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अथ स्तवन
August 2, 2024
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jambudweep
अथ स्तवन
-शंभु-छंद-
ॐकार ज्ञानमय ह्रीं मध्य, राजे जो जिनवर उन्हें नमूँ।
त्रसस्थावर करुणाधारी,जो एक अनेक मय उन्हें नमूूँ।।
लक्ष्मीभर्ता चक्रीपति हैं, जो शांतिरूप मैं उन्हें नमूँ।
जो ज्ञानगर्भ में रहते हैं, नानाभाषात्मक उन्हें नमूँ।।१।।
वाञ्छाविहीन जो स्वयं, पवित्रात्मा कहलाते उन्हें नमूँ।
सब अष्ट कर्म को शांत किया, औ तीर्थ चलाया उन्हें नमूँ।।
कल्पनारहित सौंदर्यवान्, रामाविरहित मैं उन्हें नमूँ।
यति के चारित में दक्ष सदा, सर्वात्म स्वात्म मय उन्हें नमूँ।।२।।
जो रत्नत्रय से युक्त ज्ञान से, व्याप्त रूप हैं उन्हें नमूँ।
परभव में सर्व सौख्यदाता, करुणा के धाता उन्हें नमूँ।।
जिनके वच विश्व हितंकर हैं, उन शांतिनाथ को नित्य नमूँ।
संपूर्ण विषों के अपहर्ता, कुरुवंशशिरोमणि उन्हें नमूँ।।३।।
ऋषियों का मन हर्षित करते, कुल क्रमधर कुलकर उन्हें नमूँ।
अद्भुतसुरूपधर ‘‘ह्रीं’’ बीज के, वासी उनको नित्य नमूँ।।
मेरूपर्वत समधीर नाथ!, मुझ विघ्न विनाशक तुम्हें नमूँ।
स्वामी संज्ञा से नित शोभित, भयहर्ता तुमको नमूँ नमूँ।।४।।
दोहा-शांत्यष्टक यह कण्ठ में, धारे हार समान।
उनके घर संपत्ति नित, विपति कदापि न जान।।५।।
इति प्रथम वलयाष्टकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
स्ववर्गोपगतां पीडां क्षराग्निं विंदु षट्स्वरं।
हं बीजेन प्रहूः स्वघ्नं शांतिनाथं महाम्यहं।।१।।
-नरेन्द्र छंद-
‘हं’ आदिक बीजाक्षर माने, षट्स्वर विंदु समन्वित।
तरु अशोक सत् प्रातिहार्य युत, अतिशय गुण से मंडित।।
इनसे युत श्री शांतिनाथ को, पूजूँ मन वच तन से।
सर्व उपद्रव शांत करो मुझ, मिले सर्वसुख जिससे।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय अशोकतरुसत्प्रातिहार्यमण्डिताय अशोकतरुशोभन-पदप्रदाय र्ह्म्ल्व्य्रूं बीजाय सर्वोपद्रवशांतिकराय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्निं विंदु षट्स्वरं।
भं बीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शांतिनाथं महाम्यहं।।२।।
भं आदिक बीजाक्षर माने, षट्स्वर विंदु समन्वित।
सुरकृत पुष्पवृष्टि अतिशययुत, प्रातिहार्य से मंडित।।
इनसे युत श्रीशांतिनाथ को, पूजूँ मन वच तन से।
सर्व उपद्रव शांत करो मुझ, मिले सर्वसुख जिससे।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय सुरपुष्पवृष्टिसत्प्रातिहार्यमंडिताय सुरपुष्पवृष्टिशोभन-पदप्रदाय र्भ्म्ल्व्य्रूं बीजाय सर्वोपद्रव शांतिकराय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्निं विंदु षट्स्वरं।
मं बीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शांतिनाथं महाम्यहं।।३।।
मं आदिक बीजाक्षर माने, षट्स्वर विंदु समन्वित।
दिव्यध्वनि सत्प्रातिहार्य है, इस अतिशय से मंडित।।
इनसे युत श्री शांतिनाथ को, पूजूं मन वच तन से।
सर्व उपद्रव शांख्त करो मुझ, मिले सर्वसुख जिससे।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय दिव्यध्वनिसत्प्रातिहार्यमंडिताय दिव्यध्वनिशोभन-पदप्रदाय र्म्म्ल्व्यूं बीजाय सर्वोपद्रवशांतिकराय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववर्गोपगतां पीड़ां, क्षराग्निं विंदु षट्स्वरं।
रं बीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शांतिनाथं महाम्यहं।।४।।
रं आदिक बीजाक्षर माने, षट्स्वर विंदु समन्वित।
चामर प्रातिहार्य औ अतिशय, गुण समूह से मंडित।।
इनसे युत श्री शांतिनाथ को……।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय चामरोज्ज्वल सत्प्रातिहार्यमंडिताय चामरोज्ज्वल शोभन-पदप्रदाय र्र्म्ल्व्यूं बीजाय सर्वोपद्रवशांतिकराय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्न् विंदु षट्स्वरं।
घं बीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शांतिनाथं महाम्यहं।।५।।
घं आदिक बीजाक्षर माने, षट्स्वर विंदु समन्वित।
सिंहासन सत्प्रातिहार्य युत, अतिशय गुण से मंडित।।
इनसे युत श्रीशांतिनाथ को……।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय सिंहासनसत्प्रातिहार्यमंडिताय सिंहासनप्रातिहार्य शोभन-पदप्रदाय घ्म्ल्व्यर्ू्रं बीजाय सर्वोपद्रव शांतिकराय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्निं विंदु षट्स्वरं।
झं बीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शांतिनाथं महाम्यहं।।६।।
झं आदिक बीजाक्षर माने, षट्स्वर विंदु समन्वित।
भामंडल सत् प्रातिहार्य युत, अतिशय गुण से मंडित।।
इनसे युत श्री शांतिनाथ को…..।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय भामंडलसत्प्रातिहार्यमंडिताय भामंडलसत्प्रातिहार्यशोभन-पदप्रदाय झ्म्ल्व्य
बीजाय सर्वोपद्रवशांतिकराय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्निं विंदु षट्स्वरं।
सं बीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शांतिनाथं महाम्यहं।।७।।
सं आदिक बीजाक्षर माने, षट्स्वर विंदु समन्वित।
देवदुंदुभी प्रातिहार्य युत, अतिशय गुण से मंडित।।
इनसे युत श्रीशांतिनाथ को……।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय दुंदुभिसत्प्रातिहार्यमंडिताय दुंदुभिप्रातिहार्य शोभन-पदप्रदाय र्स्म्ल्व्य्रूं बीजाय सर्वोपद्रवशांतिकराय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववर्गोपगतां पीडां, क्षराग्निं विंदु षट्स्वरं।
खं बीजेन प्रहूः स्वघ्नं, शांतिनाथं महाम्यहं।।८।।
खं आदिक बीजाक्षर माने, षट्स्वर विंदु समन्वित।
छत्रत्रयसत्प्रातिहार्ययुत, अतिशय गुण से मंडित।।
इनसे युत श्रीशांतिनाथ को……।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय छत्रत्रयसत्प्रातिहार्यमंडिताय छत्रत्रयशोभनपदप्रदाय सर्वविघ्नहराय ख्म्ल्व्य बीजाय सर्वोपद्रवशांतिकराय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हभमरघझसखान्, बीजवर्णान् विधानतः।
प्रलयं यांतु विघ्नौघाः स्तोत्रेणार्घ्येण संयजे।।९।।
ह भ मर घ झ सख बीजवर्ण, ये विधिवत् पूजें जावें।
सर्वविघ्न निर्मूल नाश हों, भविजन सब सुख पावें।।
संस्तुति वंदन नमस्कार कर, पूरण अर्घ चढ़ावें।
