देवपूजा
द्वारा -आर्यिका सुदृष्टिमति माताजी
प्र. ३५३। जिनपूजक का स्वरूप क्या है?
उत्तर: पूजा के समान ही पूजक, पूजा करने वाला भी विशिष्ट विधिवत् मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक होना चाहियो सर्वप्रथम पूजक सर्वागपूर्ण होना चाहिये। विकलांग वाला न हो। शरीर में आठ अंग कहे हैं, उन सबसे युक्त होना चाहिये। पुनः उत्तम कुलोत्पन अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यवर्ण का हो। इससे शुद्ध कुलवंश व जातीयवाला होना चाहिये। अर्थात् विधवा विवाह, विजातीय विवाह वाला अथवा इस प्रकार के घरानों में उत्पन्न होने वाला नहीं हो। सम्यग्दर्शन सम्पन, देव, शास्त्र, गुरु का परम अनन्य भक्त हो। विनयशील, बद्धालु, सदाचारी, आचार, विचार से पवित्र, न्यायोपात्त धनोपार्जन करने वाला होना चाहिये। प्राला उसे आगमानुसार विधिवत् शरीर शुद्धि करना चाहिये। वह दंतमंजन कर मुख शुद्धि करना, पुनः स्नान कर घुले शुद्ध वत्र धारण करें। अपने घर से अष्ट द्रव्य लावे। परम पवित्र द्रव्यों को लेकर शुद्धिपूर्वक जिनालय आवे। द्वार पर आते ही अपने पाद प्रक्षालन करे। मन, वचन, काय की शुद्धिवाला यज्ञोपवीत धारी, ललाटादि नौ स्थानों पर तिलक लगावे। सकलीकरण क्रिया द्वारा द्रव्यक्षेत्र काल भाव की शुद्धि कर प्रथम श्री जिन की ३ प्रदक्षिणा कर, ललाट पर कमलांजुलि युत नमस्कार कर महामंत्र द्वारा कायोत्सर्ग कर पूजा करे।
प्र. ३५४: देवाराधना क्यों करना?
उत्तर: भगवान की भक्ति, श्रद्धा, रुचि व प्रतीति से अपना भगवन्त प्रकट होता है। भगवान आत्मा अनादि से बंधन बद्ध चला आया है। जिन्होंने इस बद्धता का आमूल उच्छेदन किया है, वही भगवान है। उन्होंने किस प्रक्रिया से अपने तिरोहित भगवत्व को प्रकटाया, कला का परिज्ञान करने के लिये भगवान की भक्ति, विनय, श्रद्धा, व अनुकरण होता है। अरहंत देव के प्रति अटल श्रद्धा उनका प्रसाद है, जो जिससे प्रसन्न होता है वह उसे अपनी अमूल्य उत्तमोत्तम वस्तुओं से परिचित करा देता है। मान लो अपने मित्र से अतिस्नेह है, उसके प्रति अटूट विश्वास है, तो वह भी आपको विश्वस्त समझकर अपने गृह कुटुम्ब व स्वयं के हृदय के रहस्यमय भावों को आपके समक्ष प्रकट कर देगा और आप भी अपने हृदयस्वभाव विचारों को उसे बता देंगे। यह स्वाभाविक है, अतः भगवान के प्रति श्रद्धा का अर्थ है उनके गुणों का परिचय प्राप्त करना, उनके मार्ग परागमन करना, उनके पद पर पहुँचना उनकी भक्ति का पूजा फल है। जिससे लोक में भी जितनी अधिक घनिष्ठता होती है जीवन में उसके गुण धर्म, प्रवृत्तियाँ आदि उतने अंशों में स्वयं प्रवृत्त हो जाती है। अतः देव, शास्त्र, गुरु के प्रति हमारी जितनी गहरी श्रद्धा भक्ति होगी, उनके गुण, उनके नहीं अपितु उन समान अपने ही गुण उस मात्रा में प्रकट होंगे।
प्र. ३५५ : देवपूजन के लिये शुद्धि किस प्रकार करनी चाहिये?
