भव्यात्माओं! जैसे चिन्तामणि रत्न के बारे में सुना जाता है कि वह चिंतित फल को प्रदान करने वाला होता है, जिसे प्राप्त करके मानव भौतिक सुख-संपत्तिवान् बन जाता है। उसी प्रकार से जिन सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन करके स्वाध्यायी जन मनवांछित ज्ञान की पिपासा को शान्त कर लेते हैं। उन ग्रंथों की नूतन टीका का नाम है-सिद्धान्तचिंतामणिटीका।
अपनी मौलिक विचारधारा को आधार बनाकर स्वतंत्र ग्रंथ का लेखन कर लेना तो सरल माना जा सकता है किन्तु पूर्वाचार्यों की सूत्ररूप वाणी का आधार लेकर उनके मनोभावों को दृष्टि में रखकर पूर्वापर आगम से अविरुद्ध वचनरूपी मोतियों की माला पिरोते हुए किसी सैद्धान्तिक सूत्रग्रंथ की टीका लिखना अत्यंत दुरूह कार्य है।
इसकी कठिनता तो मात्र वे विशिष्ट प्रबुद्धजन ही जान सकते हैं जिन्होंने या तो उन टीकाग्रंथों का सूक्ष्मता से अवलोकन किया हो अथवा कोई ऐसा दुरूह लेखनकार्य किया हो। नीतिकारों ने इस विषय में कहा भी है—
अर्थात् बन्ध्या स्त्री जिस प्रकार पुत्रप्रसव की वेदना को नहीं जान सकती है, उसी प्रकार विद्वान् के अतिरिक्त साधारण मनुष्य ग्रंथलेखन के परिश्रम का अनुमान भी नहीं लगा सकते हैं।
हमारे पूर्वाचार्यों ने अपने ध्यान आदि में से समय निकालकर महान् परिश्रमपूर्वक लेखन करके जैनवाङ्मय का सारतत्त्व भव्यात्माओं के लिए प्रदान किया है। उनमें से ही भगवान महावीर की दिव्यध्वनि से प्राप्त अंगपूर्वों का ज्ञान जब लुप्तप्राय: होने लगा तब श्रीधरसेनाचार्य की कृपाप्रसाद से आचार्ययुगल श्री पुष्पदंत एवं भूतबलि जी ने सूत्र ग्रंथों की रचना करके ‘‘षट्खंडागम’’ नामक सिद्धांतशास्त्र का निर्माण किया।
समय के अनुसार जहाँ संक्षेप रुचि वाले शिष्यों का अभाव होने लगा वहीं स्थूलबुद्धि के धारक मनुष्यों में उन सूत्रों का सरल अर्थ जानने की जिज्ञासा भी उत्पन्न हुई। पुन: आज से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व ‘‘श्रीवीरसेन’’ नाम के महान् ज्ञानी आचार्य हुए जिन्होंने सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ प्राकृत और संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करके ‘‘षट्खंडागम’’ सूत्रों पर ‘‘धवला’’ नाम की टीका का लेखन किया। वर्तमान में इसी टीका के नाम पर ही षट्खण्डागम गं्रथ की पहचान हो रही है और अपने नाम के अनुरूप ही धवलाग्रंथ ज्ञानियों के मन को धवल-पवित्र करने में अमृत के समान है।
इन ‘‘षट्खंडागम’’ सूत्र ग्रंथों पर अन्य किन-किन आचार्यों के द्वारा टीका आदि लिखी गर्ई हैंं, यह प्रस्तुत ग्रंथ के मूल विषयवस्तु में दर्शाया गया है।
एक अतिशयकारी टीका का पुन: प्रादुर्भाव—बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक निश्चितरूप से परमसौभाग्यशाली मानना होगा जब भारतदेश ने पौद्गलिकशक्ति के फलस्वरूप अनेक वैज्ञानिक प्रगतियों के साथ ही आजादी की स्वर्णजयंती वर्ष में पोखरन (राज.) के परमाणु विस्फोट के द्वारा अपनी स्वतंत्रता का अर्थ भी दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करके दिखा दिया ऐसे युग में आध्यात्मिक शक्तियों ने भी अपना विकसित रूप प्रगट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
आचार्य पुष्पदंत-भूतबलि द्वारा रचित इन षट्खंडागम सूत्रों पर श्रीवीरसेनाचार्य के पश्चात् किसी भी आरातीय आचार्य अथवा विद्वान् ने लेखनी चलाने का उपक्रम नहीं किया था, वह उद्यम बीसवीं सदी की ऐतिहासिक साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने कर दिखाया है। जैसा कि उन्होेंने स्वयं ग्रंथ की प्रारंभिक भूमिका में अपने प्रतिज्ञावाक्य में कहा है—
अर्थात् इस षट्खंडागम ग्रंथ की छह टीकाएँ सुनी जाती हैं किन्तु वर्तमान में एकमात्र धवला नाम की टीका ही उपलब्ध है। इस धवला टीका के आधार से ही स्वयं विशेष जानने की इच्छा से अनेक प्रकरणों को वहाँ से ज्यों के त्यों उद्धृत करके, किन्हीं प्राकृत पंक्तियों की संस्कृत छाया करके, कुछ विषयों को संक्षिप्त करके, किन्हीं प्रसंगोपात्त विषयों को सरल करने के लिए अन्य ग्रंथों के विशेष उद्धरणों को भी संग्रहीत करके मेरे द्वारा यह ‘‘सिद्धांतचिंतामणि’’ नाम की टीका लिखी जा रही है।
सरलता एवं पापभीरुता का अद्वितीय उदाहरण—उपर्युक्त पंक्तियों में टीककर्त्री की स्पष्टवादिता वास्तव में उनकी पूर्ण ईमानदारी एवं पापभीरुता का परिचायक है किन्तु आज प्राय: अनेक लेखकों की कृतियों में यह बेईमानी धड़ल्ले से देखी जा रही है। कितने ही लेखक-लेखिकाएँ, सम्पादक आदि अत्यंत प्राचीन आचार्यों की कृति में भी संशोधन, परिवर्तन, परिवर्द्धन करने में बिल्कुल भी डरते नहीं हैं प्रत्युत् इस कार्य में अपने को उनसे अधिक व्याकरणज्ञानी महसूस करते हैं। कई हिन्दी अनुवादक साधु-साध्वी भी मूल कृति का नाम ही बदल कर नया नाम दे रहे हैं जो अत्यंत विचारणीय विषय है और परमार्थ से नैतिक अपराध का द्योतक है।
टीकाकर्त्री के ज्ञानगाम्भीर्य को मैंने स्वयं पग-पग पर अनुभव किया है, क्योंकि इस टीका का हिन्दी अनुवाद करते समय अनेक स्थानों पर मैंने अवलोकन किया कि मूलग्रंथ के विषय को जनसामान्य तक सरलतापूर्वक पहुँचाने के लिए उन्होंने अनेक उच्चकोटि के ग्रंथों में से प्रसंगोपात्त उद्धरण दिये हैं, फिर भी वे ग्रंथ के प्रारंभ में अपनी लघुता ही प्रदर्शित करती हुई कहती हैं—
अर्थात् स्वयं को अल्पबुद्धि कहकर उन्होंने इस टीका को और भी महिमामण्डित कर दिया है। इसके पठन से पाठकों में भी स्वयमेव नम्रता की कलिका प्रस्फुटित होकर सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकेगा जो कि आगमग्रंथों के स्वाध्याय का फल माना गया है।
सूत्रों का समुचित हिसाब समुदायपातनिका में है—पूरे ग्रंथ का आलोढन करने के बाद इस टीका का लेखन सचमुच में उत्कृष्टता का द्योतक है। जो कार्य मूल ग्रंथ में देखने को नहीं मिलता है वह इसमें माताजी ने मूल मंगलाचरण सूत्र से पहले ही दे दिया है कि बीस प्ररूपणाओं में से इस सत्प्ररूपणा ग्रंथ में तीन महाधिकार हैं और उनमें कुल एक सौ सतत्तर (१७७) सूत्र हैं जो अनेक अंतरस्थलों में विभक्त हैं।
सभी महाधिकारों के प्रारंभ में अंतरस्थलों की संख्या तथा सूत्रों की संख्या को बतलाकार ही विषयवस्तु का शुभारंभ किया गया है ताकि स्वाध्यायी सरलता से समझ सकें कि इस अधिकार में क्या विषय है। जैसे प्रथम महाधिकार की समुदायपातनिका का संक्षिप्त नमूना देखें—
अर्थात् इन पंक्तियों में यह स्पष्ट हो गया कि प्रथम ‘‘पीठिका’’ नामक महाधिकार में चार अंतराधिकार हैं। जिनके माध्यम से इस अधिकार में मंगलाचरण रूप णमोकार महामंत्र का विस्तृत विवेचन, गुणस्थान एवं मार्गणाओं का वर्णन एवं आठ अनुयोगद्वारों का कथन किया गया है।
टीकाकर्त्री का यह श्रमसाध्य कार्य सराहनीय तो है ही, आगे ग्रंथ पर शोध करने वाले जिज्ञासुओं के लिए ये समुदायपातनिकाएँ कुंजी के समान सहायक भी सिद्ध होंगी।
मंगलाचरण ही प्रथम सूत्र है—अनादिनिधन णमोकार महामंत्र को मूल मंगलाचरण बनाकर ग्रंथकर्ता ने उसे ही प्रथम गाथासूत्र माना है और आगे के सूत्रों का प्रारंभ दो नम्बर से किया है। यूूँ तो वीरसेनस्वामी ने भी धवला टीका में मंगलाचरण का अच्छा विस्तारीकरण किया है फिर भी इस नूतन टीका में णमोकार मंत्र के ३५ अक्षर, ५८ मात्रा एवं स्वर-व्यञ्जन आदि का सुंदर विवेचन है। इस मंत्र के माध्यम से जिन पंचपरमेष्ठियों का स्मरण किया जाता है, मैंने हिन्दी टीका में उनके मूलगुणों का भी यथास्थान वर्णन दिया है। इन कतिपय विशेषताओं से सहित यह मंगलाचरण प्रकरण विशेष रूप से पठनीय बन गया है।
णमोकारमंत्र अनादि मंत्र कैसे है?—इस महामंत्र प्रकरण में निबद्ध और अनिबद्ध मंगल का स्वरूप पढ़ते समय कभी-कभी मन दिग्भ्रमित होने लगता है कि णमोकार मंत्र संभवत: इसी षट्खंडागम ग्रंथ के कर्त्ता द्वारा निर्मित किया गया होगा। किन्तु इस टीका के पढ़ने के बाद उस संदेह का पूर्णतया निवारण हो जाता है क्योंकि टीकाकर्त्री ने णमोकार—एक अनुचिंतन पुस्तक में वर्णित धवला टीका की निम्न पंक्तियों में स्पष्ट कर दिया है कि—
अर्थात् इस मंगलाचरण में णमोकार मंत्र को आचार्य श्रीपुष्पदंत स्वामी ने स्वयं बनाया नहीं है बल्कि उसका संग्रह किया है इसलिए वह अनादिनिधन मंत्र उपर्युक्त पंक्तियों से शाश्वत सिद्ध हो जाता है।
उपर्युक्त संस्कृत पंक्तियाँ धवला की मुद्रित प्रति में तो नहीं हैं किन्तु ‘‘णमोकार मंत्र—एक अनुचिंतन’’ पुस्तक के लेखक ने किसी प्रति में प्राप्त किया है सो उनके अनुसार ही यहाँ भी दी गई हैं।
इस णमोकार मंत्र को सादि एवं अनादि दोनों रूप मानने की परम्परा भी है, विद्वज्जन उसके प्रमाण स्वयं देखें।
श्रीसकलकीर्ति भट्टारक के द्वारा रचित उसी ‘‘णमोकारमंत्र कल्प’’ पुस्तक का उद्धरण भी अपनी टीका में देते हुए महामंत्र की अनादिनिधनता सिद्ध की है—
अर्थात् पंचपरमेष्ठियों को नमस्कारस्वरूप महामंत्र संसार में सबसे महान् और अनादिसिद्ध मंत्र है।
इस मंत्र से ८४ लाख मंत्रों का उद्भव माना जाता है, षट्खंडागम ग्रंथ में मंगलाचरण के स्थान पर इसका प्रयोग करना वास्तव में महामंत्र की महानता को और भी असंख्यगुणित कर देता है।
इस ग्रंथ की सिद्धांतचिंतामणि टीका का ज्यों-ज्यों अवलोकन करेंगे, त्यों-त्यों इसमें नये-नये विषयों का संकलन प्राप्त होगा, जैसे कि मूलग्रंथ रचना के हेतुओं का प्रतिपादन करते हुए परिमाण का भी वर्णन करते हुए लिखा है कि—
अर्थात् ग्रंथ अध्ययन के हेतुओं में मोक्षप्राप्ति का हेतु तो सबसे प्रबल है एवं जिनपालित नामक अपने भानजे के निमित्त से इस ग्रंथ को रचने का अभिप्राय भी आचार्यदेव ने इसमें स्पष्ट कर दिया है। इससे जहाँ श्रीपुष्पदंताचार्य का श्रुतसरिता को अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित करने का भाव झलकता है, वहीं अपने गृहस्थावस्था के परिवारजनों को भी त्यागमार्ग में प्रवृत्त करने की अभिलाषा भी स्पष्ट प्रतिभासित होती है। उनकी इस परम्परा का निर्वहन संयोगवश इस टीका रचयित्री ने भी अतिशय रूप से किया है क्योंकि उन्होंने जैसे अनेक संसारी प्राणियों को शिक्षा-दीक्षा देकर मोक्षमार्ग में लगाया, उसी प्रकार अपने गृहस्थ परिवारजनों को भी भरपूर प्रेरणा देकर उन्हें त्यागपथ पर अग्रसर किया है। जैसे-उनकी माँ मोहिनी जी ने आर्यिका दीक्षा लेकर अपना ‘‘रत्नमती’’ नाम सार्थक किया तथा एक बहन मनोवती जी आर्यिका श्री अभयमती जी के रूप में रही हैं और उनकी दूसरी बहन कु. माधुरी (मैं स्वयं) आर्यिका चंदनामती बनकर उनकी छत्रछाया में रत्नत्रयाराधना कर रही हूँ। इसी प्रकार से एक गृहस्थ भ्राता ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन भी इसी पथ पर चल रहे हैं जिनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा भविष्य की उज्ज्वलता को दर्शाती है।
यहाँ प्रसंगोपात्त मैंने इस विषय का संक्षेप में उल्लेख किया है चूँकि मुझे भी टीकाकर्त्री श्री ज्ञानमती माताजी की लघु भगिनी होने के सौभाग्य के साथ-साथ उनकी इस संस्कृत टीका का हिन्दी अनुवाद करने का पुण्य भी प्राप्त हुआ है। जैनवाङ्मय की अविच्छिन्नता में पूज्य मातुश्री का अपूर्व योगदान है जिसे युग कभी विस्मरण नहीं कर सकता है।
उपर्युक्त हेतु प्रकरण के अनंतर उन्होंने सत्प्ररूपणा की इस टीका में ग्रंथ का परिमाण देते हुए कहा है कि श्रुत, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक और अनुयोगद्वारों की अपेक्षा संख्यात तथा अर्थ की अपेक्षा अनंत है।
वह अनंत श्रुतरूप वाङ्मय अरिहंत और सिद्ध अवस्था के अतिरिक्त छद्मस्थों में तो होना कदापि सम्भव ही नहीं है अत: उसका श्रद्धान मात्र करना ही हम सबके लिए श्रेयस्कर है।
विभिन्न अपेक्षाओं से ग्रंथकर्ताओं का निर्णय—यद्यपि पूर्व कथनों से यह ज्ञात हो चुका है कि इस षट्खंडागम ग्रंथ के कर्ता श्रीपुष्पदंत-भूतबलि आचार्य हैं फिर भी धवला टीकाकार के बुद्धि कौशल की विशेषतावश इस टीका में भी पूज्य माताजी ने द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव इन चार निक्षेपों की अपेक्षा कर्त्ता का निरूपण करते हुए भगवान महावीर स्वामी को द्रव्यदृष्टि से अर्थकर्त्ता माना है, क्षेत्र की अपेक्षा राजगृह के विपुलाचल पर्वत को, काल की अपेक्षा श्रावण कृष्णा प्रतिपदा (एकम्) तिथि को तथा भाव की अपेक्षा अनंतचतुष्टय एवं नवलब्धि से परिणत तीर्थंकर देव को ही अर्थकर्त्ता स्वीकार किया है।
इसी संदर्भ में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को युग का आदिदिवस भी बतलाया है तथा तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के आधार से वीरजिनेन्द्र को ही अर्थकर्त्ता सिद्ध किया है क्योंकि उनकी दिव्यध्वनि ग्रंथरचना की मूल नींव है। इस विषय में टीकाकर्त्री की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं—
भगवान महावीर के पश्चात् इस धरती पर कोई तीर्थंकर महापुरुष नहीं हुए हैं और उनके उपदेश के बाद ही दिगम्बर जैनाचार्यों ने ग्रंथ लेखन की परम्परा शुरू की है इसीलिए उन्हें अर्थकर्त्ता मानने में कोई विवादास्पद स्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं।
इसी श्रृंखला में तीर्थंकर महावीर के प्रथम गणधर श्रीइंद्रभूति गौतम को ग्रंथकर्त्ता सिद्ध करते हुए श्रीवीरसेनस्वामी की प्राकृत पंक्तियाँ उद्धृत की हैं कि—
अर्थात् ‘‘उन इंद्रभूति गौतम ने भावश्रुतपर्यायज्ञान से परिणत होकर एकमुहूर्त मात्र में बारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रंथों की रचना कर दी।’’ इसीलिए उन गणधरस्वामी को ग्रंथकर्त्ता माना गया है।
बारह अंगों में क्या विषय है?—जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि द्वादशांगरूप मानी गई है उसका विवेचन करते हुए पूज्य माताजी ने पृथक्-पृथक् सब अंगों के स्वरूप बताये हैं और उनके उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जैसे—प्रथम आचारांग के वर्णन में मुनियों के आचार से संबंधित प्रश्नोत्तर में अन्य ग्रंथ का प्रमाण देते हुए कहा है—
प्रश्न-‘‘कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये, कधं भुंजेज्ज भासेज्ज जदो पावं ण बज्झई।।’’
अर्थात् शिष्य ने गुरु से पूछा कि हे भगवन्! मैं कैसे चलूँ, कैसे बैठूँ, कैसे शयन करूँ, कैसे भोजन करूँ, कैसे बोलूँ, जिससे कि मुझे पाप का बंध न होने पावे।
पुन: उत्तर रूप में भी इसी प्रकार का पद्य कैसे है—
उत्तर-‘‘जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई।।’’
अर्थात् हे शिष्य! तू यत्नाचारपूर्वक (सावधानीपूर्वक प्रमाद रहित होकर) अपनी समस्त क्रियाएँ करेगा तो तुझे पाप का बंध नहीं होगा।
इसी प्रकार से सप्तम उपासकाध्ययन नामक अंग में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है और दशवें प्रश्नव्याकरण अंग में आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी नाम की चार कथाओं के वर्णन में एक सर्वोपयोगी वाक्य आया है कि—
‘‘अत्रमध्ये या विक्षेपिणी कथा, सा सर्वेषां समक्षे न कथयितव्या। य: कश्चिद् जिनवचनं न जानाति स: कदाचित् परसमयप्रतिपादनपरां इमां कथां श्रुत्वा मिथ्यात्वं गच्छेत्तर्हि तस्य विक्षेपिणी-कथामनुपदिश्य तिस्र: कथा: एव वक्तव्या: सन्ति।’’
अर्थात् ‘‘यह बात विद्वानों के समझने की है कि दूसरों पर भिन्न-भिन्न मतों की पूर्वपक्ष आक्षेपजनक विरोधात्मक कथा सभी के सामने नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो कोई प्राणी जिनागम की कथाओं को ठीक से नहीं जानता है वह कदाचित् मिथ्यात्व की ओर उन्मुख भी हो सकता है अत: ऐसे लोगों के सामने शेष तीन कथाओं का वर्णन ही करना चाहिए।’’
वर्तमान में उन बारह अंगों का अंश हमारे जिनागम में उपलब्ध है, साक्षात् अंग और पूर्वरूप कोई ग्रंथ दिगम्बर जैनशासन में नहीं है।
इसी अंग एवं पूर्व के प्रकरण में राजवार्तिक ग्रंथ के आधार से अंगप्रविष्ट का भी सुंदर वर्णन आया है।
श्रुतदेवी की प्रतिमा आगमसम्मत है—जिनेन्द्रवाणी को शास्त्रों में श्रुतदेवी की उपमा प्रदान की गई है। प्रसंगोपात्त इस ग्रंथ में मंगलाचरण की टीका को ही आगे बढ़ाते हुए प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ का प्रमाण उद्धृत किया है-
इसके पश्चात् ७ श्लोकों में इस स्तोत्र के अंदर पूरे द्वादशांग का वर्णन है जो अवश्यमेव पठनीय है क्योंकि उत्तर भारत में सरस्वती की प्रतिमाओं को जिनमंदिरों में विराजमान करने का प्रचलन नहीं है। सो धवलाटीका में श्रीवीरसेनाचार्य का निम्न प्रमाण भी दृष्टव्य है जो इस ग्रंथ की सिद्धांतचिंतामणि टीका में दिया गया है-
इस प्रकार अन्य रचनाकारों के भी एक-एक पद्य को उद्धृत करते हुए सरस्वती के १६ नाम बताये हैं, यथा—
भारती, सरस्वती, शारदा, हंसगामिनी………… इत्यादि।
इन्हीं सब प्रमाणों के आधार पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर तीर्थ के जम्बूद्वीप स्थल पर जिनमंदिर में सरस्वती माता की सुंदर प्रतिमा विराजमान है जिनके मस्तक पर विराजित अरिहन्त भगवान् की प्रतिमा साक्षात् दिव्यध्वनि रूप श्रुतदेवी का दिग्दर्शन कराती है। इस विषय में विज्ञजनों को कोई शंका नहीं करनी चाहिए।
अविच्छिन्न गुरुपरम्परा—गुरुमुख से ज्ञान प्राप्त कर भविष्य में उसकी अविच्छिन्न परम्परा चलाने का प्रमुख श्रेय तो श्रीगौतमगणधर स्वामी को है। श्री इंद्रनन्दि आचार्य कृत श्रुतावतार के अनुसार सकलश्रुतधारक, चौदह पूर्व ज्ञानधारी, ग्यारह अंग दशपूर्व ज्ञानधारी, अंग-पूर्वों के एकदेश ज्ञाता आदि आचार्यों की क्रम परम्परा का वर्णन करते हुए श्रुतावतार की संक्षिप्त कथा भी दी है जिससे षट्खंडागम का उद्भव कथानक ज्ञात होता है।
षट्खंडागम को स्थायित्व रूप किसने प्रदान किया—हमारे पूर्वाचार्यों ने जंगल की गुफाओं में, जिनमंदिरों तथा मठों में रहकर अनेक ग्रंथों का लेखन ताड़पत्रों के ऊपर सुई से किया है और मंदिरों में ही उन ग्रंथों का रख-रखाव होता था। छापाखानों की परम्परा चलने के बाद भी श्रावकों के प्रमाद या अज्ञानता का ही निमित्त रहा होगा जिससे प्राचीन ग्रंथ प्रकाश में न आ सके और वे दीमक आदि कीड़ों का भोजन बनते रहे। पुन: उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में जन्म लेने वाले प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज ने अपने ग्रंथों की यह दुर्दशा देखकर श्रावकों को षट्खंडागम आदि सिद्धांतग्रंथों को ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण कराने की तथा प्रकाशित करने की पावन प्रेरणा प्रदान की। उस प्रेरणा का उल्लेख पूज्य माताजी ने अपनी टीका में करते हुए गुरुदेव के प्रति अपार श्रद्धा व्यक्त की है। यथा—
इसी गुरुपे्ररणा के आधार पर वीर निर्वाण संवत् २४७१ में एक संस्था की स्थापना हुई जिसका नाम रखा गया—‘‘श्री १०८ चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था’’। पुन: इस संस्था के माध्यम से सिद्धांतग्रंथों का संरक्षण एवं प्रकाशन आदि महान् कार्य हुए हैं अत: उन आचार्यदेव के उपकार को संसार में कभी भुलाया नहीं जा सकता है।
