उस दिन थे चौदह चांद लगे।।
(१८२)
माताएं भी निजमहलों की, छत से उन सबको देख रही।
जब आये निकट महल के वे, मंगल आरति लेकर उतरी।।
हो गयी निहाल—निहाल सभी, नैनों से अश्रू उमड़ पड़े।
कर पेर—पेर कर प्यार किया, जब माताओं से गले मिले।।
(१८३)
इस दिन की बात नहीं पूछो, जैसे मुरदों को जान मिली।
ह्र चुभन हंसी हर घुटन हंसी, हर आँसू में मुस्कान खिली।।
सीता को गले लगाया जब, सारी खुशियाँ मिल गयीं उन्हें।
उसको आशीष दिये लाखोंं, सारे सुखजग के मिलें तुम्हें।।
(१८४)
अब भरत सोचते हैं मन में, स्वारथ का सारा नाता है।
वैरागी बने बिना जीवन, बेकार बीतता जाता है।।
अब राम सम्भालें राज्य यहाँ, मुझको अब दीक्षा लेने दे।
मनके विचार सुन घबड़ायीं, माँ रामचन्द्र से बोलीं ये।।
(१८६)
रघुवर तब बोले भ्राता से, किस कारण से घबराते हो ?।
क्यों उदासीन से लगते हो हर, समय मौन दिखलाते हो?।।
मैं छत्र लगाऊँगा तुम पर, शत्रुघ्न चमर भी ढोरेगा।
ये चक्र सुदर्शन दास बने, लक्ष्मण तेरा मंत्री होगा।।
(१८७)
समझाकर बहुत प्यार से फिर, वनक्रीडा हेतु उसे भेजा।
सीता और संग विशल्या के, सैकड़ों रानियों ने घेरा।।
सबके संग सुख से बैठे थे, पर तभी एक गजराज वहाँ।
उन्मत्त हुआ आया लेकिन, वह देख भरत को शांत हुआ।।
(१८८)
शुभ योग उदय से तभी वहाँ, आ गये केवली कुलभूशण।
सब राजा प्रजा सहित बैठे, श्री रामप्रभू करके दर्शन।।
बोले भगवन!’ गजराज संग, भरतेश्वर का क्या रिश्ता है।
‘‘ये ऋषभदेव के समय हुए, दो भ्राताओं का किस्सा है।।’’
(१८९)
ये दोनों शिष्य मारिचि के, युग—युग से साथ चले आये।
इक क्षण की मायाचारी से, गज बनकर इस जग में आये।।
दूजे भाई ने किसी समय, असिधाराव्रत को पाला था।
वे रहे हजारों रानीसंग, फिर भी ब्रह्मचर्य निभाया था।।
(१९०)
इसलिए आज भी भरत हृदय को, भोग नहीं रुचिकर लगते।
अरु कामदेव के सभी काम, नाकाम हुये से हैं लगते ।।
ये रुकने वाले चरण नहीं, इनको वैराग्य समाया है।
दीक्षा लेकर बन गये यती, नहिं रोक कोई भी पाया है।।