लगभग २६ वर्ष पूर्व नाथवंशीय राजा सिद्धार्थ बिहार प्रदेश के कुंडलपुर राज्य में रहते थे, उनकी रानी का नाम त्रिशला (प्रियकारिणी) था। कुंडलपुर में अवस्थित नंद्यावर्त महल उनका निवास स्थान था। यह ७ मंजिला महल अत्यन्त रमणीक था। सिद्धार्थ के पिता का नाम राजा सर्वार्थ एवं माता का नाम श्रीमती था।
एक बार महारानी त्रिशला ने रात्रि में क्रम से सोलह स्वप्न देखे—ऐरावत हाथी, उत्तम बैल, सिंह, हाथों द्वारा अभिषेक प्राप्त हुई लक्ष्मी, दो मालाएँ, चंद्रमा, उगता हुआ सूर्य, चंद्रमा का युगल, जल से भरे दो कलश, कमलों से युक्त सरोवर, समुद्र, सिंहासन, स्वर्ग से आया हुआ विमान, नागेन्द्र भवन, रत्नों की राशि और बिना धुँओं की अग्नि। प्रात:काल महाराज सिद्धार्थ से स्वप्नों का फल स्वरूप पर उन्होंने अत्यन्त हर्षपूर्वक महारानी को बताया कि हे देवी ! आप महान सौभाग्यशाली हैं क्योंकि आपके गर्भ में तीर्थंकर प्रभु का जीव अवतार हुआ है। यह सुनकर महारानी प्रियकारिणी को अपार हर्ष हुआ।
नव माह और सात दिन के बाद चैत्र शुक्ल तेरस की रात्रि में रानी त्रिशला ने सूर्य से भी अधिक तपस्वी होकर तीन लोक के नाथ तीर्थंकर शिशु को जन्म दिया। तीर्थंकर भगवान के जन्म को जानकर सौधर्म इन्द्र अपने समस्तदेव परिवार के साथ कुंडलपुर आये, पुन: ऐरावत हाथी पर जिनशिशु को सुमेरु पर्वत पर ले गए। वहाँ इंद्र ने जन्माभिषेकपूर्वक भगवान का जन्मकल्याणक महोत्सव सम्पन्न किया तथा उनके ‘वीर’ और ‘वर्धमान’ दो नाम रखे, जिसके कारण कुंडलपुर में राजा सिद्धार्थ, रानी त्रिशला और कुंडलपुरवासियों के मध्य देवों द्वारा भगवान का जन्मकल्याण महोत्सव महान हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाया गया। ।
एक बार नंद्यावर्त महल में शिशु वर्धमान बरे में झूल रहे थे। तभी संजय और विजय नाम के दो चरणऋद्धिधारी मुनि वहाँ पधारे। जिनशिशु को देखने मात्र से ही उनके मन में स्थित सूक्ष्म शंख का तत्क्षण ही समाधान हो गया, अत: उन्होंने महान प्रसन्नता से भगवान का नाम ‘सन्मति’ रखा।
शिशु वर्धमान इन्द्र द्वारा अंगूठे में रखकर अमृत को चूसते हुए चंद्रमा की कलाओं के समान बढ़ने लगे और धीरे-धीरे घुटने के बल चल कर अपनी तोतली बोली एवं बालचेष्टाओं से परिवार को खूब आनंदित करने लगे।
एक दिन बालक वर्धमान अपने बहुत से देव मित्रों के साथ नंद्यावर्त महल के उद्यान में खेल रहे थे। तभी उनकी बहादुरी की परीक्षा लेने हेतु स्वर्ग से संगम के नाम पर एक देव विशाल सर्प का रूप धारण कर वहां आया। सभी बच्चे डरकर इधर-उधर चले गए लेकिन बालक वर्धमान इंकित् भी नहीं मानते। महान वीरता का परिचय देते हुए वह उस सांप के पंखे पर माँ की गोदी की भाँति खेलने लगे। तब संगम देव ने अपना वास्तविक रूप प्रगट कर दिया और वर्धमान के बल एवं धैर्य की प्रशंसा करते हुए उनका नाम ‘महावीर’ रखा।
