भव्य व्यवहार से मोक्षमार्ग का आश्रय लेकर निश्चित रूप से मार्ग का आश्रय लेते हैं, अर्थात् भव्य व्यवहार से मोक्षमार्ग का आश्रय लेकर ही निश्चित मोक्षमार्ग प्राप्त होता है, यही क्रम सनातन है-अनादिनीधन है।
(प्रत्येक वस्तु अनंतधार्मिक है। उनमें से एक-एक धर्म को कहने वाले नय होते हैं। वर्तमान में निश्चित और व्यवहार नयों का विषय एक चर्चा का विषय बना हुआ है। इन नई वस्तु के स्वरूप का ज्ञान प्रदान करने वाले साधन होते हैं। इनके प्रत्यक्ष लक्षण क्या हैं ? इन दोनों में कौन सा नया सत्य है और कौन सा असत्य ? या दोनों ही सत्य हैं क्या ?
प्रथम तो ‘व्यवहार’ शब्द के अनेक अर्थ हैं उन्हें उचित आवश्यक है-
भेद, पर्याय, औपाधिक, उपचार आदि अर्थों में व्यवहार शब्द का प्रयोग देखा जाता है।
भेद- जैसे जीव के दर्शन, ज्ञान, चरित्र व्यवहार से हैं। यहाँ भेद से हैं ऐसा अभिप्राय है।
पर्याय- जीव अनित्य है। इस प्रयास की अपेक्षा से प्रवृत्त हुआ व्यवहार है।
औपाधिक- जीव उपदेशक है, संसारी है। यह कर्मोपदेश को ग्रहण करने वाला व्यवहार है।
उपचार- देवदत्त का घर, घी का घड़ा इत्यादि, इन कथनों में ग्रहण युक्त व्यवहार के अनेक भेद हैं।
ऐसे ही और बहुत से अर्थों में व्यवहार शब्द का प्रयोग देखा जाता है इसलिए आगम के आधार यथास्थान से दिखाया जाएगा।
अभेद, निरूपाधि, द्रव्य, शक्ति और शुद्ध भाव यथार्थ में निश्चित शब्द का प्रयोग देखा जाता है।
अभेद- जीव के न दर्शन है, न ज्ञान है, न चरित्र है, परन्तु जीव ज्ञेय भाव मात्र है। इसमें अभेद का प्रतिपादक निश्चित है।
निरूपाधि- जीव सिद्ध सदृश शुद्ध है। यह कर्मोपदेशरहित निश्चित है।
द्रव्य-जीव नित्य है। यह द्रव्यमात्र की विवाह से प्रवृत्त हुआ है।
शक्ति-संसारिक जीव को भगवान आत्मा या परमात्मा कहना यह शक्ति की अपेक्षा से है जैसे कि दूध को घी और स्वर्णपाषाण को सुवर्ण कहना।
शुद्धभाव- जीव टंकोटकीर्ण ज्ञान मात्र है। दर्शन-ज्ञान प्रारूप है इत्यादि।
तत्व विचार के समय तथा ध्यान में निश्चित का विषय आश्रयणीय है अर्थात् चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान तक निश्चित से तत्व का विचार किया जाता है। आगे ध्यान से उसका विषय अवलंबनीय हो जाता है।
व्यवहारय भी तीर्थ प्रवृत्ति निमित्त प्रवृत्त होता है। इसके द्वारा किसी भी वस्तु के औपाधिक भाव आदि का निर्णय करने के रूप में छठे तक चलता है तथा इसके द्वारा कथित विषय का आश्रय भी छठे तक व कथन सातवें तक भी रहता है। आगे ये नित स्वयं छूट जाती है और नवीनता से पवित्रता द्वारा निर्विकल्प ध्यान होता है।
आगम की भाषा में इन नयनों का वर्णन देखिए-
प्रमाण के द्वारा सम्यक प्रकार से ग्रहण की गई वस्तु के एक अंश अर्थात् धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान न कहा जाता है अथवा श्रुतज्ञान के कोई विकल्प नहीं कहे जाते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। अथवा जो नाना स्वभावों से हटकर किसी एक स्वभाव में वस्तु को ले जाता है वह नय है।१
सम्पूर्ण नयनों के निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो मूल भेद हैं। निश्चित का हेतु द्रव्यार्थिक नय है और साधन नाम व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिकनय है।
इसी की टिप्पणी में निश्चितन्या: · द्रव्यस्थिता:। व्यवहारनय: · पर्यायस्थिता: ऐसा कहा जाता है अर्थात् निश्चितनय द्रव्य में स्थित है और व्यवहारनय पर्याय में स्थित है। इसी तरह की बात को श्री अमृतचंद्रसूरी भी कहते हैं-
यहाँ पर व्यवहारिक पर्याय के प्रतिभा होने से पुद्गल के संयोगवश अनादिकाल से प्रभावशाली बंधपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीव के औपाधिक भाव का अवलंबन लेकर प्रवृत्त होता है। क्योंकि वह दूसरे के भावों को दूसरे का कथन करती है, परन्तु निश्चित द्रव्य के प्रतिभा होने से केवल एक जीव के स्वभावगत भाव का अवलंबन लेकर प्रवृत्त होता है, अत: वह दूसरे के भावों को दूसरे का कथन करती है और उन सबका निषेध करती है । । ।”१
अन्य भी यही सूचना है-यथा-
भगवान ने दो नये कहे हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इनमें से भगवान के उपदेश में एक नय के प्रतिभा नहीं है और उभय के ही प्रतिभा है।
धवला में यह भी कहा गया है-
‘तीर्थंकरों के वचनों के सामान्य प्रसार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिकनय है और सभी के वचनों के विशेष प्रसार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिकनय है।’ शेष सभी न्याय इन दोनों नयों के विकल्प नाम भेद हैं। ३”
इसलिए निश्चित-व्यवहारणों को अच्छी तरह समझने के लिए सर्वप्रथम द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय कोड भी आवश्यक हो जाता है। श्री देवसेन आचार्य ने उपन्यासों और उपनयनों का वर्णन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। न अति संक्षेप और न अति विस्तार से, वह विवेचन अवश्य ही हृदयंगम करने योग्य है। उनमें द्रव्यार्थिकनय के १०, प्रयोगार्थिकनय के ६, नागमनय के ३, संग्रहनय के २, व्यवहारनय के २, ऋजुसूत्रनय के २, शब्दनय का १, समभिरुद्धनय का १ और प्रयोगभूतनय का १, ऐसे सब २८ भेद हो जाते हैं४। यहाँ पर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयनों के लक्षण एवं उनके भेदों को देखें-
द्रव्य ही है अर्थ-प्रयोजन-विषय जिसका वह द्रव्यार्थिकनय है। इसके १० भेद हैं-
१. कर्मोपदेश से परम शुद्ध द्रव्य को विषय करने वाला ‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नय’ है जैसे-संसारी जीव सिद्ध सदृश शुद्धात्मा है।
२. उत्पाद-व्यय को गौण करके सत्तामात्र को ग्रहण करने वाला ‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नय’ है जैसे-द्रव्य नित्य है।
३. भेदकल्पना से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है जैसे-निजगुण, निजपर्याय और निजस्वभाव से द्रव्यविशेष है।
४. कर्मोपदेश की अपेक्षा से वस्तु को ग्रहण करने वाला विशिष्ट द्रव्यार्थिकनय है जैसे-कर्मजनित क्रोधादिभावरूप आत्मा है।
५. उत्पाद-व्यय से सापेक्षता को ग्रहण करने वाला विशिष्ट द्रव्यार्थिकनय होता है। जैसे-एक ही समय में द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप है।
६. भेद कल्पना से सापेक्ष द्रव्य को विषय करने वाला विशिष्ट द्रव्यार्थिकनय है। जैसे-आत्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गुण हैं।
७. अन्वय सापेक्ष द्रव्य को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। जैसे-गुणपर्याय स्वभाव द्रव्य है।
८. स्वद्रव्य आदि के ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है जैसे-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव, इन स्वचतुष्टय की अपेक्षा से द्रव्य अस्तिरूप है।
९. परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिकनय है जैसे- परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से द्रव्य नास्तिरूप है।
१०. परमभाव को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है, जैसे-ज्ञानस्वरूप आत्मा है।
पर्याय ही है अर्थ-प्रयोजन-विषय जिसका, वह पर्यायर्थिकनय है। इसके ६ भेद हैं-
