संयम
द्वारा -आर्यिका सुदृष्टिमति माताजी
प्र. ४४७ श्रावक जीवन का सार क्या है?
उत्तर : गृहस्थ जीवन संक्षिप्त शब्दों में इस प्रकार प्रतिपादन किया गया है. निर्मल, सम्यदर्शन, निर्दोष अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षाव्रतरूप बाहर व्रतों का पालन, मरण के अंत में विधिपूर्वक संल्लेखना यह परिपूर्ण सागार धर्म अथवा उपासकाचार है।
प्र. ४४८ : व्रतादि पालन करने पर जब कष्ट आवे तब क्या करना चाहिये?
उत्तर व्रतादि के पालन करने पर जब कष्ट आवे तो पंचपरमेष्ठि का लगातार स्मरण करें। पंचपरमेष्ठि के प्रसाद से शरीर की पीड़ा शीघ्र ही दूर हो जायेगी और शान्ति मिलेगी।
प्र. ४४९ : झूठी बात का दुराग्रह करने वाले मनुष्यों के लिये दो कौनसी चीज सुलभ है?
उत्तर : झूठी बात का दुराग्रह करने वाले मनुष्यों के लिये दो चीजें सुलभ हैं, परलोक में दीर्घकाल तक दुर्गति और इहलोक में स्थायी अपयश।
प्र. ४५० : शील रक्षा के लिये क्या करना चाहिये?
उत्तर: बुद्धिमान व्यक्ति को अपनी माता, वहिन, पुत्री इत्यादि के साथ भी एकान्तवर्ती नहीं होना चाहिये। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान हैं, जो कि विद्वान पुरुष को भी नष्ट कर देती हैं। इसी प्रकार स्त्रीजाति को भी परपुरुष मात्र से अपनी रक्षा करनी चाहिये। परपुरुष सदा त्याज्य है। अपना रिश्तेदार, भाई, बंधु, कुटुम्बीजन भी अगर खोटा हो तो वह विश्वास का पात्र नहीं हो सकता। खोटी स्त्रियों का सम्पर्क भी शीलवती स्त्री को दूर से त्याग देना चाहिये।
प्र. ४५१ : शील का माहात्म्य बतलाओ।
उत्तर : जो व्यक्ति अपनी आत्मा में पवित्र शील धर्म को धारण करता है, वह अपने कुल के लगे हुये कलंक का नाश करता है। जगत में सर्व महिमा को विस्तारता है। देवगण उसको प्रणाम करते हैं। वह सम्पूर्ण उपसर्गों का विनाश करता है। पवित्र स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यह शील का माहात्य है।
रामचन्द्र ने सीताको जब शील की परीक्षा देने के लिये अग्निकुंड में कूदने को कहा तब सीता ने सहर्ष अग्निकुंड प्रवेशकर शील की परीक्षा देनी स्वीकार कर ली। जब अग्निकुंड तैयार हो गया तो सीताजी ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा , हे अग्ने। मैंने मन से, वचन से, काया से अपने पति को छोड़कर संसार के किसी भी पुरुष के साथ सम्भोग करने की इच्छा की हो तो तुम मुझे अवश्य ही जलाकर भस्म कर देना ऐसा कहकर पाँचो परमेष्ठियों का स्मरण कर, नमस्कार कर सीता अग्निकुंड में कूद पड़ी। परन्तु अग्निकुंड तत्कालशीतल जल भरा सरोवर हो गया। सीताजी के लिये सिंहासन की रचना हो गई और देवगण दुन्दुभी बजाकर जय-जयकार करते हुये पुष्पवर्षा करने लगे।
शील की महिमा वचन अगोचर है, शील के प्रभाव से सब कष्ट, उपसर्ग पलभर में नष्ट हो जाते हैं। जिस घर में शीलवती स्त्री निवास करती है वह घर स्वर्ग है। शीलवती निर्धन स्त्री भी पूज्य है। परन्तु हीरा हार पहनने वाली भी कुल्टा सी त्याज्य है। कुलटा रखी की इस लोक में तो दुर्गति होती ही है। परन्तु मरकर वह नरक में भी जाती है। वहीं इस पाप का वह दारुण दुःख भोगती है।
शील के फ़ल से प्राणी सुगति का पात्र बनता है। शील से प्राणी के जप, तप, संयमादि सभी धर्मकार्य, सफल होते हैं। शीलभ्रष्ट होने से सब पुण्य नष्ट हो जाते हैं। मरण का सूतक घर वालों को १२ दिन का होता है। परन्तु व्यभिचारी पुरुष का तथा व्यभिचारिणी स्त्री का सूतक जन्मभर शुद्ध नहीं होता। कुशील युक्त स्त्री सदा अशुद्ध है।
मैथुन क्रिया में महान हिंसा होती है। द्रव्यहिंसा को मनुष्य पशु के समान समझना चाहिये। कहा भी है.