शांतिनाथ पूजा प्रसाद से, सब दुःख शोक नशावें।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथाय प्रातिहार्यअष्टसहित्ााय बीजाष्टमंडनमंडिताय सर्वविघ्नशांतिकराय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलिः।
अथ द्वितीयवलयषोडशकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
-नरेन्द्र छंद-
शत इंद्रों से योगि वृंद से, वंदित पद पंकज हैं।
शाश्वत ज्ञान दरश सुख बीरज, धारी रवि अद्भुत हैं।।
शुक्लध्यान से घातिकर्म, वैरी को दग्ध किया है।
ऐसे श्रीअर्हंतदेव का, अर्चन नित्य किया है।।१।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनहेतवे भरत ऐरावत विदेहादि शतैकसप्तति क्षेत्रार्यखण्डे भूतभविष्यत्वर्तमानअर्हत्परमेष्ठिपदपंकजे सन्मतिसद्भक्ति उपेत अमलतरखण्ड उज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ कर्म को नाश, आठ उज्ज्वल सद्गुण के धारी।
दुष्टभाव दुखदाह विनाशक, मिष्ट मधुर सुखकारी।।
केवलदर्शन से अवलोकित, सब जग तुलना विरहित।
कृत्यकृत्य उन सर्व सिद्ध को, पूजूँ स्तवन करूँ नित।।२।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनहेतवे भरतऐरावत विदेह आदि शतैकसप्तति क्षेत्रआर्यखण्डे भूतभाविवर्तमानसिद्धपरमेष्ठिपदपंकजे सन्मतिसद्भक्ति उपेत अमलतरखण्ड उज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं……।
जो स्वयमेव श्रेष्ठ, पंचाचारों का पालन करते।
अनुग्रहमति से आश्रितजन को, नित पलवाते रहते।।
काम मल्लमद मर्दन करते, उज्ज्वल गुण को धरते।
शरणभूत सुखप्रद उन, सूरीगण को हम नित यजते।।३।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशहेतवे भरत ऐरावतविदेहआदि शतैकसप्तति क्षेत्रार्यखण्डे भूतभाविवर्तमानआचार्यपरमेष्ठिपदपंकजे सन्मतिसद्भक्ति उपेतामलतरखण्ड उज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह अंग व अंगबाह्य, श्रुत जलधि पार पहुँचे जो।
परवादी पर्वत के लिए, वङ्कासम वचन धरें जो।।
सादि अनादि अनंत सांत, मोक्षमार्ग उपदेशें।
गुण जलनिधि उन उपाध्याय को, आदर से नित पूजें।।४।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनहेतवे भरत ऐरावतविदेहादि शतैकसप्ततिक्षेत्रार्यखण्डे भूतभाविवर्तमानपाठकपरमेष्ठिपदपंकजे सन्मतिसद्भक्तिउपेतामलतरखंडो-ज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्ष हेतु जो धर्म शुक्ल दो, ध्यान उन्हें नित ध्याते।
पंचेन्द्रिय का रोधन करते, शांत दांत कहलाते।।
अक्षयमुक्तिरमा उनको नित, सत्कटाक्ष से देखे।
ऐसे साधु समूह उन्हें मैं, जजूँ सिद्धि सब देते।।५।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनहेतवे भरत ऐरावतविदेहादि शतैकसप्ततिक्षेत्रार्यखण्डे भूतभाविवर्तमानसर्वसाधुपरमेष्ठिपदपंकजे सन्मतिसद्भक्ति उपेतामलतरखण्डोज्झित-निदानबंधनाय कृतेज्याय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शंका आदि दोष आठ मद, आठ मूढ़ता त्रय हैं।
अनायतन छह ये सब मिलकर, दोष पच्चीस कहे हैं।।
इनसे विरहित आठ अंग युत, सम्यग्दरस जजूँ मैं।
आप्त, जिनागम, नवपदार्थ की, श्रद्धा उसे भजूँ मैं।।६।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनहेतवे शुद्धसम्यक्त्व-अमलतरखंडोज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मतिज्ञान के तीन शतक, छत्तीस भेद माने हैं।
द्वादश अंग चतुर्दश पूरब, श्रुतज्ञान जाने हैं।।
अवधि तीन विध मन पर्यय दो, केवल ज्ञान अकेला।
जलगंधादिक से पूजूँ मैं, होवे ज्ञान उजेला।।७।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनहेतवे सम्यग्ज्ञान अमलतरखंडोज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांच महाव्रत पांच समिति, त्रयगुप्ति गुणों से उज्ज्वल।
सम्यक् चारित ध्यान सिद्धि, करने वाला परमोज्ज्वल।।
‘इसके बिना मुक्ति नहीं मिलती, अतः इसे नित पूजूँ।
सम्यक् चारित्र प्राप्त मुझे हो, भव भव दुख से छूटूँं।।८।।
ॐ ह्रीं जगदापद्विनाशनहेतवे सम्यक्चारित्रामलतरखंडोज्झितनिदानबंधनाय कृतेज्याय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-रोला छंद-
ज्ञानावरणी कर्म, पञ्च प्रकृति संयुत हैं।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिनप्रभु हैं।।
जल गंधादिक लेय, उनको अर्घ चढ़ाऊँ।
पूर्णज्ञान परकाश, करके निजपद पाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं ज्ञानावरणकर्मबंधबंधनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मदर्शनावर्ण, नवप्रकृति युत जानो।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन मानो।।
जल गंधादिक लेय, उनको अर्घ चढ़ाऊँ।
पूर्ण दरस गुण पाय, करके निजपद पाऊँ।।१०।।
ॐ ह्रीं दर्शनावरणकर्मबंधबंधनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म वेदनी नाम, सात असात द्विभेदा।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन देखा।।
जल गंधादिक लेय, उनको अर्घ चढ़ाऊँ।
अव्याबाध सुसौख्य, पाकर निज पद पाऊँ।।११।।
ॐ ह्रीं वेदनीयकर्मबंधबंधनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहनी कर्म प्रचण्ड, अट्ठाइस भेदों युत।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन हैं इक।।
जल गंधादि मिलाय, उनको अर्घ चढ़ाऊँ।
समकित गुण को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१२।।
ॐ ह्रीं प्रचण्डमोहनीयकर्मबंधबंधनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रव-निवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव प्रिय आयूकर्म, चार भेद युत वर्णा।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन शर्णा।।
जल गंधादिक लेय, उनको अर्घ चढ़ाऊँ।
अवगाहन गुण पाय, नहीं पुनर्भव पाऊँ।।१३।।
ॐ ह्रीं आयुकर्मबंधबंधनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नामकर्म जग ख्यात, तिरानवे भेदों युत।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिनवर नित।।
जल गंधादिक लेय, उनको अर्घ चढ़ाऊँ।
गुण सूक्ष्मत्व सुपाय, चहुँ गति भ्रमण मिटाऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं नामकर्मबंधबंधनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गोत्र कर्म विख्यात, ऊँच नीच भेदों से।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन होते।।
जल गंधादिक लेय, उनको अर्घ चढ़ाऊँ।