धीरे-धीरे महावीर बड़े होने लगे। उनके लिए सदैव स्वर्ग से ही भोजन, वस्त्र एवं आभूषण आदि आते थे। उन्होंने कभी भी अपने घर का भोजन नहीं किया क्योंकि सभी तीर्थंकरों के लिए यही नियम है कि वे स्वर्ग का दिव्य भोजन ही करते हैं।
एक दिन महारानी त्रिशला ने उनसे विवाह करने के लिए कहा, किन्तु युवराज महावीर ने विवाह न करके जैनेश्वरी देवताओं द्वारा मुक्ति दिलाई, जिससे माता त्रिशला बहुत दु:खी हुईं तथा महावीर ने उनसे विवाह करने के लिए कहा। समझा—बुझा कर शांत किया और देवताओं द्वारा पालकी में कृपाण लेने हेतु वन में चले गए।
30 वर्ष की अवस्था में भगवान ने मगशिर कृष्ण दशमी को कुंडलपुर के निकट मनोहरवन में वर्षवृक्ष के नीचे पंचमुष्टि केशलोंच द्वारा जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। देवों ने भगवान का देवताकल्याणक महोत्सव मनाया। दो दिन का योग धारण करके महामुनि महावीर अविचलित हो गए।
इन्द्र ने अपने पवित्र केशों को ले जाकर क्षीरसागर में विसर्जित कर दिया और प्रतिदिन अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वे इंकररूप में भगवान की सेवा में सदा तत्पर रहने लगे।
भगवान के दो दिन पश्चात् भगवान प्रथम को प्राप्त हुए। कूल ग्राम के राजा कूल (अपरनाम वकुल) के यहां उनका पहला पड़गाहन हुआ। महामुनि को अत्यन्त प्रफुल्लित भाव से राजा एवं रानी ने खीर का आहार प्रदान किया। भगवान ने महामुनि महावीर के इस प्रथम आहार को आकाश से रत्न, पुष्प आदि पंचाश्चर्य की वृष्टि की।
पुन: महावीर स्वामी मौनपूर्वक विचार करते हुए सभी जैन मुनि की चर्या से परिचित कराने लगे। दिगम्बर जैन परम्परा के तीर्थंकर भगवान दीक्षा के बाद मौन ही रहते हैं, पुन: केवलज्ञान होने पर ही उनकी दिव्यध्वनि खिरती है।
दीक्षार्थी के बाद विहार करते हुए एक बार भगवान कौशाम्बी नगरी में पधारे जहाँ महारानी त्रिशला (महावीर की माता) की सबसे छोटी बहन महासती चंदना को एक सेठानी सुभद्रा ने सिर मुंडवा कर बेसिस में जकड़कर रखा था। महामुनि को देखकर चंदना के मन में उन्हें आहार देने की उत्कट अभिलाषा जागृत हो गई। महावीर के पहाड़ते ही चंदना की सभी बेड़ियाँ टूट गईं, सिर पर सुन्दर केश आ गया और शरीर पर सुन्दर वस्त्र – आभूषणों से अलंकृत हो गया, मिट्टी का सकोरा सोने का पात्र बन गया और कोड़ों का भात मीठे खीर के रूप में बदल गया। चंदना ने अत्यन्त भक्तिभाव से महामुनि को आहारदान दिया, पुन: स्वर्ग से पंचाश्चर्यों की वृष्टि होने लगी।
उसके बाद चंदना का अपने माता-पिता एवं परिवार के साथ मिलन हुआ।
एक बार महामुनि महावीर उज्जयिनी नगरी के श्मशान घाट (अतिमुक्तक वन) में ध्यान लगाए थे। तभी एक रुद्र वहां आये और उन पर भयंकर उपासर्ग करने लगा, परन्तु धीर—वीर महामुनि अपने ध्यान से यन्चित् भी निर्मित नहीं हुए। उनके इस साहस और धैर्य को देखकर रुद्र अत्यन्त प्रभावित हुआ और अनेक प्रकार से उनकी पूजा करके उन्हें ‘महति महावीर’ नाम प्रदान किया गया। व्यवहार में महावीर का यह नाम ‘अतिवीर’ के नाम से प्रचलित है।
