आत्मख्याति टीका में प्रयुक्त ‘क्रमनियमित’ विशेषण का अभिप्रेतार्थ
– अनिल अग्रवाल ,दिलशाद गार्डन, दिल्ली
समयसार के ‘सर्वविशुद्धज्ञान’ अधिकार में गाथा ३०८-३११ की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने परिणामों या पर्यायों के लिये ‘क्रमनियमित’ विशेषण का प्रयोग किया है। आत्मख्याति व्याख्या का यह वाक्य है। जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पाद्यमानो जीव एव, नाजीवः, एयमजीवोऽषि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पाद्यमानोऽजीव एव, न जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामः सह तादात्म्यात् कंकणादिपरिणामैः कांचनवत्। इसका शब्दानुवाद है: प्रथम तो, जीव है सो क्रमनियमित अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं; इसी प्रकार, अजीव भी क्रमनियमित अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं; क्योंकि सभी द्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य होता है, जैसे कि स्वर्ण का कंगन आदि अपनी पर्यायों के साथ।
प्रश्न यह है कि ‘क्रमनियमित परिणाम’ से यहाँ क्या अभिप्राय है? आत्मख्याति के जो अनुवाद या व्याख्याएं देखने में आई हैं उनमें इसका कोई स्पष्ट एवं युक्तियुक्त अर्थ नहीं मिलता, या फिर उक्त विशेषण को ही नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। उधर, पिछले कोई पचास वर्षों से कुछ एक लोग ऐसी मान्यता बनाए हुए हैं कि इसका अर्थ ‘क्रमबद्ध पर्याय’ है जिस अर्थ की द्रव्यानुयोग में प्रतिपादित वस्तुस्वरूप के साथ कोई संगति बैठती नहीं दिखाई देती; और फिर, ऐसा भी प्रतीत होता है कि आचार्यश्री के कृतित्व’ की समग्रता के आलोक में भली-भाँति जाँचे-परखे बिना ही, उक्त मान्यता को अन्तिम रूप से स्वीकार कर लिया गया है। प्रकृत विशेषण के सही भावार्थ तक पहुँचना, इसलिये और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है। प्रस्तुत लेख आचार्य अमृतचन्द्र के अभिप्रेतार्थ तक पहुँचने का एक निष्पक्ष प्रयास है।
परिणामों या पर्यायों की क्रमिकता:
के लिये आगम में अनेक पर गुणको और पयों को क्रमप्रवृत//गया है। तात्पर्य यह है कि किसी भीम के अनेक गुण तो उसमें गवत् अर्थात् एकसाथ रहते हैं कि अनेकानेक पर्यायें काल की अपेक्षा क्रमशः यानी एक के बाद एक होती है (चूंकि विवक्षित क्षण में की जो अवस्था है वही तो उसकी तत्क्षण पर्याय है, इसलिये द्रव्य की किसी भी क्षण एक ही पर्याय होनी सम्भव है। यही आशय प्रवचनसार गामा १० की तत्वदीपिका टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने व्यक्त किया है। वस्तु पुनरुतासामान्यलक्षणे द्रव्ये सहभाविविशेषलक्षणेषु पुणेषु क्रमभाविविशेषलक्षणषु पययिषु व्यवस्थितमुत्पादव्ययप्रौव्यमयास्तित्वेन निवर्तितनिमध्यवृत्ति अर्थात् वस्तु है यो ऊर्ध्वतासामान्यस्वरूप द्रव्यस्वभाव में, सहभावी विशेषस्वरूप गुणों में तथा क्रमभावी विशेषस्वरूप पर्यायों में रहने वाली है और उत्पादव्ययधौव्यमय अस्तित्व से बनी हुई है।