अगुरुलघू गुण पाय, निजपद में रम जाऊँ।।१५।।
ॐ ह्रीं गोत्रकर्मबंधबंधनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतराय है कर्म, पांच प्रकृति को धरता।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन अर्चा।।
जल गंधादिक लेय, उनको अर्घ चढ़ाऊँ।
शक्ति अनंती पाय, शाश्वत निज सुख पाऊँ।।१६।।
ॐ ह्रीं अंतरायकर्मबंधबंधनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-गीताछन्द -पूर्णार्घ्य-
दर्शन सुज्ञान चरित्र धारक, पाँच परमेष्ठी कहे।
वे लीन स्वयं स्वभाव में, त्रैलोक्य की पूजा लहें।।
निज कर्म आठों नाश हेतु, मैं उन्हीं को पूजहूँ।
पूर्णार्घ अर्पण कर अभी, भव भव दुखों से छूटहूँ।।१७।।
ॐ ह्रीं पंचपरमेष्ठिपददायक-दर्शनज्ञानचारित्रकारककर्माष्टकवारक श्रीशांतिनाथाय षोडशांग द्वितीयवलयमध्ये पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा………..
अथ तृतीयवलयमध्ये द्वात्रिंशत्कोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
सद्भक्ति वश हो इंद्र सब, निज निज गृहों से आइये।
सब देव देवी परिकरों युत, जिनभवन में आइये।।
सम्यक्त्व दर्शन सिद्ध हेतू, पूजिये जिन नाथ को।
करिये उपासन विधि सतत, जिनधर्म वत्सल आप हो।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीद्वात्रिंशत् देवेन्द्राः आगच्छत आगच्छत, परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चालछंद-
परिवार सभी साथ ले, असुरेन्द्र आवते।
वे अष्ट द्रव्य से जजें, गुणकीर्ति गावते।।
वे शांति सद्गुणैक हेतु, पूजते सदा।
मैं पूजहूँ स्वशांति हेतु, आपको मुदा।।१।।
ॐ ह्रीं श्री असुरेन्द्रकुमारेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सभी साथ ले, धरणेंद्र आवते।
वे अष्ट द्रव्य से जजें, जिन कीर्ति गावते।।
वे शांति सद्गुणैक हेतु, अर्चते यहाँ।
हम भी जजें शांतीश को, स्वशांति हित यहाँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री धरणेंद्रकुमारेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सभी साथ ले, सुपर्ण इंद्र भी।
आते हैं अष्टद्रव्य ले, अर्चा करें सभी।।
वे शांतिसद्गुणैकहेतु, पूजते यहाँ।
मैं भी जजूँ स्वशांतिहेतु, आपको यहाँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपर्णेन्द्रकुमारेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार देव साथ ले, द्वीपेन्द्र आ रहे।
सुअष्टद्रव्य लेय, नाथ पूजते रहें।।
वे शांति सद्गुणों के लिए, अर्चते सदा।
मैं भी स्वशांति हेतु करूँ, अर्चना मुदा।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीद्वीपेन्द्रकुमारेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उदधीकुमार इन्द्र, स्वपरिवार ले सभी।
आकर के अष्टद्रव्य से, अर्चा करें सभी।।
वे शांति सद्गुणों के लिए, भक्ति नित करें।
हम भी स्वशांति हेतु नाथ! अर्चना करें।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीउदधीन्द्रकुमारेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सभी ले, स्तनित इन्द्र आवते।
जिननाथ जजें अष्टद्रव्य, दिव्य लावते।।
वे शांति सद्गुणैकहेतु, अर्चना करें।
हम भी स्वशांतिहेतु नाथ, अर्चना करें।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीस्तनितेन्द्रकुमारेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युत्कुमार इन्द्र, स्वपरिवार साथ ले।
अर्चा करें सुअष्टद्रव्य, लाय के भले।।
वे शांति सद्गुणों के लिए, पूजते सदा।
हम भी करें अर्चा, स्व शान्ति हेतु सर्वदा।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युत्कुमारेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सभी लेय, दिक्कुमार इन्द्र भी।
अर्चा करें सुअष्टद्रव्य, लेय नाथ की।।
वे शान्ति सद्गुणों के लिए, नित्य अर्चते।
हम भी स्वशान्ति हेतु नाथ, पाद चर्चते।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीदिक्कुमारेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नीकुमार इन्द्र, स्वपरिवार साथ ले।
नीरादि अष्टद्रव्य से, जिन पूजते भले।।
निज शान्ति सद्गुणों की सिद्धि हेतु अर्चते।
हम भी निजैक शान्ति हेतु, पाद वंदते।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीअग्निकुमारेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वायूकुमार इन्द्र, स्वपरिवार साथ ले।
नीरादि अष्टद्रव्य से, जिन अर्चते भले।।
निज शान्ति सद्गुणों कि प्राप्ति, हेतु अर्चना।
हम भी करें शांतीश की, पादाब्ज वंदना।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीवायुकुमारेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
किन्नर सुरों के इन्द्र, स्वपरिवार लावते।
पूजा करें नीरादि, अष्टद्रव्य लायके।।
निजशान्तिगुण के हेतु नाथ, पाद अर्चना।
मैं भी करूँ पूजा विध्ाी हो, दुःख रंचना।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीकिन्नरेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार साथ लेय, किंपुरुष के इन्द्र भी।
पूजा करें सुअष्टद्रव्य, लाय के सभी।।
निज शान्तिगुण के हेतु, शान्तिनाथ को जजें।
हम भी उन्हें पूजें सदा, परमार्थ को भजें।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीकिंपुरुषेंद्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सहित महोरग, सुरों के इन्द्र भी।
अर्चें सदैव अष्टद्रव्य, लाय के सभी।।
निज शांतिगुण के हेतु, शांतिनाथ को भजें।
हम भी उन्हें निजात्म शांति, के लिए जजें।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीमहोरगेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गंधर्व सुरों के अधिप, परिवार को लिये।
आकर के अष्टद्रव्य से, अर्चाविधी किये।।
निज शांतिगुण के हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी उन्हें पूजें निजात्म, सौख्य को भजें।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीगंधर्वेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यक्षेन्द्र देव देवियों को, साथ लावते।
वसुद्रव्य से जजें जिनेंद्र, भक्ति भाव से।।
निज शांतिगुण के हेतु, शांतिनाथ को भजें।
हम भी उन्हें पूजें, अपूर्व आत्मरस चखें।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीयक्षेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
