शिवतरु की जड़ सम्यग्दर्शन, इस बिना मोक्षफल क्या होगा।
भगवान्! तुम्हारी भक्ती से, बढ़ करके मोक्षपथ क्या होगा।।टेक.।।
भक्ती ही तो समकित, निश्चय व्यवहार द्विविध।
स्वात्मा की श्रद्धा ही, निश्चय सम्यक्त्व सहित।।
तीर्थंकर प्रभु की श्रद्धा बिन, निश्चय समकित भी क्या होगा।भग.।।१।।
जिनपूजा सामायिक, शास्त्रोक्त विधी हो यदि।
अभिषेक सहित पूजा, इस सम नहिं कुछ दूजा।।
जिनपूजा बिन सामयिक व्रत, श्रावक का व्रत भी क्या होगा।।भग.।।२।।।
जिनवर का आह्वानन, मन में कर अवतारण।
वसुविध करके अर्चन, पापों का हो खंडन।।
ऋषभेश्वर की भक्ती के बिन, आत्मा परमात्मा क्या होगा।।भग.।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदश्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदश्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदश्रीऋषभदेवतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सरयू नदी का नीर स्वर्णभृंग में भरूँ।
ऋषभेश पाद पद्म में त्रयधार मैं करूँ।।
हे नाथ आपके गुणों की अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आप प्रार्थना करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर कपूर को घिस चंदन सुरभि लिया।
जिननाथ चरण चर्च मैं मन को सुवासिया।।
हे नाथ आपके गुणों की अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आप प्रार्थना करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल अखंड शालि धोय थाल में भरे।
जिन अग्रपुंज धारते अखंड सुख भरें।।हे नाथ.।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब केतकी चंपा खिले खिले।
जिनपाद में चढ़ावते सम्यक्त्व गुण मिले।।हे नाथ.।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूड़ी सोहाल मालपुआ थाल भर लिये।
जिन अग्र में चढ़ाय आत्मतृप्ति कर लिये।।हे नाथ.।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिदीप में कपूर ज्योति को जलावते।
जिन आरती करंत मोह तम भगावते।।हे नाथ.।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धूपपात्र में सुगंध धूप खेवते।
उन पाप कर्म भस्म होय आप सेवते।।हे नाथ.।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अनार आम संतरा मंगा लिया।
जिन अग्र में चढ़ाय श्रेष्ठ फल को पा लिया।।
हे नाथ आपके गुणों की अर्चना करूँ।
निजगुण समूह हेतु आप प्रार्थना करूँ।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अर्घ्य लेय श्रेष्ठ रत्न मिलाऊँ।
जिन अग्र में चढ़ाय चित्त कमल खिलाऊँ।।हे नाथ.।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन भारती में अति पवित्र ज्ञान जल भरा।
इसमें के कुछ बूंदों को ले मन पात्र में भरा।।
प्रभु पादकमल में अभी जलधार मैं करूँ।
निज मन पवित्र होएगा यह आश मैं धरूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जिनगुण कथन सुमन सुगंध वर्ण वर्ण के।
उनसे करूँ पुष्पांजलि हर्षित मना होके।।
सब आधि व्याधि दूर हों धन धान्य सुख बढ़ें।
जिन पाद अर्चना से आत्म दीप्ति भी बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा
प्रभु अनंत गुण के धनी, शुद्ध सिद्ध भगवंत।
मुख्य आठ गुण को नमूँ, पुष्पांजलि विकिरंत।।१।।
।।अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
तर्ज—आवो बच्चों तुम्हें दिखायें…
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं, जय जय आदिजिनं।
जय जय आदिजिनं, जय जय आदिजिनं।।१।।
दर्शन मोहनी है त्रयविध, चार अनंतानूबंधी।
मोहकर्म को नाश जिन्होंने, पाया क्षायिक समकित भी।।
इस गुण से अगणित गुण पाये, उन गुणमणि श्रीमान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२।।
वर्ण स्पर्श गंध रस विरहित, शुद्ध अमूर्तिक आत्मा है।
जिनने प्रगट किया निज गुण को, वे प्रबुद्ध परमात्मा हैं।।
गुण गाथा हम गायें निशदिन, ज्योतीपुंज महान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।३।।
ॐ ह्रीं मोहनीयकर्मविघातकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय सम्यक्त्वगुण-सहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।१।।
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।४।।
ज्ञानावरण कर्म को नाशा, पूर्णज्ञान प्रगटाया है।
युगपत् तीन लोक त्रयकालिक, जान ज्ञान फल पाया है।।
शत इन्द्रों से वंद्य सदा जो, उन आदर्श महान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।५।।
चौदह गुण स्थान से विरहित, शुद्ध निरंजन आत्मा है।