इस प्रकार, ‘पर्याय’ और ‘क्रम’, इन दोनों शब्दों के बीच एक ‘साहचर्य’ सा चला आया है: इस सन्दर्भ में जिस भाव को ‘क्रम’ शब्द सूचित करता है, वह है : कालापेक्ष, उत्तरोत्तरता। आगे चलकर हम देखेंगे कि (सन्दर्भ-विशेष के चलते) उक्त दोनों शब्दों के बीच इस ‘साहचर्य’ के अभ्यस्त से हो जाने के कारण ही हम भूल कर बैठे हैं; जब आचार्यश्री ने एक अन्य सन्दर्भ में पर्यायों क्के लिये ‘क्रमनियमित’ विशेषण का प्रयोग किया, तो (उस सन्दर्भ की विशिष्टिता पर गौर न करते हुए) अपने अभ्यास/आदत के वश ही हमने उसका अर्थ लगा लिया, और अपनी इस असावधानी के फलस्वरूप, उन महान विद्वान के शब्दों का भाव समझने में हम असमर्थ रहे।
आचार्यश्री के प्रकृत वाक्य का सन्दर्भ :
अर्थ : जो वस्तु जिस स्वकीय द्रव्य में और जिस गुण में वर्तती है, वह अन्य द्रव्य में और अन्य गुण में संक्रमण को प्राप्त नहीं होती अर्थात् अन्यरूप नहीं पलटती। वह वस्तु जब अन्य में संक्रमण नहीं करती तो अन्य द्रव्य को उपादान-रूप-से कैसे परिणमा सकती है? (और, इसलिये, अन्य द्रव्य की कर्ता कैसे हो सकती है, क्योंकि यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामो भवेत् तु तत्कर्मः इस नियम के अनुसार, निश्चय से केवल उपादान ही कर्ता हो सकता है?)
इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं: “इस लोक में जो कोई, जितनी वस्तुएं हैं वे सब अपने चेतनस्वरूप अथवा अचेतनस्वरूप द्रव्य में और गुणों में सहज स्वभाव से अनादि से ही वर्त रही हैं; वस्तुस्थिति की इस अचलित सीमा को तोड़ना, उसका उल्लंघन करना शक्य है। इसलिये जो वस्तु जिस द्रव्यरूप और जिन गुणोंरूप अनादि से है, वह उसी द्रव्यरूप और उन्हीं गुणोंरूप सदा रहती है, द्रव्य से द्रव्यान्तररूप और गुण से गुणान्तररूप उसका संक्रमण नहीं हो सकता।”
दरअसल, प्रत्येक द्रव्य में पाए जाने वाले ‘अस्तित्व’ स्वभाव की ही यह विशेषता है कि जो द्रव्य जिस स्वभाव को प्राप्त है, वह उससे कभी भी च्युत नहीं होता; आलापपद्धति के रचनाकार आचार्य देवसेन के शब्दों में : ‘स्वभावलाभादच्युतत्वादस्तिस्वभावः ।” यही अभिप्राय प्रवचनसार, ‘ज्ञेयतत्वप्रज्ञापन अधिकार’ में गाथा ९९ और उसकी तत्त्वप्रदीपिका टीका में व्यक्त किया गया है: ‘स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति द्रव्यम्’ अर्थात् स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से द्रव्य ‘सत्’ है, अस्तिस्वरूप है।
