जैन वाङ्मय में अवधिज्ञान
– पवन कुमार जैन (शोध छात्र)चांदीहॉल, जोधपुर (राज.)
भारतीय दार्शनिकों और पाश्चात्य दार्शनिकों ने अपने ग्रंथों में अतीन्द्रियज्ञान की चर्चा की है। जैनदर्शन में इसके तीन भेद हैं- अवधिज्ञान, पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। उनमें से प्रथम अवधिज्ञान सीधा आत्मा मनःप से होने वाला ज्ञान है। इसमें इन्द्रिय एवं मन के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती है, इसीलिए यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में इन्द्रिय एवं मन से होने वाले मति एवं श्रुतज्ञान को परोक्ष की श्रेणी में रखा गया है तथा जो ज्ञान सीधा आत्मा के द्वारा होता है उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है- ‘आत्ममात्रसापेक्षं प्रत्यक्षम्’ अवधिज्ञान का उल्लेख स्थानांगसूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि आगमों में मिलता है, किंतु वहाँ पर इसके स्वरूप के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु नंदीसूत्र में प्रत्यक्ष ज्ञान के भेदों में अवधिज्ञान को स्थान दिया गया है। इसी से ज्ञात होता है कि अवधिज्ञान सीधा आत्मा से होने वाला ज्ञान है।
‘अवधि’ शब्द का प्राकृत-अर्द्धमागधी रूप ‘ओहि’ है। अवधिज्ञान के लिए प्राकृत में ‘ओहिणाण’ शब्द का प्रयोग होता है। आत्मा इस ज्ञान के द्वारा रूपी पदाथों को जानता है। इसलिए इसे प्रत्यक्ष कहते हैं, लेकिन सभी पदार्थों को नहीं जान पाने के कारण यह देश प्रत्यक्ष होता है।
‘अवधि’ शब्द ‘अव’ और ‘धि’ से मिलकर बना है। इसमें ‘अव’ उपसर्ग है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ ‘अव’ उपसर्ग का अर्थ नीचे-नीचे, ‘धि’ का अर्थ जानना। पूज्यपाद, मलयगिरि आदि आचायों ने ‘अव’ उपसर्ग का अर्थ अधः (नीचे) किया है।’ अकलंक ने इसको स्पष्ट किया है कि अवधि का विषय नीचे की ओर बहुत प्रमाण में होता है। मलयगिरि ने ‘अधो विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यते अनेन इति’ ऐसी व्यत्पत्ति दी है। इसका यह अर्थ कि नीचे (आहे को विस्तृत रूप से जो जानता है वह अवधि ज्ञान है। यहाँ कहने तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञानी अधोलोक के रूपी पदार्थों को अधिक जानता है, साथ ही तिर्यक लोक और ऊर्ध्वलोक के सारे रूपी पदा को भी जानता है।
हरिभद्र ने अवधि का अर्थ विषयज्ञान तथा मलयगिरि ने अवधि शब्द का अर्थ अवधान करते हुए इसे अर्थ का साक्षात्का करने वाला आत्मा के व्यापार के रूप में प्रयुक्त किया है। जिनभद्र के मत से अवधान का अर्थ मर्यादा है।’ जिनभद्र द्वारा किया गया अथ ज्ञानवाचक है और हरिभद्र और मलयगिरि द्वारा किये गये अर्थ अवधिज्ञान की विशेषता बताते हैं।
अवधि शब्द का दूसरा अर्थ मर्यादा है। मर्यादा का अर्थ होता है सीमा अर्थात् जिस ज्ञान की सीमा हो। अवधिज्ञान की क्या मर्यादा (सीमा) है ? इसका समाधान है कि अवधिज्ञान मात्र रूपी पदार्थों को ही जानता है, इसका उल्लेख उमास्वाति, जिनभद्र, मलयगिरि आदि आचायों ने किया है। पूज्यपाद स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि रूप का अर्थ पुद्गल द्रव्य के साथ संबन्धित जीव समझना है।’ अवधिज्ञान के द्वारा अरूपी पदार्थों को नहीं जाना जाता है यही उसकी मर्यादा है। इसका उल्लेख पूज्यपाद, जिनभद्रगणि और मलयगिरि आदि आचायर्यों ने किया है।’
