मनुष्य जीवन में अनेक प्रकार के ऋण होते हैं। ऋण के बिना मनुष्य जीवन सुव्यवस्थित तरीके से नहीं चल सकता है। जन्म से लेकर जीवनपर्यंत वह ऋण के बिना रह ही नहीं सकता, इसलिए ऋषियों-मनीषियों ने ऋण चुकाने का महत्व बताया है। जिस प्रकार भौतिक जीवन में किसी से आर्थिक ऋण लेने पर उसे निर्धारित अवधि में चुकाना पड़ता है, उसी तरह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जीवन प्राप्त करने के लिए देवऋण चुकाना चाहिए। इसके . लिए सिर्फ सदाचारपूर्ण जीवन यदि रहे तो वही पर्याप्त है। देव-ऋण चुकाने के लिए मनुष्य को नकारात्मक प्रवृत्तियों से संघर्ष करना चाहिए।
दो और भी महत्वपूर्ण ऋणों को अवश्य चुकाना चाहिए जिसमें मातृ-पितृऋण और समाज ऋण को शामिल किया जाए। समाज ऋण में ऋषि ऋण और प्रकृति ऋण भी शामिल है। माता-पिता छोटे बच्चों को अपने हाथ से भोजन कराते हैं, वस्त्र पहनाते हैं, शिक्षण संस्थान तक छोड़ने जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है और माता-पिता वृद्ध हो जाते हैं। वृद्धावस्था भी बच्चे की तरह पराश्रित अवस्था ही होती है। जब माता-पिता या साथ में अन्य सदस्य, जिन्होंने बचपन में पालन-पोषण किया, वे अशक्त हो जाएं तो फिर उनकी उसी तरह मदद। करनी चाहिए जिस तरह बचपन में उन्होंने की। जो वृद्धों की सेवा करते हैं, वे इससे मुक्त हो जाते हैं। हर मनुष्य का दायित्व होता है कि वह समाज को वही माहौल दे जैसा माहौल उसे जन्म लेते मिला और उस अनुकूल महौल में पला-बढ़ा। शरीर के लिए हर मनुष्य भोज्य पदार्थ लेता है, सांसों के लिए प्राणवायु, पीने के लिए जल, शरीर को ऊर्जान्वित रखने के लिए विविध प्रकार की ऊर्जा तथा ज्ञान के लिए शब्दों का श्रवण करता है और अपने विचारों की अभिव्यक्ति शब्दों से करता है। ये सब प्रकारांतर से समाज के साथ प्रकृति और ऋषि ऋण ही हैं। अतः पंच भौतिक तत्वों को क्षति। न पहुंचा कर उन्हें समृद्ध करना भी ऋण मुक्ति है। ऋण-मुक्ति से ही सद्गति प्राप्त होती है।