यदि कोई प्रश्न करे कि विकारी परिणमन करने वाले द्रव्यों की यानी पुद्गलों और जीवों की द्वि-अणुक आदि एवं मनुष्य आदि वैभाविक पर्यायों के उत्पन्न होते हुए भी, क्या द्रव्य से द्रव्यान्तरण नहीं होता? ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार में ही आचार्य अमृतचन्द्र का उत्तर मिलता है कि नहीं; द्वयणुकादि तथा मनुष्यादि वे पर्यायें तो कदाचित्क (कभी, किसी समय होने वाली) अर्थात् अनित्य हैं, अतः उत्पन्न हुआ करती हैं; किन्तु द्रव्य तो अनादि-अनिधन या त्रिकालस्थायी होने से उत्पन्न नहीं हो सकता, तो फिर द्रव्यान्तरण कैसे हो सकता है? और फिर,पर्याय से पर्यायान्तरण होते हुए भी, पर्यायों का उत्पाद-व्यय होते हुए भी के पर्यायें द्रव्यस्वभाव का कभी उल्लंघन नहीं करतीं: “यौ च कुम्मण्डियो सर्गसंहारौ सैव मत्तिकायाः स्थितिः, व्यतिरेकाणामन्वयानतिक्रमणात् अर्थात जो कुम्भ का सूजन/उत्पाद है और मत्पिण्ड का संहार/व्यय है, वही मक्तिका की स्थिति/धौव्य है, क्योंकि व्यतिरेक अर्थात् भिन्न-भिन्न रूप पययिं कभी अन्वय अथवा द्रव्यसामान्य का अतिक्रमण नहीं करतीं (प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वज्ञापना ाकार, गाथा १००, तत्त्वप्रदीपिका टीका)।
ऊपर दिये गए आगम-प्रमाणों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि :
(क) द्रव्य से द्रव्यान्तरण, (ख) गुण से गुणान्तरण, तथा (ग) द्रव्यपरिणामों द्वारा द्रव्यस्वभाव का अतिक्रमण,
इन तीनों ही घटनाओं को अशक्यता/असंभवता प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव में अनादि से ही निहित है। प्रवचनसार में गाथा ९५ द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द यही अभिप्राय व्यक्त करते हैं: “स्वभाव को छोड़े बिना, जो उत्पाद-व्यय-धौव्यसंयुक्त है तथा गुणयुक्त और पर्यायसहित है, उसे द्रव्य कहते हैं।
प्रकृत कथन का अभिप्राय :
अब वापिस आते हैं मूल मुद्दे पर: समयसार के गाचाचतुष्क ३०८-३११ पर आत्मख्याति टीका का प्रथम वाक्य (देखिये लेख का पहला पैरा)। यहाँ भी उपरिचर्चित गाथा १०३ वाला ही प्रकरण है: जीव के पर-अकर्तृत्व की सम्पुष्टि इस सन्दर्भ में ही अमृतचन्द्राचार्य ने ‘क्रमनियमित’ विशेषण का प्रयोग किया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रयुक्त इस शब्दसमास का अर्थ ऐसा होना चाहिये कि पहले तो वह प्रकृत सन्दर्भ में संगतिपूर्ण और युक्तियुक्त हो; और फिर, सम्पूर्ण समयसार में (नहीं, सम्पूर्ण जिनागम में) प्रतिपादित विषयवस्तु के साथ भी उसका अविरोध सिद्ध हो।
पहले प्रकृत सन्दर्भ को ही दृष्टि में रखें तो जीव अथवा अजीव किसो भी द्रव्य के परिणामों या पर्यायों का वह क्रमनियमन ऐसा होना चाहिये कि पर्यायों द्वारा उस नियम के अन्तर्गत रहते हुए, जीवद्रव्य जीवरूप ही वर्तता रहे और अजीव/पुद्गलद्रव्य अजीव/पुद्गलरूप ही वर्तता रहे; अर्थात् पर्यायों द्वारा
उस नियम के अन्तर्गत रहते हुए द्रव्य से द्रव्यान्तरण असम्भव हो तो क्या होना चाहिये वह अर्थ जो कि सन्दर्भ-संगति की इस कसौटी पर खरा उतरे?