श्रुतज्ञान की विशेषता—सिद्धांतग्रंथों में जहाँ मति-श्रुतज्ञानों को ‘‘परोक्षज्ञान’’ कहा है, वहीं न्यायदर्शन में मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी बताया है। केवलज्ञान क्षायिक होने से सकलप्रत्यक्ष माना गया है किन्तु अंग-पूर्वरूप श्रुत को पढ़कर जो श्रुतकेवली होते हैं उनका ज्ञान भी केवलज्ञान के समान ही निर्मल होता है। उसी श्रुतज्ञान के वर्णन में पूज्य माताजी ने अक्षरात्मक-अनक्षरात्मक रूप दो भेद करके श्रुतज्ञान को पर्याय, पर्यायसमास आदि बीस भेदों में विभक्त किया है और विस्तार से उनके लक्षणों का भी निरूपण किया है, इसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड की तत्त्वप्रबोधिनी संस्कृत टीका का आधार लिया है जो प्रसंगोपात्त सैद्धान्तिक ज्ञान को वृद्धिंगत करने में परम सहायी प्रतीत होता है।
सिद्धान्तचक्रवर्ती पद की सार्थकता—अपने चक्ररत्न से षट्खण्ड पृथ्वी पर विजय करके जैसे भरत आदि अनेक सम्राटों ने चक्रवर्ती पद को प्राप्त किया है उसी प्रकार छह खण्डरूप आगम के ज्ञाता आचार्यों को भी ‘‘सिद्धांतचक्रवर्ती’’ की पदवी से अलंकृत करने की परम्परा रही है और जो तीन खण्डरूप आगम के जानकार हुए उन्हें ‘‘त्रैविद्यदेव’’ की पदवी से विभूषित किया जाता है। इसका वर्णन भी इस सिद्धांतचिंतामणि टीका में आया है कि धवला टीका के पश्चात् हुए आचार्य श्री नेमिचंद्र मुनिराज को ‘‘सिद्धांतचक्रवर्ती’’ की उपाधि थी। जब उन ग्रंथों को पढ़ने वाले आचार्य ने सिद्धांतचक्रवर्ती का पद प्राप्त कर लिया तब उनके रचयिता पुष्पदंत-भूतबलि किस पद के योग्य रहे होंगे यह तो केवलीगम्य ही है अर्थात् उन अगाध ज्ञानी संतों को मेरा कोटि-कोटि नमन है।
ग्रंथ की प्रमाणता—‘‘वत्तृâप्रामाण्याद्वचनं प्रमाणम्’’ इस सूत्र वचन के अनुसार वक्ता की प्रमाणता से वचनों की प्रमाणता भी स्वीकार की गई है। षट्खण्डागम ग्रंथ प्रामाणिक क्यों है? इस सम्बंध में टीका में श्रीवीरसेनाचार्य की पंक्तियाँ भी उद्धृत की गई हैं—
‘‘सांप्रतमन्त्यस्य गुणस्य स्वरूपनिरूपणार्थमर्हन्मुखोद्गतार्थं गणधरदेवग्रथित शब्दसंदर्भं प्रवाहरूपतया-निधन-तामापन्नम-शेषदोषव्यतिरिक्त्वादकलंकमुत्तरसूत्रं पुष्पदंतभट्टारक: प्राह’’—
अर्थात् इस ग्रंथ का विषय साक्षात् अर्हंत भगवान् की दिव्यध्वनि से जुड़ा हुआ है और उसी की अनिधन परम्परा को प्राप्त समस्त दोषों से रहित पवित्र सूत्र का व्याख्यान श्रीपुष्पंदतभट्टारक करते हैं।
धवला टीका का अनुसरण करते हुए इस टीका में भी टीकाकर्त्री ने जगह-जगह सूत्रनिर्माता के लिए ‘‘भट्टारक’’ शब्द का प्रयोग किया है सो ‘‘भट्टारक’’ शब्द से वर्तमान के वस्त्रधारी भट्टारकों को न लेकर प्रत्युत् उत्कृष्ट पूज्यता के प्रतीक तीर्थंकर महावीर, गौतम गणधर एवं दिगम्बर आचार्यों को ही ग्रहण किया है।
इन ग्रंथों का स्वाध्याय अकाल में न करें—प्राय: देखा जाता है कि स्वाध्यायीजन हर वक्त ग्रंथ को पढ़ना चाहते हैं किन्तु सिद्धांत रहस्य के प्रतिपादक सूत्रग्रंथों को अकाल में नहीं पढ़ना चाहिए, यह प्रतिपादन धवला पुस्तक ९ के आधार से इस टीका में किया है जो प्रत्येक स्वाध्यायी के लिए अवश्य पठनीय है।
यदि कोई साधु इन व्यवहारिक क्रियाओं का पालन न करके अकाल में भी सूत्रग्रंथों का स्वाध्याय कर लेते हैं तो उनके लिए अनेक दोष तो हैं हीं, वे दुर्गति के पात्र भी बनते हैं इन बातों का खुलासा हिन्दी टीका में किया गया है।
इसी प्रकरण में एक ‘‘दिक्शुद्धि’’ नाम से कथन बड़ा ही रोचक और पठनीय है जिसमें आचार्य श्रीकुंदकुंदकृत मूलाचार ग्रंथ के आधार से बताया है कि—
पूर्वान्ह, अपरान्ह और प्रदोष काल (पूर्व रात्रि) के स्वाध्याय करने में दिशाओं के विभाग की शुद्धि के लिए नव, सात और पाँच बार गाथा—णमोकार मंत्र को पढ़े।
वर्तमान में प्राय: इस दिक्शुद्धि की ओर स्वाध्यायीजनों का ध्यान नहीं जाता है किन्तु पूज्य माताजी को मैंने सदैव देखा है कि जब कभी वे धवला, जयधवला, महाधवला आदि सैद्धांतिक सूत्रग्रंथों का स्वाध्याय भी करती हैं तो अपनी वसतिका के बाहर निकलकर अथवा अंदर ही ब्राह्ममुहूर्त में वैरात्रिक (पिछली रात्रि का) स्वाध्याय के अनंतर चारों दिशाओं की शुद्धि हेतु ‘‘नमोऽस्तु पौर्वाण्हकाले सिद्धान्तवाचना करणार्थं पूर्वदिक्शुद्धिम् करोम्यहं’’ ऐसा पढ़कर २७ श्वासोच्छ्वासपूर्वक ९ बार णमोकार मंत्र एक दिशा में पढ़ती हैं और इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशाओं में भी उपर्युक्त वाक्य बोलकर ९-९ बार मंत्र पढ़ती हैंं। पुन: रात्रिक प्रतिक्रमण और पौर्वाण्हिक सामायिक के बाद पौर्वाण्हिक स्वाध्याय का काल आता है उस समय विधिवत् कृतिकर्मपूर्वक (श्रुत-आचार्यभक्ति सहित) स्वाध्याय करके उसके समापन के बाद तत्काल अपराण्हकालीन सिद्धांत वाचना हेतु उपर्युक्त तरीके से ही दिक्शुद्धि करने के लिए ७-७ बार णमोकार मंत्र चारों दिशाओं में करती हैं पुन: यदि पूर्वरात्रि में भी उन्हीं सूत्रग्रंथों का पठन अथवा लेखन करना हुआ तो दैवसिक प्रतिक्रमण से पूर्व ५-५ बार णमोकार मंत्र पढ़कर दिक्शुद्धि करती हैं और यदि रात में नहीं किया तो यह दिक्शुद्धि नहीं करती हैं।
इसी क्रम को पूज्यश्री ने मुझे भी इन ग्रन्थों के अनुवादकाल में बताया जिसका अनुसरण करते हुए मैंने पूर्ण दिक्शुद्धिपूर्वक ही इस अनुवादकार्य को किया है। इस टीका रचना से पूर्व भी जब-जब संघ में षट्खंडागम ग्रंथों का सामूहिक स्वाध्याय चला तो भी माताजी ने स्वयं तथा हम शिष्यों को इस दिक्शुद्धि को करने की प्रेरणा दी है।
इस विषय में कोई भी प्रश्न या तर्क महत्त्व नहीं रखते हैं क्योंकि शास्त्रोक्त विधि का पालन करने से अपने ज्ञान में निर्मलता आती है और ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है इसमें संदेह नहीं है।
इसी प्रकरण में मुनियों के समान आर्यिकाओं को भी इन सिद्धांतग्रंथों के पठन की आज्ञा आचार्यों ने प्रदान की है जो उनके द्वारा ग्रहण किये गये उपचार महाव्रतों की महिमा का ही परिचायक है।
मार्गणाओं का निरूपण—सत्प्ररूपणा नामक ग्रंथ में चतुर्थ सूत्र में चौदह मार्गणाओं के नाम देते हुए उनका प्रकरण प्रारंभ हुआ है और गोम्मटसार जीवकांड के आधार से मार्गणाओं का लक्षण दिया गया है।
आठ अनुयोगद्वारों से गुणस्थान निरूपण—जैसे—अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करने के लिए जम्बूद्वीप के मुख्य द्वार विजय आदि द्वारों में प्रवेश करना पड़ता है उसी प्रकार चौदह गुणस्थानों का दिग्दर्शन कराने हेतु ग्रंथकार ने सातवें सूत्र में ८ अनुयोगद्वार बताए हैं तथा इससे पूर्व पाँचवें सूत्र की टीका में अनुयोग के पाँच पर्यायवाची नाम बताये हैं—अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वर्त्तिका।
इस सत्प्ररूपणा ग्रंथ में मूल रूप में तीन महाधिकार बतलाये गये हैं सो सातवें सूत्र के पश्चात् ही प्रथम महाधिकार का समापन हुआ है और आठवें सूत्र से द्वितीय अधिकार में सत्प्ररूपणा के भेद-प्रभेदों का वर्णन प्रारंभ हुआ है।
सावद्यक्रियाओं का उपदेश देने पर भी जिनेन्द्रदेव सदोष नहीं माने जाते हैं!—गुणस्थान वर्णन की श्रृँखला में जहाँ मिथ्यात्व को पूर्णरूपेण हेय बताकर जीवों को सम्यक्त्व ग्रहण की प्रेरणा दी गई है वहीं १३वें सूत्र में ‘‘संयतासंयत’’ नामक पाँचवें गुणस्थान का कथन करते हुए पाक्षिक प्रतिक्रमण की पंक्तियों के आधार से यह विषय स्पष्ट किया है कि ‘‘जो श्रावक पाँच अणुव्रतों का पालन करते हैं वे स्वर्गसुख का अनुभव करते हुए अधिक से अधिक सात-आठ भवों को ग्रहण करके नियम से निर्वाणपद को प्राप्त कर लेते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।’’
इसी प्रकार कसायपाहुड़ महाग्रंथ की जयधवला टीका की पंक्तियों को इस सिद्धांतचिंतामणि टीका में उद्धृत करके ‘‘जिनेन्द्रदेव के द्वारा श्रावक धर्म का उपदेश दिये जाने पर भी वे सावद्य दोष के भागी नहीं होते हैं’’ यह बतलाया है। हिन्दी टीका में इसका विशेष खुलासा है सो पाठकजन पढ़ें एवं अपने श्रावकोचित धर्म का पालन भी यथाशक्ति करने की प्रेरणा प्राप्त करें।
आचार्यों की पापभीरुता का नमूना देखें—वर्तमान में प्राय: देखा जाता है कि ग्रंथों में यदि कहीं कोई दो प्रकार की मान्यता होती है तो पढ़ने वाले या समझाने वाले किसी एक पक्ष का दुराग्रह पकड़कर दूसरे को गलत सिद्ध कर देते हैं किन्तु षट्खंडागम ग्रंथ की धवला टीका में आचार्य श्रीवीरसेनस्वामी का उदाहरण इस विषय में सर्वथा अनुकरणीय है, जब उन्होंने चारों गतियों में गुणस्थान व्यवस्था का उल्लेख किया तो एक प्रकरण के अंतर्गत दोनों आचार्यों के मत को मान्य किया है कि ‘‘क्षपक श्रेणी में कर्मों की क्षपणविधि करता हुआ कोई जीव नवमें गुणस्थान में पहले सोलह कर्मों को नष्ट करके बाद में आठ कषायों को क्षय करता है’’ यह तो षट्खण्डागम का उपदेश है एवं कषायप्राभृत के अनुसार ‘‘वह पहले आठ कषायों का क्षपण करता है उसके बाद सोलह कर्मों को नष्ट करता है’’ इन दो वचनों में है तो कोई एक ही सत्य वाक्य, किन्तु श्रीवीरसेनस्वामी कहते हैं कि इस विषय में सत्य-असत्य तो ‘‘सुदकेवली केवली वा जाणदि’’ अर्थात् केवली या श्रुतकेवली ही जान सकते हैं अत: उनके अभाव में हमें तो दोनों आचार्यों के वचन मानना चाहिए।
पूज्य माताजी स्वयं भी इसी पक्ष को मान्यता प्रदान करती हैं इसीलिए उन्होेंने अपनी इस टीका में इस प्रकरण का पूरा प्रश्नोत्तर देते हुए अंत में अपना भाव व्यक्त किया है कि—
वास्तव में प्रत्येक पाठक को इन विषयों में पापभीरुता अवश्य रखना चाहिए क्योंकि किसी एक पक्ष को मान्यता प्रदान कर देने से नरक-निगोद जैसी गतियों का बंध भी होने की संभावना रहती है।
जैसे रामायण की मुख्य नायिका सती सीता के लिए भी जैन आगम में ही दो मत हैं। श्री गुणभद्राचार्य द्वारा रचित उत्तरपुराण में सीता को रावण की पुत्री माना है और रविषेणाचार्य रचित पद्मपुराण में सीता को राजा जनक की पुत्री कहा है। दोनों ही कथानक अपने-अपने स्थान पर सत्य प्रतीत होते हैं किन्तु दोनों में से किसी एक को हम छद्मस्थजन प्रामाणिकता की कोटि में नहीं रख सकते क्योंकि केवली-श्रुतकेवली के चरणसानिध्य में ही इन सन्देहास्पद विषयों का निर्णय हो सकता है।
द्रव्य-भाव वेद का सूक्ष्म रहस्य—यह षट्खंडागम ग्रंथ सैद्धांतिक रहस्यों की कुञ्जी है जो हीरे के काँटे के समान जौहरियों की परख का विषय है। इसके एक-एक सूत्र में गागर में सागर ही नहीं बल्कि राई में सागर के सदृश अर्थ भरा हुआ है। जैसे, सूत्र नं.-९३ का नमूना देखें—
अर्थात् द्र्रव्य से पुरुषवेदी जीव के यदि भाव से स्त्रीवेद भी है तो वे चौदहों गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं इसमें कोई बाधा नहीं है। दिगम्बर जैनशासन में द्रव्यस्त्रीवेदियों के मोक्ष नहीं माना गया है चाहे वे भाव से पुरुषवेदी क्यों न हों तथा द्रव्यपुरुषवेदी भाव से स्त्रीवेद सहित होते हुए भी मोक्ष प्राप्त करते हैं। उपर्युक्त सूत्र की टीका में खुलासा किया है कि ‘‘एषा वेदविषमता तिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ चैव न देवनारकाणामिति न च भोगभूमिषु’’ अर्थात् वेदों की यह विषमता (द्रव्य-भाव में पृथक्-पृथक्) कर्मभूमि के तिर्यंच और मनुष्यों में ही देखी जाती है, शेष देव-नारकी और भोगभूमि में यह वेदविषमता नहीं होती है, वहाँ द्रव्य और भाव दोनों में एक समान ही वेदव्यवस्था पाई जाती है।
इस प्रकरण का अच्छा स्पष्टीकरण गोम्मटसार एवं धवला के अनुसार इस टीका में किया है जो पठितव्य ही नहीं विशेष स्मरणीय है क्योंकि द्रव्य और भाववेदों के बारे में जानना अति आवश्यक है ताकि पाठकों की सैद्धान्तिक दिग्भ्रम अवस्था का पूर्णतया निराकरण हो सके।
स्त्रियाँ एकान्त से निंद्य नहीं हैं!—वेदमार्गणा के अंतर्गत १०१ नं. के सूत्र की टीका में माताजी ने स्त्रीवेद का लक्षण बताते हुए गोम्मटसार जीवकाण्ड के आधार से स्त्रियों की प्रवृत्ति छादनशील कही है किन्तु तीर्थंकर भगवान की माता आदि नारियों में सामान्य स्त्रीजन्य दोषों का अभाव रहता है।
पुन: ज्ञानार्णव ग्रंथ का उद्धरण देते हुए लिखा है कि—
अर्थात् अपने सतीत्व से, महानता से, शील से, विनय और विवेक से अनेक स्त्रियाँ इस धरातल को विभूषित करती हैं।
द्रव्यस्त्रीवेद की अपेक्षा इस वर्णन से यह जानना चाहिए कि जो नारियाँ आर्यिका दीक्षा लेकर अपनी कर्मनिर्जरा में प्रवृत्त होती हैं उनकी पूजा तो चक्रवर्ती आदि भी करते हैं तथा भावस्त्रीवेद से तो शुक्लध्यान एवं मोक्ष की प्राप्ति तक में भी कोई बाधा नहीं है यह इस वेद मार्गणा का सार बताया है।
भगवान चंद्रप्रभ के निर्वाणकल्याणक के पवित्र दिवस (फाल्गुन शु. सप्तमी-२५ फरवरी १९९६) को टीका की पूर्णता ने मानो पूज्य माताजी के चरमलक्ष्य की सिद्धी ही कर दी थी। अगले दिन से अष्टान्हिका पर्व प्रांरभ होने वाला था अत: ८ दिन तक सिद्धांत ग्रंथ का अस्वाध्याय काल होने से षट्खंडागम सूत्र ग्रंथ का लेखन नहीं हो सकता था, शायद इसीलिए माताजी ने कुछ शीघ्रता करके समापन का भाव बना लिया था जिसका लाभ मिल गया पिड़ावा को और अपराह्न में २ से ३.३० बजे तक वहाँ ‘‘पार्श्वनाथ समवसरण’’ का शिलान्यास समारोह चल रहा था और माताजी टीका की पूर्णता करते हुए पंचपरमेष्ठी के स्मरणपूर्वक अपने एवं जगत् के मंगल की कामना कर रही थीं।
इस प्रकार से इस गं्रथ की टीका के इतिहास में पिड़ावा का नाम इस तरह से जुड़ गया जैसे षट्खंडागम के साथ ‘‘अंकलेश्वर’’ का नाम जुड़ा है।
इसे सरस्वती की कृपा ही माननी होगी! पूज्य माताजी ने अपने मंगलाचरण के श्लोक नं. १३ में यद्यपि यह प्रतिज्ञाभाव प्रगट किया है कि ‘‘षट्खंडागम के प्रथम खण्ड की प्रथम पुस्तक सत्प्ररूपणा ग्रंथ की संस्कृतटीका लिखने का मैंने संकल्प किया है’’ उन्होंने प्रथम खण्ड की छहों पुस्तकों पर टीका लिखने का प्राथमिक विचार किया हो। उस समय शायद माताजी ने सोचा ही नहीं होगा कि इतनी जल्दी यह कार्य सम्पन्न हो जाएगा किन्तु मात्र १३५ दिन में १६३ पृष्ट में प्रथम ग्रंथ की टीका समापन हो गई और उसके बाद आगे का कार्य भी माताजी ने शुरू कर दिया।
मंगलाचरण की इसी श्रँृखला में श्लोक नं.१६ के अंदर माताजी ने सरस्वती माता को भी नमन किया है कि हे सरस्वती मात:! मेरा यह प्रयास निर्विघ्न सम्पन्न हो। पुन: जब २७ नवम्बर १९९५ को संघ का मांगीतुंगी की ओर मंगलविहार का निर्णय हुआ तो माताजी को इस विषय की कुछ चिंता अवश्य हुई कि अब मेरे लेखन में व्यवधान आएगा लेकिन उसी रात स्वप्न में पूज्य माताजी को सरस्वती माता के साक्षात् दर्शन हुए जिसमें उन्होंने सरस्वती माता से वार्तालाप भी किया एवं उन्होेंने माताजी से कहा कि ‘‘ज्ञानमती जी! तुम चिंता मत करो, तुम्हारे लेखनकार्य में कोई बाधा नहीं आएगी।’’ माताजी ने प्रात: मुझसे बताया कि आज जीवन में प्रथम बार मुझे सरस्वती माता के साक्षात् दर्शन हुए हैं। उनके इस कथन से मुझे यह आभास हो गया था कि माताजी का यह दुरूह कार्य अवश्य शीघ्र सम्पन्न होगा और हुआ भी यही अर्थात् उनका लेखन कार्य रास्ते में बराबर चलता रहा। सर्वप्रथम २७ नवम्बर से लेकर १४ फरवरी १९९६ तक उत्तर भारत की भीषण सर्दी के कारण हम लोगों ने दिन में केवल एक समय (मध्यान्ह १ बजे से ४ बजे तक) पद विहार का कार्यक्रम रखा अत: प्रात:काल विहार न होने के कारण नित्यक्रिया के पश्चात् ७ से ९ बजे तक उनका लेखन हो जाता था पुन: १५ फरवरी १९९६ से कोटा के पश्चात् दोनों समय का विहार होने लगा तब लेखन कुछ कम तो हुआ लेकिन रुका नहीं। हमारे पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि ‘‘ज्ञानमती माताजी अपने जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग वैâसे करती हैं’’। सुबह ७ बजे से ८ बजे तक लेखन के बाद वे विहार करके लगभग १० बजे तक गन्तव्य स्थान तक पहुँच जातीं वहाँ आहार, सामायिक के बाद तत्काल विहार करना पड़ता था अत: रात्रिविश्राम के स्थल पर पहुँचने पर ४ से ५ बजे तक भी वहाँ प्राय: वे अपरान्हिक स्वाध्याय के रूप में लेखन कर लेती थीं। इस अंतराल में यदि कभी संघ की ब्रह्मचारिणी बहनों के सामान की गाड़ी नहीं पहुँचती, वे लोग देर से आतीं तो माताजी को अपना बस्ता नहीं मिलता अत: उन्हें कुछ बेचैनी—आकुलता होती, हम लोग कभी हँसी में कह देते कि माताजी! कभी तो वुâछ देर आप खाली भी बैठकर मस्तिष्क को शांति दे दिया करें, तो माताजी कहतीं कि ‘‘मुझे तो अपने स्वाध्याय और लेखन से ही अपूर्व शांति मिलती है।’’ उनकी आकुलता को देखकर कई बार हमें साथ चलने वाले महानुभाव के हाथ में या मोटरसाईकिल द्वारा उनका बस्ता जल्दी भेजना पड़ता था। समय की इस सदुपयोगिता के कारण ही आज आप सभी को पूज्य माताजी द्वारा रचित सैकड़ों ग्रंथ उपलब्ध हो रहे हैं। इसी प्रकार आगे मांगीतुंगी तक उनका लेखनकार्य बराबर चला पुन: वहाँ से विहार करने के समय एक दिन फिर स्वप्न में सरस्वती माता ने दर्शन देते हुए कहा कि ‘‘देखो! ज्ञानमती जी! मैंने तुमसे कहा था न कि तुम्हारा कार्य नहीं रुकेगा। अब तो तुम संतुष्ट हो ?’’ प्रात: माताजी ने मुझे फिर अपना स्वप्न बताया सो मैं सोचने लगी कि आज साक्षात् रूप में यदि देवी-देवता आते होते तो जरूर पुष्पदंत-भूतबलि के समान माताजी की भी पूजन करके उनकी महानता संसार को बताते किन्तु अभी वे परोक्ष रूप में ही अपना सहयोग प्रदान कर माताजी में शक्ति भर रहे हैं अन्यथा प्रवचन सभाओं में तथा अनेक वार्तालापों के मध्य भी बैठकर ऐसी दुरूह संस्कृत टीका लिखना सबके बस की बात तो नहीं है।
मंगल विहार के मध्य अनेक स्थानों पर तो माताजी के लिखते समय के रंगीन फोटो एवं वीडियो रिकार्डिंग भी करवाए गये जो जम्बूद्वीप स्थल पर सुरक्षित रखे हैं।
भगवान शांतिनाथ के नाम में भी असीम शक्ति है—हस्तिनापुर की पावन वसुन्धरा भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ इन तीन तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणकों से महान् है उसी भूमि पर बैठकर माताजी ने इस षट्खण्डागम ग्रंथ की टीका का शुभारंभ करते हुए श्री शांतिनाथ भगवान को अपने मनमंदिर में विराजमान करते हुए लिखा है—‘‘इष्ट: सर्वक्रियान्तेऽसौ शान्तीशो हृदि धार्यते।’’
इस पंक्ति का स्पष्टीकरण यद्यपि हिन्दी टीका में विशेष रूप से किया गया है फिर भी यहाँ मैं बताना चाहती हूूँ कि भगवान शांतिनाथ से पूर्व तीर्थंकर पुष्पदंतनाथ से धर्मनाथ के बीच में सात बार धर्मतीर्थ का व्युच्छेद हुआ है पुन: शांतिनाथ तीर्थंकर से यह धर्मतीर्थ परम्परा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है।१ इसीलिए उनके नाम को हृदय में धारण करने वाली पूज्य ज्ञानमती माताजी का लेखनकार्य अविच्छिन्न-निर्विघ्न चला है और आगे भी चलता रहा, तभी शीघ्र ही षट्खण्डागम की सोलहों पुस्तकों की ‘‘सिद्धांतचिन्तामणि’’ टीका सम्पन्न होकर विद्वत्समाज के समक्ष आ गई है।
जिस प्रकार से तत्त्वार्थसूत्र गं्रथ के मूल सूत्रों पर श्री अकलंकदेव, पूज्यपाद स्वामी, विद्यानंदिस्वामी, श्रुतसागरसूरि आदि अनेक आचार्यों ने अलग-अलग टीकाएँ रची हैं उसी प्रकार से षट्खण्डागम ग्रंथ के मूल सूत्रों पर अनेक टीकाओं की श्रृँखला में यह ‘‘सिद्धांतचिंतामणि’’ नाम की स्वतंत्र मौलिक टीका है जो भव्यों को सिद्धान्त का ज्ञान सुगमता से कराने में पूर्ण सक्षम है।