प्रश्न- जब मति आदि चारों ज्ञान ही मर्यादा वाले हैं तो इस ज्ञान को ही अवधि अर्थात् मर्यादा वाला ज्ञान क्यों कहते हैं ? अकलंक इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि जैसे गतिशील सभी पदार्थ गो आदि है लेकिन गो शब्द गाय के लिए ही रूढ़ हो गया है वैसे ही मति आदि चार ज्ञानों में इस ज्ञान के लिए ही अवधि शब्द रूढ़ हो गया है। धवला टीकाकार ने इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा कि अवधि तक चारों ज्ञान मर्यादित हैं, परन्तु अवधि के बाद केवलज्ञान अमर्यादित है, ऐसा बताने के लिए अवधि शब्द का प्रयोग किया गया है।” धवला टीकाकार ने यहाँ पर अवधि को चौथे ज्ञान के रूप में दलित किया है। इससे प्रतीत होता है कि कतिपय प्राचीन आचायाँ विज्ञान, श्रुतज्ञान, मन:पर्ययज्ञान के बाद अवधिज्ञान को रखा होगा। धवला टीकाकार ने अवधि का एक अर्थ आत्मा भी किया * उपाध्याय यशोविजय ने पूर्वाचायों के भावों को ध्यान में रखते हुए अवधि का लक्षण इस प्रकार से किया है कि सकल रूपी द्रव्यों की जानने वाला और सिर्फ आत्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।”
अवधिज्ञान की परिभाषा :
1. षट्ङ्खण्डागम के अनुसार- नीचे के विषय को धारण करने बाला होने से अवधि कहलाता है अथवा नीचे गौरव धर्मवाला होने से, पुर्णल की अवाग् संज्ञा है, उसे जो धारण करता है अर्थात् जानता है, वह अवधि है और अवधि रूप ही ज्ञान अवधिज्ञान है अथवा अवधि का अर्थ मर्यादा है, अवधि के साथ विद्यमान ज्ञान अवधिज्ञान है। यह अवधिज्ञान मूर्त पदार्थ को ही जानता है क्योंकि रूपिष्वधेः ऐसा सूत्र बचन है। षट्खण्डागम पुस्तक 6 में भी यही परिभाषा देते हुए वहाँ इतना विशेष बताया है कि अवधि नाम मर्यादा का है, इसलिए द्रव्य, जीव, काल और भाव की अपेक्षा विषय संबन्धी मर्यादा के ज्ञान को अवधि कहते हैं।” अवधिज्ञान के इस स्वरूप की पुष्टि कषायपाहुड,” तत्त्वार्थवार्तिक, ” षट्खण्डागम,” से होती है। कर्मप्रकृति* में अभयचन्द्र ने भी लगभग अवधिज्ञान का ऐसा ही स्वरूप प्रतिपादित किया है। पंचसंग्रह में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है, लेकिन वहाँ मर्यादा के स्थान पर सीमा शब्द का प्रयोग किया गया है।” गोम्मटसार में पंचसंग्रह के समान ही परिभाषा दी गई है। 20
२. पूज्यपाद के अनुसार- अधिकतर नीचे के विषय को जानने वाला होने से या परिमित विषय वाला होने से अवधि कहलाता है।”
३. जिनभद्रगणि के अनुसार– जो अवधान से जानता है, बह अवधिज्ञान है। अंगुल के असंख्येय भाग क्षेत्र को जानने वाला अवधि ज्ञानी आवलिका के असंख्येय भाग तक जानता है। इस प्रकार जो परस्पर नियमित द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को जानता है, वह अवधिज्ञान हैं |
यदि अव्यय को मर्यादा वाचक के रूप में प्रयुक्त करते हैं तो इसके अनुसार इतने क्षेत्र में, इतने द्रव्यों को, इतने काल तक जानने योग्य द्रव्यों को जानता है और इतना काल, इतना द्रव्य, जानने वाला जानता है। इस उपचार से ज्ञान को मर्यादा कहा है क्योंकि वह अवधि ज्ञान द्रव्यादि ऊपर के अनुसार अवधि से ऐसी मर्यादा से परस्पर नियमित रूप से जानता है।” नंदीचूर्णि में जिनदासगण” ने और मलयगिरि नंदीवृत्ति भी ऐसा ही उल्लेख किया है।
४. अकलंक के कथानुसार ‘अव’ पूर्वक ‘धा’ धातु से अवधि शब्द बनता है ‘अव’ शब्द ‘अध’ वाची है जैसे अध:क्षेपण को अवक्षेपण कहते हैं, अवधिज्ञान भी नीचे की ओर बहुत पदार्थों को विषय करता है अथवा अवधि शब्द मर्यादार्थक है अर्थात् द्रव्य क्षेत्रादि की मर्यादा से सीमित ज्ञान अवधि ज्ञान है। यद्यपि केवलज्ञान के सिवाय सभी ज्ञान सीमित है फिर भी रूढ़िवश अवधिज्ञान को ही सीमित ज्ञान कहते हैं जैसे गतिशील सभी पदार्थ हैं फिर भी गाय को रूढ़िवश गौर (गच्छतीति गौः) कहा जाता है।
५. आचार्य नेमिचन्द्र के वचनानुसार– विशिष्ट अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मन के सानिध्य में जो सूक्ष्म पुद्गलों को जानता है, स्व और पर के पूर्व जन्मांतरों को तथा भविष्य के जन्मांतरों को जानता है वह अवधिज्ञान है।”
६.वादिदेवसूरि के अनुसार-अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के उत्पन्न होने वाला भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय, रूपी द्रव्यों को जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।
अवधिज्ञान के प्रकार :