धन यदि खोया तो, कुछ भी नहीं खोया,
स्वास्थ्य यदि खोया तो कुछ खोया है, परन्तु
अगर शील या चारित्र खोया तो सब कुछ ही खोया।।
शीलहीन मनुष्य को पशु के समान समझना चाहिये। शीलवान पुरुष के लिये कहा गया है- शीलहीन मनुष्य, व्रत को पालन करने वाले पुण्यवान पुरुष को देव भी नमस्कार करते हैं।
इस मनुष्य को स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त करने के लिये एक महान चिन्तामणि रत्न के समान है। मनुष्य को इहलोक और परलोक के सुख की प्राप्ति करा देने वाला है। इसलिये इस जगत् में जिस मनुष्य की आत्मा में शील हैं, वह हमेशा सुखी माना जाता है। शील के समान संसार में अन्य कोई सम्पत्ति नहीं है। शील एक महान परलोक के सुख की प्राप्ति करा देने वाला है। शील से रहित मनुष्य पशु के समान समझना चाहिये।
प्र. ४५२ : छठे काल का प्रवेश कब होगा?
उत्तर : जीव से संबंधित मिथ्यात्व, वेद, राग, हास्य, रति, अरति, शोक होंगे। एक दिन कल्की राजा की मध्यान्ह काल में क्रोध को प्राप्त कोई असुर कुमार देव राजा को मार डालेगा और सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जायेगी। इसके पश्चात् तीन वर्ष आठ माह और शेष होंगे। एक दिन कल्की राजा की उसी दिन मध्यान्ह काल में क्रोध को प्राप्त कोई असुर कुमार देव राजा को मार डालेगा और सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जायेगी। इसके पश्चात् तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम छठा काल प्रवेश करेगा।
प्र.४५३: गौरव के तीन भेदों का स्वरूप बतलाओ?
उत्तर : तीन गौरव- ऋद्धिगौरव, रस गौरव, साता गौरव ऐसे हैं। मैं ऋद्धिधारी हूँ,
(१) सातागौरव – मैं यति होकर इन्द्रत्व सुख, चक्रवर्ती सुख अथवा तीर्थंकर जैसे सुख का उपभोग ले रहा हूँ। ये दीन यति सुखों से रहित हैं इत्यादि रूप से अभिमान करना।
(२) रसगौरव – मुझे आहार में रसयुक्त पदार्थ सहज ही उपलब्ध हैं। ऐसा अभिमान होना।
(३) ऋद्धिगौरव – मेरे शिष्यादि बहुत हैं, दूसरे यतियों के पास नहीं हैं ऐसा अभिमान होना
प्र. ४५४: शील किसे कहते हैं?
उत्तर: व्रतों का सब तरफ से रक्षण करने को शील कहते हैं|
प्र. ४५५ : बाह्यपरिग्रह के भेद का स्वरूप बतलाओ।
उत्तर : धान्यादि की उत्पत्ति के स्थान को क्षेत्र (खेत) कहते हैं। घर महल आदि वास्तु हैं। सोना-चाँदी द्रव्यधन हैं। शालि, जौ, गेहूँ आदि धान्य हैं। दासी-दास आदि द्विपद हैं। गाय, भैंस, बकरी आदि चतुष्पद हैं। वाहन आदि यान हैं। पलंग सिंहासन आदि शयन-आसन हैं। कपासादि कुप्य कहलाते हैं। हींग मिर्च आदि को भांड कहते हैं। ये बाह्य परिग्रह इस प्रकार के हैं।
प्र. ४५६ : सत्रह प्रकार के संयम के भेदों का स्वरूप बतलाओ।
उत्तर : पाँच स्थावर काय के जीवों का रक्षण करना, द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, तथा पंचेन्द्रिय इन चार प्रकार त्रसकायिक जीवों की रक्षा करना। सूखे तृण आदि अजीव कायों का छेदन न करना, अप्रतिलेखन- चक्षु के द्वारा अथवा पिच्छिका से द्रव्य का और द्रव्य के स्थान का प्रतिलेखन नहीं करना यह अप्रतिलेखन है। तथा शास्त्रादि वस्तु को चक्षु से देखकर, उन स्थानों का पिच्छि के द्वारा प्रतिलेखन करना प्रतिलेखन संयम कहलाता है। दुष्प्रतिलेखन-इन शास्त्रादि द्रव्यों का और उनके स्थानों का ठीक से परिमार्जन नहीं करना अर्थात् जीवधात या मर्दन आदि करने वाला परिमार्जन करना दुष्प्रतिलेखन है। किन्तु उनका संयम करना ठीक से प्रमार्जन करना, यत्नपूर्वक प्रमाद के बिना प्रतिलेखन करना दुष्प्रतिलेखन संयम होता है।
अपेक्षा संयम-उपकरण आदि को किसी जगह स्थापित करके पुनः कालान्तर में भी उन्हें नहीं देखना अथवा उनमें संम्मूछन आदि जीवों को देखकर उनकी उपेक्षा करना यह उपेक्षा असंयम है। सभी जीवों की उपेक्षा न करते हुये रक्षा करना उपेक्षा संयम है।
अपहरण संयम अपहरण करना अर्थात् उपकरणों से द्विन्द्रिय जीवों को दूर करना, उन्हें निकालकर अन्यत्र क्षेपण करना अर्थात् उनकी रक्षा का ध्यान न रखकर उन्हें कहीं भी डाल देना, यह अपहरण नाम का असंयम है परन्तु ऐसा न करके उनको सुरक्षित स्थान पर डालना, यह अपहरण संयम है। अथवा उदर के कृमि आदि का निराकरण करना अपहरण असंयम है। मन को संयमित करना, वचन को संयमित करना, और काय को संयमित करना ये १७ प्रकार का प्राणिसंयम होता है। इनके रक्षण से आगमोक्त आचरण होता है।
प्र. ४५७ : किस कषाय के उदय से सामायिक, छेदोपस्थापना परिहार विशुद्धि, ये तीन संयम होते हैं?