विभिन्न कृतियों को देखने से भ्रम स्वयं दूर हो जाता है!-पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित, अनूदित एवं काव्यमयी रचनाओं को देखकर संभव है कि कुछ पूर्व पाठकों के समान आपमें से भी किसी पाठक को शंका हो जाए कि बालविकास एवं धार्मिक उपन्यासों की रचयित्री ज्ञानमती माताजी कोई और होंगी, भक्तिसंगीत की धुनों पर आधारित इंद्रध्वज-कल्पद्रुम आदि पचासों पूजा-विधानों की लेखिका ज्ञानमती जी दूसरी हैं तथा अष्टसहस्री जैसे सर्वोच्च न्यायग्रंथ के हिन्दी अनुवाद की प्रौढ़ता, संस्कृत श्लोकों में लिखित ‘‘आराधना’’ ग्रंथ के श्लोकों में भरा रहस्य, नियमसारप्राभृत ग्रंथ की संस्कृत स्याद्वादचंद्रिका टीका आदि की रचना करने वाली कोई सतयुग की ज्ञानमती माताजी होंगी किन्तु अब आपको यह समझते देर नहीं लगेगी कि बालसाहित्य से लेकर इस सिद्धान्तग्रंथ तक को लिखने वाली एक ही ज्ञानमती माताजी हैं इनके द्वारा लिखित प्राय: सभी पाण्डुलिपियाँ हस्तिनापुर जम्बूद्वीपस्थल पर रत्नत्रयनिलय और जम्बूद्वीप पुस्तकालय में सुरक्षित हैं, जिनके दर्शन कर पण्डित वैâलाशचंद जैन सिद्धांतशास्त्री आदि ने अत्यंत आश्चर्य एवं हर्ष व्यक्त किया था एवं जिनके नाम के साथ ‘जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका’’ का प्रमुख संकेत जुड़ा हुआ है, वे बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिकारत्न हैं, जैन साहित्यजगत् की प्रथम लेखिका साध्वी हैं, अनेक तीर्थों की उद्धारिका हैं तथा देश भर में प्रवर्तित हुए जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार रथ एवं भगवान महावीर ज्योति रथ प्रवर्तन, विश्वशांति कलश यात्रा रथ प्रवर्तन की पावन प्रेरिका हैं और विद्वानों की भाषा में इनकी प्रमुख पहचान निम्न शब्दों में की जाती है—
जैन धर्म के अलंकार ग्रंथ (वाग्भट्टालंकार) में रचनाकार ने ग्रंथ लेखकों एवं कवियों के गुण-अवगुणों का वर्णन करते हुए लिखा है कि—
अर्थात् प्राचीन कवियों का मत है कि ‘‘प्रतिभा’’ काव्योत्पत्ति का हेतु है, ‘‘व्युत्पत्ति’’ से उस (काव्य) में शोभा का आधान होता है और अभ्यास से शीघ्र ही काव्यरचना सम्भव होती है।
इसी में और भी बातें बताई हैं विâ—
अनर्थक, श्रुतिकटु, व्याहतार्थ, अलक्षण, स्वसंकेत-प्रक्ऌप्तार्थ, अप्रसिद्ध, असम्मत और ग्राम्य ये आठ दोष जिस पद में आ जाएँ उसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
उपर्युक्त गुणों से सहित तथा दोषों से रहित गद्य-पद्य रचना का भाव ही पूज्य माताजी की कृतियों में स्पष्ट झलकता है। यह उनकी विशेष प्रतिभाशक्ति ही माननी होगी कि बालोपयोगी साहित्य में उनका बच्चों के प्रति आकर्षण झलकता है, युवाओं के लिए उपयोगी उपन्यास साहित्य को पढ़कर उनकी युवा भावना का परिचय मिलता है कि वैâसे युवाओं को धर्म के प्रति आकर्षित किया जा सकता है, पुन: जब आगे बढ़कर प्रौढ़ ग्रंथों को देखते हैं तो माताजी का जहाँ विद्वानों के प्रति प्रौढ़ दृष्टिकोण झलकता है वहीं ज्ञान का अथाह सागर उनके अंदर हिलोरें भरते नजर आता है। ग्रंथ रचने वालों के ज्ञान की चरमसीमा संस्कृत-प्राकृत रचनाओं के द्वारा ज्ञात होती है जिसे आप प्रस्तुत टीका ग्रंथ में साक्षात् देख रहे हैं अत: अब शोधकर्ताओं को दिग्भ्रमित होने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है।
किन पूर्वाचार्यों की झलक इस टीका में है ?—सबसे पहले सन् १९७२ में समयसार ग्रंथ की श्रीजयसेनाचार्यकृत ‘‘तात्पर्यवृत्ति’’ नामक संस्कृतटीका का अध्ययन माताजी ने जब हम लोगों को करवाया तो उसकी सरलता एवं शैली से अत्यंत ऊँचा आध्यात्मिक विषय भी समझ में आने लगा। पुन: सन् १९७६ में ‘‘बृहद्द्रव्यसंग्रह’’ में श्री ब्रह्मदेव सूरि की टीका में तो आशातीत आनंद की अनुभूति हुई, धीरे-धीरे प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि ग्रंथों का अध्ययन चला और ‘‘परमात्मप्रकाश’’ ग्रंथ में श्रीब्रह्मदेवसूरि की टीका द्वारा जो जिनागम का रहस्य खुलता है वह वास्तव में अकथनीय है।
जब इस ‘‘सिद्धांतचिंतामणि’’ टीका का मैंने सूक्ष्मता से अवलोकन किया तो लगा कि श्री जयसेनाचार्य एवं ब्रह्मदेवसूरि की टीका शैली की पूरी-पूरी छाप इसमें देखने को मिलती है। ठीक उसी प्रकार से अधिकारों के प्रारंभ में सूत्रों की समुदायपातनिका, टीका में पदखण्डनारूप से व्याख्या, पुन: मूलसूत्र में वर्णित एक-एक शब्द की व्युत्पत्ति आदि देकर अंत में भावार्थ में टीका का सम्पूर्ण सार स्पष्ट किया गया है।
जैन व्याकरण के एक विशेष सूत्र का भी इस टीका में प्रयोग हुआ है! श्री शर्ववर्म आचार्य द्वारा रचित ‘‘कातंत्ररूपमाला’’ नाम से संस्कृत व्याकरण ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद भी पूज्य माताजी ने सन् १९७३ में किया है। वर्तमान में समस्त साधु संघों में उसका बड़ी तेजी से अध्ययन-अध्यापन चल रहा है। यह व्याकरण अपने आपमें पूर्ण सर्वांगीण है जिसे पढ़कर कोई भी जनसाधारण संस्कृतज्ञान में परिपक्वता प्राप्त कर सकता है।
इस व्याकरण के प्रारंभिक संधि प्रकरण में ‘‘विरामे वा’’ सूत्र आया है जिसका अर्थ है—‘‘विराम में पदान्त मकार का अनुस्वार विकल्प से होता है’’ अर्थात् पदान्त में मकार और अनुस्वार दोनों हो सकते हैं। जैसे-देवानाम्, देवानां आदि।
यह वैकल्पिक नियम इस कातंत्र व्याकरण के अतिरिक्त अन्यत्र किसी भी व्याकरण में नहीं है, सर्वत्र विराम में अनुस्वार नहीं करने का विधान है अत: इसी व्याकरण में यह विशेष नियम है। इस नियम का प्रयोग पूज्य माताजी ने अपनी समस्त संस्कृत रचनाओं में कहीं न कहीं किया है। प्रस्तुत ‘‘सिद्धांतचिन्तामणि’’ टीका में भी कई स्थान पर पदान्त में मकार की जगह अनुस्वार लिखा है सो विद्वज्जन इसे व्याकरण की अशुद्धि न समझ कर जैनव्याकरण के विशेष नियम का अनुकरण करें यही मेरा अनुरोध है।
द्वितीय पुस्तक में मूल ग्रंथकर्ता का एक भी सूत्र नहीं है केवल सत्प्ररूपणा से संदर्भित आलाप अधिकार है जो कि धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य द्वारा रचित है। इस जीवस्थान नाम के प्रथम खंड में सत्प्ररूपणा नामक प्रकरण के अंतर्गत बीस प्ररूपणाओं का वर्णन है। जिसमें गुणस्थान एवं मार्गणाओं में बीस प्ररूपणाओं के आलापों का वर्णन किया गया है।
श्री वीरसेनाचार्य ने प्ररूपणा का लक्षण बताते हुए कहा है कि २० प्ररूपणाओं में पर्याप्त और अपर्याप्त विशेषणों के द्वारा विश्लेषित करके जीवों की जो खोज की जाती है वही प्ररूपणा नाम से जानी जाती है। ये २० प्ररूपणाएँ निम्न हैं-
गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणाएँ और उपयोग इस प्रकार ये बीस प्ररूपणाएँ कही गई हैं।
यहाँ गुणस्थानों और मार्गणाओं में बीस प्ररूपणाओं के नाम एवं आलापों का कथन करने वाले दो महाधिकार हैं। उसमें भी प्रथम महाधिकार के अंतर्गत गुणस्थानों में बीस प्ररूपणाओं का कथन करते हैं जिसमें २७ कोष्ठक हैं और द्वितीय महाधिकार में चौदह मार्गणाओं के अंतर्गत ५१८ कोष्ठक हैं। इस प्रकार दोनों महाधिकारों के मिलाने पर कुल ५४५ कोष्ठक हो जाते हैं।
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने लिखा है-
अतएव इस प्ररूपणा ग्रंथ में एक भी सूत्र नहीं है, केवल धवलाटीका के आधार को लेकर मैंने यह सिद्धान्तचिन्तामणि टीका लिखी है।
बीस प्ररूपणाओं में १४ मार्गणाओं का विस्तृत वर्णन-
सत्प्ररूपणा के अंतर्गत एक सौ सतहत्तर सूत्रों में गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति और चौदह मार्गणाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है, अब प्राण, संज्ञा और उपयोग इन तीन प्ररूपणाओं का अर्थ इसमें कहते हैं। इसमें चौदह मार्गणाओं में पर्याप्ति और जीवसमास नाम की प्ररूपणा काय और इन्द्रिय मार्गणा में अंतर्भूत हो जाती हैं तथा श्वासोच्छ्वास, वचनबल और मनोबल इन तीन प्राणों का भी इसी मार्गणा में अन्तर्भाव होता है। किस मार्गणा के अंतर्गत कौन सी प्ररूपणाएं हैं इसका विस्तार से वर्णन पूज्य माताजी ने पृ.७ व ८ पर उद्धृत किया है।
चौदह गुणस्थानों में सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त जीवों की स्थिति को २७ कोष्ठकों के द्वारा उनके आलाप कहे गये हैं। चौदह गुणस्थानों से परे एक अतीत गुणस्थान भी है वही सिद्धों का परमस्थान है।
चौदह मार्गणाओं के नाम निम्न गाथा द्वारा बताए गए हैं।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये १४ मार्गणाएँ हैं।
चौदह मार्गणाओं में प्रत्येक मार्गणा के प्रारंभ में पूज्य माताजी ने मंगलाचरण करके उस-उस विषय का प्रतिपादन किया है। गतिमार्गणा में किस प्रकार जीव चारों गतियों में भ्रमण कर किन-किन गुणस्थानों को प्राप्त करता है इसका वर्णन है। नरकगति तथा देवगति में प्रारंभ के ४ गुणस्थान ही होते हैं क्योंकि यहाँ जीव में देशसंयम अथवा सकल संयम की योग्यता ही नहीं पाई जाती है।
प्रथम नरक से लेकर सातवें नरकपर्यन्त सभी नारकी जीव अपनी-अपनी योग्यतानुसार गुणस्थानों में अवस्थान करते हैं। चूँकि षट्खण्डागम की धवलाटीका में चारों ही गतियों में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति मानी है अतः नरकों में भी सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति मानी है। तिर्यंचों में १४ में से अधिकतम ५ गुणस्थान हो सकते हैं, इसलिए यहाँ ५ गुणस्थानों की संभावित प्ररूपणाओं का कथन किया है। मनुष्यगति में बीस प्ररूपणाओं के ४० कोष्ठक हैं-
मनुष्य ४ प्रकार के माने हैं-१. सामान्य मनुष्य २. पर्याप्त मनुष्य ३. मनुष्यिनी (स्त्रियाँ) ४. अपर्याप्त मनुष्य।
सामान्य मनुष्यों में चौदहों गुणस्थान होते हैं। मनुष्यगति एक ऐसा चौराहा है जहाँ से चारों गतियों के रास्ते खुलते हैं। यही कारण है कि मनुष्य बड़े से बड़ा पाप करके नरक-निगोद भी प्राप्त कर सकता है तथा अधिक से अधिक पुण्यमयी कार्यों से स्वर्ग तथा मोक्ष जैसे शाश्वत पद को भी प्राप्त कर सकता है इसलिए मनुष्य पर्याय को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मनुष्यगति की उपर्युक्त प्ररूपणाओं के माध्यम से सर्वप्रथम प्रत्येक प्राणी को अपनी स्थिति से अवश्य परिचित होना चाहिए कि मुझे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य की जो अवस्था प्राप्त हुई है उसमें हमें वैâसा पुरुषार्थ करना चाहिए जिससे आगे मोक्षमार्ग प्रशस्त हो सके।
इसलिए पूज्य माताजी ने गति आलाप के अंत में कहा है-
अर्थात् गति आलापों को ज्ञात करके मैं चतुर्गति से निकलने की एवं शुद्धात्मा के ध्यान की इच्छा करता हूँ जिससे पंचम गति-सिद्धगति की प्राप्ति होवे।
काय मार्गणा के सार रूप में पूज्य माताजी ने बहुत सुंदर पंक्तियाँ लिखी हैं कि मनुष्य शरीर को प्राप्त कर देहरूपी देवालय में विराजमान निज शुद्ध परमात्मा को शुद्ध निश्चयनय से निश्चित करके व्यवहार नय से तपश्चरण करते हुए काय को कृश करके अपनी आत्मा को पुष्ट करना चाहिए। योगमार्गणा में ५३ संदृष्टियों के माध्यम से ५ प्रकार के शरीर को धारण करने वाले जीवों के आलापों का वर्णन है। लेश्या मार्गणा में कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल इन छहों लेश्याओं में ७४ कोष्ठकों में विभिन्न आलाप कहे गये हैं। इस आलाप अधिकार की भव्यमार्गणा में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने मंगलाचरण में अपनी आत्मा को भव्यत्व गुण के द्वारा सिद्धपद को प्राप्त कराने की भावना व्यक्त की है। जिसे मैंने विशेषार्थ में खोला है कि भव्यत्व और अभव्यत्व जीव के ये दो पारिणामिक भाव होते हैं जिसमें कोई पुरुषार्थ नहीं प्रत्युत प्राकृतिक शक्ति ही कार्यकारी होती है अर्थात् जिस आत्मा में मोक्ष जाने की शक्ति है वह भव्य है तथा जिसमें कर्मों से मुक्त होने की शक्ति नहीं है वे अभव्य कहलाते हैं। ३ कोष्ठकों के माध्यम से अभव्यसिद्धि जीवों के सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त आलाप दर्शाए हैं। सम्यक्त्व मार्गणा में सम्यग्दर्शन के महत्त्व को बतलाते हुए कहा है कि तीनों लोकों और तीनों कालों में सम्यग्दर्शन के समान हितकारी और कुछ भी नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव ही देवेन्द्र, चक्रवर्ती, गणधर और तीर्थंकर जैसे महान पद को धारण कर सकता है।
संज्ञा मार्गणा में १६ कोष्ठक हैं। मन सहित जीव संज्ञी कहलाता है। एकेन्द्रिय से लेकर ४ इन्द्रिय तक सभी जीव असंज्ञी होते हैं। पंचेन्द्रिय जीवोें में संज्ञी-असंज्ञी दो प्रकार होते हैं जिनमें मनुष्य संज्ञी ही होते हैं अत: हमें सदैव अपने मन में हित-अहित का चिंतन करते हुए हित की ओर अपनी प्रवृत्ति को लगाना चाहिए। संज्ञीमार्गणा में मन की विशेष उपयोगिता को बताया है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड में आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने आहार मार्गणा के प्रकरण में कहा है-
औदारिक, वैक्रियिक और आहारक नामकर्म में से किसी एक के उदय से उस शरीर, वचन और द्रव्यमन के योग्य नोकर्मवर्गणाओं के ग्रहण का आहार है। अंतिम आहार मार्गणा में ३९ कोष्ठक हैं।
अंत मेंं पूज्य माताजी ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए लिखा है कि व्यवहारनय से तो सभी संसारी जीव चारों गतियों में भ्रमण करते हैं, अशुद्ध हैं, बीस प्ररूपणाओं द्वारा अन्वेषण किये जाते हैं किन्तु निश्चय नय से अथवा शक्तिरूप से सभी जीव शुद्ध हैं, सिद्ध के समान ज्ञान-दर्शन से युक्त हैं। ऐसा जानकर इस सत्प्ररूपणा के अंतर्गत ‘‘बीस प्ररूपणाधिकार’’ ग्रंथ को पढ़कर अपनी आत्मा के साथ अनादि से लगे हुए आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर इस पंचमकाल में धर्मध्यान का सहारा लेना चाहिए तथा शुक्लध्यानरूप अपनी शुद्धात्मा का ध्यान मुझे कब शीघ्र प्राप्त हो, यही भावना बारम्बार करना चाहिए।
भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ तीर्थंकर के ४ कल्याणकों से पवित्र पावन तीर्थ हस्तिनापुर में सन् १९९७ वी.नि. सं. २५२५ माघ शु. ५ (बसंत पंचमी) को पूज्य माताजी ने इस टीका को पूर्ण किया तथा अंत मंगलाचरण में अर्हंत, सिद्ध परमेष्ठी को, मुनियों को तथा सरस्वती माता को हृदय में धारण कर केवलज्ञान लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को नमस्कार किया तथा जो तीर्थंकर भगवान के श्रीविहार में आगे-आगे उनकी विभूति के समान गमन करती हैं और जिनके साथ हाथ में कमल धारण करने वाली लक्ष्मी देवी भी हैं ऐसी सरस्वती माता सदा जयशील होवें, ऐसी कामना की है।
इस द्वितीय पुस्तक की हिन्दी टीका के लेखन में भी जगह-जगह पर विशेषार्थ के माध्यम से उन-उन विषयों को विस्तार से समझाकर और सरल किया गया है। षट्खण्डागम जैसा महान ग्रंथ जिसके कठिन विषय को समझना सामान्य श्रावक के लिए अत्यंत दुरूह कार्य था। पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी ने उसकी सरल संस्कृत टीका की और हिन्दी टीका के माध्यम से उसे और भी सरस बनाने का प्रयत्न किया है। जिस ग्रंथ की मात्र श्रुतपंचमी के दिन हम पूजा-अर्चना कर अपने को धन्य मान लेते थे, अब उस ज्ञानरूपी अमृत का पान करने का अवसर भी हमें पूज्य माताजी की कृपाप्रसाद से प्राप्त हो रहा है।
पूज्य माताजी इतिहास का निर्माण करने वाले महापुरुषों में से हैं जिनके अनेक ऐतिहासिक कार्यों ने उन्हें चिरस्मरणीय बनाया है। हमारा भारत देश साहित्य के भंडारस्वरूप था पर इसका संरक्षण न हो पाने के कारण कई अमूल्य धरोहरें काल के गाल में समाहित हो गईं।
जैसा कि एक कवि ने कहा भी है-
ज्ञानज्योति को जन-जन में प्रकाशित करने वाली पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी दीर्घ जीवन को प्राप्त कर सदैव अपने ज्ञानरूपी अमृत से हम सभी को सिंचित करती रहें, यही हमारी प्रार्थना है।
प्रथम खण्ड के तृतीय ग्रंथ में क्रमानुसार द्रव्यप्रमाणानुगम और क्षेत्रानुगम नाम के दो अनुयोगद्वारों का विवेचन है। यहाँ से श्री भूतबली आचार्य द्वारा रचित सूत्र प्रारंभ होते हैं। द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अनुयोगद्वार में इस विषय का स्पष्टीकरण किया है कि इसमें जीवद्रव्य के प्रमाण का ज्ञान कराया गया है अर्थात् यहाँ यह बतलाया है कि सम्पूर्ण जीवराशि कितनी है तथा उसमें भिन्न-भिन्न गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में जीवों का प्रमाण क्या है। स्वभावत: यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस अगाध विषय का वर्णन हमारे पूर्वाचार्यों ने किस आधार पर किया है? इसके उत्तर में बताया है कि षट्खण्डागम का विषय महावीर भगवान की दिव्यध्वनि से नि:सृत द्वादशांगवाणी के अंगभूत चौदहपूर्वों में से द्वितीय अग्रायणीय पूर्व के कर्मप्रकृति नामक एक अधिकारविशेष से लिया गया है। उसमें से भी द्रव्यप्रमाणानुगम की उत्पत्ति इस प्रकार है-
कर्मप्रकृति पाहुड़ के कृति, वेदना आदि चौबीस अधिकारों में छठे अधिकार का नाम है-बंधन। इसमें बंध का वर्णन किया गया है। इस बंधन के चार अर्थाधिकार हैं-बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान। इनमें से बंधक नामक द्वितीय अधिकार के एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल आदि ग्यारह अनुयोगद्वार हैं। इन ग्यारह अनुयोगद्वारों में से पाँचवां अनुयोगद्वार द्रव्यप्रमाण नाम का है और वहीं से यह द्रव्यप्रमाणानुगम लिया गया है।
इस अनुयोगद्वार के प्रथम सूत्र में द्रव्यप्रमाणानुगम के ओघ और आदेश द्वारा निर्देश करने की सूचना देकर दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवे सूत्रों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के जीवों का प्रमाण क्रमश: द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा बतलाया है। छठवें सूत्र में द्वितीय से पाँचवे गुणस्थान तक के जीवों का तथा आगे के सातवें और आठवें सूत्र में क्रमश: छठे और सातवें गुणस्थानों का द्रव्य-प्रमाण बतलाया है। उसी प्रकार ९वें और १०वें सूत्र में उपशामक तथा ११वें व १२वें में क्षपकों और अयोगकेवली जीवों का तथा १३वें व १४वें सूत्र में सयोगिकेवलियों का प्रवेश और संचय-काल की अपेक्षा से प्रमाण कहा गया है।
सिद्धान्तचिन्तामणि टीका लिखने वाली पूज्य ज्ञानमती माताजी ने वर्तमान समय की उपलब्ध सैद्धान्तिक सम्पत्ति का भरपूर उपयोग किया है, इस ग्रंथ के अवलोकन से ही यह पूर्णत: ज्ञात हो सव्ाâता है।
एक मुहूर्त में कितने उच्छ्वास होते हैं यह भी एक मतभेद का विषय हुआ है। इसमें एक मत यह है कि एक मुहूर्त में केवल ७२० प्राण अर्थात् श्वासोच्छ्वास होते हैं किन्तु धवलाकार ने कहा है कि यह मत न तो एक स्वस्थ पुरुष के श्वासोच्छ्वासों की गणना करने से सिद्ध होता है और न केवली द्वारा भाषित प्रमाणभूत अन्य सूत्र से इसका सामंजस्य बैठता है। उन्होंने एक प्राचीन गाथा उद्धृत करके बतलाया है कि एक मुहूर्त के उच्छ्वासों का ठीक प्रमाण ३७७३ है और इसी प्रमाण द्वारा सूत्रोक्त एक दिवस में १,१३,१९० प्राणों का प्रमाण सिद्ध होता है। पूर्वोक्त मत से तो एक दिन में केवल २१,६०० प्राण होंगे, जो किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं है।