प्रज्ञापनासूत्र उमास्वाति” नंदीसूत्र” पूज्यपाद अकलंक अमृतचन्द्र पंचसंग्रह” योगीन्दुदेव” आदि आचार्यों और ग्रंथों में अवधिज्ञान के मुख्य रूप से दो भेद किए हैं- 1. भवप्रत्यय, 2. क्षायोपशमिक। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवता और नारकी को एवं क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच को होता है।
आचार्य भूतबलि, आचार्य गुणधर,” आचार्य पुष्पदंत, आचार्य नेमीचन्द्र, और आचार्य वादिदेवसूरि” आदि आचार्यों ने मुख्य रूप से अवधिज्ञान के दो भेद किए हैं- भवप्रत्यय ओर गुणप्रत्यय एवं उनके स्वामियों का कथन उपर्युक्तानुसार किया है।
सारांश यह है कि उपुर्यक्त वर्णन के आधार पर अवधिज्ञान के होर भेद प्राप्त होते हैं- 1. भवप्रत्यय, 2. क्षायोपशमिक और 3. गुणप्रत्यय। अस्तु उपर्युक्त आगमों और ग्रंथों में क्षायोपशमिक और गुणप्रत्यय अवधि जान, ये दोनों प्रकार एक ही हैं।
आचार्य भद्रबाहु, और आचार्य पुष्पदंत” के अनुसार अवधिज्ञान के असंख्य प्रकार हैं। जिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य में स्पष्ट रूप से कहा है कि विषयभूत क्षेत्र और काल की अपेक्षा से अवधिज्ञान के सभी भेद मिलाकर संख्यातीत (असंख्यात) हैं और द्रव्य और भाव की अपेक्षा से अवधिज्ञान के अनंत भेद होते हैं।” अवधिज्ञान के ज्ञेयपने के नियम से जितना अवधिज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र, प्रदेश और उत्कृष्ट काल के समय के परिणाम है, इतना ही अवधिज्ञान के भेदों का परिणाम है। फिर संख्यातीत अर्थात् अनंत इस प्रकार अवधिज्ञान के अनंत भेद हैं।” उनमें से कुछ भेद तो भवप्रत्ययिक और कुछ भेद क्षायोपशमिकप्रत्ययिक है। इसलिए मुख्य रूप से अवधिज्ञान के उपर्युक्त दो ही भेद हैं। इन दो भेदों को समग्र जैन परम्परा स्वीकार करती है।”
भवप्रत्यय अवधिज्ञान का स्वरूप :
विशेषावश्यकभाष्य के अनसार- जिस प्रकार पक्षियों द्वारा आकाश में उड़ने की शक्ति में भव (जन्म) कारण है उसी प्रकार से नारकी और देवता में अवधिज्ञान का हेतु भव (जन्म) है, इसलिए इस अवधिज्ञान को भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं।”
भव अर्थात् आयु और नामकर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव की जो पर्याय होती है उसे भव कहते हैं।** भव के निमित्त से अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं क्योंकि कमों के उदय से द्रव्यादि चारों में प्रभाव तो होता ही है। ऐसा ही उल्लेख पुष्पदंत,” अकलंक,” और मलयगिरि आदि आचार्यों ने भी किया है। भवप्रत्यय में प्रयुक्त प्रत्यय शब्द ‘कारण’ (निमित्त) अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।”
अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव और नरकादि भव औदयिक भार है। परस्पर विरुद्ध होने से नरकादि भव अवधिज्ञान का हेतु कैसे सकता है? वास्तव में तो नारकी और देवता के भी अवधिज्ञान क्षयोपशम के निमित्त से होता है, परन्तु नारकी और देव के भव में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम नियम से होता है, इसलिए नारकी ओर देवता के अवधिज्ञार को भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं।” इसलिए भवप्रत्यय अवधिज्ञार में भी क्षयोपशम मुख्य कारण है। अकलंक ने भवप्रत्यय में भव को बाह्य कारण स्वीकार किया है।”
सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि कमाँ का जो क्षय, क्षयोपशम ( और उपशम होता है वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पांच प्रकार का होता है। इसलिए नारकी और देवता के भव का निमिर मिलने पर जीव के अवधिज्ञानावरणीय कर्म का अवश्य क्षयोपशम होता है और भव के निमित्त से ही क्षयोपशम होता है इसलिए इसे भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं।” गुणप्रत्यय (क्षायोपशमिकप्रत्यय) अवधिज्ञान का स्वरूप :