१. अनादि-नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला पर्यायर्थिकनय है, जैसे-मेरु आदि रूप पुद्गल की पर्याय नित्य हैं।
२. सादि-नित्य पर्याय को विषय करने वाला पर्यायर्थिकनय है, जैसे-सिद्ध पर्याय नित्य है।
३. ध्रुव को गौण करके उत्पाद-द्रव्य को ग्रहण करने के स्वभाव वाला अनित्य विश्लेषण पर्याय है, जैसे-समय-समय में पर्याय विनाशिल होते हैं।
४. सत्ता को सापेक्षता प्रदान करने वाला स्वभाव नित्य विश्लेषण पर्याय है, जैसे-एक ही समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुवीय रूप पर्याय होते हैं।
५. कर्मोपदेश निरपेक्ष स्वभाव वाला नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-संसारी प्रकृति के पर्याय सिद्ध पर्याय सदृश शुद्ध हैं।
६. कर्मोपदेश सापेक्षिक स्वभाव वाला अनित्य विशिष्ट प्रयोग है, जैसे-संसारी रोग के जन्म और मरण होता है।
आगे बढ़ते हुए द्रव्यार्थिकनय के भेदों का व्युत्पत्ति अर्थ इसलिए उसके मूल दो भेद पाये जाते हैं।
शुद्ध निश्चितनय और निश्चित निश्चितनय ये दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं।
निश्चितनय के लक्षण-जिसके द्वारा अभेद और अनुपचारितरूप से वस्तु का निश्चित किया जाता है वह निश्चितनय है। यह निश्चयनय का हेतु१ द्रव्यार्थिकनय है।
व्यवहारनय के लक्षण-जिसके द्वारा भेद और उपचार से वस्तु का व्यवहार किया जाता है वह व्यवहारनय है। वह व्यवहारिकता का हेतु२ प्रयोगिकता है।
इन नयनों का प्रयोग श्री कुंदकुंददेव की गाथाओं में तथा सर्वत्र ग्रंथों में घटित करना चाहिए।
नियमसार में श्री कुंदकुंददेव ने जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों का वर्णन करते हुए उन्हें स्वभाव और विभाव ऐसे दो रूप से कहा है। इसी प्रकार से जीव के जीवन के भी स्वभाव-विभाव ऐसे दो भेद पाये जाते हैं। अंत में जीवद्रव्य के उपसंहार की गाथा ऐसी है-
द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सभी जीव स्वभाव-विभाव गुण मिलन से रहित होते हैं एवं पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सभी जीव स्वभाव-विभाव इन दोनों प्रकार के मिलन से युक्त होते हैं।
यहाँ पर द्रव्यार्थिक और प्रयोगात्मक इन दोनों का सामान्य कथन है, अत: शुद्ध द्रव्यार्थिक और प्रामाणिक द्रव्यार्थिक दोनों आ जाते हैं। संसारी जीव पूर्ण प्रतिभा से एवं मुक्त जीव शुद्ध प्रतिभा से रहित होते हैं ऐसा अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इस द्रव्यार्थिकनय मात्र द्रव्य को ही ग्रहण करता है, परन्तु शुद्ध-अशुद्ध दोनों प्रकार के ग्रहण को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
ये दोनों नय अपने-अपने विषय को स्वतंत्र रूप से ग्रहण करते हुए भी परस्पर साम्यशील रहते हैं, तभी सम्यक होते हैं अन्यथा निरपेक्ष होते ही मिथ्या हो जाते हैं।
उसी प्रकार से जहाँ कहीं भी गाथाओं में ‘निश्चय’ कहा गया है, वहाँ पर यथायोग्य शुद्ध या विश्लेषण को घटित करना चाहिए। जैसे-
यह आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है, यह व्यवहारनय का कथन है तथा कर्मजनित भावों का कर्ता और भोक्ता है, यह व्यवहारनय का कथन है। अब यहाँ कर्मजनित औपाधिक भावों का कर्तव्य-भोक्ता अनुरूपता में निश्चितनय को ग्रहण करना चाहिए।
उसी प्रकार से-
ज्ञानी के चरित्र, दर्शन और ज्ञान ये व्यवहार से कहे जाते हैं अनेक (निश्चय से) कि ज्ञानी के न ज्ञान है, न चरित्र है और न दर्शन है, वह तो मात्र ज्ञेय शुद्ध है।
यहाँ पर जो व्यवहार है वह मात्र भेद के द्वारा वस्तु का निश्चित कराता है न कि उपचार के द्वारा क्योंकि ज्ञानी आत्मा के ये ज्ञान, दर्शन और चरित्र व्यवहार से कहे गए हैं, इसका अर्थ-भेद से कहे गए हैं न कि उपचार अथवा कर्मपाधि से । उसी प्रकार से आत्मा के न ज्ञान है, न चरित्र है और न दर्शन है, तो वह मात्र ज्ञेय शुद्ध है। यह कथन ‘भेदकल्पनानिरपेक्ष’ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से है।
इसी प्रकार से-
जो ज्ञेय भाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और न प्रमत्त ही है, इस प्रकार उसे शुद्ध कहा जाता है और जिसे ज्ञेय भाव के द्वारा लिया गया है वह वही है, अन्य कोई नहीं है। यहाँ पर ‘परमभावपूर्ण द्रव्यार्थिक’ नय के द्वारा आत्मा को कहा गया है।
इसी तरह सभी के उदाहरण समझ लेना।
द्रव्यार्थिक नय के दश भेदों में ‘कर्मोपाधिनिरपेक्ष’, ‘सत्तामात्रपर्ण’ और ‘भेदकल्पनानिरपेक्ष’ ये तीन नय शुद्ध द्रव्यार्थिक हैं। ‘कर्मोपाधिसापेक्ष’, ‘उत्पादव्ययसापेक्ष’ और ‘भेदकल्पनासापेक्ष’ ये तीन कष्टसाध्य द्रव्यार्थिक हैं। ‘अन्वयसापेक्ष’ ‘स्वद्रव्यादिपर्ण’ और ‘परद्रव्यादिपर्ण’ ये तीन सामान्य हैं एवं ‘परमभावपर्ण द्रव्यार्थिक’ यह मात्र वस्तु के शुद्ध स्वभाव को ही कहता है।
इसी प्रकार पर्यायार्थिक के ६ भेदों में भी शुद्ध-अशुद्ध व्यवस्था समझनी चाहिए।
नागमनय के भूत, दुष्ट और वर्तमान काल की अपेक्षा तीन भेद हैं।
१. जहाँ पर भूतकाल में वर्तमान का आरोप लगाया जाता है, वह भूत नागमन्य है। जैसे-आज देवी वर्धमान स्वामी मोक्ष गए हैं।
२.भविष्यत् पर्याय में भूतकाल के समान वर्णन करना दुष्ट नागमनय है। जैसे-अर्हंत सिद्ध ही हैं।
३. करने के लिए प्रारंभ की गई ऐसी ईष्ट निष्पन्न-थोड़ी बनी हुई या अनिष्पन्न-बिलकुल नहीं बनी हुई वस्तु को निष्पन्नवत् कहना वर्तमान नागमनय है। जैसे-भात पिया जाता है।
संग्रहनय के दो भेद हैं-सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह।
१. सभी को सामान्य रूप से ग्रहण करना सामान्य संग्रह है। जैसे-सर्व द्रव्य परस्पर अविरोधी हैं-यष्ट् एक हैं। इसी प्रकार नय के एकान्त से ब्रह्मद्वैत आदि अद्वैतवाद हो गये हैं।
२. एक जातिविशेष से सबको ग्रहण करना विशेष संग्रह है। जैसे-सभी जीव समान्तर अविरोधी हैं-यशः एक हैं।
व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-सामान्य और विशेष।
१. सामान्य संग्रह भेदक व्यवहार के विषयभूत पदार्थ में भेद करने वाला सामान्य संग्रह भेदक व्यवहार है। जैसे-द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव।
२. विशेष संग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये विषय में भेद करने वाला विशेष संग्रह भेदक व्यवहार है। जैसे-जीव के संसारी और मुक्त दो भेद हैं।
ऋजुसूत्रनय के भी दो भेद हैं-सूक्ष्मऋजुसूत्र और स्थूलऋजुसूत्र।
१. एक समयवर्ती प्रयोग को ग्रहण करने वाला सूक्ष्मऋजुसूत्रनय है। जैसे-शब्द क्षणिक हैं।
२. अनेक समयवर्ती प्रभावों को ग्रहण करने वाला स्थूलऋजुसूत्रनय है। जैसे-मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहते हैं।
लिंग, संख्या आदि के व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ को ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे-दारा, भार्या, कलत्र अथवा जल व अप एकार्थवाची हैं। यह नय एक ही है।
नाना अर्थों को छोड़कर जो प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ होता है, वह समभिरुढ़नय है। जैसे-‘गो’ शब्द के वाणी शब्द आदि अनेक अर्थ होते हुए भी वह ‘पशु’ अर्थ में रूढ़-प्रसिद्ध है।
जो नय में वर्तमान क्रिया में सर्वोच्च होती है, वह इस प्रकार की इन्द्र क्रिया में तत्पर देवराज को ‘इन्द्र’ कहती है।
इस प्रकार द्रव्यार्थिक से लेकर एवंभूत तक नियोनों के २८ भेद होते हैं। अब उपनयन को देखिए।
