-स्थापना (चौबोल छंद)-
श्री जिनेन्द्रमुख से निर्गत, वाणी को प्रवचन कहते हैं।
उसमें प्रीति दिखाने वाले, बिरले ही जन रहते हैं।।
सोलहकारण में अंतिम, प्रवचन वात्सल्य भावना है।
आह्वानन करके उसका, पूजन की हुई भावना है।।१।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावना! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावना!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावना!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक (शंभु छंद)-
भव भव में जन्म मरण व्याधी, मुझको दुख देती आई है।
जलधारा से अब उसे शांत, करने की भावना भाई है।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।१।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जग में यम का सन्ताप मुझे, भव भव से सताता आया है।
तव पद में चंदन चर्चन का, अतएव भाव अब आया है।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।२।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
भव भव में ज्ञान को खण्ड-खण्ड, करके जो मैंने दुख पाया।
इसलिए अखण्डित अक्षत से, प्रभु पूजन करना मन भाया।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।३।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
विषयों की आशा ने भव भव में, मुझको बहुत सताया है।
उसकी शांती हेतू अब फूल, चढ़ाने का मन आया है।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।४।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभुवर! काल अनादी से, मैंने क्या क्या नहिं खाया है।
पर शांत हुई नहिं क्षुधा मेरी, अतएव तुम्हें अब ध्याया है।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।५।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरे मोही मन में भव भव से, अंधकार ही छाया है।
इसलिए रत्न का दीप जला, आरति करना मन भाया है।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।६।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मों के कारण जनम जनम में, दु:खों को ही पाया है।
दुखशांति हेतु प्रभु पद में धूप, दहन का भाव बनाया है।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।७।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
खट्टे मीठे फल को खा खाकर, भी उत्तम फल नहिं पाया।
अतएव आज प्रभु पूजन में, फल थाल चढ़ाना मन भाया।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।८।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ले अष्टद्रव्य ‘‘चन्दनामती’’, मैंने यह अर्घ्य बनाया है।
अनुपम अनर्घ्य पद मिल जावे, इस हेतू अर्घ्य चढ़ाया है।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की, पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।९।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों द्रव्यों के बाद शांति-धारा करने मैं आया हूँ।
राजा व प्रजा में शांतिक्षेम हो, यही भाव संग लाया हूँ।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
शांतीधारा करके पुष्पांजलि, अर्पित करने आया हूँ।
जग में मैत्री स्थापित हो, यह भाव हृदय में लाया हूँ।।
प्रवचन वात्सल्य भावना की पूजन का भाव बनाया है।
जिनवचनों में रुचि बनी रहे, जिनधर्म की पाई छाया है।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(सोलहवें वलय में ४ अर्घ्य, १ पूर्णार्घ्य)
दोहा- प्रवचनवत्सल भावना, को निज मन में ध्याय।
रत्नत्रय आराधना, हेतू पुष्प चढ़ाय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि षोडशदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
तर्ज-गुरुवर आज मेरी कुटिया में…..
प्रवचनवत्सल भावना भाएंगे-२
सोलहकारण………हो…..
सोलहकारण की, पूजा रचाएंगे।।प्रवचन….।।टेक.।।
हाथ में पिच्छी कमण्डलु जिनके।
साथ में मुनिगण रहते हैं जिनके।।
उन मुनि पद में……हो…….
उन मुनिपद में, हम रम जाएंगे।।प्रवचन……।।१।।
ॐ ह्रीं मुनिस्नेहरूपप्रवचनवात्सल्यभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रवचनवत्सल भावना भाएंगे-२
सोलहकारण………हो…..
सोलहकारण की पूजा रचाएंगे।। वचन….।।टेक.।।
श्वेत साटिका एक पहनतीं।
आर्यिका पिच्छि कमण्डलु धरतीं।।
उनके गुण में……हो…….
उनके गुण में हम रम जाएंगे।।प्रवचन……।।२।।
ॐ ह्रीं आर्यिकास्नेहरूपप्रवचनवात्सल्यभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रवचनवत्सल भावना भाएंगे-२
सोलहकारण………हो…..
सोलहकारण की पूजा रचाएंगे।। प्रवचन….।।टेक.।।
देव शास्त्र गुरु भक्ति करें जो।
श्रावक सच्चे कहते उनको।।
उनको लखकर…..हो…….
उनको लखकर प्रेम लुटाएंगे।।प्रवचन……।।३।।
ॐ ह्रीं श्रावकस्नेहरूपप्रवचन्वात्सल्यभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रवचनवत्सल भावना भाएंगे-२
सोलहकारण………हो…..