उत्तर: बादर संज्वलन कषाय के देशघाती स्पर्धकों के उदय से सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि संयम होते हैं।
प्र. ४५८ : सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय, यथाख्यात संयमी व देश संयमी कितने हैं?
उत्तर: सामायिक संयमी आठ करोड़ नब्बे लाख निन्यानवें हजार एक सौ तीन हैं। छेदोपस्थापना संयमी, आठ करोड, नब्बे लाख निन्यानवे हजार एक सौ तीन हैं। परिहार विशुद्धि संपति ६ हजार १ सौ सय हैं। सुष्य साम्परोय सथमी आठ ही सत्यानते हैं। यथाख्यात संधी आठ लाख निन्यानव हजार भी सत्यानवे हैं। देशसंयमी पल्य के असंख्यातवें भाग हैं।
प्र. ४५९ .स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदय में कौनसा संयम नहीं होता है?
उत्तर । स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदय में मनापर्ययज्ञान और परिहार विशुद्धि संयम नहीं होता है।
प्र. ४६०: जैन आगमानुसार ब्रह्मचारी संक्षा कौनसी प्रतिमाधारी को होती है?
उत्तर: सातवी प्रतिमा ब्रह्मचर्य की प्रतिमा है। अता सातवी को ब्रहाचारी संज्ञा है। इसके पहले जिन्होंन आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया है और गृहविरत हैं, उनको उपचार से ब्रह्मचारी कहते हैं।
प्र. ४६१: व्रत न पालने से हानि बतलाओ?
उत्तर- व्रत या संयम को जिस प्रकार सर्प काटने पर हाथ को रखते हैं, वैसे ही पालना चाहिये। जिस पदार्थ को हम लोग भोगते हैं, उस समय तन्मय होकर उसे अच्छी तरह भोग लेना चाहिये जिस समय उसका त्याग करते हैं, उसके बाद उसका स्मरण भी नहीं करना चाहिये। इतना ही नहीं उसकी हवा भी न लगने पाये इस प्रकार की चतुरता रखनी चाहिये।
प्र. ४६२ : नियम किसे कहते हैं?
उत्तर :अर्थात् -सत्यार्थशास्त्र निरुपित सत्कर्तव्यों (अहिंसा सत्यादि) का पालन और शास्त्र निषिद्ध दुष्कर्मों (हिंसा, मिथ्याभाषण आदि) का त्याग करना नियम है।
प्र. ४६३ : परिग्रह से हानि बतलाओ।
उत्तर: यस्य यावानेव परिग्रहम् तस्य तावानेव संतापः।
अर्थ- संसार में जिस पुरुष के पास जितना परिग्रह होता है, उसे उतना ही संताप (दुख) होता है।
प्र. ४६४ : भावनात्मक सत्य की महिमा बतलाइये।
उत्तर: सत्ये शाश्वत कल्याणे निमग्न यस्य मानसम् । त्र षिभ्य स महान नूनं, दानिभ्य |वरो मत।
अर्थ- जिसका मन सत्यशीलता में निमग्न है, वह पुरुष तपस्वी से भी महान और दानी से भी श्रेष्ठ।
प्र. ४६५ : संयम शब्द का अर्थ बतलाइये।
उत्तर: सं और यम मिलकर संयम शब्द निष्पा होता है, सं का अर्थ है सम्यक है और यम का अर्थ नियमन, निरोध या वशी होता है। अर्थात् सम्यक् प्रकार से मन व इन्द्रियों को वश में करना, स्वाधीन करना संयम कहलाता है। मन के साथ वचन व काय का भी ग्रहण हो जाता है। इन्द्रिय संयम होने पर प्राणी संयम का भी पालन हो जाता है। जीवन में संयम का अर्थ आचरण है, मन, वचन, काय का सम्यक विचार करना चाहिये। जिस प्रकार किसी खतरे या आपत्ति का आभास पाते ही कच् प (क आ) अपने सम्पूर्ण अवयवों को समेटकर पा लेता है और सुरक्षित हो जाता है, इसी प्रकार संयमी अपने मन व इन्द्रियों को संयमित कर विषय कषायों के खतरे से अपने को सुरक्षित बना लेता है।
जिस प्रकार वृद्धावस्था में लकड़ी का आय लेना आवश्यक हो जाता है। उसी प्रकार यौवन अवस्था में विषय वासनाओं की फिसलन से बचने के लिये संयमरूपी दण्ड लेना अत्यन्त आवश्यक है।
प्र. ४६६: जीवन प्रतिष्ठा का आधार क्या है?