जो नयनों से सदैव रहते हैं वे उपनय हैं। इसके तीन भेद हैं-सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार और उपचरित असद्भूत व्यवहार।
सद्भूतव्यवहार उपनय
जो नय संज्ञा, संख्या, लक्षण और गुण आदि के भेद से गुण और गुणी के भेद करता है वह सद्भूत व्यवहार उपनय है। इसके दो भेद हैं-शुद्ध सद्भूतव्यवहार और सर्वगुणसंपन्न सद्भूत व्यवहार।
१. जो नया शुद्धगुण और शुद्धगुणी में तथा शुद्धपर्याय और शुद्धपर्याय में भेद करता है, वह शुद्धसद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे-जीव का केवलज्ञान गुण है, जीव गुणी है तथा जीव की सिद्धि पर्याय है।
२. जो नय पुण्यगुण पुण्यगुणी में तथा पुण्यपर्याय-अशुद्धपर्याय में भेद करता है, वह पुण्यसद्भावहार उपनय है।
अन्य में प्रसिद्ध धर्म (स्वभाव) का अन्य में समारोपण करना असद्भूत-व्यवहारोपणय है। इनके तीन भेद हैं-स्वजात्यसद्भूतव्यवहार, विजयसद्भूत-व्यवहार और स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहार।
१. जो नये स्वजातीय द्रव्यदिक में स्वजातीय द्रव्यदिक के संबंध से होने वाले धर्म का आरोपण करता है, वह स्वजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-‘परमाणु बहुप्रदेशी है’ ऐसा कहना।
२. जो नई विचित्र द्रव्यदि में विचित्र द्रव्यदि का आरोपण करता है, वह विजयसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-मतिज्ञान मूर्त है, क्योंकि वह मूर्तद्रव्य से उत्पन्न हुआ है।
३. जो नई स्वजातीय द्रव्यादि में स्वजातीय द्रव्यादि के संबंध का आरोप लगाता है, वह स्वजाति विजयसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-ज्ञेयभूत जीव और अजीव में ज्ञान है, क्योंकि वे ज्ञान के विषय हैं।
असद्भूतव्यवहार ही उपचारात्मक है, जो नये उपचार से भी उपचारात्मक करता है वह उपचरितअसद्भूतव्यवहार उपनय है। इसके भी तीन भेद हैं-स्वजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार, विजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार और स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार।
१. जो उपचार से स्वजातीय द्रव्य का स्वजातीय द्रव्य को स्वामी बताता है, वह स्वजात्युपचरितासद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे-पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं।
२. जो विचित्र द्रव्य का विचित्र द्रव्य को स्वामी कह देता है, वह विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-वस्त्र, आभूषण, स्वर्ण, रत्न आदि मेरे हैं।
३. जो मिश्रद्रव्य का स्वामी कह दिया जाता है, वह स्वजाति-विजात्युपचरित-असद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-देश, राज्य, दुर्ग आदि मेरे हैं।
ये सभी नई और नई प्राचीन भाषाएँ कह गई हैं। आगे इसी प्रकार अध्यात्म भाषा से संबंधित विवरण का वर्णन किया गया है।
अध्यात्म भाषा में भी नयन के मूल में दो भेद हैं-निश्चय और व्यवहारय।
उसमें निश्चयनय अभेद को विषय करता है और व्यवहारनय भेद को विषय करता है।
उनसे घटित दो प्रकार का है-शुद्ध घटित और घटित। वस्तु यही है कि शुद्ध निश्चितनय का विषय शुद्ध द्रव्य है और निश्चित निश्चितनय का विषय निश्चित द्रव्य है। उसी को देवसेनाचार्य स्वयं कहते हैं—
‘जो न्याय कर्मपाधि से रहित गुण और गुणी (जीव) को अभेदरूप से ग्रहण करता है, वह शुद्ध निश्चयनय है।’ जैसे-केवलज्ञान आदि स्वरूप जीव है।’
इस शुद्ध नय से जीव के बंध-मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं है।
‘कर्मोपाधि सहित द्रव्य को विषय करने वाला परिणाम निश्चित है। जैसे-मतिज्ञान आदि स्वरूप जीव है।
इसी प्रकार नये से क्षमा को रागादि भाव कर्मों का कर्ता-भोक्ता भी कहा जाता है।
व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-सद्भूतव्यवहारनय और असद्भूतव्यवहारनय।
‘एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहारनय है।’
‘भिन्न वस्तु को विषय करने वाला असद्भूतव्यवहारनय है।’
‘उपचरित और अनुपचरित के भेद से सद्भूत व्यवहार दो प्रकार का है।’
‘उनमें से कर्मोपदेश से युक्त गुण और गुणी के भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूतव्यवहार नय है। जैसे-जीव के मतिज्ञान आदि गुण।’
‘कर्मोपाधि रहित गुण और गुणी के भेद को विषय करने वाला अनुपचारित-असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे-जीव के केवलज्ञान आदि गुण।’
‘असद्भूत व्यवहार के भी दो भेद हैं-उपचरित और अनुपचरित।’
‘हमारेमें से संश्लेषित संबंध रहित, ऐसी भिन्न वस्तुओं का संयुक्त में संबंध ग्रहण करना उपचरित असद्भूत व्यवहार है। जैसे-देवदत्त का धन।’
‘संश्लेषण सहित वस्तु के संबंध को विषय करने वाला अनुपचारित-असद्भूतव्यवहारनय है। जैसे-जीव का शरीर।’
इस प्रकार से अति संक्षेप में यहाँ पर्यायार्थिक, द्रव्यार्थिक, नैगम आदि नय, उपनय तथा निश्चयनय और व्यवहारनय का स्वरूप कहा गया है। विशेष जिज्ञासुओं को तथा गुणों को नये चक्र में, विशेषोपचार आदि ग्रंथों का अभ्यास अवश्य करना चाहिए।
ये सभी न केवल सापेक्ष होने से सुनी कहलाते हैं, अन्यथा दुर्नय हो जाते हैं। तो ही देखिये-
अष्टसहस्री नामक नामक दर्शनशास्त्र में भी श्री विद्यानन्दि महोदय ने ‘तथा चौकं’ के कारण सुनय और दुर्नय के लक्षण बताये हैं-
तथा चौकं-
अनेकरूप पदार्थ का ज्ञान प्रमाण है, उस पदार्थ के एक अंश का ज्ञान नय है। वह न केवल अपने से विपरीत अन्य धर्म की अपेक्षा रखती है तथा न केवल अन्य धर्म का निराकारण करने वाली है।
वहीं पर श्री अद्वैतंकदेव ‘अष्टशती भाष्य’ में कहते हैं-
अनेकांत का ज्ञान प्रमाण है, उसके एक धर्म को जानना नया है और उस नये के विपरीत धर्म का निवारण करना दुर्जनय है।
श्री समन्तिभद्रस्वामी की कारिका में देखें-
मिथ्यान्यों का समूह मिथ्या ही है, छुँकी हम स्याद्वादियों के यहाँ मिथ्याएकान्त नहीं है। निरपेक्षनय मिथ्या हैं और सापेक्षनय वास्तविक हैं, अर्थक्रियाकारी हैं।
संयोगों में निरपेक्ष ही नय मिथ्यारूप हैं, छाँह उनका विषयसमूह मिथ्यात्व रूप से स्वीकार किया गया है तथा सापेक्षतानाय शून्य है छाँह उनका विषय अर्थ क्रियाकारी है, उन विषयों का समूह वास्तविक है।
वे कहते हैं कि सूर्य को सम्यक एकांत और दुर्नय को मिथ्या एकांत कहते हैं। यथा-
एकांत के दो भेद हैं-सम्यक् एकांत और मिथ्या एकांत। प्रमाण के द्वारा प्ररूपित वस्तु के एक देश को सुयुक्त ग्रहण करने वाला सम्यक एकांत है। एक धर्म (वस्तु के एक अंश) का सर्वथा आविष्कार करके अन्य धर्मों का निराकारण करने वाला मिथ्या एकांत है।
इसी तरह की बात को श्री सम्मन्तियभद्र स्वामी भी कहते हैं-
अनेकांत भी अनेकांतरूप है, वह प्रमाण और नय से सिद्ध होता है। अनेकांत की सिद्धि प्रमाण से होती है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकांत की सिद्धि होती है। यही सम्यक एकान्त है।
श्री जिनेन्द्रदेव के मत में परस्पर विरोधी विषय को निर्मित किए हुए भी सभी नये परस्पर में अविरोधी हैं। यथा-