उत्तर: शौचादिक से निवृत्त होकर दंतशुद्धि करना चाहिये। पश्चात् मुख शुद्धि कुल्ला द्वारा करनी चाहिये फिर स्नान करके धुले हुये पवित्र वस्त्र पहनकर मौनव्रत और संयम दोनों को धारण करके भगवान अरहंतदेव की पूजा-उपासना करनी चाहिये। मुख-शुद्धि शरीर के साथ है। मुख शुद्धि करने से किसी व्रत में अंतर नहीं पढ़ता है क्योंकि उसमें सिवाय कुल्ला करके मुख को शुद्ध कर लेने के अतिरिक्त और कोई दूसरा अभिप्राय नहीं रहता। जिस प्रकार शरीर पर पानी डालकर स्नान कर लेने से व्रत भंग नहीं होता, इसी प्रकार व्रती आवक को अपनी अंतरंग व बहिरंग दोनों प्रकार की शुद्धि करके देवाधिदेव अरहंत भगवान की पूजा अभिषेक नित्य नियमित रूप से करना चाहिये। क्योंकि यह श्रावकों का मुख्य कर्तव्य है।
प्र. ३५६ : यदि अनाधिकारी मनुष्य पूजा-अभिषेक करे तो क्या होगा?
उत्तर : यदि अनाधिकारी पुरुष त्रिलोकनायक भगवान की पूजा-अभिषेक करे, करने वाला, कराने वाला राजा और राष्ट्र सभी में घोर विपत्तियाँ आती हैं।
प्र. ३५७ : पूजा क्या होती है?
उत्तर: पूज्य जिनेंद्र के गुणों की मनोज्ञ, वीतराग छवि को निहारते हुये उनके विशुद्ध गुणों को वर्णन करना उनका चिन्तन करना, जिनेंद्र के त्याग व तपोमय जीवन पर दृष्टि डालना पूजा है। इस कार्य से मन में आर्तध्यान, रौद्रध्यान की कालिमा नहीं रहती है और जीव विलक्षण शान्ति तथा आनंद को प्राप्त करता है। मानतुंग आचार्य ने लिखा है कि, हे जिनेंद्र। आपकी स्तुति करने से अनेक भव परम्परा से संबद्ध जीवों के पाप क्षणमात्र में क्षय को प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार भ्रमर के समान श्याम तथा सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करने वाला रात्रि का अंधकार सूर्य की किरणों से शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
जिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति करने वाला आत्मा का कर्मभार लघु हो जाता है, वह सम्यक्त्व प्राप्त करती हुये रत्नत्रय के परिपालन का निर्मल मार्ग स्वीकार करने योग्य शारीरिक तथा आध्यात्मिक क्षमता नहीं प्राप्त की है तब इसकी हित साधना के लिये जिनेंद्र भक्ति, पूजा, नाम स्मरण, आदि के सिवाय और क्या साधन है? इन श्रेष्ठ कार्यों से जो विमुक्त होता है, उस गृहस्थ की गति क्या होगी, यह सहज ही सोचा जा सकता है। वह व्यक्ति आरम्भ, परिग्रह, विषयसेवन विकथाओं के कुचक्र में अपना हीरा जैसा नरभव नष्ट कर देता है। वह यह नहीं सोच पाता है कि इस नर देह की प्राप्ति कितनी कठिन तथा महत्वपूर्ण है।
प्र. ३५८ : ध्वजारोहण का महत्व बताओ।
उत्तर: हर मांगलिक कार्यक्रमों, विधान महोत्सवों, प्रतिष्ठा महोत्सवों आदि समारोह पर झंडारोहण किया जाता है। मन्दिर पर ध्वजा फहराना मांगलिक, मंगलकारी है। मन्दिर पर ध्वजा का नहीं होना या जीर्ण-शीर्ण होना, उस स्थान, समाज विशेष के लिये अमंगलकारी और समृद्धिबाधक है। वस्त्र से बनी और चारों और लहराती हुई ध्वजा अति लक्ष्मी प्रदाता तथा राज्य में यश कीर्ति को विस्तीर्ण करने वाली है। यह ध्वजा कृषक, बालक, गोरक्षक, सुनार की समृद्धि करने वाली तथा शासक के लिये धान्य ऐश्वर्यादि सुखदायिनी एवं विजय प्रदायिनी है। ध्वजा जब चारोंओर लहराती है तो बड़ी मनमोहक लगती है और उत्साहवर्धिनी होती है। इसलिये प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में ध्वजा रोहण बड़े विधि-विधानपूर्वक, मान-सन्मान व हर्षपूर्वक किया जाना चाहिये।
प्र. ३५९ : चा. चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी का उपयोगी मंत्र बताओं?