उत्तर : जीवन प्रतिष्ठा का आधार धन-वैभव नहीं बल्कि त्याग, संयम और चारित्र है।
प्र. ४६७: अहिंसा और संयम की साधना कौन कर सकता है?
उत्तर : आत्मतत्व की अनुभूति करने वाला ही अहिंसा व संयम की साधना कर सकता है।
प्र. ४६९ : अपरिग्रह का सिद्धांत क्या है?
उत्तर : न्यायपूर्वक भरणपोषण करना, जीवनयापन करना और योग क्षेत्र की योग्य वस्तुओं को ग्रहण करना यह अपरिग्रह का सिद्धांत है।
प्र. ४७० : अपरिग्रह वृत्ति कब आती है?
उत्तर : इच्छा आकांक्षाओं को नियंत्रित करने से ही अपरिग्रह वृत्ति आती है।
प्र. ४७१ : व्रत किसे कहते हैं?
उत्तर : असत् प्रवृत्ति की निवृत्ति व्रत है। हिंसादि पाँच मूल असत् प्रवृत्तियों है। इनका त्याग कर अहिंसादि सत् प्रवृत्तियों का स्वीकारना व्रत है। व्रत भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड है। संकल्प शक्ति का विकास जिन बातों से होता है, वे व्रत हैं।
प्र. ४७२ : ब्रह्मचर्य व्रत की नौ बाढ़ कौनसी है?
उत्तर : (१) स्त्री के साथ निवास नहीं करना, (२) स्री के रूप तथा श्रृंगार को विकार भाव से नहीं देखना, (३) स्त्रियों से भाषण नहीं करना उनके मधुर वचनों को रागभावों से नहीं सुनना, (४) पहले भोगी हुई स्त्रियों का स्मरण नहीं करना, (५) काम को उद्दीपन करने वाले पदार्थ जैसे- धी, दूध, मिश्री, लड्डू, मेवा, भांग, विष, उपविष, मादक (नशा उत्पन्न करने वाले), (६) पौष्टिक पदार्थ, पारा आदि थातु, सोने, चाँदी, मोती आदि की भस्म, (७) रस-रसायन, बल और वीर्य बढ़ाने वाली औषधियाँ, (८) अन्य प्रकार के गरिष्ठ भोजन पान आदि के द्वारा पेट को पूरा नहीं भरना।
इस प्रकार ये ब्रह्मचर्य की नौ बाढ़ है। ये सब ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये हैं जिस प्रकार चावल, गेहूँ आदि अच्चों के खेतों में उनकी रक्षा के लिये चारोंओर काँटों की बाढ़ लगा देते हैं, उसी प्रकार, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये ऊपर नौ प्रकार की बाढ़ है, जिस प्रकार बिना बाढ़ के खेत नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार उन नौ बाढ़ के बिना शील तथा ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है।
प्र. ४७३ : विधिपूर्वक लिया हुआ व्रत यदि छूट जाये तो उसका क्या प्रायश्चित है? दुबारा उसके पालन की विधि क्या है?
उत्तर : जो कोई व्रती पुरुष विधिपूर्वक व्रतों को ले और फिर रोग, शोक व अन्य किसी कारण से व्रत की मर्यादा में एक दो आदि कुछ उपवास बाकी रह जाय तथा ऐसी हालत में वह व्रत छूट जाय, भ्रष्ट जो जाय तो वह फिर प्रारम्भ से उस व्रत को करे अर्थात् उस व्रत के लिये पहले व्रत उपवास किये थे, वे सब व्रतभंग के पाप की निवृत्ति के लिये प्रायश्चित में चले गये। अब फिर उसे प्रारम्भ से व्रत धारण करना चाहिये। अर्थात् यदि बीच में किसी कारण से एक या दो उपवास नहीं किये हो तो प्रारम्भ से ही उसकी विधि करना चाहिये यदि ऐसा ना करे तो उसे महापापी समझना चाहिये।
प्र.४७४ : व्रत भंग से महापाप लिखा है सो वह कौन सा महापाप लगता है?
प्र. उत्तर: जो कोई जीव अपने गुरु से यम व नियम रूप कोई व्रत ले और फिर चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से उस व्रत को भंग करे, वह पुरुष १ हजार जिनमन्दिरों के भंग करने के समान पाप का भागी होता है। इसके समान और कोई पाप नहीं है। इसीलिये उसको महापापी कहते है। श्री श्रुतसागर प्रणीत व्रतकथाकोष में सप्तपरम स्थान व्रत कथा कहते समय लिखा है-
गुरुन् प्रतिभुवः कृत्वा भवत्येक धृतं वंतृ सहस्त्रकूट जैनेन्द्र सद्मभंगाद्य भागलम् ।।
इसलिये व्रत भंग करने पर प्रायश्चित अवश्य लेना चाहिये।
प्र. ४७५ : परिग्रह सुख का कारण हो सकता है क्या?