पहली नज़र में ही इतना तो समझ में आता है कि परिणामों के लिये – प्रयुक्त इस विशेषण में, संज्ञावाची ‘क्रम’ शब्द कालक्रम, काल की अपेक्षा उत्तरोत्तरता या एक-के-बाद-एकपने को सूचित नहीं करता (हालाँकि अनुवादकों द्वारा ऐसा समझ लिया गया है), क्योंकि यदि हम परिणामों के ‘क्रमवर्तित्व’ अथवा ‘क्रमिकता’ को दृष्टि में लेते हैं तो उसकी सन्दर्भ से तनिक भी संगति नहीं बैठती। दूसरी ओर, कुछ दूसरे लोगों द्वारा प्रस्तावित ‘क्रमबद्धता’ की परिकल्पना (hypothesis) पर यदि विचार करते हैं तो उसकी भी कोई संगति नहीं बनती। कारण सीधा-सा यह है कि पर्यायों की ‘क्रमिकता/क्रमवर्तित्व’ अथवा कथित ‘क्रमबद्धता’, दोनों ही अवधारणाओं (concepts) में ऐसी कोई विशेषता नहीं है कि जो प्रकृत सन्दर्भ द्वारा अपेक्षित ‘द्रव्यान्तरण की असंभवता’ को सुनिश्चित कर सके (अथवा यदि स्वयं पर्यायों में ही कोई ऐसी विशेषता है तो उस तथ्य को समुचित अभिव्यक्ति दे सके)।
संस्कृतभाषा के भी प्रकाण्ड विद्वान, श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य ने ‘क्रम’ शब्द का प्रयोग किस अर्थ में किया है। मोनियर्-विलियम्स् के अनुसार ‘क्रम्’ धातु का प्रधान अर्थ है : to step, walk, go, go towards, approach; तथा आप्टे के अनुसार : चलना, पदार्पण करना, जाना; एवं ‘क्रम’ संज्ञा का प्रधान अर्थ है”: a step, going, proceeding, कदम, पग, गति। अब, ऊपर दिये गए आगम-प्रमाणों के आलोक में, ‘क्रमनियमन’ का सन्दर्भानुसारी अर्थ इस प्रकार समझ में आता है: ‘क्रमनियमित पर्यायों’ से तात्पर्य है, ऐसे नियमित या नियन्त्रित कदम रखने वाली पर्यायें कि द्रव्यस्वभाव की सीमा का उल्लंघन न हो। ज्ञातव्य है कि द्रव्यानुयोग में ‘गति’ हमेशा से ही परिणमन की प्रतीक रही है; जैसा कि पंचास्तिकाय में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ‘द्रवति गच्छति तान् तान्.
…… पर्यायान्’ द्वारा व्यक्त करते हैं; अथवा जैसे ‘समय’ शब्द की व्युत्पत्तिपरक परिभाषा में कहा गया है : ‘सम्यक् त्रिकालावच्छिन्नतयाऽयन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति स्वगुणपर्यायानिति समयाः पदार्थाः । १७ और द्रव्य व पर्यायों की इस कथंचित् भेदविवक्षा वाली, प्रतीकात्मक भाषा में चाहे द्रव्य को ‘गमन करते हुए उन-उन पर्यायों तक पहुँचने वाला’ कहा जाए या चाहे पर्यायों को ‘द्रव्यरूपी प्रांगण की सीमा के भीतर गति करने वाली’ कहा जाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता दोनों रूपक एक ही वस्तुस्वरूप को दर्शाते हैं।
जीव है वह जीवस्वभाव के क्रमण/उल्लंघन के विषय में नियन्त्रित/प्रतिबन्धित, ऐसे अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव/पुद्गल नहीं। इसी प्रकार, अजीव/पुद्गल भी अजीव/पुद्गलस्वभाव के क्रमण/उल्लंघन के विषय में नियन्त्रित/प्रतिबन्धित ऐसे अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव/पुद्गल ही है, जीव नहीं; (परिणामों के द्वारा द्रव्यस्वभाव का उल्लंघन नियन्त्रित क्यों है, इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप आचार्य प्रकृत वाक्य का समापन इस प्रकार करते हैं) क्योंकि सभी द्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य होता है, जैसे कि स्वर्ण का कंगन आदि अपनी पर्यायों के साथ।
प्रस्तुत भावानुवाद का अन्य समप्रासंगिक कथनों के साथ अविरोध (क)’आत्मख्याति’ में पूर्वापर- अविरोध :