हे प्रभो! द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक अथवा नैगम आदि नय, नेवला, सर्प आदि प्राणी और बसंत, ग्रीष्म आदि ऋतुयें ये सब तथा इनके स्वरूप और भी जो पृथ्वी पर परस्पर विरोधी पदार्थ हैं जो कि परस्पर में कभी नहीं मिलते, वे सब आपके प्रभाव से एक साथ संगत हैं । हो गए हैं-आपस के उपहार को भूलकर मिल गए हैं तथा कितने ही अन्य कार्य देवों की ऋद्धि से निष्पन्न हो गए हैं।
जो किसी नय को सत्य एवं किसी नय को असत्य कहता है, तो यह कथन गलत है। जयधवला नामक सिद्धांत ग्रन्थ में देखें-
ये सभी नये अपने-अपने विषय के कथन में समीक्षात्मक हैं और अन्य नये के निराकारण में मूढ़ हैं। अनेकान्त रूप में अज्ञात पुरुष ‘यह नया सत्य है और यह नया झूठ है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं।
जयधवला, धवला आदि महाग्रंथों के प्रमाण देखें।
जयधवला में कहा गया है-
श्री गौतमस्वामी ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोग द्वारों के आदि में ‘णमो जिनाम्’ यथा रूप से मंगल किया है।
व्यवहारिक अस्त्य भी नहीं है, क्योंकि वह व्यवहार का अनुसरण करने वाले शिष्यों की प्रवृत्ति है: जो व्यवहारिक बहुत अनुग्रह का अनुग्रह करने वाला है, उसी का आश्रय लेना चाहता है, क्योंकि ऐसे मन में अवश्य ही करके गौतमस्थविर ने निरंतर अनुयोग द्वारों की आदि मंगल में किया गया। है।
धवलकर का अभिमत देखिये-
इस प्रकार द्रव्यार्थिक जनों के अनुग्रहार्थ गौतम भट्टारक महाकर्तृप्रकृतिप्रभात के आदि में नमस्कार करके पर्यायार्थिकनय शिष्यों के अनुग्रहार्थ उत्तरदायित्व को कहते हैं-
काल जिनों को नमस्कार हो१।।२।।
भवार्थ- श्री गौतम स्वामी ने महाकर्मप्रकृति प्रभृत की आदि में ”णमो जिनाणं” । ।१।। जिनों को नमस्कार हो। यह प्रथम मंगलसूत्र द्रव्यार्थिकनय वाले शिष्यों के अनुग्रहार्थ रचा गया है आगे पुन: ‘णमो ओहिजिणां’ से लेकर ‘ णमोव्हन्नमाणरिसिस्स’ ।।विश्वसनीय।। यहाँ तक कि जो नमस्कार सूत्र बनाये हैं वे पर्यायार्थिकनय वाले शिष्यों के धन्यभागी बने हैं, ऐसा अभिप्राय है।
कषायपाहुड़ में प्रश्न किया गया है कि-
”नय का कथन किस प्रकार किया जाता है?
”यह नये पदार्थों का स्वरूप है, उस रूप में उन्हें ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है।” क्योंकि यह नया कथन किया जाता है। इस मूलवाक्य का शब्दार्थ यह है कि यह नय श्रेयस् अर्थात् मोक्ष का उपदेश नय कारण है, क्योंकि वह पदार्थों के यथार्थरूप से ग्रहण करने में निमित्त है।”
इस नय के दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक।
जब नय को मोक्ष का निमित्त माना जाता है और उसी के द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक दो भेद पाये जाते हैं तब पर्यायार्थिक या व्यवहारिक अस्त्य या संसार का निमित्त वैसे हो सकता है? नाम कथाम्पि नहीं हो सकता है।
अध्यात्म भाषा में जो निश्चित और व्यवहारिक हैं, आज ये ही विवाद के विषय बने हुए हैं। व्यवहारिक झूठ सत्य नहीं है, इसलिए हमने समझ लिया है। अब इसकी आशा कहाँ तक है ? तथा निश्चयनय का आश्रय लेने वाले महापुरुष कौन हैं ? इस पर विचार किया जाता है।
विश्व आगम के आधार से व्यवहारिकता का अवलंबन छठा और कथंचित् छठा गुणस्थान तक होता है, उसके ऊपर अवलंबन महामुनियों को ध्यानावस्था में होता है। जो श्रावक पंचम गुणस्थानिक हैं अथवा जो असंयत सम्यग्दृष्टि हैं, उनके लिए तो निश्चयनय का विषय ध्येय है, तथा व्यवहारनय के प्रतिभा एकदेश चरित्र ही अवलंबन करने योग्य है।
श्री कुंदकुंददेव आदि महर्षिगणों के शब्दों में ही इस विषय में व्याख्या मिलती है। तो ही देखिये।
श्री अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं-
परमभावदर्शियों को शुद्ध न्याय का उपदेश करने वाला शुद्धनय ज्ञान उचित है क्योंकि जो परमभाव में स्थित हैं, वे व्यवहार के द्वारा उपदेश करना उचित है।
इसी प्रकार के ग्रंथों में श्री अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं-
उक्तं च-
जो पुरुष अंतिम पाक से उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान शुद्ध परमभाव का अनुभव करते हैं, वे प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान प्रारंभिक सुवर्ण के समान परमभाव के अनुभव से शून्य होते हैं। अत: जो व्यक्ति अपने लिए शुद्ध द्रव्य को ही कहने वाला होता है, वह एक स्वभावरूप एक भाव प्रकट करता है, ऐसा शुद्धनय ही उपरत्न एक शुद्ध सुवर्ण के समान जाना हुआ गुणवान है और जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक उपाख्यानों की परंपरा से पकते हैं। हैं। सुवर्ण के समान ‘अपरंभ’ का अनुभव करते हैं, वे अंतिम पाक से शुद्ध सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ के अनुभव से शून्य हैं। अत: उनके लिए विस्तृत द्रव्य का कथन करने वाला होने से भिन्न-भिन्न एक भाव स्वरूप अनेक भाव दिखता है, यह व्यवहारिक विचित्र-अनेक वर्णमाला के समान जाना जाता है, जो काल में निर्धारित होता है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इस प्रकार से ही व्यवस्थित है।
कहा भी है- ”यदि तुम जिनमत में प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चितता इन दोनों नयनों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के बिना तो तीर्थ का (मोक्षमार्ग का) नाश हो जाएगा और दूसरी निश्चितता के बिना तत्व का नाश हो जाएगा।” ” ” ”
अब यहाँ यह बताया गया है कि ‘परमभाव’ तथा ‘अपरंभ’ क्या है ? अंतिम पाक को प्राप्त कर चुके शुद्ध सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ को लिया गया है और एक पाक, दो पाक आदि से शुद्ध होते हुए पंद्रह पाक तक उतरते हुए सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ को कहा गया है। यह श्री अमृतचंद्रसूरि का मत है। इस दृष्टि से तो शुद्ध ‘परमभाव’ बारहवें गुणस्थान में ही घटित होगा उसके नीचे विस्तृत सुवर्ण के समान आत्मा ‘अपरंभभाव’ में ही स्थित है अथवा निर्विकल्पध्यान में आठवें, नवमें, दशवें गुणस्थानों में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होने से वीतरागता मानी गई है, दृष्टि वहां पर भी ‘परमभाव’ कहा जा सकता है उसके पहले सविकल्प अवस्था वाले छठे गुणस्थानान्तर मुनि तो ‘अपरम्भ’ में ही हैं। –
यह वाक्य ध्यान देने योग्य है।
व्यवहार नय……उस काल में व्यवस्थावान है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इसी प्रकार से व्यवस्थित होते हैं।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार से ही तीर्थयात्री और तीर्थयात्री का फल होता है। तब यह भी स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार का अवलंबन आश्चर्यजनक रूप से क्रिया होने तक चलता ही है। ”निर्वाणमार्गी श्री गौतमस्वामी ने निर्ग्रंथ प्रवचन को अथवा निर्ग्रंथाचार्य को भी कहा है१।” छठे गुणस्थान की भी निर्ग्रंथाचार्या है, इसलिए उसके बिना भी आगे के गुणस्थान नहीं होते। अत: चौथे गुणस्थान से लेकर छठे, सातवें तक व्यवहारिक प्रक्रियावान है। ‘अपरंभ’ ही है।
व्यवहार या निश्चय इन दोनों में किसी एक नय का एकांत तो मिथ्यात्व ही है अत: मिथ्यात्व में व्यवहारनय का अवलंबन नहीं है, प्रत्युत व्यवहाराभास का अवलंबन है।
इस ‘परमभाव’ और ‘अपरंभ’ को श्री जयसेनस्वामी ने भी इसी तरह से कहा है। यथा-