राक्षससुरों के इंद्र, स्वपरिवार को लिये।
नीरादिद्रव्य से जिनेश, अर्चना किये।।
वे शांतिगुण के हेतु, शांतिनाथ को भजें।
हम भी जिनेंद्रपाद चर्च, शांति को भजें।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीराक्षसेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सहित भूत सुरों, के अधिप यहाँ।
पूजें जिनेंद्र पादपद्म, भक्ति से यहाँ।।
वे शांतिगुण के हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी जिनेंद्रपाद, भक्तिभाव से भजें।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीभूतेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सहित देव, पिशाचों के इंद्र भी।
सुअष्टद्रव्य लेय नाथ, पूजते सभी।।
वे शांतिगुण के हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी जिनेशपादपद्म, नित्य ही भजें।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीपिशाचेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्योतिष सुरों के इंद्र, स्वपरिवार साथ ले।
नीरादि से पूजें जिनेश, मन कुमुद खिले।।
वे शांति सद्गुणों के लिए, शांतिनाथ को।
अर्चें सदा हम भी जजें, जिननाथ आप को।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रेण स्वपरिवारसहितेनपादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सहित सूर्य इंद्र, जिनभवन आके।
नीरादि से पूजें अपूर्व, भक्ति बढ़ाके।।
वे शांति गुण के हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी प्रभू को अर्च के, निजात्म सुख भजें।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीभास्करेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सौधर्म इन्द्र साथ में, परिवार लावते।
पूजा करें नीरादि से, गुणगान गावते।।
वे शांति सौख्य हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी प्रभू को अर्च के, निजात्म सुख भजें।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीसौधर्मेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ईशान इंद्र देव देवियों, सहित यहाँ।
आकर के अष्ट द्रव्य से, अर्चा करे यहाँ।।
वे शांति सौख्य हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी प्रभू को पूजते, निजात्म रस चखें।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीईशानेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सानत्कुमार इंद्र, स्वपरिवार को लेके।
पूजन करें जलगंध आदि, द्रव्य संजोके।।
वे शांति सौख्य हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी प्रभू को अर्चते, सम्यक्त्व निधि लभें।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीसनत्कुमारेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माहेन्द्र सुरपति निजी, परिवार साथ में।
आकर के अष्टद्रव्य से, पूजन करें नमें।।
वे पूर्ण शांति हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी प्रभू को पूजते, संपूर्णसुख भजें।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमाहेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्रह्मेन्द्र देव देवियों के, साथ में आते।
पूजा करें नीरादि से, बहु पुण्य कमाते।।
वे पूर्ण शांति हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी प्रभू को अर्चते, दुःख शोक से बचें।।२५।।
ॐ ह्रीं श्रीब्रह्मेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सहित लांतवेन्द्र, भक्ति से आते।
जल आदि से पूजा करें, गुणगान भी गाते।।
वे पूर्ण शांति हेतु, शांतिनाथ को भजे।
हम भी उन्हें पूजें, अनंत दुःख से बचें।।२६।।
ॐ ह्रीं श्रीलान्तवेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परिवार सहित शुक्र इंद्र, स्वर्ग से आते।
नीरादि से पूजें अपूर्व, पुण्य बढ़ाते।।
वे पूर्ण शांति हेतु, शांतिनाथ को भजें।
हम भी प्रभू को पूजते, रोगादि से छुटें।।२७।।
ॐ ह्रीं श्रीशुक्रेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शतार इंद्र देव देवियों, के साथ में।
आके जजें जिनदेव की, पूजा करे नमें।।
वे पूर्ण शांति हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी प्रभू को पूजते, दुःख शोक से बचें।।२८।।
ॐ ह्रीं श्रीशतारेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनत सुरेंद्र देव देवियों, सहित आते।
नीरादि अष्टद्रव्य से, पूजें सुयश गाते।।
अत्यन्त शांति हेतु, शांतिनाथ को भजें।
हम भी प्रभू को पूजते, अनंत सुख भजें।।२९।।
ॐ ह्रीं श्रीआनतेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्राणत सुरेन्द्र अपना, परिवार साथ ले।
नीरादिद्रव्य से जजें, संपूर्ण सुर मिलें।।
अत्यन्त शांति हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी उन्हें पूजें, अखंड संपदा भजें।।३०।।
ॐ ह्रीं श्रीप्राणतेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरण सुरेन्द्र देव, देवियों के साथ में।
पूजें जलादि द्रव्य से, नर्तन करें नमें।।
अत्यन्त शांति हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी उन्हें अर्चें, अपूर्व शांति को भजें।।३१।।
ॐ ह्रीं श्रीआरणेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अच्युत स्वरग के सुरपती, परिवार समेता।
नीरादि द्रव्य से जजें, आनंद समेता।।
अत्यन्त शांति हेतु, शांतिनाथ को जजें।
हम भी प्रभू को अर्चते, सम्यक्त्व सुख भजें।।३२।।
ॐ ह्रीं श्रीअच्युतेन्द्रेण स्वपरिवारसहितेन पादपद्मार्चिताय जिननाथाय तथैव वरप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-पूर्णार्घ्य-
भवनवासि व्यन्तर ज्योतिष, वैमानिक सुर के सुरपति।
बत्तिस माने हैं ये सब, निज वैभव परिकर संयुत।।
इस पूजाविधि में सब आवो, अर्हत् भक्ति बढ़ावो।
प्रमुदित मन हम तुम्हें बुलावे, धर्मप्रेम दरसावो।।३३।।
ॐ ह्रीं चतुर्णिकायदेवेन्द्रपूजित श्रीशांतिनाथाय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-पूर्णार्घं-
जो जो भी सुर देवता, जहाँ जहाँ भी होय।
इस जिन उत्सव यज्ञ में, आवो हर्षित होय।।३४।।
ॐ ह्रीं सकलदेवताआराधित श्रीशांतिनाथाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा………..