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार तप आदि विशेष गुणों के परिणाम से उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान क्षयोपशम प्रत्यायिक कहलाता है। यह ज्ञान संज्ञी तियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में होता है।*
नंदीसूत्र के मूल पाठ में आया है ‘को हेऊ खाओवसमियं?’ अर्थात् क्षायोपशमिक अवधिज्ञान का हेतु क्या है? इसका उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयगत कर्मदलिकों का क्षय होने से तथा अनुदित कर्मदलिकों का उपशम होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है। अर्थात् अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयावलिका में प्रविष्ट अंश का वेदन होकर पृथक् हो जाना क्षय है और जो उदयावस्था को प्राप्त नहीं है, उसके विपाकोदय को दूर कर देना (स्थगित कर देना) उपशम कहलाताहै। जिसे अवधिज्ञान का क्षयोपशम ही मुख्य कारण हो प्रत्यय या क्षायोपशमिक-प्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है |
पूज्यपाद और अकलंक के अनुसार मनुष्यों और तिर्यंचों में आज्ञान की प्राप्ति में क्षयोपशम ही निमित्त भूत है सायोपशमिक अवधिज्ञान कहते है।” सम्यक्त्व और महाव्रत गुण जिस अवधिज्ञान के कारण हैं प्रत्यय अवधिज्ञान शंख गुणप्रत्यय आदि चिन्हों से से अधिष्ठित अणुव्रत वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। अर्थात् से ऊपर शंख, पद्य, वज्र, स्वास्तिक, मच्छ, कलश आदि शुभ विन्हों से युक्त आत्म प्रदेशों में स्थित अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मा के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है।” गुणप्रत्यय अवधिज्ञान असंयमा सायादृष्टि के सम्यग्दर्शन गुण के निमित्त से और संयतासंयत के संयमासंयम (देश संथम) गुणपूर्वक तथा संयत के संयम गुण के होने से होता है |
नंदीचूर्णिकार ने क्षयोपशम के दो अर्थ किए हैं- गुण के बिना होने वाला और गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला क्षयोपशमा गुण के बिना होने वाले क्षयोपशम से उत्पन्न अवधिज्ञान के लिए चूर्णिकार ने दृष्टांत दिया कि आकाश बादलों से ढका हो, लेकिन हवा आदि से बीच में एक छिद्र हो गया, उस छिद्र में से सहज रूप से सूर्य की किरणें निकलती हैं और उससे द्रव्य (वस्तु) प्रकाशित होता है। वैसे ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से सहज ही अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है, वह गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम है।
क्षयोपशम का दूसरा अर्थ है गुण की प्रतिपत्ति से होने वाला। क्षयोपशम अर्थात् उत्तरोत्तर चारित्र गुण की विशुद्धि होने से अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह गुण प्रतिपन्न अवधिज्ञान है यहाँ गुण शब्द चारित्र का द्योतक है अर्थात् गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के लिए मूलगुण कारणभूत है, इसका समर्थन धवलाटीका, जिनभद्राणि, हरिभद्र,** मलयगिरि ने किया है। मूलगुण पर्याप्त मनुष्य और तिर्यंच के ही होते हैं, अपर्याप्त मनुष्य और तिर्यंच के नहीं।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि गुणप्रत्यय अवधिज्ञान में गुण शब्द सम्यक्त्व से युक्त अणुव्रत और महाव्रतों को दर्शाने के लिए प्रयुक्त होता है। यदि हम क्षयोपशमिक अवधिज्ञान का प्रयोग करते हैं
तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के विभंगज्ञान (अवधिअज्ञान) होता है। इस अपेक्षा से क्षायोपशमिक अवधिज्ञान व्यापक है जबकि गुणप्रयय अवधिज्ञान में गुण शब्द सम्यक्त्व से युक्त अणुव्रत और महाव्रत जिसके होते हैं और उनके निमित्त से जो अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है। इसमें सम्यग्दृष्टि के उत्पन्न अवधिज्ञान का ही ग्रहण किया गया है। मिथ्यादृष्टि के जो विभंगज्ञान होता है उसका ग्रहण नहीं किया गया है।
प्रश्न- क्या मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि होने पर अवधि में कुछ अंतर हो सकता है?