जिनने निज का ध्यान किया है, वे विशुद्ध सिद्धात्मा हैं।।
मुनियों से भी वंद्य सदा हैं, उन प्रभु ज्योतिर्मान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।६।।
ॐ ह्रीं ज्ञानावरणकर्मविघातकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय ज्ञानगुण-सहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।२।।
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।७।।
सर्व दर्शनावरण घात कर, केवल दर्शन प्रगट किया।
युगपत् तीन लोक त्रैकालिक, सब पदार्थ को देख लिया।।
जिनको गणधर गुरु भी ध्याते, उन दृष्टा भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।८।।
चौदह जीव समास सहित ये, संसारी जीवात्मा हैं।
इनसे विरहित नित्य निरंजन, शुद्ध बुद्ध परमात्मा हैं।।
योगीश्वर भी वंदन करते, सर्वदर्शि भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।९।।
ॐ ह्रीं दर्शनावरणकर्मविघातकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय दर्शनगुण-सहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।३।।
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।१०।।
अंतराय शत्रू के विजयी, शक्ति अनंती प्रगटाई।
काल अनंतानंते तक भी, तिष्ठ रहे प्रभु श्रम नाहीं।।
हम भी करते नित उपासना, अनंत शक्तीमान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।११।।
दशों द्रव्य प्राणों से प्राणी, जन्म मरण नित करता है।
निश्चयनय से शुद्ध चेतना, प्राण एक ही धरता है।।
एक प्राण के हेतु वंदना, शुद्धचेतनावान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।१२।।
ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविघातकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय वीर्यगुणसहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।४।।
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।१३।।
सूक्ष्मत्व गुण पाया जिनने, नाम कर्म का नाश किया।
सूक्ष्म और अंतरित दूरवर्ती, पदार्थ को जान लिया।।
योगीश्वर के ध्यानगम्य जो, अचिन्त्य महिमावान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।१४।।
आहारेन्द्रिय आयू श्वासोच्छ्वास वचन मन पर्याप्ती।
इनसे विरहित शुद्ध चिदात्मा, में असंख्य गुण की व्याप्ती।।
मुनि के हृदय कमल में तिष्ठें, उन गुणरत्न निधान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।१५।।
ॐ ह्रीं नामकर्मविनाशकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय सूक्ष्मगुणसहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।५।।
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।१६।।
आयु कर्म से शून्य जिन्होंने, अवगाहन गुण पाया है।
जिनमें सिद्ध अनंतानंतों, ने अवगाहन पाया है।।
भविजन कमल खिलाते हैं जो, उन अतुल्य भास्वान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।७।।
संज्ञा हैं आहार व भय, मैथुन परिग्रह संसार में।
इनसे शून्य सिद्ध परमात्मा, तृप्त ज्ञान आहार में।।
सिद्धों का वंदन जो करते, मिले राह कल्याण की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।१८।।
ॐ ह्रीं आयुकर्मविनाशकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय अवगाहनगुण-सहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।६।।
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।१९।।
ऊँच नीच विध गोत्रकर्म को, ध्यान अग्नि में भस्म किया।
अगुरुलघु गुण से अनंत युग, तक निज में विश्राम किया।।
त्रिभुवन के गुरु माने हैं जो, उन अविचल गुणवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२०।।
चतुर्गती के नाना दु:खों, से जो जन अकुलाये हैं।
वे ही पूजा भक्ती करने, चरणशरण में आये हैं।।
मैं भी भक्ती करके छूटूँ, उन श्रीसिद्ध महान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२१।।
ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविघातकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय अगुरुलघुगुणसहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।७।।
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२२।।
सात असाता द्विविध वेदनी, ध्यान अग्नि से जला दिया।
अव्याबाध सुखामृत पीकर, निज से निज को तृप्त किया।।
भक्ति नाव से भव्य तिरें जो, उन शुद्धात्म महान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२३।।
शारीरिक मानस आगंतुक, नाना दु:ख उठाये हैं।
जो इन दु:खों से विरहित हैं, शरण उन्हीं की आये हैं।।