उपशामक जीवों की संख्या के विषय में उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति, ऐसी दो भिन्न मान्यताएं इसमें दी हैं। प्रथम मतानुसार उक्त जीवों की संख्या ३०४ तथा द्वितीय मतानुसार उनसे ५ कम अर्थात् २९९ है। इस मतभेद की प्ररूपक दो गाथाएं भी उद्धृत की गई हैं। उनमें एक तीसरा मत और स्फुटित होता है, जिसके अनुसार उपशामकों की संख्या पूरी ३०० है। इन मतभेदों पर यहाँ कोई ऊहापोह नहीं किया गया है, केवल मात्र उनका उल्लेख ही किया है।
यद्यपि धवला टीका समन्वित षट्खण्डागम की मुद्रित प्रतियों में तृतीय ग्रंथ के अंदर केवल द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार का ही विवेचन है किन्तु प्रस्तुत सिद्धांतचिन्तामणि टीका समन्वित षट्खण्डागम के तृतीय ग्रंथ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने द्रव्यप्रमाणानुगम और क्षेत्रानुगम इन दो अनुयोगद्वारों का विवेचन किया है अत: आगे चतुर्थ ग्रंथ में स्पर्शनानुगम और कालानुगम नाम के दो अधिकारों का ही वर्णन है। इसमें पूज्य माताजी ने गणित की जटिलता को अत्यल्प करके शेष विषय को धवला टीका एवं अन्य ग्रंथों के आधार से स्पष्ट किया है।
इस सिद्धान्तग्रंथ में चूँकि अलौकिक गणित की प्रधानता है अत: टीका के अंदर अनेक स्थानों पर श्रेणी, प्रतर, रज्जू, योजन, सागर, पल्य आदि शब्दों का ग्रहण करना स्वाभाविक है। यहाँ प्रसंगोपात्त इनके कुछ लक्षण दिये गये हैं ताकि जनसामान्य भी इन कठिन शब्दों के अर्थ से परिचित हो सके।
वास्तव में तो षट्खण्डागम जैसे दुरूह ग्रंथ का अध्ययन करने के इच्छुक स्वाध्यायीजनों को इसके अध्ययन से पूर्व गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड एवं लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार आदि का स्वाध्याय अवश्य कर लेना चाहिए ताकि षट्खण्डागम के विषय की सूक्ष्मता तक पहुँचा जा सके।
सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या के वर्णन में सूत्र नं. ७३ की टीका में टीकाकर्त्री पूज्य माताजी ने ‘‘चतुर्गति की अपेक्षा सम्यग्दृष्टियों में कहाँ-कहाँ बहुभाग अधिक संख्या है और कहाँ-कहाँ हीन है ?’’ यह बतलाते हुए उन्होंने सम्यग्दृष्टियों के ३२ स्थानों को प्रदर्शित किया और अन्त में सार बताया है कि ‘‘देवगति में सबसे अधिक समयग्दृष्टि होते हैं, उससे कम तिर्यंचगति में, उससे कम नरकगति में और उससे भी कम मनुष्यगति में होते हैं।’’ इसमें प्रमुख कारण मनुष्यों की अल्प संख्या है क्योंकि मनुष्य २९ अंक प्रमाण ही हैं और देव-नारकी आदि असंख्यात हैं।
तीन लोक के सम्पूर्ण जीवों में सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों की संख्या सबसे अधिक है। यहाँ यह बात विशेष ज्ञातव्य है।
इस प्रकार के अनेक अमूल्य सिद्धान्तों को अपने में समेटे हुए द्रव्यप्रमाणानुगम के १९२ सूत्रों की सिद्धान्तचिंतामणि टीका लिखकर पूज्य माताजी ने वास्तव में हम सभी भव्यात्माओं के लिए सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्रदान कर दिया है। आगे इसी ग्रंथ के क्षेत्रानुगम का विषय भी ९२ सूत्रों की टीका में सरलता के साथ अभिव्यक्त किया है। उस क्षेत्रानुगम में मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों से एवं मार्गणास्थानों से जीवों का क्षेत्र जानने के लिए सर्वप्रथम पाँच प्रकार के लोक का वर्णन जानना अति आवश्यक है।
प्रिय पाठक बंधुओं! ये तो मैंने इस ग्रंथ के प्रतिपादित विषय में से बिन्दु सदृश कतिपय सैद्धान्तिक प्रसंगों को यहाँ प्रस्तुत करके मात्र आपके स्वाध्याय की रुचि को बढ़ाने का प्रयास किया है कि आप आचार्य पुष्पदन्त-भूतबली के साक्षात् वचनरूप सूत्रों को पढ़कर असंख्य कर्मों की निर्जरा करें तथा उनके बीजरूप भावों को अभिव्यक्त करने वाली इस सिद्धान्तचिन्तामणि टीका का स्वाध्याय करके अपने सम्यग्ज्ञान की वृद्धि करते हुए अभीक्ष्णज्ञानोपयोग एवं बहुश्रुतभक्ति भावना का फल प्राप्त करें।
पूज्य माताजी ने तृतीय पुस्तक की टीका महाराष्ट्र के मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र में ३० अप्रैल १९९६, वैशाख शु. १२ (वीर नि. सं. २५२२) को लिखना प्रारंभ किया और १८ जुलाई १९९६, द्वितीय आषाढ़ शु. ३ को चांदवड़ (महाराष्ट्र) में द्रव्यप्रमाणानुगम के ८३ पृष्ठ लिखकर पूर्ण कर लिए पुन: उसी दिन (१८ जुलाई १९९६ को) ही क्षेत्रानुगम की टीका का लेखन प्रारंभ कर दिया, जो ८ अगस्त १९९६, श्रावण कृ. १० को मात्र २० दिन में ४८ पृष्ठ लिखकर पूर्ण किया। इस प्रकार १०० दिनों में १३१ पृष्ठों की यह ‘‘सिद्धान्तचिंतामणि’’ टीका मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर एवं महाराष्ट्र प्रान्त के कतिपय नगरों में लिखी गई।
इस प्रकार १०० दिनों में अर्थात् ३ माह १० दिन के अन्तर्गत जो लेखन हुआ, उसमें भी प्रतिमाह २ अष्टमी, २ चतुर्दशी, १ अमावस और १ पूर्णिमा इन ६ दिनों में तो सिद्धान्त ग्रंथ स्वाध्याय का अकाल होने के कारण षट्खण्डागम खोला ही नहीं गया अर्थात् २ माह १० दिन में १२ दिन लेखन नहीं हुआ और १८ जुलाई से ८ अगस्त के मध्य ८ दिन (२३ जुलाई से ३० जुलाई) अष्टान्हिका पर्व में भी स्वाध्याय का अकाल होने से लेखन नहीं हुआ अत: १०० दिनों में से २० दिन घटाने से १००-२०·८० दिन शेष बचे, इनमें भी कई दिन मालेगांव में आयोजित शिक्षण-शिविर की व्यस्तता होने के कारण लेखन आदि अल्प हो गया किन्तु कुल मिलाकर लगभग ढाई माह में २८४ सूत्रों की टीका लिखना अपने आपमें अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसे इनके श्रुतज्ञान की विशेष महिमा की कहनी पड़ेगी अन्यथा साधारण व्यक्ति तो ऐसे असाधारण कार्यों की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
मुझे इस बात का महान गौरव है कि पूज्य माताजी ने इस संस्कृत टीका का हिन्दी अनुवाद करने हेतु मुझे आदेश दिया इसलिए मैंने उनके गरिमापूर्ण शब्दों का शाब्दिक अर्थ करने का किंचित् प्रयास किया है।
षट्खण्डागम ग्रंथराज के प्रथम खंड की चतुर्थ पुस्तक में स्पर्शनानुगम और कालानुगम इन दो अनुयोगद्वारों का वर्णन किया गया है। स्पर्शनानुगम में दो महाधिकार वर्णित हैं पुन: कालानुयोगद्वार में भी दो महाधिकार हैं।
स्पर्शनप्ररूपणा में यह बतलाया गया है कि भिन्न-भिन्न गुणस्थान वाले जीव तथा गति आदि भिन्न-भिन्न मार्गणास्थान वाले जीव तीनों कालों में कितना क्षेत्र स्पर्श कर पाते हैं। इससे स्पष्ट है कि क्षेत्र और स्पर्शन प्ररूपणाओं में विशेषता इतनी ही है कि क्षेत्रप्ररूपणा तो केवल वर्तमानकाल की ही अपेक्षा रखती है किन्तु स्पर्शन प्ररूपणा में अतीत और अनागतकाल का भी अर्थात् तीनों कालों का क्षेत्रमान ग्रहण किया जाता है।
चतुर्थ पुस्तक के प्रारंभ में पूज्य माताजी ने मंगलाचरण में लिखा है-
शुक्लध्यान की अग्नि के द्वारा जिन संयतों ने कर्मरूपी ईंधन को जलाकर भस्म कर दिया है, उन सभी संयतों को शुक्लध्यान की सिद्धि के लिए मेरा नमस्कार है।
स्पर्शनानुगम की टीका में पूज्य माताजी ने दिया है कि-सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने अतीतकाल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किए हैं।’ उदाहरण के लिए जैसे सीताचर जीव ने अच्युत स्वर्ग के प्रतीन्द्र की पर्याय में सोलहवें स्वर्ग से छह राजू नीचे आकर तीसरे नरक में दो राजू पर्यंत जाकर अर्थात् आठ राजू नीचे जाकर लक्ष्मणचर एवं रावणचर के नारकी जीवों को सम्बोधित किया। यह विहारवत्स्वस्थान के द्वारा स्पर्श करने का उदाहरण है।
इसी प्रकार स्पर्शनानुगम के प्रथम महाधिकार के अंतिम सूत्र में लिखा है-
अर्थात् सयोगिकेवली भगवन्तों ने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोक का असंख्यातवाँ भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है।
पूज्य माताजी ने इसकी टीका में लिखा है-इदमत्र तात्पर्यं…….अर्थात् यहाँ तात्पर्य यह है कि निजशुद्ध स्वसंवेदनज्ञान से अथवा अध्यात्म ध्यान के द्वारा निज शुद्धबुद्ध परमात्मा का स्पर्श करके केवलज्ञान को प्राप्त करके पुन: अपने अतीन्द्रिय-अनंत केवलज्ञान के बल से अथवा आत्मा से उत्पन्न ज्ञान की किरणों के द्वारा हम सभी को लोकाकाश तथा अलोकाकाश दोनों का स्पर्श करना चाहिए।
स्पर्शनानुगम के द्वितीय महाधिकार में पूज्य माताजी ने मंगलाचरण में ॐ, ह्रीं एवं अर्हं मंत्रों को नमन करते हुए विषय का शुभारंभ किया है-
पुन: चार अन्तराधिकारों में छियालीस सूत्रों के द्वारा मार्गणाओं में स्पर्शनानुगम कहने का अभिप्राय व्यक्त किया है।
स्पर्शनानुगम के द्वितीय महाधिकार में १४ मार्गणाओं का विस्तार से वर्णन करते हुए अन्त में उपसंहार में पूज्य माताजी ने लिखा है कि-इन गति आदि मार्गणाओं में अनादिकाल से भ्रमण कर-करके मैंने किसी प्रकार से जिनधर्मरूपी श्रेष्ठरत्न को प्राप्त कर लिया है अत: अब इन मार्गणाओं से निकलकर पंचमगति-सिद्धगति, अनिन्द्रियपना, अकायत्व-कायरहित अवस्था, योगरहित अवस्था, वेदरहित अवस्था, कषायरहितपना, केवलज्ञान, यथाख्यातसंयम, केवलदर्शन, लेश्यारहित अवस्था, भव्यत्व-अभव्यत्व से रहित अवस्था, क्षायिकसम्यक्त्व, संंज्ञी-असंज्ञीपने से रहित अवस्था तथा अनाहारी अवस्थास्वरूप शुद्ध परमात्म पद को प्राप्त करना चाहिए तथा जिन महापुरुषों ने इस परमपद को प्राप्त कर लिया है, उन्हें बारम्बार नमस्कार करना चाहिए।
पुन: कालानुगम नाम के पंचम प्रकरण में दो महाधिकार हैं। कालानुगम प्रकरण को प्रारंभ करते हुए पूज्य माताजी ने सर्वप्रथम मंगलाचरण में लिखा है-
श्री ऋषभसेन गणधर महामुनि से लेकर अंतिम वीरांगज मुनि तक समस्त मुनिराजों की हम स्तुति करते हैं, जिनकी कृपाप्रसाद से मोक्षमार्ग की अक्षुण्ण परम्परा पंचमकाल के अंत तक चलेगी।
इन कालानुगम के प्रथम महाधिकार में गुणस्थानों का काल प्ररूपण करने वाले बत्तीस (३२) सूत्र हैं, पुन: मार्गणाधिकार नामक द्वितीय महाधिकार में चौदह अन्तराधिकारों के अंदर कुल तीन सौ दश (३१०) सूत्र हैं।
कालानुगम के वर्णन में पूज्य माताजी ने पंचास्तिकाय प्राभृत की एक गाथा उद्धृत की है-
अर्थात् ‘काल’ इस प्रकार का यह नाम सत्तारूप निश्चयकाल का प्ररूपक है और वह निश्चयकाल द्रव्य अविनाशी होता है। दूसरा व्यवहारकाल उत्पन्न और प्रध्वंस होने वाला है तथा आवली, पल्य, सागर आदि के रूप से दीर्घकाल तक स्थायी है।
इस कालानुगम नाम के पंचम प्रकरण में धवला टीका को प्रमुख करके अन्य अनेक ग्रंथों का आधार लेकर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने तृतीय अधिकार में तेरह गुणस्थानों में जघन्य और उत्कृष्टरूप से कालानुगम को घटित किया है। सूत्र नं. ३०, ३१,३२ में सयोगकेवली के काल का निरूपण करते हुए बताया है-
सयोगिकेवली जिन कितने काल तक होते हैं? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं।।३०।।
एक जीव की अपेक्षा सयोगिकेवली का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है।।३१।।
एक जीव की अपेक्षा सयोगिकेवली का उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्व कोटि है।।३२।।
अर्थात् सयोगिकेवली भगवन्तों का जो काल है उसकी अचिन्त्य महिमा है ऐसा जानकर मिथ्यात्व, असंयम, कषाय आदि काल को समाप्त करके अपनी शुद्ध आत्मा में स्थिर होने का प्रयत्न करना चाहिए तथा श्री शुभचन्द्राचार्य के ये वाक्य प्रतिक्षण स्मरण करना चाहिए।
श्लोकार्थ-राजाओं के यहाँ जो घंटा बजता है, वह कहता है कि हे आर्यों! समय क्षणिक है अत: शीघ्र ही आत्मा का कल्याण करो, क्योंकि बीती हुई काल की कला वापस नहीं आएगी।
अर्थात् जो काल बीत गया है, वह तीनों लोकों की सम्पत्ति देने पर भी पुन: वापस नहीं प्राप्त हो सकता है इस प्रकार समय की अमूल्यता जानकर काल-समय की एक भी घड़ी (पल) प्रमाद में व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए।
सिद्धान्त ग्रंथ के पाठक बंधुओं से मेरा यही कहना है कि निष्पक्ष और निश्छद्म भावना से इसका अध्ययन कर अपने ज्ञान को परिमार्जित एवं वृद्धिंगत करें तथा वर्तमान की सरस्वती माता के रूप में विराजमान देश की अमूल्य निधि पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी हम सभी को चिरकाल तक इसी प्रकार का साहित्य प्रदान करती रहें, यही भगवान जिनेन्द्र से प्रार्थना है।
यहाँ पुस्तक ४ के विषय का उपसंहार करते हुए मेरा यही कहना है-
प्रथम खण्ड के पंचम ग्रंथ में तीन प्ररूपणाएँ वर्णित हैं-अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम। इससे पूर्व के चार ग्रंथों में जीवस्थान की आठ प्ररूपणाओं में से पाँच प्ररूपणाओं का वर्णन हो चुका है अत: इसमें शेष तीन प्ररूपणाओं का क्रमानुसार कथन है।
विवक्षित गुणस्थानवर्ती जीव का उस गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थान में चले जाने पर पुन: उसी गुणस्थान की प्राप्ति के पूर्व तक के काल को अन्तर, व्युच्छेद या विरहकाल कहते हैं। सबसे छोटे विरहकाल को जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरहकाल को उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं। गुणस्थान और मार्गणास्थानों में इन दोनों प्रकार के अन्तरों के प्रतिपादन करने वाले अनुयोगद्वार को अन्तरानुगम कहते हैं।
पूर्व प्ररूपणाओं के समान इस अन्तरप्ररूपणा में भी ओघ और आदेश की अपेक्षा अन्तर का निर्णय किया गया है अर्थात् यह बतलाया गया है कि यह जीव किस गुणस्थान या मार्गणास्थान से कम से कम कितने काल तक के लिए और अधिक से अधिक कितने काल तक के लिए अन्तर को प्राप्त होता है।
इस ग्रंथ की सिद्धान्तचिंतामणिटीका में टीकाकर्त्री पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अन्तरानुगम प्रकरण को दो महाधिकारों में विभक्त किया है। प्रथम महाधिकार में १४ गुणस्थानों में अन्तर का निरूपण है और द्वितीय महाधिकार में १४ मार्गणाओं में अंतर प्रदर्शित किया गया है।
चौदह मार्गणाओं में अन्तरानुगम का कथन करते हुए पूज्य माताजी ने तत्त्वार्थवृत्ति, राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार जीवकाण्ड, धवलाटीका आदि ग्रंथों के आधार से अनेक विषयों का स्पष्टीकरण किया है। इसी शृंखला में उन्होंने भव्यमार्गणा में अन्तरानुगम का कथन करते हुए सूत्र नं. ३३० की टीका में अभव्य जीवों की एक जीव की अपेक्षा निरन्तरता के संदर्भ में आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी कृत समयसार प्राभृत ग्रंथ की गाथाओं को उद्धृत किया है-
वदसमिदीगुत्तीओ………….इत्यादि गाथा २९१ से २९३ तक देकर श्री अमृतचन्द्रसूरि की टीकानुसार अभव्य जीवों को मिथ्यादृष्टि ही कहा है, जिसका अभिप्राय यह है कि-अभव्य जीव हमेशा ही कर्मचेतना और कर्मफल-चेतनारूप वस्तु का श्रद्धान करता है किन्तु नित्य ज्ञानचेतनामात्र जो आत्मद्रव्य है उसका श्रद्धान नहीं करता है क्योंकि वह नित्य ही भेदविज्ञान के अयोग्य है इसलिए वह कर्मों से मुक्त होने के लिए कारण ऐसे ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्म का श्रद्धान नहीं करता है प्रत्युत भोगों के लिए कारण शुभक्रियामात्र ऐसे अभूतार्थ धर्म का ही श्रद्धान करता है इसलिए यह असत्यार्थ धर्म के श्रद्धान, प्रतीति, रुचि और स्पर्शन के द्वारा नवमें ग्रैवेयक तक के भोगमात्र को प्राप्त कर लेता है किन्तु वह कदाचित् भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है। इस हेतु से इसके सत्यार्थ धर्म के श्रद्धान का अभाव होने से श्रद्धान-सम्यग्दर्शन भी नहीं है।
इस अनुयोगद्वार में कुल ९७ सूत्रों के द्वारा जीवों के भावों का वर्णन किया गया है। गुणस्थान और मार्गणा इन दो महाधिकारों (तृतीय और चतुर्थ) में यह अनुयोगद्वार विभक्त है।
कर्मों के उपशम, क्षय आदि के निमित्त से जीव के जो परिणाम विशेष होते हैं, उन्हें भाव कहते हैं। वे भाव पाँच प्रकार के होते हैं। १. औदयिक भाव २. औपशमिक भाव ३.क्षायिकभाव ४. क्षायोपशमिकभाव और
५. पारिणामिकभाव। कर्मों के उदय से होने वाले भावों को औदयिक भाव कहते हैं। इसके इक्कीस भेद हैं। मोहनीयकर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले भावों को औपशमिक भाव कहते हैं, इसके दो भेद हैं। कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले भावों को क्षायिकभाव कहते हैं, इसके नौ भेद हैं, कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले भावों को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं, इसके अट्ठारह भेद हैं। इन चारों भावों से विभिन्न कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अपेक्षा न रखते हुए जो भाव होते हैं, उन भावों को पारिणामिक भाव कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-१. जीवत्व २. भव्यत्व और ३. अभव्यत्व।
इन पूर्वोक्त भावों के अनुगम को भावानुगम कहते हैं। इस अनुयोगद्वार में भी ओघ-गुणस्थान और आदेश-मार्गणा की अपेक्षा भावों का विवेचन किया गया है।
भावानुगम में प्रथम सूत्र की सिद्धान्तचिंतामणिटीका में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने औदयिक आदि पाँचों भावों के उत्तर भेदों में धवला टीकाकार एवं तत्त्वार्थसूत्रकार दोनों के अनुसार अन्तर भी बतलाया है कि षट्खण्डागम में पाँचों भाव के ५९ भेद हैं और तत्त्वार्थसूत्र में ५३ भेद हैं। यह अन्तर औपशमिक भाव के भेदों की अपेक्षा है क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में औपशमिक भाव के केवल दो भेद माने हैं-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र, किन्तु यहाँ षट्खण्डागम में औपशमिक भाव के आठ भेद बताए हैं-१. औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र के ७ भेद (४ संज्वलन कषाय और ३ वेदों के उपशम की अपेक्षा ७ भेद) होते हैं। ये ही ६ भाव यहाँ बढ़ जाने से ५३ ± ६ · ५९ भेद हो जाते हैं।
अंकलेश्वर का नाम भी जुड़ गया ग्रंथ के साथ-मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र में सन् १९९६ के वर्षायोग के मध्य कार्तिक कृ. षष्ठी, १ नवम्बर को इस चतुर्थ महाधिकार का लेखन प्रारंभ करके पुन: १५ नवम्बर १९९६, कार्तिक शु. पंचमी को पूज्य माताजी ने वहाँ से विहार कर दिया, फिर भी मार्ग में लेखन चलता रहा और कुल छह महाधिकारों में निबद्ध इस पंचम ग्रंथ की टीका को पूज्य माताजी ने षट्खण्डागम सूत्र ग्रंथ के रचयिता श्री पुष्पदंत-भूतबली आचार्य की चातुर्मास स्थली अंकलेश्वर-गुजरात में मगसिर कृ. सप्तमी, २ दिसम्बर १९९६ को लिखकर पूर्ण किया तो उन्हें अत्यन्त आल्हाद की अनुभूति हुई अर्थात् मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र में १५-९-१९९६, भादों शु. तृतीया को इस ग्रंथ का टीका लेखन प्रारंभ हुआ और अंकलेश्वर-गुजरात में पूर्ण हुआ, इस मध्य मार्ग में अनेक धर्मप्रभावना के कार्यक्रम भी सम्पन्न हुए किन्तु इस लेखन में िंकचित् भी व्यवधान नहीं पड़ा।