उत्तर- भवप्रत्यय अवधिज्ञान में संक्लिशमान और असक्लिशमान भेद नहीं है। जैसे रंगीन कांच और और सफेद पारदर्शी कांच से देखने में अंतर होता है, वैसे ही पहले मिथ्यादृष्टि था, तब रंगीन कांच से देखता था। अर्थात् अस्पष्ट (अयथार्थ) देखता था और सम्यग्दृष्टि होने के बाद पारदर्शी कांच से देखता है अर्थात् स्पष्ट (यथार्थ) देखता है। मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि होने पर द्रव्यों की वृद्धि नहीं होती, लेकिन पर्याय में वृद्धि होगी, क्योंकि सही अर्थात् स्पष्ट (यथार्थ) देखने लगा है।
अवधिज्ञान के अन्य प्रकार/गुणप्रत्यय के प्रकार :
आगमों में प्राप्त प्रकार- भगवतीसूत्र में आधोऽवधिक और परमोवधिक का उल्लेख है। वहाँ छद्मस्थ की आधोवधिक से और केवली की परमोवधिक से तुलना की है। जैसे कि छद्मस्थ जीव परमाणु पुद्गल आदि को प्रमाण से जानता और देखता है उतने ही प्रमाण में आधोवधिक जानता और देखता है एवं जो परमावधिक जानता है वही केवली जानता देखता है।” इस तथ्य के आधार से ऐसा समझा जा सकता है कि प्राचीन काल में अवधि ज्ञान के दो भेद थे- आधोऽवधिक (सामान्य अवधिज्ञानी) और परमोवधिक।
प्रज्ञापनासूत्र के तेतीसवें अवधिपद में वर्णित सात द्वारों के आधार पर अवधिज्ञान के चौदह भेद प्राप्त होते हैं। 1. भवप्रत्यय, 2. गुणप्रत्यय, 3. आभ्यंतर, 4. बाह्य, 5. देशावधि, 6. सर्वावधि, 7. अनुगामी, 8. अननुगामी, 9. वर्द्धमान, 10. हीयमान, 11. प्रतिपाती, 12. अप्रतिपाती, 13. अवस्थित, एवं 14. अनवस्थित।
१. निर्युक्ति के अनुसार अवधिज्ञान- आवश्यकनिर्युक्ति और विशेषावश्यकभाष्यकार ने अवधिज्ञान के क्षेत्र एवं काल की अपेक्षा असंख्यात भेद और द्रव्य एवं भाव की अपेक्षा से अनंत भेद स्वीकार किये हैं। सभी भेद को कहने में असमर्थता बताते हुए चौदह प्रकार के निक्षेप और ऋद्धि का वर्णन किया है।” इस अपेक्षा से अवधिज्ञान के चौदह भेद हैं- 1. अवधि, 2. क्षेत्रपरिमाण, 3. संस्थान, 4. आनुगामिक, 5. अवस्थित, 6. चल, 7. तीव्रमंद, 8. प्रतिपाति-उत्पाद, 9. ज्ञान, 10. दर्शन, 11. विभंग, 12. देश, 13. क्षेत्र और 14. गति।”
२. षट्खण्डागम के अनुसार- 1. देशावधि, 2. परमावधि, 3. सर्वावधि, 4. हीयमान, 5. वर्द्धमान, 6. अवस्थित, 7. अनवस्थित, 8. अनुगामी, 9. अननुगामी, 10. सप्रतिपाति, 11. अप्रतिपाति, 12. एक क्षेत्रावधि और 13. अनेक क्षेत्रावधि भेद हैं। इन भेदों में निर्युक्तिगत अवधि, संस्थान, ज्ञान, दर्शन, विभंग, देश ओर गति कुछेक भेद स्वीकार नहीं किए हैं। नंदीसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र में भी ऐसा ही वर्णन मिलता है। षट्खण्डागमकार ने निर्युक्तिगत प्रकार बताते हुए देशावधि, परमावधि, सर्वावधि ये तीन प्रकार नये बताये हैं। निर्युक्ति में आनुगामिक-अनानुगामिक ऐसे व्यवस्थित भेद नहीं है, जिसमें षट्खण्डागम में प्रथम तीन प्रकार का एक विभाग और बाद में शेष रहे दस प्रकार दो-दो के जोड़े रूप पांच युग्म स्वतंत्र भेद रूप में प्राप्त होते हैं। निर्युक्ति में आनुगामिक, अनानुगामिक और इनका मिश्र, इसी प्रकार प्रतिपाति, अप्रतिपाति आदि और इनका मिश्र भेद निरूपित है। यहाँ जो मिश्र रूप भेद बताया है। 75 यह मिश्र भेद षट्खण्डागम में नहीं है। इस अन्तर का अर्थ यह भी हो सकता है कि षट्खण्डागम के काल में अवधिज्ञान के प्रकारों को व्यवस्थित करने का और बिना आवश्यकता के भेदों को निकालने का प्रयास हुआ होगा।