स्वात्म सुखामृत पीने हेतू, शरण सिद्ध भगवान की।
सिद्धशिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२४।।
ॐ ह्रीं वेदनीयकर्मविघातकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय अब्याबाधगुण-सहिताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।८।।
पूर्णार्घ्य
आओ हम सब करें अर्चना, ऋषभदेव भगवान की।
सिद्ध शिला पर राज रहें जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२५।।
शुक्लध्यान की अग्नि जलाकर, आठ कर्म को भस्म किया।
केवलज्ञान सूर्य को पाकर, आठ गुणों को व्यक्त किया।।
सिद्धों का जो वंदन करते, मिले राह कल्याण की।
सिद्ध शिला पर तिष्ठ रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२६।।
यह अपार भवसागर भव्यों, दु:ख नीर से भरा हुआ।
इसको पार करें हम सब जन, भक्ति नाव अवलम्ब लिया।।
सिद्धों का जो वंदन करते, मिले राह कल्याण की।
सिद्ध शिला पर तिष्ठ रहे जो, उन अनंत गुणखान की।।
जय जय आदिजिनं-४।।२७।।
ॐ ह्रीं अष्टकर्मविनाशकाय तथैवकर्मनाशनशक्तिप्रदाय सम्यक्त्वादिप्रमुख-अष्टसिद्धगुणसमन्विताय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।।१।।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—१. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय सर्वसिद्धिकराय सर्वसौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
२. ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवाय नम:। (दोनों में से कोई एक मंत्र जपें)
(सुगंधित पुष्पों से या लवंग से १०८ या ९ बार जाप्य करें।)
दोहा
भूत भावि तीर्थेश की, चौबीसी आनन्त्य।
पुरी अयोध्या में कही, नमूँ नमूँ जगवंद्य।।१।।
शेर छंद
जय जय श्रीपुरुदेव नाभिराय के नंदा।
जय जय युगादिदेवदेव प्रथम जिनंदा।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
जिनधर्म निधि पाय मैं धनवान हो गया।।१।।टेक.।।
प्रभु आपने जीने की कला सबको सिखायी।
असि मषि कृषि वाणिज्य आदिक्रिया बताई।।हे नाथ.।।२।।
ब्राह्मी व सुन्दरी को विद्याध्ययन कराया।
ब्राह्मी लिपी व गणित ज्ञान जगत ने पाया।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
जिनधर्म निधि पाय मैं धनवान हो गया।।३।।
सब पुत्र को सम्पूर्ण विद्या दान दिया था।
राजा बना के राजनीति ज्ञान दिया था।।हे नाथ.।।४।।
नीलांजना के नृत्य से विरक्त हुये थे।
माता-पिता परिवार सभी त्याग दिये थे।।हे नाथ.।।५।।
रानी यशस्वती सुनंदा को भी तजा था।
सुत इक सौ एक दो सुताओं को भी तजा था।।हे नाथ.।।६।।
प्रभु सिद्ध की साक्षी से मुनिनाथ हुये थे।
इक सहस वर्ष बाद केवलज्ञानि हुये थे।।हे नाथ.।।७।।
प्रभु के समवसरण में थीं बारह सभा बनीं।
जिसमें असंख्य भव्य सुन रहे थे जिनध्वनी।।हे नाथ.।।८।।
श्री ऋषभसेन आदी गणधर थे चौरासी।
मुनिराज चौरासी हजार, स्वात्म विकासी।।हे नाथ.।।९।।
ब्राह्मी प्रमुख गणिनी थीं, आर्यिकाओं में प्रथम।
थीं साढ़े तीन लाख आर्यिकायें स्वच्छमन।।हे नाथ.।।१०।।
त्रयलाख सु श्रावक व पाँच लाख श्राविका।
चक्री भरत सम्राट वहाँ मुख्य थे श्रोता।।हे नाथ.।।११।।
जो चार सहस नृपति दीक्षा भ्रष्ट हुये थे।
वे तुम शरण में आके शुद्ध स्वस्थ हुये थे।।हे नाथ.।।१२।।
जो थे मरीचि भ्रष्ट अन्त्य तीर्थंकर हुये।
प्रभु देशना परम्परा से वीर बन गये।।हे नाथ.।।१३।।
प्रभु आप ही अनंतानंत गुणों के धनी।
प्रभु लोक औ अलोक के द्रष्टा कहें मुनी।।हे नाथ.।।१४।।
वर ज्ञानदर्श सौख्य वीर्य अगुरुलघु थे।
अवगाहना सूक्ष्मत्व अव्याबाध सुगुण थे।।हे नाथ.।।१५।।
इन आठ गुण से आप सिद्धिनाथ कहाये।
पुनरागमन से रहित त्रिजगनाथ कहाये।।हे नाथ.।।१६।।
सब अतिशयों से पूर्ण दोषशून्य ईश हो।
ब्रह्मा महेश विष्णु नमाते हैं शीश को।।हे नाथ.।।१७।।
प्रभु आप कीर्ति आज सर्व ग्रन्थ गा रहे।
तुम भक्ति से समस्त इष्ट सिद्धि पा रहे।।हे नाथ.।।१८।।
हे नाथ! इसी हेतु आप शरण में आया।
कैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ हेतु माथ नमाया।।हे नाथ.।।१९।।
दोहा
नाथ! आप गुणरत्न को, गिनत न पावें पार।
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।।२०।।
ॐ ह्रीं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा:।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य ऋषभदेव का विधान यह करें।
सम्पूर्ण अमंगल व रोग शोक दुख हरें।।
अतिशायि पुण्य प्राप्त कर ईप्सित सफल करें।
कैवल्य ‘‘ज्ञानमती’’ से जिनगुण सकल भरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।