दृष्टिकोण से ऊपर किये गए विश्लेषण को हृदयंगम करें तो निःसन्देहरूप से समझ में आ जाएगा कि जिन लोगों ने भी ‘क्रमनियमित परिणाम’ का अर्थ ‘क्रमबद्ध पर्याय’ करने की कोशिश की है उन्होंने ‘सन्दर्भ-संगति’ एवं ‘पूर्वापर-अविरोध’ – शास्त्रों का सम्यग् अर्थ करने की पद्धति के इन दो सर्वमान्य एवं अपरिवर्त्य नियमों की अवहेलना की है।
(ख) तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति से अविरोध :
प्रवचनसार, गाथा १०० की तत्त्वप्रदीपिका टीका का ऊपर उद्धृत किया गया वाक्यांश (‘व्यतिरेकाणाम् अन्वय-अनतिक्रमणात्’) एवं समयसार, गाथा ३०८-३११ की आत्मख्याति टीका का प्रकृत कथन (‘पर्यायों का क्रमनियमन), इन दोनों का एक ही अभिप्राय है। संस्कृत काव्य एवं गद्य, दोनों ही प्रकार की रचनाओं में भाषा की निष्णात प्रौढ़ता के लिये प्रसिद्ध, आचार्य अमृतचन्द्र की लेखनी से यदि एक ही वस्तु-तथ्य की अभिव्यक्ति के लिये दो भिन्न रचनाओं में भिन्न-भिन्न शब्दावली निःसृत हुई है तो यह भाषा दोनों ही पर उन महान विद्वान के सहज अधिकार का सुपरिणाम है; किसी भी सजग एवं सदाशय पाठक का दायित्व है कि वह आचार्यश्री की उन पंक्तियों में स्व-कल्पित अर्थ को पढ़ने का प्रयास करने के बजाय, पूर्वाग्रह-रहित होकर उस भावार्थ को ग्रहण करे जो कि न केवल सन्दर्भ-संगत हो अपितु जिनागम में उसी विषय का प्रतिपादन अन्यत्र भी जहाँ किया गया हो, वहाँ भी उस भावार्थ की भलीभांति संगति बैठती हो।
(ग) अन्य आर्ष आचार्यों की कृतियों से अविरोध :
अपने पूर्ववर्ती आचार्य अकलंकदेव द्वारा तत्त्वार्थवार्तिक में दी गई ‘परिणाम’ की परिभाषा का भी सम्यक् भावानुसरण करते हैं: “द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन विकारः… परिणामः । द्रव्यस्य चेतनस्येतरस्य वा द्रव्यार्थिकनयस्य अविवक्षातो न्यग्भूतां स्वां द्रव्यजातिमजहतः पर्यायार्थिकनयार्पणात् शधान्यं विभ्रता केनचित् पर्यायेण प्रादुर्भावः पूर्वपर्यायनिवृत्तिपूर्वको विकारः परिणाम इति प्रतिपत्तव्यः ** अर्थात् द्रव्य का अपनी स्वद्रव्यत्व जाति को नहीं छोड़ते हुए जो परिवर्तन होता है, उसे परिणाम कहते हैं। द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्य से भिन्न नहीं है, फिर भी द्रव्यार्थिकनय की अविवक्षा और पर्यायार्थिकनय की प्रधानता में उसका पृथक् व्यवहार हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अपनी मौलिक जाति को न छोड़ते हुए, पूर्वपर्याय की निवृत्तिपूर्वक, जो उत्तरपर्याय का उत्पन्न होना है, वही परिणाम है।
इसी प्रकार, पंचास्तिकाय, गाथा १० की समयव्याख्या में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं : एकजात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावानां सन्ताने… अर्थात् एक जाति की अविरोधी या जात्यन्तर की विरोधी, अथवा द्रव्यान्तरण की विरोधी क्रमवर्ती पर्यायों का प्रवाह, उसमें…।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि पंचास्तिकाय, प्रवचनसार एवं समयसार = इन परमागमस्वरूप ग्रन्थत्रय पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा रचिंत टीकाओं में परस्पर इस विषय पर न केवल पूर्ण संगति है, बल्कि उनकी व्याख्याएं मूलग्रन्थकार आचार्य कुन्दकुन्द एवं भट्ट अकलंकदेव जैसे प्रामाणिक आचार्यों के वचनों के भी पूर्णतः अविरुद्ध हैं; जैसा कि स्वाभाविक रूप से, ऐसे महान् आचार्य से अपेक्षित ही है। फिर भी, पर्यायों की कथित क्रमबद्धता का समर्थक कोई व्यक्ति आचार्यश्री के कुछ वचनों का बिना किसी अन्तर्बाह्य साक्ष्य के यदि ऐसा अर्थ करता है कि जिसके द्वारा उनकी तीनों टीका-कृतियों के बीच ही अर्थ की विसंगति (inconsistency) का प्रसंग पैदा हो जाए, तो उस व्यक्ति के ऐसे प्रयास को मज़बूरन, न केवल ऐसे महान् आचार्य की, बल्कि समस्त जिनवाणी की भी, विराधना करने का दुष्प्रयास ही समझना पड़ेगा।