”यहाँ पर केवल भूतार्थ-निश्चय निर्विकल्पसमाधि में रत संगत मुनियों को उद्देश्यवान हो, मात्र इतनी ही बात नहीं है, किन्तु सोलह ताव के शुद्ध सुवर्ण लाभ के अभाव में नीचे के ताव सहित सुवर्ण लाभ के समान निर्विकल्प समाधि से रहित प्राथमिक शिष्यों की आवश्यकता नहीं है। कदाचित् सविकल्प अवस्था में मिथ्यात्व, विषय, क्षय को दूर करने के लिए व्यवहारनय भी समाधानवान् है, ऐसा कहा जाता है-
”शुद्धात्माभावदर्शियों को शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय व्यवहार करना चाहिए।” क्यों ? क्योंकि इस सोलह ताव के सुवर्णलाभ के समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप समाधि के काल में व्यवस्था सहित है, नि:प्रयोजन नहीं है। व्यवहार से, विकल्प से, भेद से अथवा पर्याय से कहने वाला नय व्यवहारनय है। वह पुन: नीचे के ताव वाले सुवर्णलाभ के समान प्रतीत होता है। किस लिए ? जो पुन: ‘अपरम’ अर्थात् असन्यत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से अथवा श्रावक की अपेक्षा से सरग सम्यग्दृष्टि लक्षण वाले शुभोपयोग में अथवा प्रमत्त और अप्रमत्त मुनि की अपेक्षा से भेदरत्नत्रय लक्षण जीव पदार्थ में स्थित होते हैं। उनके लिए यह व्यवहारिक उद्देश्यवान है१।”
इससे यह ज्ञात होता है कि गाथा ११ में जो ‘भूयत्थमस्सिदों खलु सम्माइट्ठि हवै जीवो२।’ कहा जाता है सो वीतराग सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से ही कहा जाता है।
इस व्यवहार की सार्थकता कहाँ तक है सो और देखिये-
”जो राग-द्वेष आदिरूप अध्यावसान आदि भाव हैं, वह जीव है” ऐसा जिनेन्द्रदेव ने जो कहा है, वह व्यवहारनय का कथन है३।”
इसी प्रकार की टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं-
ये सब अध्यावसनादि भाव ‘जीव’ हैं, जिसे भगवान सर्वज्ञ देव ने कहा है, वह अभूतार्थ रूप जो व्यवहारनय है उसका मत है क्योंकि व्यवहारनय व्यवहार को परमार्थ कहने वाला है। जैसे कि म्लेच्छभाषा म्लेच्छों को वस्तु का स्वरूप बताने वाली है। इसी प्रकार यह व्यवहारपरमार्थ का प्रतिपादक होने से अपरमार्थभूत होने पर भी तीर्थ प्रवृत्ति का निमित्त है: इसका दर्शन न्याय संगत ही है। उस व्यवहार के बिना परमार्थ से तो जीव शरीर से भिन्न होता है पुन: जैसे भस्म को नि:शंक बढा उपमर्दित कर देते हैं वैसे ही त्रस-स्थावर जीव का भी नि:शंक बढा घात करने से हिंसा नहीं होगी तो फिर बंध का भी सर्वथा निश्चित हो जायेगा। ऐसी स्थिति में ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्म से बंधता है वही छुड़ाने योग्य है’ इस प्रकार राग-द्वेष-मोह से जीव परमार्थ से भिन्न ही जीवित रहता है, तब मोक्ष के उपायों को ग्रहण करने का भी अभाव हो जाने से मोक्ष का ही सर्वविदित हो जायेगा।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष का उपाय भी व्यवहार से ही ग्रहण किया जाता है। व्यवहार के बिना बंधन व मोक्ष की व्यवस्था ही नहीं बनाई जा सकती।
शंका- इस विषय में हमें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन निश्चित के अवलंबन से होने वाला रत्नत्रय चौथे से ही शुरू हो जाता है, इस मान्यता में ही विवाद है, पर: उसी का समाधान होना चाहिए?
समाधान- इसका समाधान तो गाथा बारहवीं में किया जा चुका है कि जो ‘अपरंभ’ में स्थित है, उसके लिए व्यवहारिक मूल्य है और आज सातवें गुणस्थान से ऊपर नहीं जा सकता: आज निश्चितनय का विषय श्रद्धान के लिए ही उचित है अवलंबन के लिए नहीं । हाँ, सप्तमगुणस्थान में भी शुद्धोपयोग माना गया है: उसकी दृष्टि से कथंचित् मुनि ही उस निश्चितनय के अवलंबनस्वरूप निश्चित्नत्रय को प्राप्त कर सकते हैं, साधारण जन प्राप्त नहीं कर सकते, ऐसादे। क्योंकि व्यवहार या भेद रत्नत्रय साधन हैं और निश्चितता या अभेद रत्नत्रय साध्य है। इस बात को आचार्यों ने स्वयं कहा है। साधन के बिना साध्य असंभव है पुन: छठे तक साधन रहे और चौथे गुणस्थान में साध्य हो जावे यह वैसे होगा ?
व्यवहारय अथवा व्यवहार रत्नत्रय साधन है तथा निश्चितय अथवा निश्चित रत्नत्रय साध्य है। इसका प्रमाण-पंचास्तिकाय की गाथापुस्तक में है। तो देखिए- व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है
धर्मादि द्रव्यों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, अंग-पूर्व संबंधी ज्ञान सो ज्ञान है और तप में प्रवृत्ति करना सो चरित्र है। इस प्रकार यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि इस गाथा की टीका में कहते हैं-
……इसमें तप के जो विशेषण दिये गये हैं, वे पंच महाव्रत से प्रभावित मुनिचरिया रूप में ही हैं। यथा-”आचारादि मूल द्वारा भेदरूप से कहे गये अनेक विध मुनि आचारों के समस्त समुदायरूप तप में प्रवर्तन करना सो चरित्र है। ……यह व्यवहारनय के आश्रय से किया जाने वाला मोक्षमार्ग निश्चित मोक्षमार्ग के साधन भाव को प्राप्त होता है अर्थात् इस व्यवहार मोक्षमार्ग से ही निश्चितन्याश्रित मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है अन्यथा नहीं।
”इस प्रकार निश्चित मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्य-साधन-भाव अतिशयरूप से घटित हो जाता है।”
इन प्रमाणों को देखकर भी जो विद्वान व्यवहार चरित्र कहता है या व्यवहार चरित्र के बिना निश्चित चरित्र की कोरी बातें करते हैं। वे आकाश पुष्प की सुगंधि ही चाहते हैं सुखद चाहिए।
आगे बढ़ते हुए श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि यह रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग वृत्तान्तचित् (दसवें गुणस्थान तक) बंध का हेतु है पुन: (बारहवें गुणस्थान में) साक्षात् मोक्ष का हेतु है। यथा-
दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है। क्योंकि वे सेवन करने योग्य हैं, ऐसा संत ने कहा है। इनसे बंधन भी होता है और मोक्ष भी होता है। इसी गाथा की टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं-
ये दर्शन-ज्ञान-चारित्र यदि अल्प भी परसमयप्रवृत्ति के साथ मिलित हों तो….बंध के कारण भी हैं और जब समस्त परसमय प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप स्वसमयप्रवृत्ति के साथ संयुक्त होते हैं तब……साक्षात् मोक्ष के कारण ही हैं ।
श्री जयसेनाचार्य भी कहते हैं-
ये सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चरित्र जब शुद्धात्मा के चिंतित होते हैं, तब मोक्ष के लिए कारण होते हैं और जब ये पर-पंचपरमेष्ठी आदि के चिंतित होते हैं, तब पुण्यबंध (सातिशय तीर्थंकर प्रकृति आदि) के लिए कारण हो जाते हैं।
इसी गाथा नं. १গ की टीका में श्री जयसेनाचार्य के शब्दों में देखें-
विशेषार्थ- वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए जीव आदि पदार्थों के संबंध में सम्यक श्रद्धान करना और जानना ये दोनों सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान गृहस्थ और मुनियों में समान होते हैं। अनेक ऋषियों, तपस्वियों के चरित्र आचारसार आदि ग्रंथों में कहे गए मार्ग के अनुसार प्रमत्त और अप्रमत्त-छठे-सातवें गुणस्थान के उचित पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ और छह आवश्यक आदिरूप होता है। गृहस्थों का चरित्र उपासकाध्ययन शास्त्र में कही गई रीति के अनुसार पंचमगुणस्थान के उचित दान, शील, पूजा और उपवास आदि रूप में अथवा दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रतिमास्थानरूप होता है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण है। जैसे-अग्नि सुवर्ण पाषाण को सुवर्ण बनाने में निमित्त है वैसे ही यह व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चित मोक्षमार्ग का साधक है।