आचार्य गुणधर” के अनुसार विषय की प्रधानता से अवधिज्ञान तीन प्रकार का होता है- देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। जिसमें से भवप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तीनों प्रकार का होता है। वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुम अननुगामी, प्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र, ये दस होते हैं। दस भेद में से भवप्रत्यय अवधिज्ञान में। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अनेकक्षेत्र ये पांच भेद, गुणप्रत्यय अवधिजार में दसों भेद, देशावधि में दसों भेद, परमावधि में हीयमान, प्रतिपत और एक क्षेत्र इनको छोड़कर शेष सात भेद और सर्वावधि में अनुगामी अननुगामी, अवस्थित, अप्रतिपाती और अनेकक्षेत्र, ये पांच भेद पाये जाते हैं।
३. नंदीसूत्र के अनुसार- नंदीसूत्र में अवधिज्ञान के छह भेद हो मिलते हैं- 1. आनुगामिक, 2. अनानुगामिक, 3. वर्धमान, 4. होयमान, 5. प्रतिपाति और 6. अप्रतिपाति।
नंदीसूत्र में “अहवा गुणपडिवण्णस्स अणगारस्स ओहिणाणं समुपज्ज...” यह मूल पाठ आया है। गुण का संबन्ध मूलगुण और उत्तर गुण से है। “पडिवण्णस्स अणगारस्स” यह शब्द अन्य का निषेधक नहीं है, किन्तु यहाँ जो गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेदों का वर्णन किया है, वह अनगार की अपेक्षा से ही है। क्योंकि अन्य का अवधिज्ञान अप्रतिपाति नहीं होता है अर्थात् अप्रतिपाति अवधिज्ञान अनगार को ही होता है।
४. तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार- उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में अवधिज्ञान के छह भेद प्राप्त होते है- 1. अनुगामी, 2. अननुगामी, 3. वर्धमान, 4. हीयमान, 5. अवस्थित और 6. अनवस्थित।” पूज्यपाद, 78 विद्यानंद, आचार्य नेमिचन्द्र, अमृतचन्द्र,” पंचसंग्रह में भी मुख्य रूप से अवधिज्ञान के उपुर्यक्त छह भेद ही प्राप्त होते हैं।
नंदीसूत्र और तत्त्वार्थ सूत्र में प्रथम चार भेद समान हैं, लेकिन अंतिम दो भेदों में अंतर है। नंदी में प्रतिपाती, अप्रतिपाती और तत्त्वार्थ सूत्र में अवस्थित, अनवस्थित भेद हैं। लेकिन एक अपेक्षा से विचार करें तो अवस्थित अप्रतिपाती में और अनवस्थित का समावेश प्रतिपाती में हो जाता है।
अकलंक के तत्त्वार्थसूत्र के छह भेदों का उल्लेख करके नंदीसूत्र में वर्णित प्रतिपाती, अप्रतिपाती इन दो भेदों का भी उल्लेख देशावधि के आठ भेदों में किया है। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार अवधिज्ञान के हर भेद- देशावधि, परमावधि, सर्वावधि है। जिनमें देशावधि के वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अननुगामी, अप्रतिपाती, प्रतिपाती ये आठ भेद होते हैं। परमावधि के हीयमान और प्रतिपाती को छोड़कर शेष छह भेद पाये जाते हैं। सर्वावधि के अवस्थित, अनुगामिक, अनुगामिक और अप्रतिपाती ये चार भेद होते हैं।”
अकलंक ने आगे वर्णन करते हुए कहा है कि परमावधि, सर्वावधि से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से न्यून है। इसलिए परमावधि भी वास्तव में देशावधि है।” अकलंक ने षट्खण्डागम में वर्णित एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र, इन दो भेदों का उल्लेख नहीं किया है।
विद्यानंद ने प्रतिपाती और प्रतिपाती इन दो भेदों को तत्त्वार्थ सूत्र के छह भेदों में उल्लिखित किया है।
इस प्रकार समय के व्यतीत होने पर जैनाचायों ने अवधिज्ञान के भेदों को व्यवस्थित किया है तथा अंत में नंदी सूत्र में वर्णित छह भेदों को ही मान्य किया है।
उपर्युक्त वर्णित सारे भेद गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के ही प्रतीत होते हैं। इसको स्पस्ट करने के लिए आवश्यकनिर्युक्तिकार और विशेषावश्यकभाष्यकार ने क्षेत्र परिमाण, संस्थान, आनुगामिक, अनानुगामिक, अवस्थित और देश द्वार में किये वर्णन को गुणप्रत्यय (मनुष्य और तिर्यंच की अपेक्षा) में रखा है। षट्खण्डागम में गुणप्रत्यय के बाद देशावधि आदि तरेह प्रकार बताए हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ये भेद गुणप्रत्यय के हैं। आचार्य नेमिचन्द्र और अमृतचन्द्र का भी ऐसा ही मानना है। लेकिन धवलाटीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि यह अवधिज्ञान के सामान्य रूप से भेद हैं क्योंकि अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी आदि भेद भवप्रत्यय ज्ञान में भी घटित होते हैं।*