अथ चतुर्थवलये चतुःषष्टिकोष्ठोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
-गीता छंद-
मन में हुए दुर्भाव उनसे, पाप बहु संचित हुए।
उनके उदय में आवते, बहु रोग मुझको दुख दिये।।
तुम पाद पूजन से सभी वे, विघ्न क्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारंबार हो।।१।।
ॐ ह्रीं मानसिकपापोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
बहु अप्रशस्त वचन उचारे, पाप बहु अर्जित किये।
वे जब उदय में आवते, बहु व्याधि मुझको दुख दिये।।
तुम पादपूजन से सभी वे, विघ्नक्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारंबार हो।।२।।
ॐ ह्रीं वाचनिकपापोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
बहु अशुभ चेष्टा काय की कर, पाप बहु संचित किये।
वे जब उदय में आवते, बहु व्याधि मुझको दुख दिये।।
तुम पाद अर्चा के किए वे, विघ्न क्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३।।
ॐ ह्रीं कायिक पापोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
नगरादि से औ राज्य या, गृह से व धन से च्युत हुए।
उसके निमित से कष्ट बहुविधि, दुःख मुझको दे रहे।।
तुम पाद पूजन से सभी वे, विघ्न क्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु, तुमको नित्य बारम्बार हो।।४।।
ॐ ह्रीं निजराजलक्ष्मीपुरराज्यगेहपदभ्रष्टोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जो पूर्व में अर्जित किये, बहु पाप उनके उदय से।
नाना तरह के विपद दारिद, कष्ट बहु देते मुझे।।
तुम पाद पूजन से सभी वे, विघ्न संकट शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।५।।
ॐ हीं दरिद्रोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
बहुविध जलोदर कुष्ट श्लेष्मा, पित्त वायू रोग हैं।
उनके हुए से वेदना, तन में उठे बहु खेद हैं।।
तुम पाद पंकज अर्चते, सब व्याधि संकट शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।६।।
ॐ ह्रीं भीमभगंदरगलितकुष्टगुल्मरक्तपित्तवातकफस्फोटकादि उपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जब इष्ट का वीयोग और, अनिष्ट का संयोग हो।
तब मानसिक बहु वेदना, होवे असह संताप हो।।
तुम पाद अर्चन से सभी दुख, शोक क्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।७।।
ॐ ह्रीं इष्टवियोगानिष्टसंयोगोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
होवे उपद्रव स्वजन का या, परजनों का भी कभी।
उसके निमित्त से शोक संकट, कष्ट देते हैं सभी।।
तुम पादपंकेरुह जजें सब, विघ्न विपदा शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।८।।
ॐ ह्रीं स्वचक्रपरचक्रोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
तीनों जगत में बहु तरह के, शस्त्र आयुध बन रहें।
बहु शत्रुगण उन शस्त्र से, बहु त्रास मुझको यदि करें।।
तुम पाद सरसिज अर्चते, सब विघ्न बाधा शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।९।।
ॐ ह्रीं विविधायुधोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जलचर मगर मच्छादि नाना, जंतु पीड़ा दें यदी।
उनके निमित्त से कष्ट होवे, प्राण भी हरते कभी।।
तुम चरण अम्बुज सेवते, सब आपदायें शान्त हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।१०।।
ॐ ह्रीं जलचरजीवदुष्टोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
वन पर्वतों के चतुष्पद गज, सिंह व्याघ्रादिक सभी।
मुझको सतायें प्राणघातक, कष्टकारी हों कभी।।
तुम पादपंकज पूजते, क्षण एक में वे शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।११।।
ॐ ह्रीं व्याघ्रसिंहगजादिवनपर्वतवासिश्वापदादि (श्वाष्टापदादि) उपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
भूपर चलें आकाश में, उड़ते पतत्री१ बहु विधे।
वे पूर्वभव के वैर से भी, कष्ट दें मुझको अबे।।
तुम पादपंकेरुह जजें वे, विघ्न संकट शांत हो।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।१२।।
ॐ ह्रीं भूचरगगनचरक्रूरजीवोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
सर्पादि के विष अन्य विष, या जो हलाहल विष कहें।
वे यदि स्वतनु में व्याप्त हों, फिर मृत्यु का भी भय रहे।।
तुम पाद अर्चन से सभी विध, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।१३।।
ॐ ह्रीं व्यालवृश्चिकादिविषदुर्द्धरोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
नख सींग पैने औ बड़े, जिनके भयंकर दिख रहें।
वे जंतु पूरब वैर से यदि, कष्ट मुझको दे रहें।।
तुम पदकमल के पूजते सब, विघ्न आपद शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हों।।१४।।
ॐ ह्रीं दुष्टजीवपदकरनखोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जिनके भयंकर दाढ़ हैं, या चोंच या कांटे घने।
उन क्रूर प्राणी के उपद्रव, कष्ट दें मुझको घने।।
तुम पदकमल के अर्चते वे, सर्व बाधा शांंत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।१५।।
ॐ ह्रीं चंचुतुंडदाढकंटकोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
अति उग्र दावानल अगनि, आकाश तक ऊँची उठे।
उसके निमित से यदि मुझे, संताप संकट हो अबे।।
तुम पदकमल के पूजते सब, विघ्न आपद् शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।१६।।
ॐ ह्रीं दावानलोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
कल्पांत काल समान वायू प्रलयकारी जब चले।
उसके निमित से काय को, बहु कष्ट पीड़ा भी मिले।।
तुम पदसरोरुह अर्चते सब, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।१७।।
ॐ ह्रीं प्रचण्डपवनोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