उत्तर : नहीं, यदि अग्नि ठंडी हो जाये, विष अमृत हो जाये और आकाश में बिजली स्थिर हो जाये तो परिग्रही जीव भी सुखी हो सकता है।
प्र. ४७६ : जघन्य श्रावक का लक्षण बतलाओ।
उत्तर : जो अपने धन के दो भाग परिवार के लिये, तीन भाग संचय के लिये और दसवाँ भाग दान के लिये रखता है, वह जघन्य श्रावक माना गया है।
प्र. ४७७ : मध्यम श्रावक का लक्षण बतलाओ।
उत्तर : जो अपनी आय के तीन भाग कुटुम्ब के लिये, दो भाग खजाने के लिये और छठवाँ भाग दान के लिये रखता है, वह मध्यम श्रावक माना गया है।
प्र. ४७८ : उत्तम श्रावक का लक्षण बतलाओ।
उत्तर : जो अपने धन के दो भाग कुटुम्ब के लिये, तीसरा भाग खजाने के लिये और चौथा भाग दान धर्म के लिये रखता है, वह उत्तम श्रावक है।
प्र. ४७९ : श्रावक का लक्षण बतलाओ।
उत्तर : देवशास्त्रगुरुवांच भक्तो दानदयान्वितः ।
मदाष्ठ व्यसनैहींनः श्रावकः कथितो जिनैः ।।
अर्थ- जो देव, शास्त्र और गुरु का भक्त हो, दान और दया से सहित, आठ मद व सप्त व्यसनों से रहित हो, उसे श्रावक कहा है।
प्र. ४८० : धरोहर किसके पास रखी जाती है?
उत्तर : धर्म के ज्ञाता, कुलीन, सत्य व्यवहारी, न्यायवान, व्रतों से सुशोभित, सदाचार में तत्पर, क्रोध रहित, शुद्ध और बहुकुटुम्बी मनुष्य के पास ही धन, आभूषणादि चाँदी, सोना, घोड़ा तथा हाथी आदि वस्तुएँ धरोहर रूप में रखी जाती है। अन्यथा वे निःसंदेह नष्ट हो जाती है।
प्र. ४८१ : एक व्यक्ति ने आचार्य महाराजजी से पूछा था आप व्रत का उपदेश क्यों देते हैं, बिना व्रत के भी मंद कषाय के द्वारा अव्रती जीव स्वर्ग तो जाता ही है?
उत्तर : उसके समाधान हेतु गुरुदेव ने कहा था, अव्रती में स्वर्ग जाने का निश्चय नहीं है। असंयम तथा विषय भोग में फँसे हुये जीव का प्रायः कुगति में ही पतन होता है। जब व्रत नियम धारण कर कुलिंगी साधु तक स्वर्ग में जाते हैं तब सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य करके व्रत पालन करने वाले जीव को क्यों न निश्चय से देवपर्याय प्राप्त होगी? प्रमादी नहीं बनना चाहिये। व्रत पालन करना चाहिये।
देवपर्याय प्राप्त करने पर भव्य जीव में धर्म पर गहरी श्रद्धा उत्पन्न होती है। उसे प्रत्यक्ष ज्ञात हो जाता है कि पुण्य करके अमुक जीव ने किस प्रकार की आनंदप्रद सामग्री प्राप्त की है और किस पापी जीव ने फलस्वरूप पतित अवस्था या हीन पर्याय पायी है। अवधिज्ञान के द्वारा देव भूत, भविष्य और वर्तमान काल की अनेक पर्यायें सुस्पष्ट रीति से जानते हैं। सुरलोक में उत्पन्न होते ही अवधिज्ञान द्वारा सर्व परिस्थिति सुव्यक्त हो जाती है। (महाश्रमण महावीर पं सुमेरचंद दिवाकर पृ.४३ से)
प्र. ४८२ : लब्धिविधान व्रत सर्वप्रथम किसने किया था?
उत्तर : लब्धिविधान व्रत सर्वप्रथम भगवान आदिनाथ के सुपुत्र अनंतवीर्य ने किया था।
प्र. ४८३ : श्रावक किसे कहते हैं?
उत्तर: जो साधु के वाक्यों को सुनता है, व्रतों को धारण करता है, शुभ कर्म करता है उसे श्रावक कहते हैं |
प्र. ४८४ : धर्मोपदेश सुनने का पात्र कौन हैं?
उत्तर : धर्मोपदेश सुनने का पात्र अष्टमूलगुणों का पालन करने वाला होता है।
प्र. ४८५ : मूलगुण कितने होते हैं?
उत्तर : मूलगुण ८ होते हैं।
प्र. ४८६ : ८ मूलगुणों के नाम बतलाओ।
उत्तर : (१) मांस, (२) शराब, (३) शहद, (४) बड़ के वृक्ष के फल, (५) पीपल के वृक्ष पर लगने वाले , (६) गूलर (पाकर), (७) ऊमर, (८) कठूम्बर (अंजीर) इनका त्याग करना आठ मूलगुण कहलाते हैं।
प्र. ४८७ : मूलगुण को धारण करने के लिये ८ वर्ष का प्रमाण क्यों कहा?