३. अल्पबहुत्वानुगम में क्या है ? संख्याप्रमाण के आधार पर हीनाधिकतारूप से गुणस्थान तथा मार्गणाओं का वर्णन करने वाला अल्पबहुत्वानुगम नाम का अनुयोगद्वार है। इस अल्पबहुत्व में गुणस्थान और मार्गणाओं में सबसे अल्प कौन हैं ? तथा अधिक कौन हैं ? यही दिखाया गया है क्योंकि अन्य अनुयोग द्वारों के समान यहाँ भी ओघ निर्देश और आदेश निर्देश की अपेक्षा अल्पबहुत्व का निर्णय किया गया है। सामान्यतया ओघ निर्देश से अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं तथा शेष सब गुणस्थानों के प्रमाण से अल्प हैं……..इत्यादि कथन के साथ १४वें सूत्र में कहा है कि ‘‘मिथ्यादृष्टि जीव सबसे अधिक अनन्तगुणे हैं’’।
इस अल्पबहुत्वानुगम के २०वें सूत्र की टीका में टीकाकर्त्री ने कहा है कि तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व के साथ संयमासंयम नहीं पाया जाता है, क्योंकि वहाँ दर्शनमोहनीय के क्षपण का अभाव देखा जाता है। इस कथन की पुष्टि के लिए उन्होंने कषायपाहुड़ के क्षपणाधिकार की जयधवला टीका का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-
अर्थात् दर्शनमोहनीय की क्षपणा के लिए प्रतिष्ठापना नियम से कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य ही करते हैं तथा निष्ठापना सभी जगह होती है।।
अर्थात् जिन्होंने तिर्यंच आयु का बंध कर लिया है ऐसे जो भी मनुष्य क्षायिकसम्यक्त्व के साथ तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं उनके संयमासंयम नहीं होता है, क्योंकि भोगभूमि को छोड़कर उनकी अन्यत्र उत्पत्ति असंभव है इसलिए क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीव असंख्यात ही होते हैं क्योंकि संयमासंयम के साथ क्षायिकसम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्यों को छोड़कर दूसरी गति में नहीं पाया जाता है और इसीलिए संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि आगे कही जाने वाली असंख्यात राशियों से कम होते हैं।
संयममार्गणा के अल्पबहुत्व में एक प्रकरण यहाँ बहुत ही ज्ञानवर्धक है कि आचार्यों के उपदेशानुसार उपशमश्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों से क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाले संयमियों की संख्या दोगुनी होती है। यथा-
एक समय में एक साथ छह तीर्थंकर क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। दश प्रत्येक बुद्ध, एक सौ आठ बोधितबुद्ध और स्वर्ग से च्युत होकर आये हुए उतने ही जीव अर्थात् एक सौ आठ जीव क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। उत्कृष्ट अवगाहना वाले दो जीव क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। जघन्य अवगाहना वाले चार और मध्यम अवगाहना वाले आठ मुनि एक साथ क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। पुरुषवेद के उदय के साथ एक सौ आठ, भाव नपुंसकवेद के उदय से दस और भाव स्त्रीवेद के उदय से बीस जीव क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। इन पूर्वोक्त मुनियों की संख्या से आधी संख्या प्रमाण मुनि उपशम श्रेणी पर चढ़ते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए।
प्रिय पाठक बंधुओं! यद्यपि इस सिद्धान्तग्रंथ का एक-एक शब्द हृदयंगम करने योग्य है जिससे ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होकर श्रुतज्ञान की निधि प्राप्त होगी, फिर भी मैंने यहाँ कतिपय प्रमुख विषयों को उद्धृत किया है। ये विषय भी आपको पूरे ग्रंथ के स्वाध्याय की प्रेरणा प्रदान करेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।
इस टीका के अन्त में उपसंहार करते हुए पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने लिखा है कि आज (मगसिर कृ. सप्तमी, वीर निर्वाण संवत् २५२३, २ दिसम्बर १९९६) पंचम ग्रंथ के अल्पबहुत्वानुगम अनुयोगद्वार की टीका पूर्ण हो रही है तथा उसके साथ ही षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड में वर्णित आठों अनुयोगद्वारों का लेखन भी सम्पूर्ण हो रहा है अत: मुझे अत्यन्त आनंद की अनुभूति हो रही है। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है कि एक वर्ष छ्यासठ दिन में मैंने एक हजार आठ सौ साठ (१८६०) सूत्रों के द्वारा सत्-संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-काल-अन्तर-भाव-अल्पबहुत्व नाम वाले आठ अनुयोगद्वारों की टीका पूर्ण की है।
षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड में सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोग द्वार एवं नव चूलिका का कथन है जिसमें से ५ ग्रंथों में आठ अनुयोग द्वार पूर्ण हो चुके हैं, छठे ग्रंथ में नव चूलिकाओं का वर्णन है जिसमें कुल ५१५ सूत्र हैं। इस छठे ग्रंथ में दो महाधिकार विभक्त किए गये हैं, उनमें से प्रथम महाधिकार में आठ चूलिकाएँ हैं अत: आठ अधिकार हैं, द्वितीय महाधिकार में गत्यागती नाम की चूलिका है। प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तना नामक अधिकार के अन्तर्गत छ्यालीस सूत्रों के माध्यम से जीव के द्वारा बांधने वाली प्रकृतियों, किन-किन क्षेत्रों में किसके पास कितने दर्शनमोहनीय कर्म का क्षपण करने वाले जीव हैं, सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त होने वाले जीव के मोहनीय कर्म की उपशामना तथा क्षपणा होती है तथा प्रकृतियों के स्वरूप, भेद आदि का विस्तार से वर्णन है। दूसरी स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका में प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका में प्ररूपित प्रकृतियों के बंध के बारे में बताया गया है, चारों गतियों में आठों कर्मों के उदय से जीव कौन सी आयु का बंध करता है इसका वर्णन करते हुए टीकाकर्त्री ने कहा है कि इसे जानकर अणुव्रती अथवा महाव्रती बनकर मनुष्य पर्याय को अवश्य सफल करना चाहिए। मुख्यत: आत्मा के भावों के फलस्वरूप पुद्गल कर्मवर्गणाएँ और जीव के प्रदेश एक-दूसरे में प्रवेश कर कर्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं और कर्मसिद्धान्त से अनभिज्ञ ईश्वर को सृष्टि का कर्त्ता मानकर उन्हें दोष देते हैं जबकि वही पुद्गल द्रव्य कर्मरूप से परिणमन कर जीव को सुख-दु:ख देते हैं अत: राग-द्वेषादिरूप विभाव भाव को छोड़कर आत्मा में रमण करने की प्रेरणा इसमें दी गई है। वस्तुत: सिद्धान्तचिंतामणिटीका की लेखिका सरस्वतीस्वरूपा पूज्य माताजी ने स्थान-स्थान पर वर्तमान में उपलब्ध सैद्धान्तिक ग्रंथों का पूर्ण उपयोग करते हुए विषय को अत्यन्त रोचक और सरल बना दिया है जो इसके अवलोकन से ज्ञात होता है। पूर्वाचार्य रचित अनेकों ग्रंथों का समावेश कर उन्होंने साररूप तथ्य को इसमें पिरोकर मानो मरकत आदि मणियों की सुन्दर माला ही गूँथ दी है।
प्रथम महादण्डक नामक तीसरे अधिकार में दो सूत्रों के माध्यम से प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव के कौन-कौन सी प्रकृतियाँ बंधती हैं और कौन-कौन सी नहीं बंधती हैं, इसका वर्णन है। ३४ बंधापसरणों एवं ५ लब्धियों के बारे में बताते हुए निष्कर्ष रूप में टीकाकर्त्री माताजी कहती हैं कि अनादिकालीन संसार में पर्यटन करते हुए हम और आप सभी ने काललब्धि के बल से पाँचों लब्धियों को प्राप्त कर सम्यग्दर्शन जैसे महारत्न को प्राप्त किया है अत: आठों अंगों का संरक्षण कर, पच्चीस मल दोषों को छोड़कर निर्दोषरीत्या इस रत्न को संभालते हुए ज्ञान की आराधना से सम्यग्ज्ञान को वृद्धिंगत कर सम्यग्चारित्र का भी स्पर्श करना चाहिए। द्वितीय महादण्डक नामक चतुर्थ अधिकार में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख देव अथवा सातवीं पृथ्वी के नारकी को छोड़वâर शेष नारकी जीवों के द्वारा ४४ प्रकृतियों को नहीं बांधने का वर्णन है। तृतीय महादण्डक नामक पंचम अधिकार में दो सूत्रों द्वारा सातवें नरक के नारकी जीवों के बंध योग्य प्रकृतियों का वर्णन है। छठे उत्कृष्टस्थिति बंध चूलिकाधिकार में किस प्रकार के स्थितिबंध के होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है, इस जिज्ञासा का निराकरण करते हुए कर्मोंे की स्थिति, आबाधा और निषेक आदि का विस्तृत वर्णन किया है जिसे जानकर क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों का जब तक जड़मूल से नाश न हो तब तक वैराग्य तथा ज्ञान भावना से कषायों को कृश करना तथा दर्शन एवं चारित्रमोहनीय कर्मों के कारणरूप केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव के अवर्णवाद व कषायों के उदय से होने वाले तीव्र परिणामों से सदैव दूर रहना चाहिए। जघन्यस्थितिबंध चूलिकाधिकार नामक सातवें अधिकार में कर्मों की जघन्यस्थितिबंध बताते हुए कोष्ठक आदि के माध्यम से उसे समझाया है। तीर्थंकर प्रकृति बंध, अकाल मरण आदि का विस्तृत विवेचन अनेक ग्रंथों के आधार से करते हुए पूज्य माताजी ने अंत में धवला टीकाकार के ही शब्दों में सिद्धों के अतीन्द्रिय सुख का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है। आठवें सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिकाधिकार में सम्यक्त्व की उत्पत्ति का विवेचन है। इस अधिकार में ‘‘किस प्रकार से महामुनि कितनी बार संयम को प्राप्त कर सकते हैं, कितनी बार उपशमश्रेणी चढ़कर पुन: वैâवल्य अवस्था प्राप्त करते हैं, उनका स्वरूप वैâसा है, वैâसे आगे वे सिद्ध अवस्था प्राप्त करते हैं, कौन से तीर्थंकर ने किस आसन से मोक्ष प्राप्त किया’’ यह विशेष पठनीय है। इस अध्याय के सार रूप में यही समझना है कि सम्यग्दर्शन की पूर्णता क्षायिक सम्यग्दर्शन या परमावगाढ़ नामक सम्यक्त्व में होती है, ज्ञान की पूर्णता केवलज्ञान में और सम्यक्चारित्र की पूर्णता अयोगिकेवली भगवान के अंतिम समय में होती है अत: सदैव रत्नत्रय की पूर्णता की प्रार्थना करना श्रेयस्कर है।
गत्यागति चूलिका नामक द्वितीय महाधिकार में २४३ सूत्र हैं। चार अन्तराधिकार में विभक्त इस महाधिकार में चारों गतियों में जीव के आने-जाने के द्वार का विस्तृत वर्णन है। कौन सी गति से निकलकर जीव कहाँ-कहाँ जाता है? किस गति के जीव के कितने गुणस्थान हो सकते हैं? किस गति में सम्यक्त्व प्राप्ति के कितने कारण हैं? इत्यादि विषयों को बताते हुए आचार्यश्री ने मनुष्यगति को सर्वश्रेष्ठ बताया है जिसके द्वारा जीव पंचम गति-सिद्धगति को प्राप्तकर गति-आगति के चक्र से छूट जाता है। सिद्ध भगवान के अनंत सुखोें का वर्णन करते हुए अन्त में पूज्य माताजी ने धवला टीकाकार अथवा आचार्यों द्वारा लिखित आगमानुसार इस सिद्धान्त ग्रंथ को अकाल में पढ़ने का निषेध किया है। वस्तुत: अनेक अमूल्य सिद्धान्तों को स्वयं में समेटे, कोहिनूर हीरे के सदृश इस अनमोल टीका को लिखकर पूज्य माताजी ने वास्तव में भव्यात्माओं के लिए इस युग में दिव्यध्वनि रूप सम्यग्ज्ञान का प्रकाश ही प्रदान कर दिया है।
मेरे द्वारा हिन्दी अनुवाद में हो रहे विलम्ब को देखते हुए पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने इस छठे ग्रंथ का स्वयं हिन्दी अनुवाद किया है।
इस प्रकार छह पुस्तकों में षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान की टीका पूर्ण हुई है। इसकी पूर्णता पूज्य माताजी ने अपनी आर्यिका दीक्षास्थली माधोराजपुरा (राज.) में किया है। दीक्षा के पश्चात् ४१ वर्षों की दीर्घकालीन प्रतीक्षा के अनंतर माधोराजपुरावासियों ने गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी को पाकर अभूतपूर्व स्वागत किया था और उनकी दीक्षा की ऐतिहासिक स्मृति में वहाँ गणिनी ज्ञानमती दीक्षा तीर्थ का निर्माण हुआ है।
षट्खण्डागम का द्वितीय खण्ड है-क्षुद्रकबन्ध। इससे पूर्व के छह भागों (छह पुस्तकों) में जीवस्थान नाम का प्रथम खण्ड प्ररूपित किया गया है और एकमात्र सातवीं पुस्तक में खुद्दा बन्ध (क्षुद्रक बन्ध) नाम का पूरा द्वितीय खण्ड समाविष्ट है। यूँ तो इसमें क्षुद्र-संक्षिप्तरूप से कर्मबन्ध का वर्णन है किन्तु आप सभी यह अवश्य सोचेंगे कि इतने बड़े ग्रन्थ में सैकड़ों सूत्रों द्वारा किया गया बंध का वर्णन भला संक्षिप्त क्यों कहा गया है? तो आपको यहाँ जानना है कि श्री भूतबली आचार्य ने बंधविधान का विस्तृत वर्णन छठे महाबंध नाम के खण्ड में किया है उस अपेक्षा से इसे खुद्दा बन्ध या क्षुद्रक बन्ध (लघु) नाम दिया गया है।
द्वादशांग में बारहवें दृष्टिवाद नामक अंग पूर्वगत का जो दूसरा आग्रायणीय पूर्व है उसकी पूर्वान्त आदि चौदह वस्तुओं में से पंचमवस्तु ‘‘चयनलब्धि’’ के कृति आदि चौबीस पाहुड़ों में से ‘पाहुड़’ बन्धन के बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्ध विधान नाम के चार अधिकारों में से ‘‘बन्धक’’ अधिकार से इस द्वितीय खण्ड ‘‘खुद्दाबन्ध’’ की उत्पत्ति हुई है।
इस ग्रंथ में १३ अधिकारों में कुल १५९४ सूत्र हैं किन्तु प्रमुख रूप से इसमें १२ अधिकार दिये गये हैं उसमें प्रारंभ में बन्धक सत्व प्ररूपणा नाम की पीठिका-प्रस्तावनारूप प्ररूपणा है जिसमें ४३ सूत्र हैं अत: बारह अधिकारों के साथ इस अधिकार के सूत्र भी मिलाकर १५९४ सूत्र संख्या इस क्षुद्रक बन्ध में जानना चाहिए।
षट्खण्डागम के इन सूत्रों पर ‘‘सिद्धान्तचिन्तामणि’’ नाम की संस्कृत टीका आप सभी के लिए एक अपूर्व निधि है जो बीसवीं सदी के अंतिम दशक (सन् १९९७) में जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखी गई मौलिक एवं सरल टीका है।
पूज्य माताजी ने मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र यात्रा के मध्य वापस आते हुए इस द्वितीय खंड की टीका का शुभारंभ ‘‘श्री पदमपुरा’’ अतिशयक्षेत्र पर दिनाँक १०-३-१९९७ (फाल्गुन शु. द्वितीया) को भगवान् पद्मप्रभ को नमस्कार करके किया है इसीलिए ग्रंथ के प्रारंभिक मंगलाचरण में पद्मप्रभ का निम्न श्लोक है-
अर्थात् विश्व में चमत्कार पैâलाने वाले श्री पद्मप्रभ तीर्थंकर भगवान को अपने इच्छित कार्य की सिद्धि हेतु मेरा नमस्कार है तथा उनकी ऊँकारमयी दिव्यध्वनि को भी मेरा बारंबार नमन है।
इस मंगलाचरण के पश्चात् श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा रचित पाँच छन्दों में पद्मप्रभ तीर्थंकर की मनोहारी स्तुति है। पुन: उन्होंने टीका की भूमिका में धवला टीका की पंक्ति उद्धृत करके बताया है कि-
अर्थात् समस्त तीर्थंकर भगवन्तों में श्री भट्टारक पद्मप्रभ तीर्थंकर का शिष्य परिवार सबसे अधिक था, तीन लाख तीस हजार मुनि उनके समवसरण में थे।
उन्होंने इस टीका में धवला टीका उद्धरणों के साथ-साथ अन्य गोम्मटसार, तत्त्वार्थसूत्र, सहस्रनाम स्तोत्र, तत्त्वार्थराजवार्तिक, अष्टपाहुड़, रत्नकरण्डश्रावकाचार, पद्मनंदि पंचविंशतिका आदि अनेक ग्रंथों का आधार लेकर भी इस मौलिक टीकाग्रंथ को सरल और सरस बनाने का प्रयास किया है।
जैसे कालानुगम के मार्गणा अधिकार के समापन में उन्होंने २१६वें सूत्र की टीका का समापन करते हुए पद्मनंदि आचार्य का बहुत सुंदर श्लोक देकर सिद्धपद की महिमा बताई है-
अर्थात् जहाँ जन्म-मृत्यु के स्वयं मृत-नष्ट हो जाने पर संसार में पुनरागमन नहीं है, जहाँ वृद्धावस्था स्वयं जर्जरित होकर समाप्त हो गई है, जहाँ आत्मा के साथ कर्मों का तथा शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता है, जहाँ वचनलापरूप वाणी नहीं है, व्याधियाँ आदि नहीं हैं वहाँ केवल अशरीरी आत्मा मात्र ज्ञानरूप में अनन्तकाल तक अवस्थित रहता है ऐसे उपमारहित सिद्धपरमेष्ठी भगवान हम सबकी रक्षा करें।
इस आत्मरक्षा की भावना से समन्वित पूज्य गणिनी माताजी सदैव अपने मूलगुणों के पालन में सजग रहती हैं। उन्होंने बाल्यकाल से ही पद्मनंदि पंचविंशतिका ग्रंथ को अपने स्वाध्याय का मूल स्रोत बनाया है और इसके अनेकानेक श्लोकों को कण्ठस्थ करके उन्हें अपने वैराग्य में परमसहायक माना है। यह पद्मनंदि पंचविंशतिका ग्रंथ उनकी जन्मदात्री माँ मोहिनी को सन् १९३२ में उनके विवाह में पिता श्री सुखपालदास जी (महमूदाबाद के धर्मनिष्ठ श्रावक) ने दहेज में प्रदान किया था। मोहिनी जी ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते ही पिता द्वारा प्रदत्त इस ग्रंथ का स्वयं स्वाध्याय किया पुन: अपनी प्रथम संतान के रूप में सन् १९३४ में जन्मी कन्या मैना को बचपन से ही इसके स्वाध्याय की प्रेरणा दी, जो उन्हें मैना से ज्ञानमती माताजी की अवस्था तक पहुंचाने में प्रबल निमित्त बन गया।
इस ग्रंथ के माहात्म्य से माँ मोहिनी जी ने स्वयं भी गृहस्थ कर्तव्यों के निर्वाह के पश्चात् आर्यिका दीक्षा धारण कर ‘रत्नमती’ नाम प्राप्त किया और उनके धर्मसंस्कारोंवश उनकी तीन पुत्रियाँ कु. मैना – गणिनी ज्ञानमती माताजी बनीं, कु. मनोवती – आर्यिका अभयमती माताजी हुईं एवं कु. माधुरी (मैं)-आर्यिका चंदनामती बनी तथा एक पुत्र कर्मयोगी ब्रह्मचारी रवीन्द्र कुमार जी भी दशम प्रतिमाधारी गृहविरत उत्कृष्ट श्रावक के रूप में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर एवं मांगीतुंगी मूूर्ति निर्माण कमेटी के पीठाधीश बनकर धार्मिक संस्थाओं का संचालन करते हुए मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर हैं। इसके साथ ही ३ पुत्र एवं ६ पुत्रियाँ गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए यथाशक्ति अणुव्रतों सहित देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति में तत्पर रहते हैं।
यहाँ प्रसंगोपात्त मैंने पद्मनंदि पंचविंशतिका ग्रंथ के माध्यम से पूज्य ज्ञानमती माताजी की माँ के गृहस्थ जीवन का अतिसंक्षिप्त उल्लेख किया है, इससे आप सभी पाठकों को एक बार उस ग्रंथ के स्वाध्याय की प्रेरणा अवश्य प्राप्त करना है जिससे आपका गृहस्थ जीवन सुखप्रद बनेगा।
इस ग्रंथ का सार समझने हेतु मैं यहाँ संक्षिप्त रूप से ग्रंथ का कुछ विषय प्रस्तुत कर रही हूँ-
बन्धक सत्त्वप्ररूपणा-इस भूमिका रूप प्ररूपणा में चौदह मार्गणाओं के भीतर कौन जीव कर्म बन्ध करते हैं और कौन नहीं करते यह बतलाया गया है। सब मार्गणाओं का भावार्थ यह निकलता है कि जहाँ तक योग अर्थात् मन, वचन, काय की क्रिया विद्यमान है वहाँ तक सब जीव बन्धक हैं, केवल अयोगी भगवान और सिद्ध भगवान अबन्धक हैं।
इस ग्रंथ में एक जगह सूत्र नं. ५३ की टीका में बादर एकेन्द्रिय जीवों के आयु बंध से सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के आयु बंध को असंख्यात गुणे अधिक बार कहा है तो वहाँ प्रश्न उठा कि यह वैâसे जाना जाता है ? तब पूज्य माताजी ने श्री वीरसेनाचार्य की ही पंक्ति को अपनी टीका में उद्धृत करके कह दिया है कि-‘‘एदम्हादो जिणवयणादो’’ अर्थात् ‘‘इस जिनवचन से ही यह बात जानी जाती है।’’ इससे यह परिलक्षित हो जाता है कि ये सूत्र जिनवचन ही हैं। इसी प्रकार से पूज्य माताजी ने जगह-जगह धवला टीका की पंक्तियाँ या तो ज्यों की त्यों अपनी टीका में संजोई हैं अथवा कहीं-कहीं प्राकृत टीका के शब्दों को संस्कृत में निबद्ध करके उनके पूरे भाव को प्रगट करने का पुुरुषार्थ किया है। इसी अधिकार में सूत्र नं. १४९ की टीका में गर्भ से लेकर आठ वर्ष की आयु में संयम धारण करने वाले मनुष्यों के कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण संयम काल माना गया है और तीस वर्ष की उम्र के पश्चात् परिहारविशुद्धि संयम की प्राप्ति का कथन मत-मतांतर की अपेक्षा इसमें पठनीय है।