इस प्रकार भगवान महावीर के वीर, वर्धमान, सन्मति, महावीर और अतिवीर ये पाँच नाम प्रसिद्ध हुए हैं।
महावीर को तपस्या करते हुए लगभग १२ वर्ष बीत गए। एक दिन वह बिहार प्रांत में (कुंडलपुर के पास) जृम्भिका गाँव के निकट ऋजुकूला नदी के तट पर गहरे ध्यान में लीन थे। ध्यान की परमविशुद्धि से उन्होंने चारों घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। यह वैशाख शुक्ला दशमी का दिन था जब महावीर अरिहंत परमेष्ठी बन गए।
इन्द्र ने तत्क्षण ही कुबेर को समवसरण बनाने की आज्ञा दी। भगवान की दिव्य प्रवचनसभा ‘संवसरण’ कहलाती है, जिसके बारह सभाओं में सुन्दर मनुष्य, देवता, पशु—पक्षी आदि सभी भगवान की ऊँकारमयी दिव्यध्वनि का पान करते हैं। यह समवसरण पृथ्वी से २०,००० (बीस हजार) हाथ ऊपर अधर आकाश में रहता है।
भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुए १६ दिन बीत गये परन्तु उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी। सौधर्म इन्द्र ने विचार किया कि गणधर का अभाव ही इसका कारण है। इन्द्र ब्राह्मण का वेश धरकर ब्राह्मण गाँव के इन्द्रभूति गौतम नामक प्रकाण्ड ज्ञानी ब्राह्मण के पास उनके आश्रम में आये एवं युक्तिपूर्वक उनसे कुछ प्रश्न पूछे, गौतम उन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाये: बोले कि मैं इस विषय में बात न करके आपके गुरु महावीर के निकट ही वाद—विवाद जायेंगे। इस प्रकार इन्द्र उन्हें भगवान महावीर के समवसरण में ले आये।
जैसे ही इन्द्रभूति ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर स्थित भगवान के समवसरण में पहुंचे, उनका सारा मान भंग हो गया और वह तुरन्त जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर महावीर के प्रथम गणधर बन गए। उसी समय केवल ज्ञान होने के 6 दिन बाद श्रावण कृष्ण एकम के दिन भगवान महावीर की प्रथम दिव्यध्वनि खरी और तब से ही यह दिन ‘वीरशासन जयंती दिवस’ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। भगवान की दिव्यध्वनि ७१८ अवशेषों में ग्रहण की गई थी, जिससे प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भाषा में भगवान की देशना ग्रहण कर लेते थे। इन्द्रभूति गौतम गणधर ने भगवान की दिव्यध्वनि को द्वादशांगरूप में निबद्ध किया।
राजगृही नगरी की एक घटना है कि एक बार एक बच्चा अपने मुख में कमल की पंखुड़ी दबाकर अत्यन्त भक्तिभाव से विराजमान भगवान महावीर के दर्शन करने के लिए विपुलाचल पर्वत की ओर जा रहा था। मार्ग में वह राजा श्रेणिक के हाथी के पांव के नीचे दबकर मर गया। भगवान की भक्ति के प्रभाव से वह तत्क्षण ही स्वर्ग में चले गए।
राजा श्रेणिक के अंत से पूर्व ही समवसरण में प्रवेशकर मुकुट में मेंढक के प्रतीक से युक्त वह देव भक्ति में अत्यन्त तन्मय नृत्य करने लगा। उसे ऐसी भक्ति करते देखकर राजा श्रेणिक ने भगवान महावीर से उसके बारे में पूछा, तब गौतम गणधर ने बताया कि राजन् ! एक बच्चा अभी—अभी आपके हाथी के पग तले दबा कर आया है और भक्ति के प्रभाव से देवता निर्मित यह यहाँ आया है, जिनभक्ति की इस महिमा को जानकर सभी लोग अतियन्त प्रभावित हुए।