उत्तर : मनुष्यगति का जीव ८ वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत धारण कर सकता है। सम्यक्तव धारण कर दीक्षा लेकर, तपस्या से कर्म निर्जरा कर, मोक्ष जाने की पात्रता रखता है। इसलिये मूलगुण पालन के लिये वर्ष का प्रमाण निश्चित किया गया है।
प्र. ४८८ : औदुम्बर के फल का दूसरा नाम बतलाओ?
उत्तर : क्षीरफल।
प्र. ४८९ : क्षीरफल किसे कहते हैं?
उत्तर : जो बिना फूल आये ही पेड़ों पर उत्पन्न हुआ करते हैं और अपने पेड़ों के दूध से उत्पन्न होने के कारण उन्हें क्षीरफल कहते हैं।
प्र. ४९० : शराब की एक बूँद में कितने जीव हैं?
उत्तर : शराब की एक बूँद में तीन लोक पूर्ण करने वाले सूक्ष्म जीव होते हैं।
प्र. ४९१ : क्या अंडा भी मांस हैं?
उत्तर: अंडा पशु-पक्षी के गर्भ का शरीर मांस हैं।
प्र. ४९२ : क्या एकेन्द्रिय जीव का शरीर मांस हैं?
उत्तर: नहीं, क्योंकि उनमें रक्त व हड्डियाँ नहीं होती हैं।
प्र. ४९३ : कंदमूलों के भक्षण करने में क्या दोष हैं?
उत्तर : तिलमात्र भी कंदमूल खाने से अनंत जीवों का घात होता है। उनमें अनंत निगोदिया जीव होते हैं इसलिये कंदमूल खाने से नरक ले जाने वाला पाप उत्पन्न होता है।
प्र. ४९४ : कंदमूल में अनंत जीव है, यह कैसे जाना जाता है?
उत्तर: कंदमूल के टुकड़े टुकड़े कर बो दिये जाये तब भी वे उत्पन्न हो जाते हैं। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि उनमें अनंत जीव हैं। गेहूँ, जव, मटर आदि टुकड़े करके बो देने से उत्पन्न नहीं होते क्योंकि उनमें एक दाने में एक ही जीव की शक्ति हैं। यदि कंदमूल के एक ही जीव होता तो वे साबुत बोने से ही उत्पन्न होते। टुकड़े को बो देने से एक भी उत्पन्न नहीं होते। इसलिये जाना जाता है कि उनमें अनंत जीव है।
प्र. ४९५ : जिनालय निर्माण कराने से जो पुण्य होता है, वह कितने दिन ठहरता है?
उत्तर: एक कोड़ाकोड़ी सागर तक।
प्र. ४९६ : दिन में ब्रह्मचर्य पालन करने से क्या फल मिलता है?
उत्तर : जितने दिन जीवतत्व रहता है अर्थात् जितने दिन में ब्रह्मचर्य पालन किया जाता है। एक साल में छह मास के ब्रह्मचर्य का पालन होता है।
प्र. ४९७ : कुरागियों को दिन में मैथुन करने से कौन सा पाप होता है?
उत्तर : दिन में मैथुन करने से वह पाप और ऐसा तीव्र राग होता है जो कि सीधा नरकरूप महासागर में पटक देता है।
प्र. ४९८ : संयम किसे कहते हैं?
उत्तर : सम् उपसर्ग का अर्थ सम्यक् होता है। अतः सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के अनुसार जो मत है अर्थात् अंतरंग व बहिरंग आश्रव से विरत है उन्हें संयत कहते हैं।
प्र. ४९९ : परिहार व विशुद्धि संयम ६ठे व ७वे गुणस्थान में होता है, आगे के गुणस्थान में क्यों नहीं?
उत्तर : जिनकी आत्माएँ ध्यानरूपी सागर में निमग्न है, जो मौनी है और जिन्होंने आने-जाने रूप समस्त काय व्यापार को संकुचित कर लिया है, ऐसे जीवों के शुभाशुभ क्रियाओं का परिहार नहीं बन सकता है। इसलिये ऊपर के गुणस्थान में परिहार विशुद्धि संयम नहीं होता।
प्र. ५०० : सिद्ध जीवों के कौनसा संयम होता है?
उत्तर : सिद्ध जीवों के एक भी संयम नहीं होता क्योंकि उनमें बुद्धिपूर्वक निवृत्ति का अभाव है इसलिये वे संयतासंयत नहीं है तथा असंयत भी नहीं है क्योंकि उनकी संपूर्ण पाप क्रियाएँ नष्ट हो चुकी है।
प्र. ५०१ : नित्य नियमित व्रत किसे कहते हैं?