अब अगली गाथा के लिए श्री अमृतचंद्र सूरी की चित्रा देखिये-
व्यवहार मोक्षमार्ग के द्वारा साध्यरूप होने से अब निश्चित मोक्षमार्ग का यह कथन किया जाता है-
जो आत्मा इन तीनों द्वारा समाहित हुई अन्य कुछ भी न करता है और न छोड़ता है, वह निश्चय ही मोक्षमार्गी कही गई है। इसी प्रकार के ग्रंथों में श्री अमृतचन्द्र सूरि पुन: कहते हैं-
इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि रत्नत्रय को धारण करने वाले मुनि भी परसमय होते हैं तथा जहां तक बंध है, वहां तक कथंचित परसमयप्रवृत्ति प्रस्तुत करना चाहिए। उनके परम उत्कृष्ट अंतरात्मा मुनि बारहवें गुणस्थान में ही पूर्णतया स्वसमय हैं, पर बंध का सर्वंभवी साक्षात् मोक्षमार्ग प्रकट होता है।
श्री अमृतचन्द्र सूरि ने समयसार की व्याख्या में तो ‘यथाख्यातचारित्र के पहले बंध होता है’ यह बात स्पष्ट रूप से कह दी है। यथा-
वह (ज्ञानगुण) तो यथाख्यात चरित्र के नीचे (ग्यारहवें गुणस्थान के नीचे) सर्वंभावी राग परिणाम का सद्भाव होने से बंध का हेतु ही है।
इससे यह भी स्पष्ट है कि सातवें से दशवें गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक भी राग का अंश होने से कर्मबंध होता है और यह बात अध्यात्मसूरी श्री अमृतचंद्र सूरि जब स्वयं स्वीकार कर रहे होते हैं तब चतुर्थगुणस्थान आदि के सम्यकदृष्टि को वीतरागी अथवा अबंधक कह देना स्वयं आत्मवंचना करना ही है। ।
वास्तविक रत्नत्रय के लिए व्यावहारिक रत्नत्रय साधन (कारण) है। इसके लिए और भी प्रमाण देखें-
शुद्ध निश्चय से निजशुद्धात्मा ही उपादेय है तथा भेदरत्नत्रय भी उपादेय है क्योंकि वह अभेदरत्नत्रय का साधक है अत: वह व्यवहार से उपादेय है।
जो निश्चितात्मकत्रय उसके कारण होने से व्यवहार मोक्षमार्ग उपादेय है और परंपरा से जीव की पवित्रता का कारण होने से पवित्र है। ”यह नि:संकोच आदि आठ गुणों का व्याख्यान सर्व
-व्यवहार में साध्य-साधन भाव है ।”
”वास्तव में, ‘अनुभव’ के लिए साधकभूत ऐसे व्यवहार को रत्नत्रय में स्थित करके, ‘अनुभव’ को अंजन चोर आदि की।” ।” ।” कथारूप से भी परिणाम निकालना चाहिए।” पुन: प्रश्न हो जाता है कि-
व्यवहार का व्याख्यान करके पुन: व्यवहार का व्याख्यान क्यों किया गया ?
ऐसा नहीं है, क्योंकि अग्नि और सुवर्णपाषाण के समान निश्चित और व्यवहारिक रूप में साध्य-साधन भाव प्रकट करने के लिए किया गया है।”३
व्यवहारिक प्रतिषेध है, परन्तु किसके लिए ? देखिए-
इस प्रकार से निश्चितता के द्वारा वैकल्पिक व्यवहारिक प्रतिसिद्धि हो जाती है। इस प्रकार से निश्चितता के द्वारा वैकल्पिक व्यवहारिक प्रतिसिद्धि हो जाती है
।
। ‘ इस कथा की मुख्यता से छह गाथा पर्यन्त व्याख्यान करते हैं-
”एवं पूर्वोक्त प्रकार से पराश्रित होने से व्यवहारनय प्रतिसिद्ध है ऐसा जानो। कैसे ? शुद्धात्मा द्रव्य की प्रतिभा के द्वारा। क्यों ? क्योंकि, निश्चयनय में स्थित हुए मुनिगण निर्वाण को प्राप्त करते हैं, इस कारण से। दूसरी बात यह है कि यद्यपि प्राथमिक शिष्यों की अपेक्षा से प्रारम्भ में सविकल्प अवस्था में निश्चित का साधक होने से व्यवहारिक समाधान होता है, फिर भी विशुद्ध ज्ञान दर्शन के लक्षणों में शुद्धात्मा स्थित मुनियों के लिए निष्प्रयोजन ऐसा भावार्थ है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक कथाम्पि सर्वंभवी में स्थित नहीं हो सकती। इसलिए शुद्धोपयोगी मुनियों द्वारा ही व्यवहारिक प्रतिसिद्धि है न कि श्रावकों द्वारा या छठे गुणस्थानिक मुनियों द्वारा।
आगे भी कहते हैं-
निर्विकल्प समाधिरूप निश्चित रूप से व्यवहार में स्थित है अर्थात् वह त्रिगुप्त अवस्था में व्यवहार स्वयं ही ऐसा नहीं होता है। इस प्रकार से निश्चित रूप से यह प्रतिसिद्ध ऐसी खोज है। यह अवस्था वीतरागी मुनियों की ही होती है।
भेद रत्नत्रय से अभेदरत्नत्रय की एवं अभेद से केवलज्ञान की सिद्धि होती है। देखिए-
”भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग नाम व्यवहारकरणसमयसार के द्वारा अभेद रत्नत्रयात्मक निश्चितमोक्षमार्ग नाम निश्चितकारणसमयसार साध्य है। इस निश्चितकरणसमयसार से केवलज्ञान की अभिव्यक्तिरूप कार्यसमयसार प्रकट होता है।२”
आगे भगवान कुंदकुंददेव स्वयं कहते हैं-
व्यवहार्य तो मोक्षमार्ग में श्रावक और मुनि दोनों ही प्रकार के लिंगों को कहते हैं, परन्तु व्यवहार्य तो मोक्षमार्ग में सभी लिंगों को स्वीकार नहीं करता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, निश्चयनय आत्माश्रित है और व्यवहारनय शरीर आदि का आश्रय लेने से पराश्रित है।
श्री कुंदकुंददेव ने तो यहाँ तक कहा है कि दोनों नयनों के पक्ष से रहित ही समयसार होता है-
जीव में कर्म बंधे हुए हैं अथवा नहीं बंधे हुए हैं। इस प्रकार तो नायपक्ष नाम व्यवहार और सर्वभावों का कथन जानो, परन्तु जो इन परिणामों के नायनों से अतिक्रांति हो चुका है, वही समयसार है ऐसा तुम जानो।
श्री अमृतचन्द्रसूरि मुनियों को ही समयसाररूप मानते हैं-
जो ऋषि आदि पाँचों पाप को पूर्णरूप से त्यागने में निरत हैं, सो ये यति समयसारभूत हैं; और जो इन पाँचों पापों से एकदेशविरत हैं, वे उपासक होते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक समयसाररूप शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।
जो साधन के बिना साध्य की सिद्धि करना चाहते हैं या व्यवहारचारित्र की निश्चित अपेक्षा करते हैं, उसके बारे में आचार्य कहते हैं-
निश्चित का आलंबन लेते हुए परन्तु निश्चित से निश्चित को न जानते हुए कोई भी मुनि बाहरी आचरण में अंततः तेरह प्रकार के चरित्र और तेरह प्रकार की मूर्तियों का विनाश कर देते हैं और अत: उभय रूप से नष्ट हो जाते हैं।
यही बात श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं-
अर्थ वही है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावकों के व्यवहार रत्नत्रय ही होता है। निश्चित नहीं। और भी देखें-
अब आचार्य श्री कुंदकुंददेव मोक्षपाहुड़ ग्रंथ में श्रावकों के लिए मुनियों की रुचि का विवरण है-
पूर्वोक्त प्रकार से जिनेन्द्रदेव ने श्रमणों के लिए उपदेश दिया है, अब श्रावकों के लिए कहते हैं उसे सुनो! वह उपदेश संसार का विनाश करने वाला है और सिद्धपद को प्राप्त करने में उत्कृष्ट कारण है।
आगे श्रावकों के लिए सम्यकत्व के लक्षण प्रकट होते हैं-
¨हसाहित्य धर्म, परम दोषहित अर्हंतदेव, निर्ग्रंथ प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग तथा गुरु इनके श्रद्धान करना ही सम्यक्त्व है।
आगे और कहते हैं-
सम्यग्दृष्टि श्रावक जिनदेव कथित धर्म का पालन करता है और जो उसके विपरीत करता है वह मिथ्यादृष्टि है।
मोक्षपाहुड़ की इन गाथाओं में यह स्पष्ट झलकता है कि श्रावक व्यवहार धर्म का पालन करता है। इसी प्रकार से श्री कुंदकुंददेव ने ही चारित्रपाहुड़ में श्रावकों के संयमचरण को वर्णित किया है-
दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सत्य त्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग इस तरह ग्यारह प्रकार के देशविरत होते हैं।
पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह बारह प्रकार का चरित्र सागर-श्रावकों का संयमचरण है१।”
इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक को शक्ति के अनुसार इन ग्यारह प्रतिमाओं में से चरित्र को ग्रहण करना ही चाहिए। केवल वह श्रावक कहला सकता है, अन्यथा नहीं।
यहाँ पर कहे का अभिप्राय यही है कि छठे गुणस्थान तक की क्रिया व्यवहार मोक्षमार्ग है। इससे आगे अवश्य मोक्षमार्ग होता है: अविरत सम्यग्दृष्टि या श्रावक मात्र शुद्ध आत्मतत्व का श्रद्धान ही कर सकता है, वह अवश्य सम्यक्त्व आदि को प्राप्त करने की क्षमता नहीं रखती है।
मुनि और श्रावकों का महाव्रत-अनुव्रत रूप आचरण कितना महात्त्वशाली है-
श्री गौतम स्वामी भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर से जुड़े हुए हैं। ये मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञान से युक्त थे, सम्पूर्ण ऋद्धियों से संचालित थे। उनके अनंतर ग्रंथकार किसी भी आचार्य की समानता नहीं कर सकते। अहो! उन्होंने कहा कि साक्षात भगवान की दिव्यध्वनि लगभग तीस वर्ष तक आदि से अंत तक शाश्वत देती है। ऐसे महान् गुरु श्री गौतमस्वामी कितने मधुर शब्दों में भव्य प्रतीकों को सम्बोधन करते हैं, जिनमें से पाँच महाव्रत आदि मुनियों के आचरण का एवं उन लगे हुए प्रतीकों के निराकारण हेतु प्रतिक्रमण दण्डक का उच्चारण किया जाता है। आगे बढ़ते श्रावकों के अणुव्रत आदि व्रतों का भी उच्चारण करते हैं। अमृत की निर्झरनी के समान उनके ये वचन पढ़ने वालों के हृदय में अतिशय आह्लाद उत्पन्न कर देते हैं।
इस प्रकार का भाग ऐसा लगता है कि वास्तव में ये अणुव्रत और महाव्रत कितने विशेष हैं। ये अँकिंचित्कर नहीं हैं। निश्चित रूप से इनके बिना मोक्ष प्राप्ति त्रिकाल में असम्भव है। इससे चरित्र की सार्थकता जानी जाती है।
देखिये-
श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर के मुखारिंवद से निकले अमृतकण-
हे आयुष्मान् भव्यों! मैंने सुना है द किनसे सुना है ? और क्या सुना है ? भगवान महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि से सुना है और पाँच महाव्रत आदि को सुना है। इस भारतक्षेत्र में देव, असुर और मनुष्य सहित प्राणियों की आगति, गति, च्यवनोपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, द्युति, अनुभागीय, तर्क, कला, मन, मानसिक, भूत, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, असहकर्म जिनमें तीन सौ तेतालिस भगवान, सर्वज्ञ, सर्वनाशी महातिमहावीर नामक अंतिम तीर्थंकरदेव ने पचास भावनाओं सहित, मातृकापदों सहित और उत्तरपदों सहित, छठा अणुव्रत नामक पचास भावनाओं सहित, सर्वभावों को और सर्व कार्य को एक साथ जाना, देखते हुए तथा विहार करते हुए, कश्यपगोत्रीय श्रमण, भगवान, सर्वज्ञ सर्वनाशी महातिमहावीर नामक अंतिम तीर्थंकरदेव ने पचास भावनाओं सहित, मातृकापदों सहित और उत्तरपदों सहित, छठा अणुव्रत ऐसे पाँच महाव्रतरूप समीचीन धर्मों का उपदेश दिया है, वह मैंने उनकी दिव्यध्वनि से सुना है१।
ऐसे ही वे आगे श्रावक-श्राविका व क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं के लिए कहते हैं-
हे आयुष्मान! मैंने (गौतम ने) महाकाश्यप गोत्रीय, सर्वज्ञ, सर्वकारी श्रमण भगवान महावीर से श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के कारण से पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म सुना है। ……नि:संकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यक्त्व के आठ अंग हैं।
जो सर्व इन पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म का पालन करते हैं। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सत्यविरामन, रात्रिभुक्तिविरमण, ब्रह्मचर्य, आरम्भनिवृत्ति, परिग्रह निवृत्ति, अनुमति और उद्दिष्टत्याग ये देशविरट के ग्यारह स्थान हैं जिन्हें धारण करते हैं और वे श्रावक होते हैं।
मधु, माँस, मद्य, जुआ, वेश्यादि स्वप्न इन व्यसनों के त्यागी, पाँच अणुव्रतों से और सात शीलों से उत्तम उत्पन्न श्रावक होते हैं।
जो श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका इन व्रतों को धारण करते हैं, वे भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और सौधर्म-ईशान स्वर्ग की देवियों का व्यतिक्रम करके अन्य महर्द्धिक देवों में उत्पन्न होते हैं।
वे क्या हैं ? सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत, लान्तव, कपिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, अनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये सभी कल्पों में उत्पन्न होते हैं।
वहाँ देदीप्यमान देह के धारक महर्द्धिक देव होते हैं।
वे उत्कृष्ट से दो तीन भवों को ग्रहण करते हैं। जघन्य से सात-आठ भव ग्रहण करते हैं। ”
इस प्रकार से श्री ।” गौतमस्वामी की साक्षात् वाणी में मुनि के महाव्रत आदि को तथा गृहस्थ में मधु, माँस, मद्य त्याग से लेकर अंतिम सुलक्षणा तक को धर्म कहा गया है और मोक्ष के लिए कहा गया है। पुन: जीवदया, दान, पूजा आदि को धर्म न मानना घोर अपराध ही है।
श्री गौतमस्वामी ने मुनियों के प्रतिक्रमण क्रिया के विषय में तो कितना जोर दिया है-
यह द्रव्य-भावरूप प्रतिक्रमण विधि संयम और तप में आरूढ़ निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए सर्व तीर्थंकरों ने कही है, न कि केवल वर्धमान स्वामी ने ही।
ध्यान दें इस चरित्र के अंतर्गत ही है
पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का वर्णन करते हुए अंत में श्री गौतमस्वामी ने मुनियों के ध्यान के विषय में कहा है-
जगदन्तर्वर्ती सभी प्राणी सार भक्ती हैं। हे गौतम! उन सभी में सार ध्यान है क्योंकि ‘सारंध्यानं’ इस नाम से सभी सर्वज्ञों ने कहा है। श्रावक के लिए भक्तिमार्ग प्रमुख है
और स्वयं श्री गौतमस्वामी ने श्रावकों की तीसरी प्रतिमा सामायिक के लक्षण करते हुए भक्ति की प्रेरणा दी है-
जिनवचन, जिनधर्म, जिनचैत्य, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु और जिनालय इन नवों की जो नित्य ही त्रिकाल वंदना करता है; यह सामायिक नाम का व्रत होता है।
यहाँ यह भी कहा गया है कि श्री गौतमस्वामी ने श्रावक की तीसरी प्रतिमा में आत्मध्यान करने का आदेश दिया है, जिसमें पंचपरमेष्ठी, जिनधर्म, जिनवाणी, जिनचैत्य और चैत्यालय शामिल हैं। इससे यह बात सर्वथा स्पष्ट हो जाती है कि श्रावक को आत्मध्यान देना असंभव है, वह पंचपरमेष्ठी आदि के अवलम्बनरूप भक्ति, वंदना को ही करता है।
स्वामी सामंतीभद्राचार्य ने भी सामायिक व्रत में अश्रद्धा, शुभ रूप से संसार के चिंतवन का उपदेश दिया है२ तथा सामायिक प्रतिमा में विधिवत कृतिकर्मनिष्ठ चैत्यभक्ति आदि करने का संकेत दिया है। यथा-
बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह की चिंता से रहित होकर, वह श्रावक चार बार तीन-तीन आवर्त और चार प्रणाम करता है। प्रारंभ और अंत में पवित्र प्रणाम करता है, त्रियोग से शुद्ध हुआ तीनों जन्मों में देववंदना करता है।
यह देववंदना की विधि क्रियाकलाप में वर्णित है।
शंख- इस व्यवहार चरित्र का आश्रय अभव्य भी लेते हैं क्योंकि हेय है ?