एक दिन महासती चंदना अपनी माता-पिता के साथ राजगृही नगरी में भगवान महावीर के समवसरण में आईं और उत्कट वैराग्य से उन्होंने प्रथम आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। अनन्तर उन्होंने गणिनीपद को प्राप्त किया और भगवान महावीर के समवसरण की छत्तीस हजार आर्यिकाओं में प्रमुख हो गए।
भगवान महावीर के समवसरण में श्री इन्द्रभूति आदि ११ गांधर, १४००० मुनिराज, चंदना आदि ३०० आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। भगवान के शासन्यक्ष मातंगदेव एवं शासन्यक्षी सिद्धायिनी देवी हैं।
मगध के सम्राट राजा श्रेणिक पूर्व में बौद्ध धर्म के अनुयायी थे परन्तु अपनी पत्नी चेलना (महावीर कागृहस्थ की मौसी) के बार-बार निर्माण पर वह जैनधर्म की ओर आकृष्ट हुए और धीरे-धीरे जैनधर्म के शाश्वत एवं सर्वोदयी सिद्धान्तों को जानकर भगवान महावीर के कट्टर थे। प्राप्त हो गये। वह भगवान के समवसरण में जाकर उनकी प्रति अपार भक्ति करते थे।
सम्वसरण के मुख्य श्रोता के रूप में श्रेणिक ने भगवान से साथ हजार प्रश्न किये। इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान की दिव्यध्वनि के आधार पर ही आज का उपलब्ध श्रुतज्ञान निबद्ध हुआ है।
जिनेन्द्रभक्ति का माहात्म्य राजा श्रेणिक के जीवन से भली प्रकार समझा जा सकता है। पूर्व में जैनधर्म और जैन साधुओं के प्रति विद्वेषभाव रखकर एक बार श्रेणिक ने एक मरा हुआ सर्प ध्यान करते हुए महामुनिराज के गले में डाल दिया और उसी समय इस दुष्कृत्य के प्रभाव से ३३ सागर की सातवें नरक की आयु का बंध कर लिया परन्तु बाद में मुनिराज की क्षमाशीलता को देखकर उन्हें अत्यन्त पश्चाताप हुआ।
भगवान महावीर के समवसरण में दिगम्बर साधुओं और सच्चे मोक्षमार्ग की महानता को जानकर उन्होंने स्वयं को भगवान के चरण कमलों में समर्पित कर दिया, इस भक्ति के प्रभाव से उनकी सातवें नरक की ३३ सागर की आयु घटकर प्रथम नरक की (मध्यम आयु) ८४ हजार वर्ष की रह गई। इतना ही नहीं सोलहकारण भावनाओं को भाकर उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया और आने वाली भविष्यतकाल की चौबीसी में वह ‘महापद्म’ नाम के प्रथम तीर्थंकर होंगे।
The great effect of JINBHAKTI (Devotion to Jinendra Bhagwan) can be understood well by the life of Shrenik. Previously with malicious feelings towards Jain Dharma & Jain Sadhus (munis), once Shrenik dropped a dead snake around the neck of a meditating Jain Mahamuni and at the same moment he became destined to go the seventh hell for 33 Sagars (infinitely large time unit), although later Shrenik developed the feeling of repentance seeing the forgiving nature of Mahamuni.
