(१९८)
कुछ दिन के बाद पुन: सीता की, दायीं आंख फड़कती है।
अंतर्मन उनका घबड़ाया, और चिन्तातुर हो उठती है।।
समझाया सभी रानियों ने, हे सखी! नहीं यूँ खेद करो।
अब कुछ भी अशुभ नहीं होगा, नहिं मन में कोई भेद करो।।
(१९९)
फिर वही हुआ जो होनी को, मंजूर नहीं होना चहिए।
सीता का भ्रम भ्रम नहीं रहा, जो घटा नहीं घटना चहिए।।
जिसमें अनिष्ट हो दूजे का, ऐसा अप्रिय सच मत बोलो।।
‘‘यदि अमृत नहीं बांट सकते, तो विष भी कहीं पर मत घोलो।।
(२००)
अब आये रामसभा में कुछ, मुखियागण फरियादें लेकर।
पर रामप्रभू के सम्मुख वे, डर रहे कहें तो कैसे कर।।
फिर किसी तरह से साहसकर, कर जोड़ निवेदन करते हैं।
हे प्रभो! नगर के तरुण पुरुष, मर्यादा में नहिं रहते हैं।।
(२०१)
यह बात सुनी ज्यों रघुवर ने, उनका अंतर्मन काँप गया।
अब यह कैसा दुख आया है, कर शांत सभी को विदा किया।।
बुलवाया लक्ष्मण भाई को,यह कैसा संकट आया है?।
अब सती सरीखी सीता पर,सबने अपवाद लगाया है।।
(२०२)
इतना सुनते ही क्रोधित हो, लक्ष्मण रघुवर से बोल उठे।
जिह्वा के सौ टुकड़े कर दूँ ,जो जहर नगर में घोल रहे।।
श्रीराम शांत कर लक्ष्मण को, बोले भ्राता! अब बात सुनो।
सीता को अब तजना होगा, इसलिए क्रोधतज कुछ सोचो।।
(२०३)
क्यों की मैं सीता की खातिर, रघुवंश मलिन नहिं कर सकता।
ये बातें अटल इरादों की, नहिं कोई इसे बदल सकता।।
लक्ष्मण ने कहा सुनो भाई, क्यों लोगों से घबराते हो ?।
सीता भाभी है शीलवती, फिर क्यों मन को बहकाते हो ?।
(२०४)
हट गया मोह अब रघुवर का, सीता को वन में भेज दिया।
ले जाओ बहाने दर्शन के, सेनापति को आदेश दिया।।
कुछ दर्शन—वंदन करवाकर,रथ वन के मध्य पहुँचता है।
आँखों में अश्रू भर करके, फिर सीता से वो कहता है।।
(२०५)
हे देवी ! आज्ञा स्वामी की मैं यही छोड़ करके जाऊं।
धिक्कार मेरी विंकरता को जी करता है मैं मर जाऊं।।
कुछ पुरवासी ने लंका में रहने का दोष लगाया है।
इसलिए प्रभु ने अपकीर्ति के डर से वन भिजवाया है।।
(२०६)
इतना सुनते ही सीताजी, मूच्र्छित होकर गिर पड़ी वहीं।
होकर सचेत ऐसे सुनकर, कांपे थे गगन महीं?
तब अकस्मात ही वङ्काजंघ, राजन आये थे जंगल में।
सीता को बैठी देख वहाँ, पूछा कैसे आई वन में।।
(२०७)
हैं कौन ? और क्या परिचय है,हे बहन! कहां से आयी हैं।
अब डरो नहीं सब बतलाओ, समझो अब अपना भाई है।।
सीता ने अश्रु रोक करके, अपना परिचय तब बतलाया।
मैं जनकनंदिनी दशरथ सुत, श्री रामप्रभू की हूँ भार्या?।