इतने साक्ष्यों को दृष्टिगत करने के बाद भी, यदि किसी तत्त्वजिज्ञासु को अब भी कोई सन्देह रह गया हो, तो उसे आचार्य भी देखे सबवाह देखना तत्त्वायकोर की भी, विराधना करने का दुष्प्रयास ही समझना पड़ेगा। में ‘परिणाम’, ‘उत्पाद’ व ‘व्यय’ का निरूपण’ देखना चाहिये।
द्रव्यस्य स्यात्समुत्पादश्चेतनस्येतरस्य च।
भावान्तरपरिप्राप्तिः निजां जातिमनुज्झतः ।।
स्वजातेरविरोधेन द्रव्यस्य द्विविधस्य हि।
विगमः पूर्वभावस्य व्यय इत्यभिधीयते।।
अर्थ : अपनी जाति का विरोध न करते हुए, वस्तु का जो विकार है उसे परिणाम कहा है। अपनी (चैतन्य या पौगलिक आदि) जाति को नहीं छोड़ते हुए, चेतन व अचेतन द्रव्य को जो पर्यायान्तर की प्राप्ति होती है, वह उत्पाद कहलाता है। अपनी जाति का विरोध न करते हुए, चेतन व अचेतन द्रव्य की पूर्व पर्याय का जो नाश है, वह व्यय कहलाता है।
यहाँ भी आचार्यश्री ने उस विशेषता (‘स्वजाति को न छोड़ना’ या ‘स्वजाति का विरोध न करना) को उत्पाद-व्यय की मूल अवधारणा में निहित माना है ,जिसके हेतु कुछ लोगों को ‘कमबद्धता’ को कल्पना करने का श्रमभार व्यर्थ में ही वहन करना पड़ा है।
उपसंहार :
अन्त में, किसी भी प्रकार के संशय या सन्देह के निरसन हेतु पुनरावृक्ति दोषों को भी सहन करते हुए, यह दोहराना उचित होगा कि जिनागम के अनुसार (क) द्रव्य से द्रव्यान्तरण, (ख) गुण से गुणान्तरण, तथा (ग) द्रव्यपरिणामों द्वारा देव्यस्वभाव का अतिक्रमण, इन तीनों ही पटनाओं की अशक्यता असंभवता प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव में अनादि से ही अन्तर्निहित है। भेदविवक्षा में चाहे द्रव्य द्रव्यस्वभाव, गुण और पर्याय को कथंचित् भिन्न-भिन्न कहा जाता हो, फिर भी वस्तु के मूल स्वभाव को ग्रहण करने वाले अभेदनय की विवक्षा में हसीनों एक-रूप-से वस्तु की अचलित सीमा अथवा मर्यादा का उल्लंघन था अतिक्रमण करने में असमर्थ हैं। यहाँ पर, द्रव्यस्वभाव के अन्तर्गत धौव्य को, एवं पर्यायों के अन्तर्गत उत्पाद-व्यय को भी शामिल कर लेना चाहिये, जैसा कि ऊपर दिये गए विभिन्न आर्ष आचार्यों के उद्धरणों से सुस्पष्ट है।
जब वस्तुस्वरूप ही ऐसा है कि द्रव्य स्वयं तो द्रव्यान्तरण की अशक्यता सुनिश्चित करने में समर्थ है ही, पर्यायें भी उसी सुनिश्चितकारिता से सज्जित है। जिस सामर्थ्य को स्पष्ट रूप से रेखांकित करने के लिये ही आचार्यश्री ने प्रकृत वाक्य के अन्त में ‘सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्त्यात्’ कहना ज़रूरी समझा है। तब उन ‘समर्थ’ परिणामों/पर्यायों को उसी कार्य (द्रव्यान्तरण की अशक्यता) के हेतु ‘क्रमबद्धता’ रूपी बैसाखियों की ज़रूरत भला क्यों पड़ने लगी? साफ़ ज़ाहिर है कि कथित ‘क्रमबद्धता’ चाहे जिस किसी व्यक्ति की भी कल्पना की उपज हो, वहाँ द्रव्यानुयोग के मूल सिद्धान्तों को आत्मसात् करने में कोई चूक ज़रूर हुई है।
