जिस एकता को हम बात करते हैं, क्या उसके पथ पर चला जा सकता है। एकत्व वस्तुतः शब्द नहीं, जीवन पद्धति है। जिस मनुष्य की आंतरिक संरचना कुछ ऐसी हो जाए कि बाह्य कुछ भी प्रभाव कुप्रभाव उसे विचलित न करें, किसी भी प्रकार की कठिनाई या दुविधा उसे न सताए, चारों ओर का वातावरण परमात्मा के तेजस्वरूप का प्रतिनिधि बने, जीवन का प्रत्येक पक्षे उच्च गुणों से घुला रहे, उसी अवस्था में समझना चाहिए कि हमने जीवन के एकत्व पथ पर बढ़ना सीख लिया है।
मन ही हमारे लिए बंधन बनता है तो अनुकूल स्थितियां भी वही बनाता है। मन को जब हम एकत्व की धारा से जोड़ देंगे, परमात्मा को अभिन्न सहयोगी स्वीकारेंगे एवं अपने जीवन को शुभ, मंगल, उत्कर्ष को दिशा में प्रेरित करेंगे तो उसी दिन से हमारा चिंतन उस ओर बढ़ चलेगा, जिधर आत्मा का सुराज्य अवस्थित है। अपने भीतर समाई इस दिव्यता को उभारना ही मनुष्य का कर्तव्य है।
हमें मानव आत्मा को विमुक्त करने का सुस्वप्न देखना चाहिए। जो आत्मा अपनी क्षमता एवं स्वभाव को न पहचान, बिना आदर्श की दिशा में बढ़े यूं ही दिन व्यतीत करता है, उसका उत्सर्ग कभी भी दिव्य भावनाओं के अनुरूप नहीं हो पाता। आदर्श चरित्र एवं उचित प्रेरणा तभी उभरते हैं जब हममें मानव होने का सच्चा स्वाभिमान जाग सके। यही वह प्रेरणा है, जो किसी भी मनुष्य को ऊंचा उठाती एवं उसे कर्तव्य पथ पर ले चलती है। हमारा जीवन अंधकार में प्रकाश के सदृश ज्योतित हो उठे तथा कुभावनाओं एवं अनुचित कर्मों का उसमें समावेश न रहे। यही उत्कृष्टता, विशालता एवं महानता का राजमार्ग है। इसे अपना कर किसी का भी जीवन घाटे में नहीं रहा और आप भी अगर इस पथ पर चलते हैं तो निश्चित है आपका जीवन भी संवरने लगेगा। यही एकत्व प्रधान मन अपनी समस्याओं को सुलझाता हुआ अपने दिव्य लक्ष्य की खातिर उत्सर्ग को प्राप्त होता जाएगा और तब जीवन में कोई कठिनाई नहीं रह जाएगी।