सोलहकारण की, पूजा रचाएंगे।।प्रवचन….।।टेक.।।
सद्गृहस्थ श्राविका जो होतीं।
गुरु भक्ती में तत्पर रहतीं।।
उनको लखकर……हो…….
उनको लखकर, प्रेम दिखाएंगे।।प्रवचन……।।४।।
ॐ ह्रीं श्राविकास्नेहरूपप्रवचनवात्सल्यभावनायै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद-
प्रवचन वात्सल्य भावना को, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आए हैं।
हम संघ चतुर्विध के चरणों में, वंदन करने आए हैं।।
मुनि और आर्यिका श्रावक अरु, श्राविका के प्रति वत्सलता है।
सोलहकारण की अंतिम इस, भावना की यह सार्थकता है।।
ॐ ह्रीं चतुर्विधसंघवत्सलत्वरूपप्रवचनवात्सल्यभावनायै पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै नम:।
तर्ज-सोनागिरि में…..
जिनमंदिर में, भक्ती गंगा बहती है।
प्रभु चरणों में, सिद्धी कन्या रहती है।।
जयमाला में अर्घ्य थाल अर्पण करूँ,
प्रवचनवत्सल भावना का अर्चन करूँ।
जिनमूर्तियाँ रहती जहाँ, मंदिर उसे कहते।
ग्रंथों में जिनमंदिर को भी, इक देवता कहते।।
जिनमंदिरों के दर्श से, भवताप भी टरते।
मंगलमयी प्रभु दर्श से, हर कार्य हैं बनते।।
जिनमूरति बिन बोले, सब कुछ कहती है।
प्रभु चरणों में, सिद्धी कन्या रहती है।।१।।
प्रात: से ही जिनमंदिरों में, घंटे बजते हैं।
भव्यात्मा सुनकर जिसे, दुर्ध्यान तजते हैं।।
जिनभक्त जाकर के वहाँ, अभिषेक करते हैं।
जिनवर के गंधोदक से तन को, शुद्ध करते हैं।।
गंधोदक से तन में स्वस्थता रहती है।
प्रभु चरणों में सिद्धी कन्या रहती है।।२।।
पूजा के स्वर जिनमंदिरों में, गूंजते रहते।
वे स्वर सदा पर्यावरण को, शुद्ध हैं करते।।
आतम को भी परमात्मा, पूजा बनाती है।
पतितों को भी पावन प्रभू, पूजा बनाती है।।
जिनवाणी यह पूजन महिमा कहती है।
प्रभु चरणों में सिद्धी कन्या रहती है।।३।।
जब मंदिरों में सोलहकारण, पर्व आते हैं।
तब भक्तजन प्राय: विशेष, विधान रचाते हैं।।
शक्ती हुई तो सोलहकारण, का व्रत करते हैं।
भक्ती से सोलह भावना की, पूजन करते हैं।।
इससे कर्मशृंखला निश्चित कटती है,
प्रभु चरणों में सिद्धी कन्या रहती है।।४।।
अंतिम है इसमें भावना, वात्सल्य प्रवचन की।
धर्मात्माओं के प्रति, मैत्री प्रदर्शन की।।
चउसंघ के प्रति प्रेम का, जब भाव रहता है।
तब ‘‘चन्दनामती’’ धर्म का, उत्थान बढ़ता है।।
यही बात गुरु प्रवचन में भी रहती है।
प्रभु चरणों में सिद्धी कन्या रहती है।।५।।
इस सिद्धि कन्या से, जिनेन्द्र विवाह करते हैं।
फिर भी हमेशा ब्रह्मचर्य-स्वरूप रहते हैं।।
सिद्धात्मा की स्थिती को, सिद्धी कहते हैं।
शुद्धात्मा उसके लिए, पुरुषार्थ करते हैं।।
पुरुषारथ से सिद्ध अवस्था मिलती है।
प्रभु चरणों में सिद्धी कन्या रहती है।।६।।
ॐ ह्रीं प्रवचनवात्सल्यभावनायै जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो रुचिपूर्वक सोलहकारण, भावना की पूजा करते हैं।
मन-वच-तन से इनको ध्याकर, निज आतम सुख में रमते हैं।।
तीर्थंकर के पद कमलों में जो, मानव इनको भाते हैं।
वे ही इक दिन ‘चन्दनामती’, तीर्थंकर पदवी पाते हैं।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।