इस सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थत्रय के अभ्यासी-अनुभवी महानुभावों का एक कथन ध्यान में आता है कि समयसार के अध्ययन से पहले प्रवचनसार का गंभीर अध्ययन किया जाना आवश्यक है। ‘क्रमनियमन का अर्थ क्रमबद्धता है’, ऐसी कल्पना अथवा परिकल्पना को पेश किये जाने से पहले, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार के प्रारम्भ की दस-बारह गाथाओं के और उन पर तत्त्वप्रदीपिका टीका के भावार्थ को यदि सम्यक्रूपेण हृदयंगम किया गया होता. और उनके आलोक में ‘आचार्य अमृतचन्द्र का अभिप्राय क्या है’, यदि इस प्रश्न पर ईमानदारीपूर्वक ऊहापोह किया गया होता तो सम्भवतः इस विवाद का जन्म से धन्यवाद दिया जाए, क्योंकि किसी मुददे के विवादग्रस्त होने पर ही वह हो न होता। तो भी. न्यायोचित होगा कि उक्त कल्पना के जनक को निष्पक्षमाव विचारणा के केन्द्रबिन्दु (focus) पर आता है, और बहुधा देखा गया है कि पुर का फोकस पर आना उसका हल खोजे जाने में एक निमित्त हो जाता है।
सन्दर्भ-सूची :
१. (क) आत्मख्याति-समन्वित समयागति, ढूँढारी हिन्दी वचनिका : पंच जयचन्द छाबड़ा (श्री मुसद्दोलाल जैन चैरिटेबल ट्रस्ट, दरियागंज, नई दिल्ली, १९८८५ पृ. ४६३-६५
(ख) आत्मख्याति एवं तात्पर्यवृति-समन्वित समयसार, पंच जयचन्द छाबड़ा को वचनिका के खड़ी बोली रूपान्तर सहित संशोधित संस्करण (अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्लगी, १९५१३,)पृ.३९६-९८
(ग ) प्रवचन-सहित, सम्पादन : डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य (श्री गणेश वर्णी रि जैन संस्थान, वाराणसी, तृतीय सं०, २००२, पृ. ३२२-२३
(घ) आत्मष्ख्याति, तात्पर्यवृत्ति एवं स्वोपज्ञ-तत्वप्रबोधिनी टीकात्रय-समन्वित समयसार, टोका-अनुवाद-सम्पादन: पं. मोतीचन्द्र कोठारी (श्री ऋषभनाथ दि० जैन ग्रन्थमाला, फलटण, १९६९) खण्ड ४, पृ. ११९९-१२०३
२. (क) आत्मख्याति- गुजराती व्याख्या का हिन्दी रूपान्तर : पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रकाशक- टोडरमल स्मारक, पेज ४९३-९५
(ख) क्रमबद्धपर्याय, डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
( (ग) जैनतत्त्वमीमांसा, पं० फूलचन्द्र शास्त्री (सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री फाउंडेशन, रुड़की, तृतीय संस्करण, १९९६) पृ० २५८-५९
३. सर्वविदित है कि समयसार पर ‘आत्मख्याति’, प्रवचनसार पर ‘तत्त्वप्रदीपिका’, पंचास्तिकाय
पर ‘समयव्याख्या’ = ये तीन टीकाग्रन्थ तथा ‘तत्त्वार्थसार’, ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ और ‘लघुतत्त्वस्फोट’ = ये तीन स्वतन्त्र कृतियां; इस प्रकार कुल छह रचनाएं आचार्य अमृतचन्द्र की है।
४. समयसार, आत्मख्याति टीका, कलश संख्या ५१
५. आलापपद्धति, सूत्र १०६: हिन्दी अनुवाद एवं टीका: पं० रतनचन्द जैन मुख्तार (श्री शान्तिवीर दि० जैन संस्थान, श्रीमहावीरजी, १९७०), पृ० १४९
६. ययत्तु द्रव्यैरारभ्यते न तद्रव्यान्तरं कादाचित्कत्वात् स पर्यायः। द्वणुकादिवन्मनुष्यादिवच्च।
द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्यात्।
(प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा ९८, अमृतचन्द्राचार्यत्त तत्त्वप्रदीपिका टीका)