सागर नदी में नाव आदिक, डूबने से यदि मुझे।
तिरना नहीं आवे वहाँ औ, प्राण संकट में पँâसे।।
तुम पदसरोरुह अर्चते सब, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको नित्य बारम्बार हो।।१८।।
ॐ ह्रीं नौकास्फुटितपतनोद्भवोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
भूपर वनों में पर्वतों पर, कष्ट भयप्रद हों कभी।
उनके निमित्त से मानसिक, कायिक व्यथा होवे तभी।।
तुम पदकमल को पूजते सब, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।१९।।
ॐ ह्रीं वननगमेदिनीभयंकरोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
नदि कूप सरवर बावड़ी, ह्रद में उपद्रव हो जभी।
उस काल में तनु में भयंकर, व्याधि संकट हो सभी।।
तुम पाद पंकज पूजते सब, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२०।।
ॐ ह्रीं नदीसरोवरअब्धिकूपह्रदोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
घन घोर वर्षा हो रही, बिजली पड़े अशनी१ गिरे।
उस काल में भयभीत जन, बहु संकटों से यदि घिरें।।
तुम पाद पंकज ध्यावते, सब विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२१।।
ॐ ह्रीं विद्युत्पातादिभीमाम्बुवृfिष्टउपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
संग्राम में शत्रू निकट हो, बहुत शस्त्र प्रहार हों।
उस समय जन भयभीत कष्टों, से घिरे दुर्वार हों।।
तुम पाद पंकज अर्चते सब, विघ्न संकट शान्त हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२२।।
ॐ ह्रीं संग्रामस्थलारिनिकटोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
भूत व्यंतर शाकिनी, डाकिनि पिशाचों के किये।
उपसर्ग हों नाना तरह तब, जन व्यथित होंवे हिये।।
तुम पाद पंकज पूजते, उपसर्ग सब विध शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२३।।
ॐ ह्रीं शाकिनीडाकिनीभूतप्रेतपिशाचादिभयनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
मोहन व स्तंभन व उच्चाटन प्रयोग अनेक हैं।
ये दुष्ट विद्यायें कदाचित्, पर निमित दुःख देत हैं।।
तुम पाद पंकज पूजते सब, विघ्न बाधा शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२४।।
ॐ ह्रीं मोहनस्तम्भनोच्चाटनप्रमुखदुष्टविद्योपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
यदि दुष्ट ग्रह होवें कुपित, अति तीव्र पीड़ा दे रहें।
उस काल में दुःख से व्यथित, जन अन्य की शरणा गहें।।
तुम पाद पंकज यदि जजें, सब विघ्न बाधा शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२५।।
ॐ ह्रीं दुष्टग्रहादिउपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
मजबूत सांकल आदि से, चारों तरफ से बांध के।
पीड़ित करें यदि दुष्ट जन, तब कष्ट वैâसे सह सकें।।
तुम पाद पंकज पूजते सब, दुःख उपद्रव शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२६।।
ॐ ह्रीं शृंखलादिउपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
यदि आयु थोड़ी हो तभी, दुःख शोक होवे चित्त में।
अथवा मरण संभावना होवे, कभी भि अकाल में।।
तुम पद जजे अल्पायु औ, अपमृत्यु संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२७।।
ॐ ह्रीं अल्पमृत्युउपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
अतिवृष्टि या नहिं वृष्टि हो, दुर्भिक्ष से जन हों दुःखी।
खेती न हो नहिं जल मिले, तब कष्ट हो सबको अती।।
तुम पाद पंकज अर्चते, यह सब उपद्रव शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२८।।
ॐ ह्रीं दुर्भिक्षोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
उद्यम करें भी लाभ नहिं, अथवा न उद्यम हो सके।
व्यापार या आजीविका, वैâसे चले यह दुख बसे।।
तुम पाद पंकज अर्चते सब, विघ्न संकट शान्त हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२९।।
ॐ ह्रीं व्यापारवृद्धिरहितउपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
निज बंधु ही यदि शत्रुसम, अपकार नितप्रति कर रहे।
उसके निमित से मानसिक, बहुताप तन मन को दहे।।
तुम पाद पंकज पूजते सब, कुछ उपद्रव शान्त हो।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३०।।
ॐ ह्रीं बंधुत्वोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
भार्या न हो या पुत्र पौत्रादिक, न हों कुलदीपसम।
निंह वंश चल सकता तभी, चिंता सतावे रात दिन।।
तुम पाद पंकज पूजते ये, सब उपद्रव शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३१।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्बोपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
कुछ पूर्व संचित पाप का, जब हो उदय तब सत्य ही।
रहते हुए गुण भी कोई, अपयश उचारें व्यर्थ ही।।
तुम पाद पंकज पूजते, अपयश उपद्रव शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३२।।
ॐ ह्रीं अपकीर्तिउपद्रवनिवारकाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
-शंभु छंद-
जो अखिल विश्व का हित करने में, कुशल मुक्ति के हेतू हैं।
‘अर्हन्’ यह नाम धरे सुंदर, सोलहवें तीर्थंकर प्रभु हैं।।
जो पंचम चक्रवर्ति मानें, बारहवें कामदेव सुंदर।
ऐसे श्री शांतिनाथ जिन की मैं, पूजा करता हूँ चितधर।।३३।।
ॐ ह्रीं सम्पूर्णकल्याणमंगलप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जो सुखसमुद्र वैâवल्य बोध, युत सब जग को युगपत जानें।
चिंतित वस्तू सब देने में, चिंतामणि उत्तम जग मानें।।
तीर्थंकर चक्री कामदेव, इन तीनों पद से शोभित हैं।
उन शांतीश्वर की पूजा कर, हम मन में अतिशय प्रमुदित हैं।।३४।।
ॐ ह्रीं चिंतामणिसमानचिंतितफलप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जो अनुपम कल्पवृक्ष जग में, बिन मांगे उत्तम फल देते।