उत्तर : नित्य नियमित व्रत का अभिप्राय यह है कि प्रतिदिन भगवान का दर्शन-पूजा, प्रक्षाल करके घर लौटने पर कोई न कोई व्रत २४ घंटे के लिये लिया जाता है और उस काल में विशेषता से उस व्रत का पालन किया जाता है।
प्र. ५०२ : व्रतों का आनंद किसके समान होता है? किया जाता है।
उत्तर : जिस प्रकार दरिद्र को राज्य लक्ष्मी की प्राप्ति हो जाये, जिस प्रकार अंधे को आँखें मिल जाएँ अथवा जिस प्रकार गहन कूप में गिरे हुये को निकलने के लिये कोई आलंबन मिल जाये इत्यादि अचिन्त्य आनंद की प्राप्ति से जिस प्रकार उनको आनंद होता है, उसी प्रकार का आनंद, भव्यजीव को निग्रंथ गुरु से, जो संसार समुद्र से पार करने के लिये जो नौका के समान है, उनसे व्रतों को ग्रहण करके आनंद प्राप्त होता है।
प्र. ५०३ : व्रत की रक्षा किस प्रकार करना चाहिये?
उत्तर : व्रत की रक्षा करने में उसी प्रकार सावधान रहना चाहिये जिस प्रकार कोई माता अपने छोटे शिशु की रक्षा में सावधान रहती है अथवा जिस प्रकार अपनी फसल की किसान रक्षा करता है, जिस प्रकार लोभी अपने धन की निरंतर चौकसी करता रहता है।
प्र. ५०४ : रेवती रानी ने ११वीं प्रतिमा के व्रत किस आर्यिका से ग्रहण किया था?
उत्तर : मुनिगुप्त भट्टारक की शिष्या सुव्रता नामक आर्यिका के पास रेवती रानी ने ११वीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए थे।
प्र. ५०५ : रेवती रानी के शरीर त्याग का स्थान किस नाम से प्रसिद्ध हुआ?
उत्तर: रेवती रानी के शरीर त्याग का स्थान करहाटक नगर ‘रेवती तीर्थ’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
प्र. ५०६ : ब्रह्मचारी के पाँच भेद कौनसे हैं?
उत्तर : ब्रह्मचारी के पाँच भेद उपनय ब्रह्मचारी, अवलंब ब्रह्मचारी, अदीक्षित ब्रह्मचारी, गूढ़ ब्रह्मचारी और नैष्ठिक ब्रह्मचारी है।
प्र. ५०७ : अवलंब ब्रह्मचारी किसे कहते हैं?
उत्तर: जो जब तक विवाह न करे तब तक क्षुल्लक अवस्था धारण करे। सदा जैन शास्त्रों का अध्ययन करता है। अध्ययन समाप्त कर पीछे पाणिग्रहण करे, उसे अवलंब ब्रह्मचारी कहते हैं।
प्र. ५०८ : अदीक्षित ब्रह्मचारी किसे कहते हैं?
उत्तर : शास्त्रों का अभ्यास पूर्ण हुये बिना विवाह नहीं करूँगा, ऐसा नियम लेकर बिना दीक्षा लिये जो व्रतों के आचरण करने में प्रवृत्त रहे, उसको अदीक्षित ब्रह्मचारी कहते हैं।
प्र.५०९: गूढ़ ब्रह्मचारी किसे कहते हैं?
उत्तर: जो स्वयं विवाह न करे, किन्तु दूसरे की हठ से जिसको विवाह करना पड़े, उसको गूढ़ ब्रह्मचारी कहते हैं।
प्र. ५१०: नैष्ठिक ब्रह्मचारी किसे कहते हैं?
उत्तर : जो जीवनपर्यंत समस्त स्त्री मात्र का त्याग कर देवे और एक वस्त्र मात्र परिग्रह के बिना बाकी सब त्याग कर देवे सो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं।
प्र. ५११ : वानप्रस्थ किसे कहते हैं?
उत्तर : जो ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करता हो, जो ध्यान और अध्ययन करने में सदा तत्पर हो, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों से रहित हो, उसको वानप्रस्थ कहते हैं।
प्र. ५१२ : ब्रह्मचर्य व्रत के कितने भेद हैं?
उत्तर : ब्रह्मचर्य व्रत के अठारह हजार भेद हैं।
प्र. ५१३ : ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक अपना वस्त्र अपने हाथों से धोये या नहीं?
उत्तर : वे अपने हाथ से वस्त्र की धुलाई नहीं करते हैं। वस्त्र की धुलाई करने का राग आरंभ त्याग प्रतिमा में ही हो जाता है। श्रावक का धर्म है कि ऐसे प्रतिमाधारियों के वस्त्र की धुलाई करके उन्हें यथासमय पहुँचा देवें।
प्र. ५१४ : संगी, सम्मूर्छन तिर्यंच संयमासंयम भाव को प्राप्त हो सकता है या नहीं?