उत्तर : महाराज ने कहा यह बड़ा ही उपयोगी मंत्र है। ॐ अरहन्तसिद्धसाधुभ्योः नमः। ३५ अक्षर के मंत्र अपने से महान फल होता है, उतना फल छोटे मंत्र के अधिक जाप द्वारा सम्पन्न होगा।
प्र. ३६० : आशिका के पुष्पों (चावल) को अग्नि में डालना उचित है क्या?
उत्तर : नहीं, आशिकाजी के परम पवित्र पुष्पों को अग्नि धूपदान में कभी नहीं डालना चाहिये। उन्हें मस्तक पर चढ़ाकर किसी उचित स्थान पर विसर्जित कर देना चाहिये।
प्र. ३६१ : जिस थाली में सामग्री रखते हैं, उसे पूर्ण खाली करना उचित है क्या?
उत्तर : नहीं, जिस थाली में अष्ट द्रव्य रखते हैं, पूजा पूर्ण होने पर उसमें कुछ अक्षत रखना चाहिये। जिन्हें शेषाक्षत कहते हैं, इनको अपने घर ले जाकर सबको शेष देना चाहिये।
प्र. ३६२: शेषाक्षत वेने का कोई उदाहरण है क्या?
उत्तर: आगम में अनेको उदाहरण है। मैनासुन्दरी श्रीनिज पूजा कर अंजना, चंदना आदि के भी इस प्रकार के उल्लेख मिलते हैं। आधी और पिता को शेषाक्षत दिये।
प्र. ३६३ : जिनेद्र देव के पद को निर्बाध रूप से कौन प्राप्त कर सकता है?
उत्तर: . ३६३: मन में उपसर्ग या कष्ट के समय वेदना का अनुभवन न करने वाले, संक्लिष्ट परिणाम न करने किसी की सहायता न चाहने वाले, शरीर पर मोह न रखने वाले उपसर्ग को शान्तिपूर्वक सहन करने जाने आम तच में मन को स्थिर करने वाले ही जिनेंद्र देव के पद को निर्बाध रूप से पा सकते हैं।
प्र. ३६४: पूजा के तीन भेवों का स्वरूप बतलाइये।
उत्तर: पूजा के तीन भेद हैं- (१) सचित्त, (२) अचित. (३) सवित्ताचित्त (मिश्र) साक्षात जिन भगवान निर्धया परम डीलराणी दिगम्बर साधुओं की पूजा सचित्त पूजा है। अचित्त क्या है तीर्थकर सर्वज्ञ भगवान की लिपिवद्ध जिनवाणी शब्यात्मक होने से अचित्त है। पत्र पर अक्षर आदिक्त अचित्त है। अता जिनवाणी पूजा अचित्त है। मिश्र क्या है। दोनों की उभय रूप पूजा करना अथवा जिनचैत्य की पूजा मित्र या सचित्ताचित हैं। धातु पाषाणादि अचित्त है और उनमें सूर्यमंत्र आदि देकर मंत्रादि संस्कार कर उसमें जीवन्त भगवान का आरोप किया जाता है। अतः चैत्य पूजा उभयामिश्र है। वह वसुनंदी श्रावकाचार में वर्णित है।
प्र. ३६५ :पूजा किस प्रकार की जाती हैं?