आश्रितजन के सब ताप हरें, बहुविध के उनको सुख देते।।
तीर्थंकर, चक्रवर्ति, मनसिज१, तीनों पद के धारी मानें।
हम उनकी पूजन कर करके, दुख दारिद शोक सभी हाने।।३५।।
ॐ ह्रीं कल्पवृक्षोपमकल्पितअर्थफलप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जिनका बस नाम स्मरण किये, सम्पूर्ण मनोरथ फलते हैं।
इसलिए जिन्हें विद्वान् सभी बस, ‘कामधेनु’ शुभ कहते हैं।।
तीर्थंकर पद चक्रीपद औ, मनसिज पद के पाने वाले।
उनकी हम अर्चा करते हैं, जिससे सम्यक्त्व निधी पालें।।३६।।
ॐ ह्रीं कामधेनूपमकामनापूर्णफलप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जो श्रेष्ठ महात्मा धर्म धुरा, धरते हैं धर्मधुरंधर हैं।
योगीश्वर भी जिनकी इच्छा, करने में संतत तत्पर हैं।।
तीर्थंकर चक्रवर्ति वैभव, औ सुन्दरता में कामदेव।
उन शांतिनाथ की पूजा से, फलते सब वांछित फल स्वमेव।।३७।।
ॐ ह्रीं परमोज्ज्वलधर्मध्यानबाधारहितअवद्यबोधपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
तीनों लोकों के सर्व जीव, के नेत्रों को आनन्द करें।
ऐसा सुन्दर अनुपम शरीर, जिस सम नहिं कोई देह धरें।।
जिनका प्राकृतिक रूप सुन्दर, सब जग में विस्मयकारी है।
उन शांतिनाथ को नित पूजूँ, वे सर्वोत्तम गुणधारी हैं।।३८।।
ॐ ह्रीं कामदेवस्वरूपपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जिनके तन की सौगंध एक, जिसके समान नहिं सुरभि कहीं।
नहिं चंदन में नहिं कमलों में, वैसी सुगंधि नहिं हुई कहीं।।
इंद्रादि देव जिनका संतत, स्मरण किया ही करते हैं।
उन शांति जिनेश्वर की हम भी, बहु बार अर्चना करते हैं।।३९।।
ॐ ह्री सुगन्धशरीरपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
भविजन कमलों को आल्हादित, करके पवित्र करने वाला।
भामंडल भास्करवत् सबके, भव सात दिखा देने वाला।।
त्रिभुवन के प्राणी के नेत्रों को, हर्षित बहु करने वाला।
ऐसे जिनपद को पूजूँ मैं, जिससे हो अंतर उजियाला।।४०।।
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यनाथआल्हादकारकपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
क्षीरोदधि या शशि किरणों सम, उज्ज्वल गुण अमृत पिंडसदृश।
तीनों लोकों को पूर्ण करें, जो कहें अनंतानंत अवधि।।
सुरगण मिलकर बहुभक्ति युक्त, प्रभु के गुणमणि को गाते हैं।
जो पूजा करते वे भविजन, निज की गुण संपत्ति पाते हैं।।४१।।
ॐ ह्रीं परमोज्ज्वलगुणगणसहितपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
बुद्धि में ऐसी हो विशुद्धि, जिससे सब तत्वों को जाने।
उसके प्रतिपादन करने में, सब गुरुओं के गुरु सरधाने।।
वाचस्पति को भी लज्जित कर, वृद्धिंगत बुद्धी के स्वामी।
श्री शांतिनाथ मेरी रक्षा, करिये मैं पूजूँ सुखदानी।।४२।।
ॐ ह्रीं वाचस्पतिसमानपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
नवनिधियाँ चौदह रत्न मिलें, ऐसा चक्री का पद जग में।
सुर नर खग चरणों में प्रणमें, जिन पूजा का यह फल सच में।।
जो भक्ती से जिनराज भजें, वे छह खंडाधिप होते हैं।
हम भी शांतीश्वर को पूजें, सब ईप्सित पूरे होते हैं।।४३।।
ॐ ह्रीं चक्रवर्तिपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
लक्ष्मी भी जिसके चरण कमल, की दासी बनकर रहती है।
जो सुन्दरता में रति समान, गुण से कुल भूषित करती है।।
जो जिनवर की स्तुति करते, उनको ऐसी भार्या मिलती।
हम भी शांतीश्वर को पूजें, जिससे शिवतिय भी मिल सकती।।४४।।
ॐ ह्रीं उभयकुलकमलविकासनसूर्यांशुसमाचरणप्रतिष्ठितगुणमंडित अत्यन्त-सुन्दराकृति पुत्रवन्तिगेहमण्डनपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जिन पूजन संस्तव वंदन औ, शुभ दान चार विध होते हैं।
श्रावक के सद्व्रत जो माने, वे विरले को ही होते हैं।।
गृह में रहकर व्रत पालन की, बुद्धि जिन भक्ति से मिलती।
इससे मैं भी अर्चन करता, जिससे शिव पथ में रुचि बढ़ती।।४५।।
ॐ ह्री श्रावकसद्वृत्तकरणबुद्धिपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जब शरद काल में चन्द्रकला, सोलह भी पूर्ण हुई दिखती।
सबको आल्हादित करती है, चाँदनी सभी जग में छिटकी।।
इस सम उज्ज्वल कीर्ती पैâले, जो शांतिनाथ अर्चन करते।
हम भी जिनपद की पूजा कर निज कर्म कलंक सभी हरते।।४६।।
ॐ ह्रीं परमोज्ज्वलकीर्तिपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
श्रेयांस सदृश हों दानवीर, अधिकारी राजा बनते हैं।
धनपति के सदृश कोश को पा, बहु पुण्य संपदा लभते हैं।।
देवाधिदेव के पूजन का, यह फल कुबेरपद मिलता है।
हम भी पूजें वसु द्रव्य लिये, निजवैभव की बस इच्छा है।।४७।।
ॐ ह्रीं गर्वरहितपरमलक्ष्मीपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
तिर्यंचगती औ नरकगती, इनमें नहिं गमन स्वप्न में भी।
जो जिनपद की पूजा करते, नरगति सुरगति को लभते ही।।
फिर परंपरा से पंचम गति, यह ही जिनपूजा का फल है।
हम भी पूजें श्री शांतिचरण, मिल जावे नरभव का फल है।।४८।।
ॐ ह्रीं नरकतिर्यंचगतिरहितनरसुरगतिसहितपदफलप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
-कुसुमलता छन्द-
पृथ्वी पर दुर्लभ से दुर्लभ, तीर्थंकर पद श्रेष्ठ महान् ।
जिससे तीन लोक के ऊपर, तिलक रूप होते अमलान।
उस पद हेतु सोलह कारण, पुण्य भावनाएं जगमान।
श्री जिन पूजन के प्रसाद से, उन्हें मनुज पाते सुखदान।।४९।।
ॐ ह्रीं षोडशकारणभावनासाधनबलपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
भूपर दुर्लभ तीर्थंकर पद, जिससे उनकी जननी मान्य।
अति प्रशस्त सोलह स्वप्नों को, देखें पुत्र पुण्य अमलान।।
जिन पूजन से जिन जननी पद, प्राप्त करें इन्द्रों से पूज्य।
त्रिभुवन के गुरु को प्रसवित कर, परम्परा शिव लहें अपूर्व।।५०।।
