अर्हंत सन्मुख धरी सब वस्तुयें हैं। मं
त्रित किया वर अनादि सुमंत्र से मैं।।
श्रीमान् गुरुवर निकट यह यज्ञ दीक्षा।
लेकर जिनेंद्रवर पूजन को करूँ मैं।।१।।
(चंदन, माला, मुकुट आदि प्रसाधन वस्तुयें एक पात्र में लेकर भगवान् के सन्मुख रखना, पुन: अनादि सिद्ध मंत्र बोलकर मंत्रित करके आगे के मंत्रों के अनुसार उन-उन वस्तुओं को ग्रहण करना या मंत्रित चंदन को उन-उन वस्त्र आदि में लगाते रहना।)
अनादि सिद्धमंत्र— ॐ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।। चत्तारि मंगलं-अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहुमंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मोमंगल। चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरहंतसरणं पव्वज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मोसरणं पव्वज्जामि। ॐ ह्रीं क्रों शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। नीचे लिखा मंत्र पढ़कर पहने हुए वस्त्रों का स्पर्श करना— ॐ ह्रीं र्हं श्रीं नम: श्वेत वर्णे सर्वोपद्रवहारिणी सर्वजनमनोरंजिनी परिधानोत्तरीये धारणी हं हं झं झं वं वं सं सं तं तं पं पं परिधानोत्तरीयं धारयामि स्वाहा। (वस्त्रावरणं) ॐ ह्रीं परमपवित्राय नम: (दाहिने हाथ की अनामिका में पवित्र-अंगूठी धारण करना।) श्री चंदनानुलेपनं स्रग्धारणं च (चंदन लेपन कर माला पहनना)
जो दिव्यसूत्र वर भावश्रुत प्रकाशी।
ये ब्रह्मसूत्र वरमौलि व कुंडलादी।।
कंकण अंगूठि वर भूषण को पहन के।
जैनेंद्रपूजन करूँ अब इंद्र होके।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय स्वाहा। (यज्ञोपवीत पहनें।) ॐ ह्रीं सम्यव्चारित्राय स्वाहा। (कुंडल और मुकुट धारण करना।) ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय स्वाहा। (कंकण धारण करना।) ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय स्वाहा। (अंगूठी पहनना।)
सम्यक्त्व ज्ञान अणुव्रत त्रयरत्न धारे।
एकाशनादि व्रत श्रेष्ठ सुब्रह्मचर्य।।
ये यज्ञपूर्ति तक कंकण सूत्र बाँधू।
‘‘मैं इंद्र हूं’’ यह विधान करूँ रुची से।।३।।
(अर्हंतदेव की यज्ञ दीक्षा को स्वीकार करता हूँ और दीक्षा के चिन्ह को धारण करता हूँ। इस प्रकार कमर मे कंदोरा और पुरुष के दाहिने हाथ में कंकण व महिलाओं के बायें हाथ मे कंकण बांधना। इसमें विधान पूर्ति तक एक बार शुद्ध भोजन, दूसरी बार फलाहार रखना रात्रि में चतुर्विध आहार का त्याग, व विधान पूर्ति तक ब्रह्मचर्य व्रत का नियम देना होता है।) पुन: विधानाचार्य नीचे लिखा मंत्र बोलते हुए इक्कीस बार इंद्रों के मस्तक पर पुष्प क्षेपण करते हुए पूजकों को इंद्र बनायें— ॐ वज्राधिपतये आं हां अ: ऐं ह्रौं ह्र: श्रूं ह्रूं क्ष: इंद्राय संवौषट्। (इस मंत्र से इंद्र का संकल्प करें।) यह यज्ञ दीक्षा विधान हुआ।