उत्तर: धुले हुये पवित्र वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, जिन चरण चर्चित गंध और जिनचरण स्पर्शित माला धारण कर जिनेंद्र देव की पूजा की जाती है।
प्र. ३६६ : गृहस्थ के द्वारा होने वाली, भगवान अहँलदेव की पूजा में छह क्रियायें सुनी जाती हैं, वे कौन-कौन सी है?
उत्तर: सबसे पहले जलादिक पंचामृत से भगवान अर्हन्तदेव का स्नपन या अभिषेक करना यह पहली क्रिया है। अभिषेक के बाद पहले कही हुई विधि के अनुसार पंचोपचारी पूजा करना दूसरी क्रिया है। पूजा के बाद उनका स्तोत्र पाठ करना यह तीसरी किया है। स्तुति के बाद इनके वाचकमंत्रों के द्वारा १०८ बार जप करना सो चौथी क्रिया है। तदनंतर कायोत्सर्ग धारण कर उनका ध्यान करना पाँचवीं क्रिया है। शास्रो के द्वारा ५ प्रकार का स्वाध्याय करना छठी किया है। इस प्रकार पूर्वाचायों ने देवसेवा (देवपूजा) करने के लिये गृहस्थों को छह क्रियायों के करने का उपदेश दिया है। ऐसा ही यशस्तिलक नाम के महाकाव्य में लिखा
स्नपनं, पूजनं, स्तोत्रं, जप, श्रुतिश्रवणम् क्रिया।
षडुदिताः सद्भिः देवसेवासु गेहिनाम् ।।
प्र. ३६७ : पूजा करने वाला पूजन के लिये वस्त्र ‘किस प्रकार धारण करता है?
उत्तर : जो भव्य पुरुष शांति और पुष्टि के लिये भगवान की पूजा करता है उसे सफेद वस्त्र पहनकर पूजा करनी चाहिये। यदि वह शत्रु पर विजय के लिये भगवान की पूजा करता है तो उसे श्याम अथवा काले वस पहनकर पूजा करनी चाहिये। यदि कल्याण के लिये पूजा करता है तो उसे हरे वस्त्र पहनकर पूजा करनी चाहिये और यदि किसी कार्य की सिद्धि के लिये पूजा करता है तो उसे पाँचों रंग के वस्त्र पहनना चाहिये।
शांतौ श्वेतं, जये श्यामं, रक्ते भये हरित
पीतं ध्यानादि संलोमे पंचवर्णतु सिद्धये ।।
प्र. ३६८: त्रिकाल पूजा की विधि क्या है?
उत्तर: चतुर भव्यजीवों को नियमपूर्वक तीनों समय भगवान की पूजा करनी चाहिये। सबसे पहले लिखी हुई विधि के अनुसार स्नानादि कर भगवान की पूजा करनी चाहिये। प्रथम प्रातःकाल भगवान का पंचामृताभिषेक करना चाहिये। फिर चंदन, केशर में कर्पूर मिलाकर भगवान के चरण कमलों की अर्चना करनी चाहिये। यह प्रातःकाल की पूजा है। फिर दोपहर के समय अनेक प्रकार के सुगंधित और मनोज पुष्पों से भगवान की पूजा करनी चाहिये, यह मध्यान्ह पूजा कहलाती है। तदनंतर शाम के समय दीप और धूप से पूजा करनी चाहिये। ऐसा उमास्वामी विरचित श्रावकाचार में लिखा है।
श्री चन्दनं बिना नैव पूजां कुर्यात् कदाचन।
प्रभाते घनसारस्य पूजा कार्या विचक्षणः ।।
मध्यान्हे कुसुमेः पूजां संध्यायां दीपधूप युत।
अष्टद्रव्य से पूजा की जाती है वह विशेष पूजा है। इस अष्टद्रव्य की पूजा को त्रिकाल में करने का कुछ नियम नहीं है। यह पूजा तो जिस समय की जाये, उसी समय हो सकती है।
प्र. ३६९ : पूजा करते समय किसी के हाथ से जिन प्रतिमा पृथ्वी पर गिर जाये, उसका प्रायश्चित क्या है?