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आवश्यकनिर्युक्ति और षट्खण्डागम में उपर्युक्त भेदों का वर्णन अवधिज्ञान के सामान्य संदर्भ में था। लेकिन नंदीसूत्र, और तत्वार्थ आदि के फाल में इन भेदों को स्पष्ट रूप से गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के मेद के रूप साकार कर लिया जाना उचित ही प्रतीत होता है। क्योंकि सवाल स्वी कायन्स नारकी, देवता से है जिसमें अननुगम, प्रतिपात आणि का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है।
संदर्भ सूची :
1. सर्वार्थसिद्धि 1.9, हारीभद्रीय नदीवृत्ति, पृ.8, मलयगिरि नरीवृचि पृ.65धवला पृ.9, सूत्र 4.1.2पृ.. 13
2. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.2
3. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 65
4. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 82… हारिभद्रीय नंदीवृत्ति पृ.81मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ.65
5. तत्त्वार्थ सूत्र 1.28, सर्वार्थसिद्धि, 1.27 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 82, नंदीचूर्णी पृ. 11,12, हरिभद्रीय नंदीवृत्ति पू. 8, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 65 और पृ.71
6. सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, ग्यारहवां संस्करण, सन 2002, पू. 1.27
7. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 82, सर्वार्थसिद्धि, 1.9, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.3, धवला पु. 9, सूत्र 4.1.2, मलयगिरि नंदीवृति, पू. 65
४. तत्वार्थराजवर्तिक, 1.9.3
9. धवला पु. 9, सूत्र 4.1.2.13
10. धवला, पु.9 सूत्र 4.1.2, पृ. 12
11. जैनतर्कभाषा, पृ. 24
12. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 1.27
13. षट्खंडागम, पुस्तक 13 (द्वितीय आवृत्ति), सोलापुर, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सन 1993, पृ. 210-211
14. षट्खण्डागम, पुस्तक 6, पृ. 25
15. कषायपाहुड (जयधवला/महाधवल) प्रथम भाग, चौरासी मथुरा (उ.प्र.) भारतवर्षीय दि, जैन संघ, सन् 2003, पृ. 13
16. तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ. 319
17. षट्खण्डागम, पुस्तक 1, सन् 1939, पृ. 93
18. अभयचन्द्रसिद्धांत चक्रवर्तीकृत (डॉ. गोकुलचन्द्र जैन), कर्मप्रकृति, नई दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ. 18
19. पंचसंग्रह, काशी, भारतीय ज्ञानपीठ, सन 1960, गाथा 123, पृ. 26-27
20. आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती, गोम्मटसार (जीवकांड), भाग-2, सन् 1997, 9. 617-618
21. सर्वार्थसिद्धि, पृ. 67
22. विशेषावश्यकभाष्यगाथा 82
23. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 82 टीका का भावार्थ
24. नंदीचूर्णि, पू. 20
25. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 65
26. अकलंक, तत्त्वार्थराजवार्तिक (हिन्दीसार सहित), नई दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, द्वितीय आवृत्ति, सन् 1944, पृ. 293
27. आचार्य नेमिचन्द्र कृत द्रव्यसंग्रह गाथा 5 की टीका नं. 12
28. प्रमाणनयतत्त्वलोक, अध्याय 2, सूत्र21
29. युवाचार्य मधुकरमुनि, पृ. 183,
30. पं. सुखलालजी, तत्वार्थसूत्र, पृ. 38
31. युवाचार्य मधुकरमुनि, पू. 29