कुल १२ अधिकारों से समन्वित क्षुद्रकबंध नाम का यह पूरा द्वितीय खण्ड इस एक ग्रंथ में समाविष्ट है, जिसके आद्योपान्त स्वाध्याय से जिज्ञासुओं को सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त होगा।
इस ग्रंथ की हिन्दी टीका करते समय मुझे परम आल्हाद का अनुभव हुआ। ग्रंथ का कलेवर वृहत्काय होने के कारण हिन्दी करने में समय अधिक तो लग गया किन्तु इस लेखन के मध्य ही मैंने वास्तु विधान, सप्तऋषि विधान, समयसार विधान और सोलहकारण विधानों की रचना (विशेषरूप से अष्टमी-चतुर्दशी एवं पर्व आदि के समय सिद्धांत स्वाध्याय के अनध्यायकाल में) भी करके देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति का पुण्यार्जन किया है। मध्य में अनेक उत्सव-महोत्सवों की व्यस्तता में अनुवाद कार्य कई-कई महीने बंद रहा है, फिर भी इसके हिन्दी अनुवाद से मुझे सिद्धान्त ग्रंथ के स्वाध्याय का अतीव लाभ प्राप्त हुआ है। हिन्दी टीका का लेखन भी अभीक्ष्णज्ञानोपयोगरूप स्वाध्याय ही है अत: इस लेखन में मैंने पूज्य माताजी के आदेशानुसार दिक्शुद्धि, कृतिकर्म आदि का पूरा ध्यान रखते हुए कार्य को सम्पन्न किया है।
षट्खण्डागम का तृतीय खण्ड है-बंधस्वामित्वविचय अर्थात् इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इस खण्ड में कर्मों का बंध करने वाले स्वामियों का वर्णन किया है। यह पूरा तृतीय खण्ड एक ही ग्रंथ में निबद्ध है अत:
१६ पुस्तकों में निबद्ध षट्खण्डागम (५ खण्डों की टीका समन्वित) की आठवीं पुस्तक में बंधस्वामित्व का पूरा विषय समाविष्ट है।
ग्रंथ को दो महाधिकारों में विभक्त किया गया है, जिसमें प्रथम महाधिकार में गुणस्थानों के माध्यम से बंधस्वामित्व का वर्णन करने वाले ४२ सूत्र हैं तथा द्वितीय महाधिकार में १४ मार्गणाओं के माध्यम से वर्णन करने वाले २८२ सूत्र हैं।
बंधस्वामित्वविचय नाम के इस ग्रंथ में मुख्य रूप से बताया है कि-मिथ्यादृष्टि जीवों से लेकर दशवें गुणस्थानपर्यंत संयत-मुनि बंधक हैं, शेष इनसे ऊपर के गुणस्थानवर्ती-उपशांतकषाय, क्षीणकषाय महामुनि, सयोगकेवली भगवान एवं अयोगकेवली भगवान तथा सिद्ध भगवान अबंधक हैं। इत्यादि प्रकार से इस ग्रंथ में विस्तार से कथन है।
बंध के करने वाले सामान्य प्रत्यय चार होते हैं-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच प्रत्यय बंध के लिए माने हैं।
इसलिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्वनिमित्तक बंध सभी आर्षग्रंथों में महान आचार्यों ने कहा ही है।
यदि केवलं कषाययोगौ बंधहेतू स्यातां तर्हि सर्वेषु शास्त्रेषु कथिता इमे चत्वार: प्रत्यया: न सिद्ध्यन्ति, किन्तु शास्त्रेषु सहस्राधिकवाराणां प्रोक्तानामेतेषां अपलापो न कथमपि शक्यते।
अर्थात् यदि केवल कषाय और योग ही बंध के हेतु होंगे, तब तो सभी शास्त्रोें में कहे गये ये चारों प्रत्यय सिद्ध नहीं हो सकेंगे किन्तु शास्त्रों में हजारों बार लिखित इन चार प्रत्ययों का अपलाप करना कथमपि-किसी भी प्रकार से शक्य नहीं है, ऐसा समझना।
वर्तमान में-आजकल कोई-कोई आचार्य कहते हैं-मिथ्यात्व प्रत्यय-कारण बंध का हेतु नहीं है, क्योंकि वह अकिंचित्कर है। ये आचार्य द्रव्यसंग्रह की पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेस….इत्यादि गाथा को दिखाते हैं कि-
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बंध चार प्रकार का है। योग से प्रकृति और प्रदेश बंध होता है तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध होता है। यह द्रव्यसंग्रह की गाथा है, इस गाथा से अनन्तानन्त संसारी प्राणियों में जो मिथ्यात्व और असंयमरूप दो प्रत्ययों के निमित्त से बंध कहा गया है वह सभी सिद्ध नहीं होगा, इसलिए पूर्वापर अविरोधी आगम ग्रंथों का अर्थ जानना चाहिए।
उसी द्रव्यसंग्रह में यह भी कहा है-
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और कषाय ये क्रमश: पूर्व व्ाâे-भावास्रव के पाँच, पाँच, पंद्रह, तीन और चार भेद जानना चाहिए इसलिए पूर्वापर संंबंध अवश्य लगाना चाहिए।
यहाँ तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व के निमित्त से बंध के कारणों को जान करके मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्व के माहात्म्य से बंध को क्रमश: घटाते हुए क्षपकश्रेणी में आरोहण करके बंध का विनाश करना चाहिए और जब तक ऐसी अवस्था नहीं प्राप्त होती तब तक रत्नत्रय की आराधना से उसमें भी विशेष रीति से सम्यग्ज्ञान की आराधना से कर्मबंध को कृश करना चाहिए।
कुछ विशेष ज्ञानवर्धक विषय हैं इसमें-षट्खण्डागम के नाम से यद्यपि साधारण व्यक्ति सोचता है कि ये तो बहुत कठिन ग्रंथ हैं, हम इनका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते हैं किन्तु पूज्य माताजी ने वर्तमान में इन ग्रंथों को अपनी स्वतंत्र टीका के माध्यम से इतना सरल कर दिया है कि स्थिर उपयोग के साथ इनका स्वाध्याय करने पर काफी विषय आप भी समझ सकते हैं। पुनश्च इस आठवेंं ग्रंथ का विषय तो अति रुचिकर और वैराग्यवर्धक है, इसमें मुख्य रूप में कर्म की १४८ प्रकृतियों का स्वरूप और उनके बंध, उदय आदि की सामर्थ्य का वर्णन अवश्यमेव पठनीय है। जैसे कि सूत्र नं. ३५-३६ की टीका में आहारकशरीर के संबंध में कहा है कि-आहारक शरीर और आहारक आंगोपांग (आहारकद्विक) के बंध में चार संज्वलन, नौ नोकषाय और नौ योग ये २२ प्रत्यय-कारण हैं। इनके साथ-साथ तीर्थंकर देव, आचार्य, बहुश्रुत, उपाध्याय और प्रवचन, इनमें अनुराग करना आहारकद्विक का कारण है। इसके अतिरिक्त प्रमाद का अभाव भी आहारकद्विक का कारण है क्योंकि प्रमादसहित मुनियों में आहारकद्विक का बंध नहीं पाया जाता है। आहारकद्विक का बंध देवगति से संयुक्त होता है क्योंकि अन्य गतियों के साथ उनके बंध का विरोध है। मनुष्य ही इनके बंध के स्वामी हैं क्योंकि अन्यत्र तीर्थंकर, आचार्य और बहुश्रुतविषयक राग संयम सहित पाया नहीं जाता है। आहारकद्विक प्रकृति का बंध सातवें, आठवें गुणस्थानवर्ती भावलिंगी महामुनियों के होता है और उनका उदय छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के होता है।
आजकल कोई-कोई निश्चयाभासी कहते हैं कि-‘‘राग-अनुराग मिथ्यात्व ही है’’ उन्हें एकान्त दुराग्रह को छोड़कर इन सिद्धान्तवाक्यों को पढ़कर इन पर श्रद्धान करना चाहिए तभी सम्यक्त्व है अन्यथा सम्यग्दर्शन दूर ही रहता है।
‘महाबंध’ नाम के छठे खण्ड में भी कहा है-
‘‘आहारकद्विक प्रकृतियाँ संयम के कारण से बंधती हैं।’’
तीर्थंकरों के दीक्षा आदि कल्याणक महोत्सवों को देखने के लिए, जिनेन्द्रदेव की वंदना के लिए, अकृत्रिम, कृत्रिम जिनमंदिरों में विराजमान अकृत्रिम या कृत्रिम जिनप्रतिमाओं के दर्शन, स्तवन, वंदन के लिए भी आहारक शरीर उत्पन्न होता है। यह आहारक पुतला वहाँ जाकर आ जाता है और तब यहाँ भी मुनि को दर्शन, वंदना आदि का आनंद प्राप्त हो जाता है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड की कर्नाटकवृत्ति टीका में भी कहा है-‘जिनवंदना के लिए और जिनमंदिरों की वंदना के लिए’ भी आहारक शरीर उत्पन्न होता है। इससे यह जाना जाता है कि तीर्थंकर भगवान की वंदना करने की भावना से भी आहारक शरीर उत्पन्न होता है।
वर्तमानकाल में जो कोई कहते हैं कि-
मुनियों के मन में यदि तीर्थयात्रा की भावना होती है अथवा तीर्थ के ऊपर समाधिमरण की इच्छा होती है तो वे मुनि ही नहीं हैं-द्रव्यलिंगी हैं क्योंकि मुनियों को निर्विकल्प ही होना चाहिए, उनमें जो भी भक्ति, अनुराग के विकल्प हैं वे बंध के कारण ही हैं इसलिए वे ‘मुमुक्षु’ नहीं हैं-मोक्ष के इच्छुक नहीं हैं।
उनका कथन सत्य नहीं है ।
अहो! ये वृद्धिंगत चारित्र वाले ही संयमी-साधु सातवें, आठवें गुणस्थान में निर्विकल्प ध्यान की अवस्था में भी आहारकद्विक प्रकृतियों को बांधते हैं। पुन: उन्हीं भावलिंगी मुनियों के ही प्रमत्तसंयत-छठे गुणस्थान में आहारकऋद्धि उत्पन्न होती है।
यह पूरा प्रकरण इस टीका ग्रंथ में पृ. १०७ से ११३ तक पठनीय है जिसे पढ़कर अपनी श्रद्धा को समीचीन बनाना चाहिए। इसी प्रकार आगे सूत्र नं. ३७-३८ की टीका में तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृति के बंध के कारणों का सुन्दर वर्णन द्रष्टव्य है-यहाँ यह और विशेष ज्ञातव्य है कि-द्रव्यवेद से पुरुषवेदी तीर्थंकर प्रकृति को बांधते हैं, भाववेद से स्त्रीवेदी अथवा भावनपुंसकवेदी भी बांधते हैं।
कहा भी है पंचसंग्रह ग्रंथ में-
स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में भी तीर्थंकर और आहारक का बंध विरुद्ध नहीं है, उदय का ही पुरुषवेद में नियम है। यहाँ स्त्रीवेद और नपुंसक में भाववेद ही लेना है न कि द्रव्यवेद, क्योंकि द्रव्यवेद से पुरुषवेदी ही होना चाहिए।
इस ग्रंथ के सूत्र नं. ४१ में सोलहकारण भावनाओं के नाम दिये हैं। उनमें और तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित सोलहकारण भावनाओं के नामों में थोड़ा सा अन्तर है उसे पूज्य माताजी ने टीका में (पृ. १२० से १४१ तक) दर्शाया है, इसे पढ़कर पाठकगण इन भावनाओं को शक्ति के अनुसार भाएं और क्रमश: तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके पंचकल्याणक वैभव को प्राप्त करें, यही स्वाध्याय का सार होगा।
इसी प्रकार के अनेक महत्वपूर्ण विषयों से यह सिद्धान्तचिंतामणिटीका सचमुच अपने नाम को सार्थक करने वाली है। कई स्थानों पर इसमें प्रथमानुयोग के उदाहरणों ने विषय को सरलतम बनाने में अपना पूरा सहयोग प्रदान किया है। मूलत: आठ कर्मों के १४८ भेदों में १२० कर्मप्रवृâतियाँ बंधयोग्य मानी गई हैं, उन्हीं बंधयोग्य प्रकृतियों के सान्तर बंध और निरन्तर बंध इन दो प्रकारों से बंधस्वभाव को इसमें दर्शाया गया है। इसी संदर्भ में सूत्र नं. १५४ की टीका में तीर्थंकर प्रकृति को निरन्तर बंधी बताते हुए कहा है-
तीर्थकरस्य बंधोदयव्युच्छेदसन्निकर्षो नास्ति, सत्त्वा-सत्त्वयो: सन्निकर्षविरोधात्। परोदयो बंध:, मनुष्यगति मुक्त्वान्यत्रोदया भावात्। निरन्तरो बंध:, एकसमयेन बंधो-परमाभावात्।
प्रत्यया: सुगमा:। मनुष्यगतिसंयुक्तं। देवा नारका: स्वामिन:। असंयतसम्यग्दृष्टय: अध्वानं। बंधविनाशो नास्ति। साद्यध्रुवौ बंध:।
अर्थात् तीर्थंकर प्रकृति के बंध उदय के व्युच्छेद की सदृशता नहीं है क्योंकि सत् और असत् की तुलना का विरोध है। परोदय बंध होता है क्योंकि मनुष्यगति को छोड़कर अन्य गतियों में तीर्थंकर प्रकृति के उदय का अभाव है इसलिए निरंतर बंध होता है, क्योंकि एक समय से उसके बंधविश्राम का अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं। मनुष्यगति से संयुक्त बंध होता है। इसके बंध के यहाँ देव व नारकी स्वामी हैं। बंधाध्वान असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। बंधविनाश नहीं है। सादि व अध्रुव बंध होता है।
इसका आशय यह है कि तीर्थंकर प्रकृति बंध के बाद जीव नियम से एक भव देव का धारण करता है और वहाँ से आकर मनुष्य जन्म धारणकर पंचकल्याणक वैभव को प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। कदाचित्-क्वचित् किसी ने पहले नरकायु का बंध करके पुन: तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है तो वह (राजा श्रेणिक के समान) प्रथम नरक में जा सकता है और वहाँ से आकर मनुष्य भव धारण कर वह भी नियम से पंचकल्याणक वैभव के साथ निर्वाण को प्राप्त करता है। इसी अपेक्षा से देव और नारकियों को इसके बंध का स्वामी कह दिया है किन्तु तीर्थंकर प्रकृति का उदय केवल मनुष्यगति में तेरहवें गुणस्थान में ही होता है।
दिगम्बर जैन आगमानुसार यह अटल सत्य है कि द्रव्य पुरुषवेदी को ही मुनि अवस्था में निर्वाण की प्राप्ति होती है, द्रव्य स्त्रीवेदी को नहीं किन्तु भाववेद के अनुसार पूरे षट्खण्डागम में अनेक जगह स्त्री-पुरुष वेदियों के कुछ विशेष अधिकार बताये हैं।
पूज्य माताजी ने द्वितीय महाधिकार के साथ ग्रंथ का समापन करते हुए लिखा है कि-
यहाँ इस ग्रंथराज को पढ़ने-पढ़ाने का यही सार है कि-
इन एक सौ अड़तालीस कर्म प्रकृतियों के मध्य एक तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृति ही है जो स्वयं अपनी आत्मा को संसार के दु:खों से निकालने में और अनंत प्राणियों के ऊपर भी अनुग्रह करने में समर्थ है इसलिए जो भी महापुरुष तीर्थंकर प्रकृति के बंध करने वाले हैं वे ही धन्य हैं। इन तीर्थंकर प्रकृति के बंधकर्ताओं की देव भी और सौधर्म इन्द्र आदि भी वंदना करते हैं, नवकेवललब्धि समन्वित उन सभी तीर्थंकर भगवन्तों को नमस्कार हो, नमस्कार हो।
और हिन्दी टीका को मोक्षसप्तमी (श्रावण शुक्ला सप्तमी) को भगवान पार्श्वनाथ के मोक्षकल्याणक दिवस पर पूर्ण करते हुए सुन्दर सा श्लोक दिया है-
अर्थात् तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ हम सबका मंगल करें, उनका मोक्षकल्याणक मंगलकारी होवे एवं मोक्षसप्तमी तिथि सबके लिए मंगलदायी होवे।
इसके पश्चात् ग्रंथ के उपसंहार में कुछ विशेष विषय प्रस्तुत कर सोलहकारण भावनाओं का अंतर (षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार) बताया है जो कि विशेष पठनीय है। इसके साथ ही माताजी ने १४८ कर्मों से रहित होने की भावना को साकार करने हेतु चिंतन करने की दृष्टि से १४८ मंत्र बहुत सुन्दर बनाये हैं, जैसे-ज्ञानावरणीयकर्मरहितोऽहं शुद्धचिन्मयचिन्तामणिस्वरूपोऽहम्, दर्शनावरणीयकर्म-रहितोऽहं, शुद्धचिन्मय चिन्तामणि स्वरूपोऽहम्………. इत्यादि। जो कि सामायिक एवं ध्यान के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। अंत में अन्त्यवंदना, संस्कृत एवं हिन्दी टीका संबंधी प्रशस्ति आदि को पढ़कर टीकाकर्त्री की गुरु परम्परा, उनकी गृहस्थावस्था की कुल परम्परा, ज्ञानाराधना, धर्मप्रभावना, तीर्थ निर्माण प्रेरणा, साहित्य सृजन आदि विषयों का ज्ञान प्राप्त होता है।
यद्यपि पूज्य माताजी ने सोलह ग्रंथों की संस्कृत टीका सन् १९९५ में प्रारंभ करके सन् २००७ (११ वर्ष ७ मास) में पूर्ण कर लिया था किन्तु उनकी हिन्दी टीका में मेरे द्वारा विलंब होने के कारण उन्होंने इस आठवीं पुस्तक की भी हिन्दी टीका स्वयं कर दी है।
इस आठवीं पुस्तक (तृतीय खण्ड) का यथासंभव पारायण, अवलोकन करके मैंने यहाँ किंचित् विषय प्रस्तुत किया है। पाठकजन इसे पढ़कर पूरे ग्रंथ के हार्द को समझ सकेंगे तो लेखन की सार्थकता होगी।
आग्रायणीय पूर्व के चौदह अर्थाधिकारों में से ‘‘चयनलब्धि’’ नामक पाँचवें अधिकार में जो बीस प्राभृत हैं उनमें से चतुर्थ ‘‘महाकर्मप्रकृति प्राभृत’’ है। उसमें वर्णित चौबीस अनुयोगद्वारों में से नवमीं पुस्तक में मात्र प्रथम ‘‘कृति’’ अनुयोगद्वार ही वर्णित है। इस ग्रंथ के छियालिसवें सूत्र में कृति के सात भेद किये हैं-
१. नामकृति २. स्थापनाकृति ३. द्रव्यकृति ४. गणनकृति ५. ग्रंथकृति ६. करणकृति और ७. भावकृति।
इन कृतियों का वर्णन करके अंत में कहा है कि यहाँ ‘गणनकृति’ से प्रयोजन है। इस ग्रंथ में श्री भूतबली आचार्य ने ‘‘णमो जिणाणं’’ आदि गण्ाधरवलय मंत्र लिये हैं जो कि भगवान महावीरस्वामी के प्रमुख गणधर श्री गौतमस्वामी द्वारा रचित हैंं। यहाँ ‘‘णमो जिणाणं’’ से लेकर ‘‘णमो बड्ढमाणबुद्धरिसिस्स’’ तक चवालिस मंत्र लिए हैं तथा अन्यत्र मुनियों के पाक्षिक प्रतिक्रमण एवं ‘‘प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी’’ टीका ग्रंथ तथा भक्तामरस्तोत्र के ऋद्धिमंत्र आदि में अड़तालिस मंत्र हैं।
इस ग्रंथ में कुल ७६ सूत्र (४४ गणधरवलय मंत्र सहित) हैं। इन सूत्रों पर पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित ‘‘सिद्धांतचिंतामणि’’ नाम की संस्कृत टीका का प्रारंभीकरण १६ छन्दों में निबद्ध २१ श्लोकों में भगवान ऋषभदेव की स्तुति से हुआ है।
नवमीं पुस्तक में पूज्य माताजी ने श्री भूतबली आचार्य द्वारा इसमें निबद्ध किये गये ४४ गणधरवलय मंत्रों (श्री गौतमगणधर रचित) की टीका में धवला टीका, तिलोयपण्णत्ति, राजवार्तिक, प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी आदि ग्रंथों के आधार से ऋद्धियों का सुंंदर वर्णन करके पद्मपुराण ग्रंथ से ऋद्धिधारी सप्तऋषियों का उदाहरण देकर प्रथमानुयोग को भी इसमें प्रविष्ट कर दिया है ताकि पाठकजन ऋद्धियों का माहात्म्य जानकर ऋद्धिधारी मुनियों की भक्ति से लाभ प्राप्त कर सकें।
इन ४४ सूत्रों के पश्चात् गौतमस्वामी गणधरदेव की तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी के प्रति समवसरण में की गई अप्रतिम भक्ति को प्रदर्शित करते हुए पहले समवसरण का सुंदर वर्णन किया है पुन: भगवान महावीर का गर्भकाल, कुमारकाल, छद्मस्थकाल, केवलीकाल आदि का सप्रमाण वर्णन दिया है जो कि पूरा पठनीय है और अपने द्वारा माताजी ने स्वयं अनुष्टुप् छंद के ४१ श्लोकों में गणधरवलय स्तुति रची है।
गणधरवलयमंत्र समन्वित प्रथम मंगलाचरण अधिकार के पश्चात् आगे इसमें ३२ सूत्रों में निबद्ध कृतिअनुयोगद्वार नाम का द्वितीय अधिकार है, जिसमें सात प्रकार की कृति से समन्वित कर्मप्रकृति-प्राभृत के साथ-साथ जयधवला एवं मूलाचार ग्रंथ के आधार से दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं के अहोरात्रि संबंधी २८ कृतिकर्मों का सुंदर विवेचन है। द्वादशांग श्रुतज्ञान के अन्तर्गत अलग-अलग अंग और पूर्वों का वर्णन विशेष पठनीय है। इस नवमीं पुस्तक के ५४वें सूत्र की टीका में आगम का स्वरूप बतलाकर उसकी वाचना के लिए द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि के वर्णन में कालशुद्धि का विषय सिद्धान्तग्रंथ के स्वाध्यायीजनों के लिए अवश्यमेव दृष्टव्य है, उसी के अनुसार अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या तिथि में और अष्टान्हिका पर्व आदि में सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्याय का निषेध किया गया है। प्रतिदिन के स्वाध्याय में भी चार काल के स्वाध्याय में से वैरात्रिक—पिछली रात्रि के स्वाध्याय में सिद्धांतग्रंथ के पठन का निषेध है और उन तीन समयों में भी स्वाध्याय करने हेतु दिक्शुद्धि आदि करने की जानकारी भी आवश्यक होती है जो इसमें पूज्य माताजी ने मूलाचार-आचारसार आदि ग्रंथों के आधार से प्रामाणिक रूप में दी है। जैसे-मूलाचार के समाचार अधिकार से उन्होंने बड़ी महत्वपूर्ण गाथा का उल्लेख किया है-
अर्थात् द्रव्यादि शुद्धियों का उल्लंघन करके जो ज्ञान के लोभ से सूत्र ग्रंथों का स्वाध्याय करते हैं वे असमाधि, अस्वाध्याय, पारस्परिक कलह और शिष्यों के वियोग आदि दु:ख को प्राप्त करते हैं।
इसका तात्पर्य उन्होंने अपनी टीका में मूलाचार की टीका के आधार से ही दिया है कि-
‘‘क्योंकि कालशुद्धि आदिपूर्वक शास्त्र स्वाध्याय कर्मक्षय के लिए होता है अन्यथा वह कर्मबंध का कारण बन जाता है’’। पुन: प्रश्नोत्तर से विषय को स्पष्ट कर दिया है-
कानीमानि शास्त्राणि यानिद्रव्यादिशुद्धिभिर्विना पठितं न शक्यन्ते ?
अर्थात् कौन से शास्त्र ऐसे हैं, जो द्रव्यादि की शुद्धि के बिना नहीं पढ़े जा सकते हैं ?