उत्तर: जिस जीव के पास में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ सत्ता में हैं ऐसा जीव सम्मूर्छन तिर्यंच बनकर काल में पर्याप्ति प्राप्त कर बाद में सम्यक्त्त्व प्रकृति का उदय आने से क्षायोपशमिक सम्यक दृष्टि हो जाता है। बाद में संयमासंयम भाव को प्राप्त कर पूर्व कोटि काल तक पालन कर मरकर देवों में उत्पन्न हो सकता है।
प्र. ५१५ : जिन जीवों ने पहले तिर्यंच आयु का बंध कर लिया है, वे बाद में सम्यक्त्व को ग्रहण कर दर्शन मोहनीय का क्षय करके तिर्यंच गति में जाते हैं, ऐसा तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव तिर्यंच में संयता संयत भाव वाला हो सकता है?
उत्तर : नहीं हो सकता क्योंकि जिन्होंने पहले तिर्यंच आयु का बंध कर लिया है, ऐसे तिर्यंच में उत्पन्न हुये क्षायिक सम्यग्दृष्टियों के संयता संयत गुणस्थान नहीं पाया जाता है क्योंकि भोग भूमि के बिना अन्यत्र उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है।
प्र. ५१६ : क्या दोष ग्रहण दोषवर्धक है?
उत्तर: जो व्रतियों के दोष ग्रहण में दोष देखने में तत्पर होते हैं, वे अवश्य ही संसार समुद्र में डूबते हैं। जैसे कालकूट विष भक्षण से मृत्यु अवश्य होती है। इसमें क्या आश्चर्य है?
जो यतियों के विद्यमान या अविद्यमान दोषों को जगत में फैलाते हैं, वे दोष भावना से बहुत पाप संग्रह करके सम्पूर्ण नरक भूमियों में उत्पन्न होकर असह्य दुःखों का अनुभव लेकर पुनः निगोद में जाते हैं।
प्र. ५१७ : स्त्री वेदी मनुष्यों में आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग नहीं होने का कारण क्या है?
उत्तर : भाव से जिनके स्त्री वेद होता है और द्रव्य से पुरुष वेद होता है। वे जीव संयम को प्राप्त होते हैं। किन्तु द्रव्य से स्त्रीवेद वाले जीव पूर्ण संयम ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि वे वस्त्र सहित होते हैं। भाव स्त्रीवेदी कोई जीव यदि द्रव्य से पुरुषवेदी भी हो तो उन संयमियों के आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है किन्तु द्रव्य व भाव से जो पुरुष वेदी होते हैं, उनके आहारक ऋद्धि उत्पन्न होती है।
प्र. ५१८ : आहारक काययोगी को स्त्री व नपुंसक वेद न होने का क्या कारण है?
उत्तर: अप्रशस्त वेदों के साथ आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है।
प्र. ५१९ : आहारक ऋद्धि और मनःपर्यय ज्ञान में कौनसा विरोध है?
उत्तर : आहारक ऋद्धि और मनःपर्यय ज्ञान का सहअनवस्थान लक्षण विरोध है अर्थात् ये दोनों एकसाथ जीव में नहीं रहते हैं।
प्र. ५२० : आहारक काययोगी के साथ किस संयम का विरोध है?
उत्तर : आहारक काययोगी के सामायिक और छेदोपस्थापना के दो संयम होते हैं किन्तु परिहार विशुद्धि संयम नहीं होता है क्योंकि इसके साथ भी आहारक शरीर का विरोध है।
प्र. ५२१ : कार्माण योग की अवस्था में भी कर्म वर्गणाओं के ग्रहण का अस्तित्व पाया जाता है, इस अपेक्षा कार्माण काययोगी जीवों को आहारक क्यों नहीं कहा जाता है?
उत्तर: कार्माण काययोग के समय नोकर्म वर्गणाओं के समय नोकर्म वर्गणाओं के आहार का अधिक से अधिक तीन समय तक विरह काल पाया जाता है।
प्र. ५२२ कार्माण काययोगी को अनाहारक क्यों कहते हैं?
उत्तर: क्योंकि कार्माण काययोगी जीव नोकर्म वर्गणाओं को पहण नहीं करते हैं।
प्र. ५२३: संयत पद से किसका ग्रहण होता है?
उत्तर : संयत पद से छठे से तेरहवें गुणस्थान वर्ती का पहण होता है। अयोग केवली गुणस्थान में बंध का ही अभाव है, अतः उनका ग्रहण नहीं होता है।
प्र. ५२४: व्रत भंग करने का दोष बताओ।
उत्तर : व्रत भंग जन्म-जन्मांतर के लिये अपार दुःख का कारण होता है। प्राणांत का संकट आने पर भी व्रत नहीं छोड़ना चाहिये क्योंकि प्राणांत के बाद तो पुनर्जन्म मिलता है परंतु व्रत भंग से दुःख परंपरा प्राप्त होती है।
प्र. ५२५ : व्रतों को क्यों धारण करना चाहिये?
उत्तर : व्रतहीन मनुष्य निरंतर सौभाग्यहीन, धनधान्य रहित, भयभीत तथा सदैव दुःखी रहता है। मनुष्य जन्म की सफलता हेतु व्रतों को धारण करना चाहिये।
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