32. सर्वार्थसिद्धि, पृ. 90
33. पंचसंग्रह, पृ. 27
34. तत्त्वार्थसार, पृ. 12
35. पंचसंग्रह, पृ. 27
36. तत्त्वार्थवृत्ति, पृ. 25
37. महाबंध, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण 1998, पृ. 1 पृ. 24
38. कषायपाहुड, पृ. 15
39. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र. 5.5.52, पृ. 290
40. गोम्मटसार जीवकांड भाग 2, पृ. 618
41. प्रमाणनयतत्त्वलोक, 2.21, पृ. 22-23
42. आवश्यकनियुक्ति गाथा 25
43. षट्खण्डागम, पु. 13 सूत्र- 5-5-52, पृ. 289
44. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 568
45. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 570-571
46. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा 24, षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.43, तत्त्वार्थसूत्र,सूत्र 1.21
47. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 568 की टीका पृ. 260
48. सर्वार्थसिद्धि, पृ. ४9
49. षङ्खण्डागम, पुस्तक 13, सूत्र 5.5.52
50. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.21.2
51. नंदीवृत्ति, पृ. 76
52. सर्वार्थसिद्धि 1.21, पृ. 89
53. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 572-574
54. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.21.4
55. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, सू. 1.21, पृ. 244
56. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 568 की टीका पृ. 260
57. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 30
58. सर्वार्थसिद्धि, 1.22, पृ. 90
59. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.3
60. षट्खण्डागम, पृ. 13 सूत्र 5.5.53, पृ. 290-291
61. गोम्मटसार ओवकांड भाग 2 पू. 618 अनेकान्त 68/1, जनवरी मार्च, 2015
62. प्रभारी, वीरसेनापदिर इस्ट, वाराणसी, प्रथम संस्करण 1977, प्रस्तावना
63. मंचूर्णि है 25
64. नंदीचूर्णि पृ. 25
65. नंदीचूर्णि पू. 26
66. धवलाठीका पु. 13, सूत्र 5.5.45, पृ. 291
67. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 568
68. नंदीवृत्ति पृ. 26
69. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पू. 81
70. सर्वार्थसिद्धि 1.22, पृ. 90
71. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र, शतक 18. उद्देश्क 8, 7. 734
72. प्रज्ञापनासूत्र पद 33 पृ. 183-196
73. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 25, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 568-569
74. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा 27-28, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 577-578
75. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 56, 61 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 714, 739
76. कषायपाहुड, पृ. 16-17
77. तत्त्वार्थसूत्र 1.23
78. सर्वार्थसिद्धि 1.22 पृ. 90
79. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1.22
80. गोम्मटसार (जीवकांड) भाग 2, पृ. 619
81. तत्त्वार्थसार, गाथा 25-27, पृ. 12
82. पंचसंग्रह, अधिकार 1, गाथा 124, पृ. 27
83. तत्त्वार्थधिगमसूत्र सूत्र 1.23, सेठ देवचन्द्र लालभाई- जैन पुस्तकोद्धार, प्रथम संस्करण न 1926, पृ. 99-100
84. तत्त्वार्थवार्तिक, 1.22.5, पृ. 56
85. तत्त्वार्धवार्तिक, 1.22.5, पृ. 57
86. रत्वार्थवार्तिक, 1.22., पृ. 245
87. गोम्मटसार (जीवकांड) भाग 2, पृ. 619
88. तत्त्वार्थसार, गाथा 25-27, पृ. 12
89. धवला पु. 13, सूत्र 5-5-56, पृ. 293
अनेकांत पत्रिका जनवरी -मार्च, २०१५
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