ज्ञान और कर्म
मनुष्य के रूप में मिले जीवन को सार्थक करना है तो यह आध्यात्मिक ऊर्जा से ही संभव हो सकता है। यही ऊर्जा हमारी नियति से साक्षात्कार का सेतु बनती है। मनुष्य जीवन की सार्थकता में कर्म की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। साधना और कर्म की संयुक्त शक्ति से ही मनुष्य के भीतर भक्ति और आध्यात्मिक प्रेरणा का संचार होता है। लोग यह भी सोच सकते हैं बिना ज्ञान-कर्म साधना किए ही कुछ लोगों में भक्ति कैसे जगी ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि यह उन लोगों के पूर्व-कृत कर्म की प्रतिक्रिया है। अर्थात पूर्वजन्म में उन्होंने जो ज्ञान और कर्म की साधना की थी, उसकी फलश्रुति रूप में इस जीवन में ज्ञान और कर्म साधना बिना किए ही उन्हें भक्ति मिली है। एक धारणा यह भी है कि भक्ति के साथ ज्ञान और कर्म का कोई संपर्क नहीं है, किंतु यह सही नहीं। भक्ति कभी भी ज्ञान अर्जित या कर्म वर्जित नहीं हो सकती।
भक्ति, वस्तुतः ज्ञान और कर्म का समन्वय है। इसलिए भक्ति में ज्ञान और कर्म की पराकाष्ठा रखनी होगी। ज्ञान और कर्म ठीक गंगा-यमुना जैसे हैं। इनके संगम से जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है। जिसके भीतर भक्ति जगी है, उसे उपयुक्त कार्य में संलग्न होना ही होगा। कार्य स्वयं उसका चुनाव कर लेगा। यदि वह स्वयं नहीं समझ सके कि उसे क्या कार्य करना है तो वह किसी से परामर्श लेगा। इस पूरी प्रक्रिया में उसे उस कार्य की प्रक्रिया में रत रहना ही होगा। चूंकि उसे इस कार्य की प्रेरणा आंतरिक रूप से या नियति की नीति से मिली है तो वह उसमें सफलता भी पाएगा।
किसी भी नियत कार्य में संलग्न हो जाने के उपरांत हमें यह अनुभूति होने लगती है कि हम उसे करने में सक्षम हो सकते हैं। जबकि आरंभ में वही कार्य दुष्कर लगता है। इसलिए, जीवन के संकेतों को समझते हुए कार्य करने में संकोच मत करो। अपने कार्य में सिद्ध होने से ही ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है और हम दूसरों के मार्गदर्शक बनकर उनका पथ प्रशस्त करने में सक्षम हो पाते हैं।
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