उत्तर: पूजा करते समय जिनमूर्ति पृथ्वी पर गिर पड़े तो पूजा करने वाले को उस मूर्ति का शुद्ध जल तथा गंधोदक से भरे हुये एक सौ आठ कलशों से मंत्रपूर्वक अभिषेक करना चाहिये। पश्चात् पूजा कर १०८ मूलमंत्रों से आहूति देकर फिर वहीं विराजमान कर देना चाहिये। ऐसा इसका प्रायश्चित जिनसंहिता के ८वें अधिकार में लिखा है।
विशेष कोई हीन जाति का अस्पृश्य जिनबिम्ब का स्पर्श कर ले, तो उसका प्रायश्चित भी जिनबिम्ब पृथ्वी पर गिर जाने पर किया जाता है वैसा ही करें।
प्र. ३७०: स्वर्ग में जिनेंद्र भगवान की पूजा जीव किन परिणामों से करता है?
उत्तर: तिलोयपण्णति में लिखा है कि सम्यकदृष्टि देव कर्मक्षय के निमित्त सदा मन में महान भक्ति सहित होकर जिन भगवान की पूजा करते हैं।
मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवों के सम्बोधन से ये कुलदेवता हैं, ऐसा मानकर नित्य जिनेंद्र प्रतिमाओं की भक्ति से पूजा करते हैं, नित्य शब्द ध्यान देने योग्य हैं कि उच्च पुण्यशाली जीव प्रतिदिन भगवान की पूजा करते है, वहीं प्रमादी जीवन नहीं है।
प्र. ३७१ : स्वर्ग के देव पंचकल्याणक में अपने मूल शरीर के साथ जाते हैं क्या?
उत्तर: गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं और उनके मूल शरीर सुखपूर्वक जन्म स्थानों में स्थित रहते हैं।
प्र. ३७२ : स्वर्ग के देव लोग भी जिनेंद्र भगवान की पूजा अष्टद्रव्य से करते हैं?
उत्तर: ऐसे भ्रांत विचार वालों को तिलोयपण्णति से यह जानना चाहिये कि देव लोग भी बिना द्रव्य के भगवान की पूजा नहीं करते हैं, उनकी पूजा में आठ द्रव्य कहे गये हैं। द्रव्य का भाव पर प्रभाव पड़ता हैं।
जलगंध तंदुल वरचक्र, फल दीव धूवपहुदीणं।
अच्चले थुणमाणा जिजिंद पडिमाणि देवाणं।। ७२-५।।
अर्थ- देव जल, सुगंध पुष्प, तंदल, श्रेष्ठ नैवेद्य, फल, दीप तथा धूप आदि द्रव्यों द्वारा जिनेंद्र प्रतिमाओं के स्तुतिपूर्वक पूजा करते हैं। नंदीश्वर द्वीप की वंदनार्थ जाते हये देवगण अपने हाथ में मंगलमय द्रव्य लेकर कते हैं। इस संबंध में मिले से विभूषित रमणीय सौधर्म इन्द्र की भयो जाते हैं। इस संबंध में तिलोयपण्णति (गाथा ८४) का कथन ध्यान देने योग्य है। गहिरवत लिये हुये भक्ति से ऐरावत हाथी पर चढ़कर यहाँ आता है। अन्य देव भी इसी प्रकार प्रभु की भक्ति करते हैं।
प्र. ३७३ : मूर्ति क्यों करते हैं?