Gradually Shrenik understood the greatness of Digamber Sadhus and the real path of Salvation (Moksha) in the Samavsaran of Bhahwan Mahavira. He humbly dedicated himself in the lotus feet of the Lord and due to his pure inner devotion to Him, he reduced his Narakayu (lifetime at hell) of 33 Sagars of the 7th hell to 84,000 years of the 1st hell. Not only this, he bounded Tirthankar Prakriti by following Solahkaran Bhavnas in the feet of Mahavira and now he will become the first Tirthankar named Mahapadma in the coming Chaubeesi (tradition of 24 Tirthankars) of the next age (Yug) after completing the lifetime of 84,000 years of the 1st hell.
भगवान महावीर ने ३० वर्षों तक सम्पूर्ण आर्यखण्ड में असंख्य जीवों को धर्म का उपदेश प्रदान किया। ७२ वर्ष की आयु में वह एक बार (अन्त समय में) पावापुरी पधारे और वहाँ स्थित कमल सरोवर के मध्य में विशाल रत्नमयी शिला पर खड्गासन मुद्रा में विराजमान हो गये। अब तक समवसरण विघटित हो चुका था। विशुद्ध ध्यान की अवस्था में उन्होंने शेष चार अघातिया कर्मों का भी नाश कर दिया और कार्तिक कृष्णा अमावस्या की प्रात:काल वह सिद्धपरमेष्ठी बन पावापुरी सरोवर के ठीक ऊपर सिद्धशिला पर जाकर विराजमान हो गये। संसार परिभ्रमण का नाश कर वह सिद्धभगवान अब अनन्तकाल तक मोक्ष में विराजमान रहेंगे।
Lord Mahavira preached for 30 years all over the Aryakhand in the form of Arihant Permeshthi. His age had become about 72 years. Once He came to Pawapuri and got seated on a great gem-rock in the middle of the Pond, with abundant lotus flowers. The Samavsaran had been diminished till then.
Bhahwan was immersed into deep meditation and He destroyed His remaining 4 Aghati Karmas to become Siddha Parmatma on the dawn of Kartik Krishna Amavasya. As all the eight Karmas had been destroyed, the soul became completely pure and at once proceeded up to the Siddhashila just above the Pawapuri pond. Now the Siddha soul of Lord Mahavira will ramain consecrated at Moksha (Siddhashila) for infinite times to come being liberated from the worldly transmigration (cycle of death & birth).
असंख्य देवों के साथ सौधर्म इन्द्र भगवान का मोक्षकल्याणक मनाने पधारे और भगवान के दिव्य शरीर की विधिपूर्वक पूजा की, अग्निकुमार देव के मुकुट से उत्पन्न अग्नि से शरीर का संस्कार सम्पन्न हुआ। निर्वाणकल्याणक पूजा करके इन्द्र ने अपने वङ्कारत्न से भगवान के निर्वाण स्थान पर उनके चरणचिन्हों को अंकित कर दिया जो आज भी पावापुरी (नालंदा) स्थित जलमंदिर में विराजमान हैं।
सायंकाल गौतम गणधर ने केवलज्ञान प्राप्त किया और इस अवसर पर देवताओं द्वारा असंख्य दीपक प्रज्वलित किए गए। उसी समय से दीपावली का पर्व प्रारम्भ हुआ। आज भी हजारों श्रद्धालुओं द्वारा कार्तिक कृष्णा अमावस्या की प्रात:काल जलमंदिर में एवं देश—विदेश के स्थानीय मंदिरों में निर्वाणलाडू चढ़ाया जाता है और सायंकाल गौतमगणधर, केवलज्ञान महालक्ष्मी और सरस्वती की पूजा करने के उपरांत हजारों दीपक जलाये जाते हैं। भगवान महावीर के मोक्षगमन का प्रतीक दीपावली पर्व जैनधर्म के अनुसार अत्यन्त पवित्र दिवस है, जिस दिन शराब पीना, जुआ खेलना, पटाखे जलाना इत्यादि पूर्णतया निषिद्ध है।