उत्तर-केवल सिद्धांतग्रंथ ही हैं जो द्रव्यादि की शुद्धि के बिना नहीं पढ़ना चाहिए, शेष शास्त्रों के पठन-पाठन में कोई दोष नहीं है।
इस प्रकार से विविध पठनीय विषयों के साथ यह नवमीं पुस्तक स्वाध्याय के लिए परम उपयोगी कृति है, अन्त में इसकी प्रशस्ति भी पठनीय है जिसे पढ़कर आपको अनुभव होगा कि अनेकानेक धर्मप्रभावना के कार्यों को सम्पन्न कराते हुए भी पूज्य गणिनी माताजी का वैâसा अभीक्ष्णज्ञानोपयोग रहा है कि उन्होंने षट्खण्डागम जैसे दुरूह ग्रंथ की टीका भी सहज में लिखकर इस युग में भी आचार्य श्री वीरसेनस्वामी का स्मरण करा दिया है।
इस ग्रंथ में ‘वेदना’ नाम का द्वितीय अनुयोगद्वार है। इस वेदनानुयोगद्वार के १६ भेद हैं, जिसमें से इस ग्रंथ में प्रारंभ के ५ अनुयोगद्वारों का ३२३ सूत्रों में तीन महाधिकारों के अन्तर्गत वर्णन किया गया है जबकि धवला टीका में प्रारंभ के ४ अनुयोगद्वारों का वर्णन किया है, उन्होंने पंचम अनुयोगद्वार को ११वीं पुस्तक में लिया है। इस ग्रंथ का शुभारंभ पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने सर्वप्रथम ९ श्लोकों में एवं ८ छंदों में निबद्ध द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ की स्तुति से करके पुन: लोकाग्र पर विराजमान सिद्धों की वंदना से किया है। पुन: षट्खण्डागम की पूरी विषयवस्तु संक्षेप में देकर दशवें ग्रंथ के समस्त सूत्रों की समुदायपातनिका प्रस्तुत की है ताकि हर स्वाध्यायी शीघ्रता से ग्रंथ का स्वरूप प्रारंभ में ही समझ सके।
इस गं्रथ में ‘वेदना’ नाम का द्वितीय अनुयोगद्वार है। इस वेदनानुयोग द्वार के १६ भेद हैं-१. वेदनानिक्षेप
२. वेदनानयविभाषणता ३. वेदनानामविधान ४. वेदनाद्रव्यविधान ५. वेदनाक्षेत्रविधान ६. वेदनाकालविधान
७. वेदनाभावविधान ८. वेदनाप्रत्ययविधान ९. वेदनास्वामित्वविधान १०. वेदनावेदना-विधान ११. वेदनागतिविधान १२. वेदनाअनंतरविधान १३. वेदनासन्निकर्षविधान १४. वेदनापरिमाणविधान १५. वेदना-भागाभागविधान और १६. वेदनाअल्पबहुत्वविधान।
इन १६ अनुयोगद्वारों में से इस दशवीं पुस्तक में प्रारंभ के ५ अनुयोग द्वारों का वर्णन है।
सिद्धान्त के कठिन विषय को भी पूज्य माताजी ने अन्य ग्रंथों के आधार से सरल बनाने का जो उपक्रम किया है वह निश्चित ही सराहनीय है। जैसे १४३ सूत्रों तक टीका लिखने के बाद ‘‘गुणकारानुयोगद्वार गर्भित अल्पबहुत्वद्वार’’ प्रकरण का समापन करते हुए उन्होंने अपने तात्पर्य अर्थ में लिखा है-
‘‘इमा: सर्वा: वेदना: सर्वज्ञैरेव गम्यते न च अस्माभि:। वयं तु शारीरिक-मानसिक-आगंतुकादि नानाविधा: वेदना: अनुभवाम:। ताभ्य: कथं मुक्ता भविष्याम इत्येव चिन्तयितव्यम्। तथा तासां वेदनानां अनुभवनेन विमुक्तो भूत्वा निर्विकल्पे ध्याने स्थानं प्राप्तुं यावत् न शक्नुम: तावत् शक्त्यनुसारेण देशव्रतानि महाव्रतानि वा गृहीतव्यानि भवन्ति। एतन्निश्चयो विधातव्य:।’’
अर्थात् ये सभी प्रकार की वेदनाएँ सर्वज्ञ भगवान के द्वारा ही गम्य हैं, हम लोगों के द्वारा इन्हें सूक्ष्मता से नहीं जाना जा सकता है। हम सब तो शारीरिक-मानसिक और आगन्तुक आदि नाना प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करते हैं। उन वेदनाओं से वैâसे मुक्ति मिलेगी, यही हमें चिंतन करना चाहिए तथा उन वेदनाओं-कष्टों से छूटकर आत्मा के निर्विकल्प ध्यान में स्थिर होने में जब तक समर्थ न हो सकें तब तक शक्ति के अनुसार देशव्रत अथवा महाव्रतों को ग्रहण करें, ऐसा निश्चय करना चाहिए।
पूज्य माताजी की संस्कृत टीका में शब्दों का संयोजन प्राय: अत्यन्त सरल है। बड़े-बड़े समासपदों का प्रयोग उन्होंने नहीं किया है और अधिकतम संधि विच्छेदरूप ही वाक्यों की संरचना है ताकि अल्प संस्कृत ज्ञाता को भी विषयवस्तु समझने में समय न लगे।
कुल मिलाकर इस ग्रंथ को समापन करते हुए टीकाकर्त्री ने तात्पर्य यह बताया है कि वेदनाक्षेत्र विधान नाम के अनुयोगद्वार को पढ़कर मनुष्यपर्याय को प्राप्त करके अपने शरीरप्रमाण आत्मप्रदेश रहते हैं। यद्यपि ये प्रदेश संकोच और विसर्पण की अपेक्षा अपने शरीरप्रमाण ही रहते हैं फिर भी द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा लोकाकाशप्रमाण असंख्यात हैं। केवल केवलीसमुद्घात के काल में ही वे प्रदेश सम्पूर्ण लोक को आपूरित करते हैं, किसी अन्य काल में ऐसा नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार निश्चित करके स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा शुद्ध चिन्मय चिंतामणिस्वरूप स्वात्मतत्त्व का ध्यान करना चाहिए।
इस दशम ग्रंथ की टीका की पूर्णता पूज्य माताजी ने भगवान् नेमिनाथ की जन्मभूमि शौरीपुर तीर्थ पर किया था इसलिए तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान एवं शौरीपुरी तीर्थ का इसमें उल्लेख करते हुए उनकी निर्वाणभूमि गिरनार तीर्थ को भी बारम्बार नमन किया है। प्रसंगोपांत इसमें चौबीसों तीर्थंकर भगवन्तों की १६ जन्मभूमियों के एवं ५ निर्वाणभूमियों के नाम भी समाविष्ट किये गये हैं। ग्रंथ का उपसंहार पठनीय है।
इस ग्रंथ में मुख्य रूप से वेदनाकालविधान और वेदनाभावविधान का वर्णन है।
इसमें कुल ४ महाधिकार हैं अर्थात् वेदनाकालविधान के दो महाधिकार और वेदनाभावविधान में दो महाधिकार बनाये हैं।
प्रथम वेदनाकालविधान नाम के अनुयोगद्वार में पहले नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, समाचारकाल, अद्धाकाल, प्रमाणकाल और भावकाल इस प्रकार के ७ भेदों का निर्देश करके इनके और उत्तर भेदोें को बतलाया गया है। इसमें तद्व्यतिरिक्तनोआगम द्रव्यकाल के प्रधान और अप्रधान रूप से दो भेद बताए हैं। इनमें जो काल शेष पाँचोें द्रव्यों के परिणमन में हेतु है वह प्रधानकाल माना गया है। यह प्रधानकाल कालाणुस्वरूप होकर संख्या में लोकाकाशप्रदेशों के बराबर, रत्नराशि के समान प्रदेशप्रचय से रहित, अमूर्त एवं अनादिनिधन है। अप्रधानकाल सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का बताया है। इनमें दंशकाल (डाँस मच्छरों का समय) तथा मशककाल (मच्छरों का समय) आदि को सचित्तकाल कहते हैं एवं धूलिकाल, कर्दमकाल, वर्षाकाल, शीतकाल व उष्णकाल आदि अचित्तकाल तथा सदंश शीतकाल आदि को मिश्रकाल से नामांकित किया गया है।
इसी प्रकार समाचार काल को भी लौकिक और लोकोत्तर के भेद से दो भागों में विभक्त किया है। ये सारे विषय इस ग्रंथ में पठनीय हैं। इस वेदनाकालविधान के अन्तर्गत दो चूलिकाओं का वर्णन किया है।
इस ग्रंथ में टीकाकर्त्री ने वेदनाभावविधान की तीन चूलिकाओं को अलग-अलग अधिकारों में विभक्त किया है तथा यथास्थान कहीं-कहीं अपने लेखनस्थलों का भी उनमें उल्लेख करके ग्रंथ को ऐतिहासिक दस्तावेज से परिपूर्ण बना दिया है। यथा-प्रथम चूलिका के प्रारंभ में सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की वंदना है-
इस प्रकार से २० छंदों में निबद्ध इस वंदना के पश्चात् उन्होंने संस्कृत गद्य की पंक्तियों में लिखा है जिसका हिन्दी भाव यह है कि-
आज मैंने सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर पर्वतराज की वंदना के निमित्त आकर चोपड़ाकुण्ड दिगम्बर जैन मंदिर की धर्मशाला में रहकर सभी कूटों की वंदना संघ सहित करके इस सिद्धांतचिंतामणि टीका का लेखन (चैत्र कृष्णा पंचमी, सन् २००३ में) किया है…. आदि।
तीनों चूलिकाओं की समाप्ति के साथ इस ग्यारहवीं पुस्तक का समापन करते हुए पूज्य माताजी ने तात्पर्य में लिखा है कि-
इस महाग्रंथ को पढ़कर कर्मबंध के कारणों से विरक्त होकर अपने आत्मतत्त्व का चिंतन करना चाहिए। मेरा आत्मा भगवान् आत्मा है, मैं राग-द्वेष और क्रोधादि कषाय एवं पंचेन्द्रिय विषय व्यापार से आत्मा को पृथक् करके कब अपने परमात्मतत्त्व को प्राप्त करूँगा, ऐसी भावना के द्वारा भव्य जीव रत्नत्रय की शुद्धि और सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं।
वेदनाअनुयोगद्वार में मुख्य सोलह अधिकार माने हैं। उनमें से अंतिम नौ अधिकार (आठवें से सोलहवें तक) इस सिद्धान्तचिंतामणि टीका के १२वें ग्रंथ में हैं अर्थात् इसमें वेदनाप्रत्ययविधान, वेदनास्वामित्वविधान, वेदनावेदनाविधान, वेदनागतिविधान, वेदनाअनन्तरविधान, वेदनासन्निकर्षविधान, वेदनापरिमाणविधान, वेदनाभागाभागविधान और वेदनाअल्पबहुत्व विधान हैं।
पूज्य माताजी ने मंगलाचरण के पश्चात् ग्रंथ की भूमिका में बताया है कि इस बारहवीं पुस्तक में नौ अनुयोगद्वारों का निरूपण करने हेतु पाँच सौं तेंतीस (५३३) सूत्रों में दो महाधिकारों को विभाजित किया है।
इनमें से पाँच अधिकारों में विभक्त प्रथम महाधिकार में पाँच वेदनाओं का वर्णन है एवं द्वितीय महाधिकार के अन्तर्गत चार अधिकारों में शेष चार वेदनाओं का कथन किया है। सर्वप्रथम वेदनाप्रत्यय-विधान में नैगम आदि नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की वेदना के बंध कारणों का वर्णन है। इसमें नैगम, संग्रह और व्यवहारनय की अपेक्षा सब कर्मों की वेदना के बंध में २८ कारण (प्राणातिपात, मृषावाद, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग आदि) ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध योग से तथा स्थिति और अनुभागबंध कषाय से होता है। शब्दनय की अपेक्षा किससे किसका बंध होता है यह कहना संभव नहीं है क्योंकि नय में समास का अभाव पाया जाता है (१५वें सूत्र के अनुसार)।
आगे वेदनास्वामित्वविधान नामक प्रकरण में ज्ञानावरणादि आठों कर्मों के स्वामी का वर्णन है। इसके अंदर नयभेदों से स्वामी के भंगों का विषय पठनीय है।
पुन: वेदनावेदनाविधान नाम के अधिकार में सर्वप्रथम नैगमनय की अपेक्षा जीव, प्रकृति और समय इनके एकत्व और अनेकत्व का अवलम्बन लेकर ज्ञानावरण वेदना के एक संयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी भंगों का प्ररूपण किया गया है…….आदि।
आगे वेदनागतिविधान में ज्ञानावरणादि कर्मों की अपेक्षा भेद से क्या स्थित है, क्या अस्थित है, या क्या स्थितास्थित है, इस बात का वर्णन किया गया है। नैगमादि नयों की अपेक्षा घाति और अघाति कर्मों की वेदना स्थित, अस्थित, स्थितास्थित का विचार इसमें किया गया है।
वेदनाअनन्तरविधान नाम के अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध होने पर वे उसी समय फल देते हैं या कालांतर में फल देते हैं इस विषय का विवेचन है।
वेदनासन्निकर्षविधान प्रकरण में आठों कर्मों की वेदना द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट और जघन्य दोनों रूप बताई गई है।
वेदनापरिमाणविधान में आठों कर्मों के भेदों का विवेचन करते हुए ज्ञानावरण और दर्शनावरण की असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ क्यों हैं इसका वर्णन करके अन्य सभी कर्मों की प्रकृतियों का परिमाण बताया गया है।
वेदनाभागाभागविधान में प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास की अपेक्षा अलग-अलग ज्ञानावरणादि कर्मों की प्रकृतियों के भागाभाग का वर्णन है।
वेदनाअल्पबहुत्वविधान नाम के अधिकार में उपर्युक्त तीनों की अपेक्षा ज्ञानावरणादि कर्मों के अल्पबहुत्व का कथन किया गया है।
इस प्रकार सोलहों अनुयोगद्वारों के कथनपूर्वक वेदनाखण्ड नाम का चतुर्थ खण्ड समाप्त हुआ है।
इस बारहवें ग्रंथ के उपसंहार में पूज्य माताजी ने भगवान महावीर की पंचकल्याणक भूमियों एवं प्रथमदेशनाभूमि (कुण्डलपुर, जृंभिका, राजगृही, पावापुरी, गुणावां) का परिचय एवं गौतमगणधर स्वामी का परिचय बहुत ही सुंदर रूप में प्रस्तुत किया है।
इस ग्रंथ के अंत में चौबीसों तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमि वंदना भी बहुत महत्वपूर्ण है।
इन पुण्यवर्धिनी भावनाओं के साथ पूज्य माताजी ने चतुर्थ खण्ड का समापन करके अपने मानसिक आल्हाद को प्रगट किया है। आप सभी पुण्यात्मा भव्य प्राणी इन ग्रंथों का स्वाध्याय करके अपने ज्ञान की वृद्धि करें, यही इसकी सार्थकता होगी।
इन ग्रंथों में से १३ तक का हिन्दी अनुवाद तो हो चुका है, १४वीं की संस्कृत टीका का हिन्दी अनुवाद अभी चल रहा है, इसीलिए १३वीं से १६वीं पुस्तक तक संस्कृत में ही छापने का निर्णय किया गया। पूज्य माताजी की प्रेरणानुसार मैं इन ग्रंथों का अनुवाद क्रमश: कर रही हूँ। जिस ग्रंथ का अनुवाद पूर्ण होगा, उसका पृथक् संंस्कृत-हिन्दी टीका सहित प्रकाशन होकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होगा।
षट्खण्डागम के पाँचवें खण्ड का नाम है-वर्गणाखण्ड। यह वर्गणाखण्ड चार ग्रंथों (१३-१४-१५-१६) में निबद्ध है।
यहाँ सर्वप्रथम तेरहवें ग्रंथ के विषय का परिचय आपको प्राप्त करना है कि स्पर्श अनुयोगद्वार से वर्गणाखण्ड का जो प्रारंभ हुआ है, सो इस ग्रंथ में स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वारों का वर्णन है।
इसमें ‘स्पर्श अनुयोगद्वार’ के अन्तर्गत सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनामविधान, स्पर्शद्रव्यविधान, स्पर्शक्षेत्रविधान, स्पर्शकालविधान, स्पर्शभावविधान, स्पर्शप्रत्ययविधान, स्पर्शस्वामित्वविधान, स्पर्शस्पर्शविधान, स्पर्शगतिविधान, स्पर्शअनंतरविधान, स्पर्शसन्निकर्षविधान, स्पर्शपरिमाणविधान, स्पर्शभागाभागविधान और स्पर्शअल्पबहुत्व।२
पुनश्च प्रथम भेद ‘स्पर्शनिक्षेप’ के १३ भेद किये हैं-नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनंतरक्षेत्रस्पर्श, देशस्पर्श, त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श, स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बंधस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श३।
कर्म अनुयोगद्वार में भी प्रथम ही १६ अनुयोगद्वाररूप भेद कहे हैं-कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता, कर्मनामविधान आदि। पुनश्च कर्मनिक्षेप के दश भेद किये हैं-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध:कर्म, ईर्यापथकर्म, तप:कर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म।
इन १० भेदों में से अध:कर्म का वर्णन कर्मानुयोगद्वार के सूत्र नं. २१-२२ की टीका में पूज्य माताजी ने राजवार्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति, कसायपाहुड़, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और भावपाहुड़ आदि ग्रंथों के आधार से बहुत सुन्दर किया है। यहाँ औदारिकशरीर को अध:कर्म शब्द से कहकर उसके उपद्रवण आदि निमित्तों से अपमृत्यु की संभावना बताई है और चरमोत्तम देहधारियों में से उत्तम शरीरधारी चक्रवर्ती और अर्धचक्रियों के भी अकालमरण कहा है।
यथा-गुरुदत्तपाण्डवादीनामुपसर्गेण मुक्तत्वदर्शनान्ना-स्त्यनपवर्त्त्यायुर्नियम- इति न्यायकुमुदचन्द्रोदये प्रभाचन्द्रेणोक्त-मस्ति। तथा चोत्तमदेहत्त्वेऽपि सुभौमब्रह्मदत्तापवर्त्त्यायुर्दशनात्। कृष्णस्य च जरत्कुमारबाणेनापमृत्युदर्शनात्। सकलार्धचक्र-वर्तिनामप्यनपवर्त्त्यायुर्नियमो नास्ति इति राजवार्तिकालंकारे प्रोक्तमस्ति।
अर्थात् तद्भवमोक्षगामी गुरुदत्त मुनि, पाँचों पाण्डव महामुनियों की उपसर्ग के कारण अकालमृत्यु हुई एवं सुभौमचक्रवर्ती, ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती तथा अर्धचक्री, नारायण, प्रतिनारायण आदि के भी अकालमरण के उदाहरण आगम में प्राप्त होते है।।
यह पूरा प्रकरण टीका में पठनीय है इसे पढ़कर जो लोग अकालमरण को नहीं मानते हैं, उन्हें अपनी श्रद्धा समीचीन बनाना चाहिए।
आगे इसमें ‘तप:कर्म’ के बारह भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी प्रकार ‘क्रियाकर्म’ में-
‘‘तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तियोणदं, चदुस्सिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम४।।२८।।’’
यह क्रियाकर्म विधिवत् सामायिक-देववंदना में घटित होता है। इसी सूत्र को उद्धृत करके अनगारधर्मामृत, चारित्रसार आदि ग्रंथों में साधुओं की सामायिक को ‘देववंदना’ रूप में सिद्ध किया है। इसका स्पष्टीकरण मूलाचार, आचारसार आदि ग्रंथों में भी है। ‘क्रियाकलाप’ जिसका संपादन पं. पन्नालाल सोनी ब्यावर वालों ने किया था उसमें तथा पूज्य गणिनी माताजी द्वारा संकलित (पद्यानुवाद सहित) ‘मुनिचर्या’ में भी यह विधि सविस्तार वर्णित है। इन प्रकरणों को पढ़ते समय एक अद्भुत ही आनंद का अनुभव होता है।
इस ग्रंथ में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान का बहुत ही सुन्दर विवेचन है।
जिसमें श्रुतज्ञान की व्याख्या में पूज्य माताजी ने प्रतिष्ठातिलक आदि ग्रंथों के आधार से द्वादशांगमयी सरस्वती माता की प्रतिमा बनाने का भी उल्लेख किया है।
अनंतर सर्व कर्मों का वर्णन करके अंत में कहा है कि यहाँ ‘कर्म प्रकृति’ से ही प्रयोजन है।
इस तृतीय प्रकृति अनुयोगद्वार नामक अधिकार में कर्मप्रकृतियों का वर्णन भी बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इसमें एक तो सूत्र नं. ७८ की टीका में मन:पर्ययज्ञान के क्षेत्र के विषय में धवला टीका के अन्तर्गत सुन्दर विवेचन है और गोत्रकर्म का व्याख्यान सूत्र नंं. १३५ में है जिसका इस सिद्धान्तचिंतामणिटीका में आदिपुराण, उत्तरपुराण, त्रिलोकसार, पद्मपुराण, आचार्य कुन्दकुन्दकृत प्राकृत आचार्यभक्ति आदि के उदाहरणों से करके जैनधर्म के सज्जाति परमस्थान को पूर्ण रूप से पुष्ट किया गया है।
अन्त में इसमें तीनों अनुयोगद्वारों का उपसंहार विशेष द्रष्टव्य है।
प्रिय पाठक बंधुओं! अब मैं चौदहवीं पुस्तक के विषय पर आपका ध्यान आकर्षित करती हूँ।
इस ग्रंथ में केवल एक ‘‘बंधन अनुयोगद्वार’’ (छठे अनुयोगद्वार) का विवेचन है।
बंधन के चार भेद हैं-बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान। यहाँ इस अनुयोगद्वार में बंधक और बंधविधान की सूचना मात्र की है क्योंकि बंधक का विशेष विचार खुद्दाबंध में और बंधविधान का विशेष वर्णन महाबंध में किया है। शेष दो प्रकरण अर्थात् ‘‘बंध और बंधनीय’’ का वर्णन इस ‘‘बंधनअनुयोगद्वार’’ में किया गया है।
इसमें सर्वप्रथम बंध का वर्णन करते हुए कहा है कि-
बंध के ४ भेद हैं-नामबंध, स्थापनाबंध, द्रव्यबंध और भावबंध।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका में छठे अनुयोगद्वार का प्रारंभ टीकाकर्त्री ने स्वरचित छठे तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभु की स्तुति से किया है। पुन: भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर की पवित्र धरती पर बैठकर प्र्ाारंभ की गई इस ग्रंथ की टीका में अनुष्टुप् छंद के ८ श्लोकों में अर्हन्त-सिद्ध प्रतिमाओं को नमन करके बंधनमुक्त भगवान महावीर को बारम्बार नमस्कार किया है तथा षट्खण्डागम के वर्गणाखण्ड को लिखने की भावना व्यक्त करते हुए लिखा है-
अर्थात् यह सिद्धान्तचिंतामणिटीका चिन्तामणिरत्न के समान फलदायी होवे तथा सभी चिन्ताओं को दूर करके मेरे चित्तरूपी कमल को विकसित करे ऐसी इच्छा प्रगट की है।
आगे टीकाकर्त्री ने आप्तमीमांसा ग्रंथ की ४ कारिकाओं को देकर एक महत्वपूर्ण पंक्ति लिखी है-
‘‘अयं षट्खण्डागमो ग्रंथराज: साक्षाद् भगवदर्हद्देववाणी वर्तते अतएव पूर्णतया प्रामाण्यमस्ति।’’ अर्थात् यह षट्खण्डागम ग्रंथराज साक्षात् अर्हन्त भगवान की वाणी होने से पूर्णरूपेण प्रामाणिक है।
इसमें प्रारंभ में ही (सूत्र कथन से पूर्व) सिद्धान्त ग्रंथों के पठन-पाठन में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की शुद्धि का वर्णन मूलाचार ग्रंथ के अनुसार दिया है और यह भी आगम प्रमाण से सिद्ध किया है कि उपचार महाव्रती आर्यिकाएँ भी सिद्धान्त ग्रंथों का लेखन-पठन करने की पूर्ण अधिकारी हैं।
१४वीं पुस्तक को लिखते हुए चूँकि पूज्य माताजी का मंगल पदार्पण हस्तिनापुर तीर्थ पर २५ मई सन् २००५ को हो चुका था। वहाँ टायफाइड ज्वर के कारण उनका स्वास्थ्य गंभीर रूप से खराब हुआ था, फिर भी आयुकर्म शेष रहने के कारण तथा आत्मबल अत्यधिक दृढ़ होने की वजह से उन्होंने किंचित् मात्र स्वस्थता प्राप्त होते ही अपने इस टीका के अधूरे कार्य को पूर्ण करने में मनोयोग लगाया और सन् २००५ के वर्षायोग के मध्य उनके सान्निध्य में शरदपूर्णिमा के अवसर पर जम्बूद्वीप का चतुर्थ महामहोत्सव (पंचवर्षीय महामहोत्सव) मनाया गया जिसे उन्होंने सत्प्ररूपणा के पश्चात् ‘‘षडनुयोगद्वारप्ररूपणा’’ के अन्दर उल्लिखित किया तथा उस समय सुमेरुपर्वत की पाण्डुकशिला पर भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा का अभिषेक एवं सुमेरुपर्वत में विराजमान सभी सोलहों प्रतिमा का अभिषेक हुआ था जिसका सीधा प्रसारण पूरे देशवासियों ने आस्था टी.वी. चैनल के माध्यम से देखा था। यह अवसर एक अभूतपूर्व था जब पहली बार सुमेरुपर्वत की प्रतिमाओं के अभिषेक का सीधा प्रसारण हुआ था इसीलिए इस प्रकरण में माताजी ने पृथ्वीछंद के निम्न श्लोक को प्रस्तुत करके सुमेरु के माहात्म्य को प्रदर्शित किया है-
इसी प्रकार से इसमें समस्त विषय सुन्दर पठनीय हैं, जिसका स्वाध्याय करके ज्ञानामृत का आस्वादन लिया जा सकता है।
अन्त में वंदना के साथ चौदहवें ग्रंथ का उपसंहार है, पुन: टीकाकर्त्री की प्रशस्ति पढ़कर उनके विषय में सब कुछ संक्षेप में जाना जा सकता है।
इस प्रकार ग्रंथ की संस्कृत टीकाकर्त्री पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदन के साथ-
ये युग-युगों तक जयशील रहें, यही भगवान से प्रार्थना करते हुए अगले ग्रंथ के विषय को प्रारंभ करती हूँ।
१५वें ग्रंथ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय और मोक्ष (७-८-९-१०-११) नाम से पाँच अनुयोगद्वारों को लिया है। इसमें सूत्र केवल निबंधन अनुयोगद्वार तक ही है, जिनकी संख्या कुल २० है। आगे प्रक्रम, उपक्रम, उदय और मोक्ष अनुयोगद्वारों में सूत्र नहीं हैं, मात्र धवला टीका में वर्णित विषय के अनुसार ही इसकी नूतन टीका लिखी गई है।
सर्वप्रथम इसमें वर्णित पाँचों अनुयोगद्वारों के विषय का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है, उसके संबंध में जानिये-
निबंधन-‘निबध्यते तदस्मिन्निति निबंधनम्’ इस निरुक्ति के अनुसार जो द्रव्य जिसमें संबद्ध है, उसे ‘निबंधन’ कहा जाता है। उसके नाम निबंधन, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावनिबंधन ऐसे छह भेद हैंं।
इनमें से नाम, स्थापना को छोड़कर शेष सब निबंधन प्रकृत हैं। यह निबंधन अनुयोगद्वार यद्यपि छहों द्रव्यों के निबंधन की प्ररूपणा करता है तो भी यहाँ उसे छोड़कर कर्मनिबंधन को ही ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यहाँ अध्यात्म विद्या का अधिकार है५।
प्रश्न-निबंधनानुयोगद्वार किसलिए आया है ?