उत्तर: मुर्ति परमात्मा की नकल है। उस नकल से असल की पहचान करने के लिये मूर्ति पूजा की जाती है। असल भगवान वर्तमान में अप्राप्य है।
प्र. ३७४ : नंदीश्वर द्वीप में देव क्या अष्ट द्रव्य से पूजा करते हैं?
उत्तर: . देव नंदीश्वर द्वीप में जाकर दोनों प्रकार से पूजा करते हैं। भक्ति भी करते हैं और द्रव्य से पूजा भी करते हैं। किन्तु उनकी वह द्रव्य सामग्री दिव्य रहती है। चैत्यभक्ति की अंचलिका जो अति प्राचीन, उसमा बताया है ‘दिव्येण गंधेण, दिव्येण पुष्फेण, दिव्येण धुवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्येण वासेन, दिव्येण शहाणेण, णिच्चकालं अचंति, पुञ्जति, वंदनत, णमंसंति। अहमविइह संतो तत्थ संताई सया णिच्चकालं, अंवेोमि, पूजेमि, वदामि, पणमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मखओ, बोहिलाओ, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिनगुण सम्पत्ति होउ-मज्झे।
प्र. ३७५ : क्या आठ साल से छोटे बच्चे को पूजन प्रक्षाल करना चाहिये?
उत्तर : आठ साल से छोटे बच्चे को पूजन प्रक्षाल का विवेक न होने से पूजन प्रक्षाल नहीं करनी चाहिये।
प्र. ३७६ : वीतराग प्रभु की प्रतिमा और सिद्ध यंत्र की पूजा मान्यता में क्या अन्तर है? क्योंकि दोनों प्रतिष्ठित है?
उत्तर : सिद्ध यंत्र के माध्यम से सिद्ध भगवान की पूजा प्रतिमा की तरह की जाती है क्योंकि अरिहंत रूप की प्रतिमा की भक्ति से जैसे अरहंत भगवान के स्वरूप का दर्शन हो जाता है, वैसे ही सिद्ध की प्रतिमा और सिद्ध यंत्र है, यंत्रों में अक्षर लिखे रहते हैं। अतः वह जिनवाणी है। जैसे देव पूज्य हैं, वैसे ही उनकी वाणी (शास्त्र) यंत्र भी पूज्य है।
प्र. ३७७ : साथिया का क्या अर्थ होता है?
उत्तर : साथिया को स्वस्तिक कहा जाता है। स्वस्तिक का अर्थ मंगलकारी है। साथिया का ऊपर-नीचे एक क्रॉस लाइनें चार गतियों की द्योतक है। उन चारों लाइनों में जो दाहिनी ओर लाइन जाती है वह दृष्टि को सही बनाने की ओर इंगित करनी हैं। अर्थात् चारों गतियों में दृष्टि सुलझाकर जीव सम्यग्दृष्टि बनकर धर्मात्मा बन सकता है, यही साथिया का भाव है।
प्र. ३७८ : जैन धर्म में स्वाहा शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर : स्वाहा मंगलवाची अव्यय पद है। इसका मंत्र पूर्ति के अर्थ आह्वान के अर्थ में ही प्रयोग होता है। प्र लेना चाहिये? लोग स्थापना और आरती की लेते हैं?
प्र . ३७९ : आशिका किसकी लेना चाहिए? लोग स्थापना और आरती की लेते हैं ?
र आरती की लेते हैं ?