कहा भी गया है- ‘ ‘पराश्रितव्यवहारण्यस्यैकांथेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्या-श्रीयामाणत्वाच्च१।’ पराश्रित व्यवहार का आश्रय तो एकान्तत: कभी मुक्त न होने वाला अभव्य भी करता है।
समाधान- पहली बात तो यह है कि यह व्यवहारिक चरित्र निश्चित चरित्र के लिए कारण है जैसे कि बहुत बार बताया जा चुका है। फिर भी ऐसा होने पर नियम से निश्चितचारित्र हो ही जावे ऐसी व्यापकता नहीं है क्योंकि यदि निश्चितचारित्र होगा तो इस व्यवहार के बिना कभी नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि इस व्यवहारचरित्र के बल से ही अंतिम क्षण तक जाना संभव नहीं है। तीसरी बात यह भी है कि अव्यक्त का वह व्यवहारचरित्र वास्तविक न होकर व्यवहाराभास या सांव्यवहरिक भी माना जा सकता है जैसा कि कहा गया है-
जिस प्रकार की सूची द्वारा प्राप्त कांतिहीन मणि डोरे की सहायता से कांतियुक्त मणियों में प्रवेश करके उनकी संगति से सच्ची मणि के समान आनंददायी है, उसी प्रकार श्रद्धान से ही मनुष्य भी सम्यग्दृष्टियों के मध्य सांव्यवहरिक प्रभावों को सम्यग्दृष्टि सदृश आनंददायी है। ऐसे ही चरित्र के विषय में भी कमी होनी चाहिए। चौथी बात यह है कि अभव्य को मुनि अवस्था में ग्यारह अंग तक ज्ञान हो जाता है।
यथा- ”ज्ञानमश्रद्धाञ्चाचाराद्येकादशाङ्गं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्यान-गुणाभावान्न ज्ञानीस्यात्। ”तीन ज्ञान का स्मरण न करने वाला अभव्य आचारांग आदि को लेकर ग्यारह अंगरूप श्रुत को पढ़ा हुआ भी शास्त्र पढ़ने के फल के अभाव से ज्ञानी नहीं होता।” इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ग्यारह अंग के ज्ञानी मुनि यदि अभव्य या मिथ्यादृष्टि हैं तो क्या वे समयसार आदि अध्यात्म ज्ञान से शून्य हैं ? नहीं, अत: ज्ञान होना अलग बात है और श्रद्धान होना अलग ही बात है। उन मुनि के रूप में मिथ्यात्व रहता है वह केवलगम्य ही है।
निष्कर्ष यह है कि व्यवहारचरित्र हेय नहीं है। हाँ! ध्यान में लीन होने पर स्वयंमेव छूट जाता है, इस दृष्टि से कथंचित् हेय है, छठे गुणस्थान तक तो उपादेय ही है क्योंकि इसका बिना निश्चित चरितार्थ नहीं हो सकता।
शंख -वीतराग चरित्र ही उपादेय है क्योंकि वह साक्षात् मोक्ष का कारण है ?
समाधान- ऐसा भी एकांत पकड़ता नहीं। यदि कोई मुनि उपशम श्रेणी में आरोहण करता है, तो उसके अध्यात्म दृष्टि से ८,९,१०वें गुणस्थान में भी वीतराग चरित्र है और सिद्धांत की दृष्टि से ग्यारहवें में तो पूर्ण रूप से यथाख्यात नामक वीतराग चरित्र हो गया है, फिर भी वह मुनि नियम से नीचे गिरता ही है। पुन: वह मुनि ऊपर उसी भव से मोक्ष जावे यह भी नियम नहीं है। यथा-
शंख -आठ मध्यम क्षयरोग का जघन्य प्रदेश में संक्रमण किस प्रकार होता है?
समाधान- जो जीव एकेन्द्रियों के योग्य जघन्य सत्कर्म के साथ त्रसों में आया। वहाँ पर संयमसंयम और संयम को बहुत बार प्राप्त किया गया। चार बार कषायों का उपशमन करके तदनन्तर एकेन्द्रियों में गया। वहाँ पर अधिकांश समय उपशामक काल में बद्ध निर्मित समयप्रबद्ध होते हैं, तथा अनेक युगों तक एकेन्द्रियों में रहते हैं। तदनन्तर त्रसों में आया और सर्व लघुकाल से संयम को प्राप्त हुआ। पुन: कषायों की कषापना के लिए उद्यत हुआ। ऐसे जीव के अध:प्रवृत्तीकरण के चरम समय में आठों मध्यम कषायों का जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है। १
इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्त्व सहित संयमासंयम और संयम को बहुत बार प्राप्त किया जा सकता है तथा उपशम श्रेणी पर चार बार चढ़ाया जा सकता है। पर वित्रागी शुद्धोपयोगी हो सकते हैं। फिर कदाचित एकलौतों में जाकर अनेक वर्षों तक पुन: भ्रमण किया जा सकता है।
क्योंकि यह वीतराग चरित्र या शुद्धोपयोग कथंचित् मोक्ष का कारण है कथंचित् भी नहीं रह रहा है। हाँ, जो मुनि क्षपक श्रेणी में आरोहण करते हैं वे नियम से घातिया कर्मों का क्षय करते ही हैं। क्योंकि उपशमश्रेणी वालों के लिए यह शुद्धोपयोग यद्यपि मोहनीय के उपशम करने रूप कार्य के कारण है, फिर भी घातिया कर्म के नाश के कारण नहीं है, क्योंकि घात श्रेणी का शुद्धोपयोग घातिया कर्म के नाश के कारण भी है।
इसी प्रकार से तीर्थंकर प्रकृति का बंधन अधिक से अधिक नियम से तृतीय भव में मोक्ष प्राप्ति ही किया जाएगा। अत: तीर्थंकररूप पुण्य प्रकृति भी मोक्ष का कारण ही है तथा क्षायिक सम्यक्त्व भी चतुर्थ भव का उल्लंघन नहीं कर सकता, क्योंकि यह भी महात्त्वशाली है।
तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री भट्टकलंकदेव ने गुप्ति आदि को संवर के लिए ‘करण’ कहा है। यथा-
संवर करने वाले मुनि के संवरक्रिया की साधकतम विवक्षा में गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीक्षाहजय ये करण भावरूप हैं ऐसा जानना चाहिए।
नाम इन गुप्ति आदि के होने पर नियम से संवर होता ही है।
यहाँ पर अभिप्राय यही स्वतंत्र है कि व्यवहार नयाश्रित रत्नत्रय साधन है और निश्चित नयाश्रित रत्नत्रय साध्य है तथा व्यवहार के बिना वह नहीं होता है: वर्तमान में व्यवहार रत्नत्रय उपादेय ही है और उसके आश्रय लेने वाले मुनिगण सर्वदा वंद्य हैं: चरित्र की सार्थकता स्पष्ट है ।
(इस प्रकार व्यवहारनय-निश्चयों को कहने वाला यह चतुर्थ परिच्छेद पूर्ण हुआ।)