७. हृन खलु द्रव्यैर्द्रव्यान्तराणामारम्भः, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात्। स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिघनत्वात्। अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते। अर्थात् द्रव्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति वास्तव में नहीं होती, क्योंकि सभी द्रव्यों के स्वभावसिद्धपना है (सभी द्रव्य, परद्रव्य की अपेक्षा के बिना, अपने स्वभाव से ही सिद्ध हैं), और उनकी स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनता से है, क्योंकि अनादिनिधन पदार्थ अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखता। (प्रवचनसार, ज्ञेयत्तत्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा ९८, अमृतचन्द्राचार्यत्त तत्वप्रदीपिका टीका)
८ . प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा १००, अमृतचन्द्राचार्यत्त तत्वप्रदीपिका टीका (श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, पंचमावृत्ति, १९८५), देखिये पृ० १९९ पर फुटनोट में दिया गया संशोधित पाठ।
९.(स्वजात्यपरित्यागेनावस्थितिरन्वयः) अर्थात् अपनी जाति को न छोड़ते हुए उसी रूप से अवस्थित रहना अन्वय है। (राजवार्तिक, अ. ५, सू० २, वार्तिक १)
१०. सामान्य, द्रव्य, अन्वय और वस्तु, ये सब अविशेषों रूप से एकार्थवाचक हैं। (देखिये पंचाध्यायी, अध्याय १, श्लोक १४३)
११. अपरित्यक्तस्वभावेनोत्पादव्ययधुवत्वसम्बद्धम्। गुणवच्च सपर्यायं यत्तद्रव्यमिति ब्रुवन्ति ।। (प्रवचनसार, ज्ञेयत्तत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा ९५, संस्कृत छाया)
१२. समयसार पर दिये गए अपने प्रवचनों में, श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी ने गाथा १०३ एवं गाथाचतुष्क ३०८-११ के बीच विषयसाम्य का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है; देखिये सन्दर्भ १ (ग)
१३. Sanskrit-English Dictionary, Williams (Motilal Banarsidass, Pg. 319.
१४.संस्कृत-हिन्दी काश, वा. शि० आप्टे (मोतीलाल बनारसीदास,), पृ० ३०९
१५. वही : Ref. 13
१६. सन्दर्भ १४, पृ. ३१०
१७. पंचास्तिकाय, गाथा ९,
१८. परमाध्यात्म-तरंगिणी : समयसार-कलश पर शुभचन्द्र भन्नरक को टीका; अनुवाद : पं० कमलकुमार शास्त्री (वीरसेवामन्दिर प्रकाशन, दिल्ली, १९९०), पृ. २
१९. देखिये : सन्दर्भ १३ व १४
२०. इसी प्रकार के सन्दर्भ में, प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा ९९ की तत्त्वप्रदीपिका २१. आप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्र कहते हैं :-
द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणामविठ्ठोगाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ।।७१।।
संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषातः। प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ।। ७२ ।।
२२. क्रमण अथवा उल्लंघन, मूलतः गति का ही एक प्रकार है।
२३. आचार्य अमृतचन्द्र की स्वतन्त्र रचना ‘लघुतत्त्वस्फोट’, अनुवादक-सम्पादक : डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य; श्री गणेशवर्णी दि० जैन संस्थान, वाराणसी, १९८१: सम्पादकीय, पृ० ७)
२४. तत्त्वार्थसार, तृतीयाधिकार, श्लोक ६-७
२५. सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद के ये वचन भी द्रष्टव्य हैं: (चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत उभयनिमिहावशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः मृतपिण्डस्य घटपर्यायवत्। (५/३०)
अनेकांत पत्रिका जनवरी -मार्च, २०१५
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अनेकांत पत्रिका जनवरी -मार्च, २०१५