उत्तर : स्थापना की आशिका लेने का वह प्रयोजन है कि भगवान की स्थापना से वह स्थान पवित्र समझकर हम भी पवित्र बने, इस भावना से आशिका लेते हैं। दीपक आदि की आशिका देने की पद्धति भी इसलिये चल गई कि हमें ज्ञान ज्योति प्राप्त हो।
उत्तर : स्थापना की आशिका लेने का वह प्रयोजन है कि भगवान की स्थापना से वह स्थान पवित्र समझकर हम भी पवित्र बने, इस भावना से आशिका लेते हैं। दीपक आदि की आशिका देने की पद्धति भी इसलिये चल गई कि हमें ज्ञान ज्योति प्राप्त हो।
प्र ३८० : देव द्रव्य किसे कहते हैं? गृहस्थ उसका उपभोग कर सकता है या नहीं?
उत्तर: यथार्थ में देव वीतरागी होते हैं अतः उनके बाह्य परिग्रहरूप कोई द्रव्य नहीं होता फिर भी व्यवहार से जिनमन्द्रिर, स्वाध्यायमाला आदि के लिये गृहस्थों के द्वारा जो द्रव्य अर्पित किया जाता है, वह देव द्रव्य कहलाते हैं। गृहस्थ अपने सांसारिक प्रयोजन की सिद्धि के लिये उसका अणुमात्र भी उपयोग नहीं कर सकता। उसका उपयोग मन्दिर के कार्य व धार्मिक कार्यों में किया जाता है। अन्य कार्यों में नहीं। गृहस्थ इस मर्यादा का उल्लंघन कर पाप का भागी हो जाने से दुर्गति का पात्र है।
प्र. ३८१ : पूजन में अन्य पाँच आवश्यक कर्म भी आते हैं स्पष्ट करो?
उत्तर : पूजन में षटकर्म समाविष्ट किये जा सकते हैं। देव के साथ ही गुरुपूजा का भी विधान है। सम्यक् चारित्र की प्राप्ति हेतु गुरु पूजा का महत्व है। पूजा के वाचक पद्यों को उच्चारण करने एवं अर्थ का चिंतन करने से स्वाध्याय की सिद्धि होती है। अर्चना के काल तक पंचेन्द्रिय वश में रहती है। मन का सांसारिक कार्यों में, विषयों में उपयोग नहीं होता और जीवदया पालन सावधानी वृत्ति के कारण होता है। अतः संयम का पालन भी होता है। सांसारिक इच्छाओं का निरोध होता है एवं अनशन आदि तप भी स्वतः साधित हो जाता है। अष्ट द्रव्यादि से राग तीव्रता के त्याग से दान भी होता है। इसी कारण से गृहस्थों के देवपूजा का अत्यधिक महत्व है। इसका अर्थ यह है कि पूजन करने मात्र से गृहस्थ धर्म की इतिश्री मान ली जाय। इसके अतिरिक्त भी षटकर्म की उपयोगिता स्वीकृति एवं पालन अभीष्ट है।
प्र. ३८२ : वेदी की परिक्रमा कितनी व क्यों लगानी चाहिये?
उत्तर : वेदी समोशरण का प्रतीक है। समोशरण में भगवान का मुख चारों ओर होता है इसलिये परिक्रमा लगानी चाहिये। वेदी की हमें तीन परिक्रमा लगानी चाहिये, जिससे कि हमारा जन्म, जरा एवं मृत्यु का नाश हो।
प्र. ३८३ : हमें चावल कैसे चढ़ाना चाहिये?
उत्तर: हमें भगवानजी के सामने पंचपरमेष्ठि का प्रतीक अर्थात् पाँच ढेरी चावल चढ़ाने चाहिये। हमें शास्त्रजी के सामने चार अनुयोग का प्रतीक अर्थात् चार ढेरी चावल चढ़ाना चाहिये। हमें गुरु के सामने रत्नत्रय का प्रतीक अर्थात् तीन ढेरी चावल चढ़ाने चाहिये।
प्र. ३८४ : भगवान की पूजा में बाधा डालने का क्या फल है?