उत्तर-द्रव्य, क्षेत्र, काल और योगरूप प्रत्ययों की भी प्ररूपणा की जा चुकी है, उनके मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययों की भी प्ररूपणा की जा चुकी है तथा उन कर्मों के योग्य पुद्गलों को भी बताया जा चुका है। आत्मलाभ को प्राप्त हुए उन कर्मों के व्यापार का कथन करने के लिए निबंधनानुयोग द्वार आया है६।
उनमें मूलकर्म आठ हैं, उनके निबंधन का उदाहरण देखिये-‘‘उनमें ज्ञानावरण कर्म सब द्रव्यों में निबद्ध है और नोकर्म सर्वपर्यायों में अर्थात् असर्व पर्यायों में-कुछ पर्यायों में वह निबद्ध है७।।१।।’’
यहाँ ‘सब द्रव्यों में निबद्ध है।’ यह केवलज्ञानावरण का आश्रय करके कहा गया है क्योंकि वह तीनों कालों को विषय करने वाली अनंत पर्यायों से परिपूर्ण ऐसे छह द्रव्यों को विषय करने वाले केवलज्ञान का विरोध करने वाली प्रकृति है। ‘असर्व-कुछ पर्यायों में निबद्ध है’ यह कथन शेष चार ज्ञानावरणीय प्रकृतियों की अपेक्षा कहा गया है।
इत्यादि विषयों का इस अनुयोग में विस्तार है।
२. प्रक्रम अनुयोगद्वार के भी नाम, स्थापना आदि की अपेक्षा छह भेद हैं। द्रव्य प्रक्रम के प्रभेदों में कर्म- प्रक्रम आठ प्रकार का है। नोकर्म प्रक्रम सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है।
क्षेत्रप्रक्रम ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोकप्रक्रम के भेद से तीन प्रकार का है। इत्यादि विस्तार को धवला टीका से समझना चाहिए।
३. उपक्रम अनुयोगद्वार में भी पहले नाम, स्थापना आदि से छह भेद किये हैं पुन: द्रव्य उपक्रम के भेद में कर्मोपक्रम के आठ भेद, नो कर्मोपक्रम के सचित्त, अचित्त और मिश्र की अपेक्षा तीन भेद हैं पुन: क्षेत्रोपक्रम-जैसे ऊर्ध्वलोक उपक्रांत हुआ, ग्राम उपक्रांत हुआ व नगर उपक्रांत हुआ आदि।
काल उपक्रम में-बसंत उपक्रांत हुआ, हेमंत उपक्रांत हुआ आदि। यहाँ ग्रंथ में कर्मोपक्रम प्रकृत होने से उसके चार भेद हैं-बंधन उपक्रम, उदीरणा उपक्रम, उपशामना उपक्रम और विपरिणाम उपक्रम।
इसी प्रकार इन सबका इस अनुयोगद्वार में विस्तार है।
४. उदय अनुयोगद्वार में नामादि छह निक्षेप घटित करके ‘नोआगमकर्मद्रव्य उदय’ प्रकृत है, ऐसा समझना चाहिए।
वह कर्मद्रव्य उदय चार प्रकार का है-प्रकृति उदय, स्थिति उदय, अनुभाग उदय और प्रदेश उदय।
इन सभी में स्वामित्व की प्ररूपणा करते हुए कहते हैं। जैसे-
प्रश्न-पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अंतराय इनके वेदक कौन हैं ?
उत्तर–इनके वेदक सभी छद्मस्थ जीव होते हैं८, इत्यादि। इस प्रकार से यहाँ संक्षेप में इन अनुयोगद्वारों के नमूने प्रस्तुत किये हैं।
५. मोक्ष-इसमें मोक्ष के चार निक्षेप कहकर नोआगम द्रव्यमोक्ष के तीन भेद किये हैं-मोक्ष, मोक्षकारण और मुक्त।
जीव और कर्मों का पृथक् होना मोक्ष है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये मोक्ष के कारण हैं। समस्त कर्मों से रहित अनंत दर्शन, ज्ञान आदि गुणों से परिपूर्ण, कृतकृत्य जीव को मुक्त कहा गया है९।
इस ग्रंथ की सिद्धान्तचिंतामणि टीका में तीन महाधिकारों में विषयवस्तु बतलाने की प्रतिज्ञा के साथ भूमिका आदि के बाद ८ सूत्रों तक मूलप्रकृति निबंधन का वर्णन है, उसके पश्चात् उनके उत्तर भेदों का निबंधन प्रस्तुत किया है और २० सूत्रों में वर्णित प्रथम महाधिकार का समापन पूज्य माताजी ने अर्हं मंत्र के ध्यान की प्रक्रिया बतलाते हुए किया है।
इसके आगे ‘‘प्रक्रमअनुयोगद्वार’’ नाम से आठवें अनुयोगद्वार का द्वितीय महाधिकार के रूप में प्रारंभीकरण आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ भगवान की स्तुति से किया है। इस अनुयोगद्वार में कोई सूत्र नहीं है। इस द्वितीय महाधिकार को प्रक्रम और अनुपक्रम नाम के दो अधिकारों में विभक्त किया है। उसमें से प्रक्रम के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छह प्रकार हैं। पुन: इनके भेद-प्रभेद बताकर उनके लक्षण कहे हैं।
छह निक्षेपों के पश्चात् जैनशासन की स्याद्वादशैली में एकान्त से नित्यत्व अथवा अनित्यत्व पक्ष के स्वीकार करने वाले मत का खण्डन करते हुए आप्तमीमांसा और अष्टसहस्री ग्रंथ के आधार से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का वर्णन किया है। यहाँ ज्ञातव्य है कि इस ग्रंथ की टीकाकर्त्री पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९६९-७० में न्याय के सर्वोच्च ग्रंथ अष्टसहस्री ग्रंथ की अतिक्लिष्ट संस्कृत टीका का शुद्ध हिन्दी में अनुवाद करके बड़े-बड़े विद्वानों को भी आश्चर्य में डाल दिया है। उनके रग-रग में आज भी १००० वर्ष पूर्व में हुए अष्टसहस्री ग्रंथ के कर्ता आचार्यश्री विद्यानंदि स्वामी रचित अष्टसहस्री की अनेकानेक पंक्तियाँ समाई हुई हैं, जिन्हें वे यथासमय अपनी अन्य संस्कृत-हिन्दी की टीकाओं में प्रयुक्त करती हैं। उससे हमारे पाठकों को सहज में ज्ञात हो सकेगा कि अष्टसहस्री की अनुवादकर्त्री एवं षट्खण्डागम की संस्कृत टीका लिखने वाली एक ही ज्ञानमती माताजी हैं। इसके अतिरिक्त भी इन्होंने अपनी साहित्य रचना के माध्यम से सम-सामायिक आवश्यकताओं की पूर्ति की है, इसीलिए बालक, युवा, नारी, प्रौढ़, स्वाध्यायी, विद्वान् सभी के लिए बाल विकास, जैन बाल भारती, प्रतिज्ञा-परीक्षा आदि धार्मिक उपन्यास, नारी आलोक, जैन भारती, ज्ञानामृत, नियमसार, समयसार, पूजा-विधान साहित्य आदि सभी अति लोकोपयोगी सिद्ध हुए हैं।
इसमें चतुर्थ स्थल में उदीरणा का लक्षण और भेद बताते हुए कहा है कि-‘‘क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में महामुनि के ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा व्युच्छित्ति होती है। नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा व्युच्छित्ति तेरहवें गुणस्थान में होती है……..आदि।’’
इस अधिकार के अन्त में टीकाकर्त्री ने अधिकार का निष्कर्ष बताते हुए लिखा है-
इतो विशेष:-उपक्रमानुयोगद्वारस्य षड् निक्षेपा: कथिता:। तत्र द्रव्योपक्रमभेद-प्रभेदेषु कर्मोपक्रम: प्रकृत:। अस्य कर्मोपक्रमस्य चतुर्भेदा: निरूपिता:-बंधनोपक्रम:, उदीरणोपक्रम:, उपशामनोपक्रम:, विपरिणामोपक्रमश्चेति। प्रत्येकभेदस्यापि प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेशरूपेणापि चत्वारो भेदा निरूपिता:। अत्रापि प्रकृति भेदे मूलप्रकृति-उत्तरप्रकृति भेदा: कथिता:। इत्यादि भेद-प्रभेदा: कथिता: सन्ति।
तात्पर्यमत्र-कर्मबंधनभेद-प्रभेदान् ज्ञात्वा यदि सर्वकर्मपरिमोक्षमिच्छसि तर्हि त्वं पंचेन्द्रियसुखनिवृत्तिं कृत्वा निर्विकल्पध्यानबलेन स्वाभाविकपरमात्मसुखे रतो भव, संतुष्टो भव, तृप्तो भव, किं च-नित्यं स्वशुद्धात्मसुखानुभवनात् तवोत्तममक्षयं मोक्षसुखं भविष्यति इति निश्चित्य स्वशुद्धात्म-तत्त्वमेवोपादेयं कर्तव्यम्।
अर्थात् कर्मों के भेद-प्रभेद पढ़ने का सार यही है कि उनसे मुक्त होने का प्रयत्न किया जावे। जैसा कि टीकाकर्त्री के दीक्षागुरु महामहिम आचार्य श्री वीरसागर महाराज ने अपने पीठ पर निकले भयंकर अदीठ फोड़े की २ घंटे तक शल्यचिकित्सा (बिना बेहोशी के) कर्मप्रकृतियों के चिन्तन के बल पर करवाई थी। जिसकी कल्पना करने मात्र से रोम-रोम सिहर जाता है कि उन गुरुदेव ने वैâसे इतनी पीड़ा अपने निर्बल औदारिक शरीर पर झेली होगी। मैंने आचार्य श्री की पूजन की जयमाला में अपने हार्दिक उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि-
कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मप्रकृतियों के भेद-प्रभेदों को अप्रयोजनीभूत तत्त्व नहीं कहा जा सकता है, इनके बंध, उदय, उदीरणा, सत्व आदि की व्यवस्था को जानकर ही इनसे छूटा जा सकता है।
आगे इस १५वें ग्रंथ में अंतिम अनुयोगद्वार के रूप में वर्णित ग्यारहवाँ अनुयोगद्वार मोक्षानुयोगद्वार है।
नाम मोक्ष, स्थापना मोक्ष, द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष। आगे इनके भेद-प्रभेद बताकर तात्पर्य में लिखा है-
सर्वकर्मणां मूलोत्तरप्रकृतिभि: स्वात्मनां पृथक्करणं मोक्ष:।
यहाँ मोक्ष और मोक्ष के कारणों को तत्त्वार्थसूत्र के ‘‘क्षेत्रकालगतिलिंग…..’’ आदि सूत्र के द्वारा १२ अनुयोगद्वारों में प्रस्तुत किया है, जो कि अति सुन्दर पठनीय प्रकरण है।
पुस्तक १६ (अंतिम ग्रंथ)
प्रिय पाठक बंधुओं! अब मैं सोलहवें ग्रंथ के मूल विषय पर आती हूँ, जो कि पंचम खण्ड-वर्गणाखण्ड का अंतिम ग्रंथ है।
‘कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बंधन, निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय और मोक्ष ये ग्यारह अनुयोगद्वार नवमी पुस्तक से पंद्रहवीं पुस्तक तक आ चुके हैं। अब आगे के १२. संक्रम, १३. लेश्या, १४. लेश्या कर्म
१५. लेश्या परिणाम १६. सातासात १७. दीर्घ-ह्रस्व, १८. भवधारणीय, १९. पुद्गलात्त २०. निधत्तानिधत्त
२१. निकाचितानिकाचित २२. कर्मस्थिति २३. पश्चिमस्कंध और २४. अल्पबहुत्व ये १३ अनुयोगद्वार शेष हैं। सोलहवीं पुस्तक में इन सबका वर्णन है।
इस ग्रंथ में सूत्र नहीं हैं, मात्र टीका में ही इन अनुयोगद्वारों का विस्तार है।
दो महाधिकारों में विभक्त इस संक्रम अनुयोगद्वार के प्रकरण में पाँच स्थल हैं, जिसमें संक्रम के छह भेद करके कर्मसंक्रम के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशसंक्रम ये चार भेद बताए हैं। इसमें विस्तृत वर्णन के अन्तर्गत विशेष बात कही है कि-
चतुर्णामायुषां संक्रमो नास्ति। कुत: ? स्वाभाविकत्वात्। अर्थात् चारों आयु कर्मों का संक्रम नहीं होता है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
सातासात अनुयोगद्वार में समुत्कीर्तना आदि पाँच अवान्तर अनुयोगद्वार बताए हैं और कहा है-
सिद्धान्तग्रंथे केवलिनां भगवतामपि एकसाताप्रकृतिबंध: कथ्यते स तु बंधो नाममात्रेणैव।
उक्तं च श्रीनेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तिना-
अर्थात् केवली भगावन के एक साता प्रकृति का बंध भी नाम मात्र का है क्योंकि वहाँ स्थिति-अनुभाग बंध न होने से मात्र प्रकृति-प्रदेशबंध कोई हानि नहीं पहुँचाते हैं, इस हेतु से केवली भगवान के कर्मबंध नहीं है, ऐसा भी कह सकते हैं।
हम सभी संसारी जीव हैं अत: साता-असाता दोनों का बंध चल रहा है उसी को रोकने का पुरुषार्थ करने हेतु हमें इन ग्रंथों का खूब स्वाध्याय करना चाहिए।
आगे दीर्घ-ह्रस्व अनुयोगद्वार के भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश के नाम से चार भेद बताए हैं। इन सभी अनुयोगद्वारों के समापन में तात्पर्यार्थ देकर पूज्य माताजी ने उनका सार उसमें भर दिया है। आगे के भवधारणीय, पुदगलात्त, निधत्तानिधत्त, निकाचितानिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कंध और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारों में गागर में सागर के समान सार भरा हुआ है।
इस ग्रंथ के अंतिम २४वें अनुयोगद्वार एवं बारहवें अधिकार का समापन करते हुए टीकाकर्त्री ने सोलहवें ग्रंथ के उपसंहार में पूरे ग्रंथ का निचोड़ रख दिया है, जो कि उनकी विशेष ज्ञानप्रतिभा का द्योतक है। कुल मिलाकर यहाँ आप सभी को जानना है कि-
कृति, वेदना, स्पर्श आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में से ‘कृति और वेदना’ नाम के मात्र दो अनुयोगद्वारों में ‘वेदनाखण्ड’ नाम से चौथा खण्ड विभक्त है। पुनश्च ‘स्पर्श’ आदि से लेकर अल्पबहुत्व तक २२ अनुयोगद्वारों में ‘वर्गणाखण्ड’ नाम से पांचवां खण्ड लिया गया है। यहाँ तक पाँच खंडों को सोलह पुस्तकों में विभक्त किया है। छठे महाबंध ख्ण्ड में सात पुस्तकें विभक्त हैं जो कि हिन्दी अनुवाद होकर भारतीय ज्ञानपीठ से छप चुकी हैं।
भगवान महावीर की वाणी से संबंध-इन ‘षट्खण्डागम’ सूत्र ग्रंथराज का भगवान महावीर की वाणी से सीधा संबंध स्वीकार किया गया है। जैसा कि श्री वीरसेनाचार्य ने नवमी पुस्तक में लिखा है-
श्रीधरसेनाचार्य महामुनीन्द्र जयवंत होवें कि जिन्होंने ‘महाकर्मप्रकृतिप्राभृत’ नाम के शैल-पर्वत को बुद्धिरूपी मस्तक से उद्धृत करके-उठा करके श्रीपुष्पदंत एवं श्री भूतबलि ऐसे दो महामुनियों को समर्पित किया है।
इस सोलहवें ग्रंथ की सिद्धान्तचिंतामणिटीका का शुभारंभ पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने
२३-१०-२००६, कार्तिक शुक्ला एकम् को जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में बैठकर किया तथा ४-४-२००७, वैशाख कृ. दूज को उन्होंने अपने ५२वें आर्यिका दीक्षा दिवस पर भगवान महावीर के कमल मंदिर में हम सबके समक्ष टीका को पूर्ण किया है, उस दिन उन्होंने कहा कि आज मैं परम कृतकृत्यता का अनुभव कर रही हूँ और अपने आध्यात्मिक जीवन पर स्वर्णिम कलशारोहण करने जैसी मुझे प्रसन्नता हो रही है।
प्रिय श्रद्धालु भक्तों! इस षट्खण्डागम सूत्र ग्रंथ के इस १६वें ग्रंथ की विषयवस्तु लिखते हुए मुझे अत्यन्त गौरव की अनुभूति हो रही है कि सन् १९९५ में एक दिन मेरे विनम्र निवेदन पर पूज्य गणिनी मातुश्री ने षट्खण्डागम ग्रंथ का टीकालेखन प्रारंभ किया और उस दिन उन्होंने कहा था कि मैं प्रथम खण्ड का संकल्प लेकर कार्य शुरू करती हूँ किन्तु उनकी आगमनिष्ठ, सशक्त लेखनी पर सरस्वती माता का इतना प्रभाव देखा गया है कि कल्पनातीत उपलब्धि होने में कोई आश्चर्य नहीं होता है।
यही कारण रहा कि लम्बे-लम्बे प्रवासों के मध्य भी इनका टीका लेखन जादू जैसा चलता रहा और मात्र ११ वर्ष ६ माह की अवधि में सोलहों ग्रंथ की टीका पूर्ण करके उन्होंने ‘‘सिद्धान्तचक्रेश्वरी’’ और ‘वाग्देवी’ पदवी को वास्तव में सार्थक करके दिखा दिया है।
इनकी हिन्दी टीका अभी पूर्ण नहीं हो पाई है, यही कारण है कि कुछ ग्रंथों को केवल संस्कृत में ही प्रकाशित करने का निर्णय लेना पड़ा। इनमें से १२ ग्रंथ (चार खण्ड) तो हिन्दी टीका सहित छप गये हैं पुन: पंचम खण्ड को २ ग्रंथोें (१३-१४) और (१५-१६) में प्रकाशित किया गया है। इन सबका हिन्दी टीका सहित प्रकाशन पृथक्-पृथक् ग्रंथ के रूप में भी शीघ्र आपके समक्ष प्रस्तुत होंगे।
इनकी विषयवस्तु लिखते समय संस्कृत ग्रंथों का पारायण करके भी मुझे अतीव आनंद की अनुभूति हुई है, क्योंकि माताजी की संस्कृत प्रांजल, सरल और सरस होने से सहज ही समझ में आ जाती है।
जैसा कि पूज्य माताजी ने पूरे ग्रंथ में जगह-जगह स्पष्ट कर दिया है कि यह टीका प्रमुख रूप से धवला ग्रंथ के आधार से है तथा इसमें अन्य अनेक ग्रंथों के उद्धरण देकर भी विषय को शीघ्रगाही बनाया गया है अत: यह उनकी मौलिक टीकाकृति के रूप में विद्वज्जगत की शिखामणि के समान है और वैशाख कृ. दूज तिथि को इसे पूर्ण करने के कारण वह इनकी आर्यिका दीक्षा तिथि ‘‘श्रुतज्ञानदिवस’’ के रूप में संसार में अमरता को प्राप्त होवे, यही भगवान जिनेन्द्र से प्रार्थना है।
संदर्भ-
१. उत्तरपुराण। २. षट्खण्डागम (धवलाटीकासमन्वित) पु. १३, सूत्र २। ३. षट्खण्डागम (धवलाटीकासमन्वित) पु. १३, सूत्र ४। ४. षट्खण्डागम (धवलाटीकासमन्वित) पु. १३, सूत्र २८, पृ. ८८ । ५. षट्खण्डागम (धवलाटीकासमन्वित) पु. १५, पृ. ३। ६. षट्खण्डागम (धवलाटीकासमन्वित) पु. १५, पृ. ३। ७. षट्खण्डागम (धवलाटीकासमन्वित) पु. १, पृ. ४। ८. षट्खण्डागम (धवलाटीकासमन्वित) पु. १५, पृ. २८५। ९. षट्खण्डागम (धवलाटीकासमन्वित) पु. १६ । १०. गोम्मटसार कर्मकांड।
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