उत्तर : जो दूसरे मनुष्यों के द्वारा की गई भगवान की पूजा में बाधा डालते हैं वे नरक में अनेक कष्ट उठाते हैं और वहाँ से आने के बाद उनको मनुष्य लोक में दुःख, दारिद्रता और अपमान का दुःख उठाना पड़ता है। ऐसा जीव यहाँ आकर लूला-लंगड़ा हो जाता है।
प्र. ३८५ : जिनेंद्र भगवान के धर्म का लोप करने का क्या फल है?
उत्तर : जो मनुष्य जिनेंद्र भगवान के धर्म का लोप करते हैं, धर्म में अविश्वास करते हैं और दूसरों को धर्म से विचलित करते हैं, उनको कुष्टादि रोग की महावेदना उठानी पड़ती है।
प्र. ३८६ : जिनेंद्र भगवान के धर्म में बाधा पहुँचाने का क्या फल है?
उत्तर : घर में भोजन का अभाव, कमाने पर भी कमाई में कमी पड़ना, हमेशा भूखे रहना, भीख माँगना, दूसरों की बीनतापूर्वक स्तुति करना, दूसरों से अपमान सहन करना, जिनेंद्र भगवान के धर्म में बाधा पहुँचाने से होता है। जो भगवान के नाम का एक अक्षर भी उच्चारण नहीं करते उनको किस फल की प्राप्ति होती है? ५. ३८७ जो भगवान के नाम का अक्षर भी उच्चारण नहीं करते हैं, उन मनुष्यों को अनेक प्रकार व्याधियों से ग्रस्त हो करके जन्म से लेकर मरण पर्यंत नाना प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं। की
प्र. ३८८ : अपनी और पर की तपस्या भंग करने का क्या फल है?
उत्तर : विभूति रहने पर भी उनका उपभोग न हो सकना, ये सब अपनी तथा पर की तपस्या के भंग का फल हैं।
प्र. ३८९: पूजा में अंतराय हालने का क्या फल है?
उत्तर: कितना ही कमा ले, कितु वह नष्ट ही हो जाता है, पैसा रहता नहीं, यह सब पूजा में अंतराय डालने का फल है।
प्र. ३९० : पूजा का द्रव्य चुराने का क्या फल है?
उत्तर : रात-दिन कष्ट उठाने पर भी पैसा न मिलना, दरिद्रता का रहना, शरीर में रोग होना, अनेक प्रकार की सामग्री घर में होने पर भी उसका भोग नहीं कर पाना, धन की रक्षा करते रहने पर भी दूसरे लोग उसका भोग करते हैं, यह सब पूजा का द्रव्य चुराने का फल है।
प्र. ३९१ : पंचोपचारी पूजा के अंग कौनसे हैं?
उत्तर : पंचोपचारी पूजा के आह्वान, स्थापना, सब्रिधिकरण, पूजा और विसर्जन ये पाँच पूजा के उपचार व अंग हैं।
प्र. ३९२ : पूजा में छह क्रियाएँ कौनसी बतलाई?
उत्तर : अभिषेक, पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान, स्वाध्याय ये पूजा में छह क्रियाएँ बतलाई हैं।
प्र. ३९३ : पूर्व और उत्तर दिशाएँ क्यों शुभ मानी गई हैं?
उत्तर: सूर्य का उदय पूर्व दिशा में होता है। समवशरण में तीर्थंकर का मुख पूर्व दिशा की ओर होता है, अतः यह दिशा शुभ है। उत्तर दिशा में सुमेरु पर्वत है जिस पर चारों दिशाओं में १६ अकृत्रिम जिनालय में तीर्थंकरों का जन्माभिषेक सुमेरु पर्वत पर होता है। विदेह क्षेत्र में सदा तीर्थंकर होते हैं। वह विदेह क्षेत्र उत्तर दिशा में है। इत्यादि कारणों से उत्तर दिशा को शुभ माना जाता है। अतः सामायिक पूजन और शुभ कार्य करते समय जहाँ तक हो सके, पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अपना मुख होना चाहिये। वेदी या मंदिर का द्वार भी पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखा जाता है।
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