ॐ ह्रीं जिनजननीतुल्यएकजननीपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
तीर्थंकर पद दुर्लभ जग में, जन्मोत्सव शत इन्द्र करें।
मेरु सुदर्शन पर ले जाकर, पयघट से अभिषेक करें।।
संख्यातीत देव देवी मिल, जन्म महोत्सव करते हैं।
जिन पूजा के फल से ही नर, तीर्थंकर पद लभते हैं।।५१।।
ॐ ह्रीं मेरुशिखरे स्नानयुक्तपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
सुख अनंत को देने वाली, सिद्धों की साक्षी पूर्वक।
ऐसी दीक्षा तीर्थंकर ही, लेने के अधिकारी एक।।
अर्हंतों के पूजन से ही, भव्यों को ऐसा सौभाग्य।
मिल जाता है अतः भक्ति से, मैं भी पूजूँ मन में धार्य।।५२।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाक्षिदीक्षाकारिभवप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
वङ्कावृषभ नाराच संहनन, उत्तम मोक्ष प्रदायक जान।
जिनशासन के आश्रित जो जन, उनको ऐसा तनु सुख दान।।
जिनपद पंकेरुह पूजा से, मुक्ति हेतु जो साधन मान्य।
वे सब स्वयं भव्य को मिलते, जिससे शीघ्र मिले निर्वाण।।५३।।
ॐ ह्रीं वङ्कावृषभनाराचसंहननमुक्तिप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जिन आगम में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र प्रधान।
पंचम यथाख्यात चारितमय, ये ही परिणमते मुनिमान्य।।
जिन पद पूजन करने वाले, ऐसी शक्ति पाते नव्य।
जिससे रत्नत्रय पूर्ती कर, वर लेते मुक्तिश्री सत्य।।५४।।
ॐ ह्रीं यथाख्यातरत्नत्रयाचरणयुक्तबलप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
स्वात्मध्यान पीयूष स्वाद बिन, चिदानंद नहिं होता प्राप्त।
जिनवर कथित धर्म आश्रय से, होता अद्भुत आत्म विकास।।
चिच्चैतन्य तत्त्व का ही जो, ज्ञान प्राप्त कर लेते भव्य।
वे ही स्वात्म सुधारस पीते, जो जिन चरण कमल के भक्त।।५५।।
ॐ ह्रीं स्वात्मध्यानामृतस्वादसहितभवप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
समवसरण जिनवर का अनुपम, वहाँ पहुँच जाते हैं भव्य।
धर्मामृत को कर्ण पुटों से, पीते हैं जो अतिशय नव्य।।
जिन पूजा के ही प्रसाद से, समवसरण का दर्शन शक्य।
अतः भक्ति से शांतिनाथ के, चरणकमल को पूजो भव्य।।५६।।
ॐ ह्रीं समवसरणविभूतिपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
-सखी छंद-
दिव्यध्वनि अहर्निशा में, खिरती है चार दफा१ में।
जिन पूजन से यह शक्ती, अतएव करो नित भक्ती।।५७।।
ॐ ह्रीं सत्केवलज्ञानविभूतिपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
आठों कर्मों से विरहित, गुण आठों से ही समन्वित।
इस रूप निरंजन पद है, जिन पूजक लहे तुरत हैं।।५८।।
ॐ ह्रीं निरंजनपदप्रदाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जिन चरण कमल का दर्शन, आनंदित कर देता मन।
वैसे आनंद प्रदायक, गुण निधि को मैं पूजूँ नत।।५९।।
ॐ ह्रीं मनोनंदकरणसमर्थाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
वचनों को आनन्द कर हैं, जिनगुण का पठन श्रवण ये।
वैसे ही आनन्द दायक, जिनपद पूजूँ गुणनायक।।६०।।
ॐ ह्रीं वचनानन्दकरणसमर्थाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
तुम जातरूप के धारी, देखत तन को सुखकारी।
वैसे ही आनन्ददाता, जिनराज जजूँ हो साता।।६१।।
ॐ ह्रीं कायानन्दकरणसमर्थाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
मन से स्मरण करें जो, उसका फल अर्थ लहें वो।
शान्तिप्रभु पूजा फल से, धन हो विस्मय क्या इससे।।६२।।
ॐ ह्रीं अर्थवर्गसिद्धिसाधनकरणसमर्थाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
वचनों से संस्तव करते, हो कामवर्ग फल उससे।
जो करें शांति प्रभु अर्चा, हो काम सिद्धि विस्मय क्या।।६३।।
ॐ ह्रीं कामवर्गसाधनकरणसमर्थाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
जो तन से पूजन करते, उसका फल शिवपद लभते।
श्री शान्तिनाथ अर्चा से, विस्मय क्या मुक्ति मिले से।।६४।।
ॐ ह्रीं मोक्षवर्गसाधनसिद्धकरणसमर्थाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
-शंभु छंद-
चौंसठ कोठे से संयुत है, यह वलय चतुर्थ कहा जाता।
उनमें स्थित देवाधिदेव, उन सबकी पूजा सुख दाता।।
मैं पूरण अर्घ बना करके, श्री शांतिनाथ को जजता हूूँ।
पूरी होवे मम अभिलाषा, इस हेतु वंदना करता हूँ।।६५।।
ॐ ह्रीं चतुःषष्टिऋद्धिसमानांगाय श्रीशांतिनाथाय जलादि……..।
दोहा- कोठे इक सौ बीस में, गुणमणि शान्तिजिनेश।
पूर्ण अर्घ से मैं जजूँ, विघ्न शान्ति के हेतु।।६६।।
ॐ ह्रीं शतैकविंशतिअंगाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री जिनेन्द्र बिन जीव को, शरण नहीं है अन्य।
भवदधि डूबे के लिए, पूजा नाव समान।।६७।।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलिः।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथाय जगत्शान्तिकराय सर्वोपद्रवशान्तिं कुरु कुरु ह्रीं नमः।
(जातिपुष्प या लवंग से १०८ जाप करें।)
अथ जयमाला
दोहा-चक्रवर्ति जो पांचवे, द्वादश रतिपति ईस।
सोलहवें तीर्थेश वे, नमूँ सतत शांतीश।।१।।
(चाल-हे दीनबन्धु……)
जय शान्तिनाथ! भवोदधी से भव्य को तारें।
जय शान्तिनाथ! भविजनों के कर्म विदारें।।
जय शान्तिनाथ! भाक्तिकों के विघ्न निवारें।
जय शान्तिनाथ! सर्व मोह शत्रु प्रहारें।।२।।
जय शान्तिनाथ! श्रेष्ठ सद्गुणों को धरे हैं।
जय शान्तिनाथ! सर्व के मंगल को करे हैं।।
जय शान्तिनाथ! भविजनों का हित विचारते।
जय शान्तिनाथ! कामदेव मल्ल मारते।।३।।
जय शान्तिनाथ! सर्व पाप खंडना करें।
जय शान्तिनाथ! सर्व सौख्य मंडना करें।।
जय शान्तिनाथ! ज्ञानसूर्य जगत् प्रकाशें।
जय शान्तिनाथ! चन्द्रभविक नेत्र विकासें।।४।।
जय शान्तिनाथ! मुक्ति के साधन त्रिलोक में।
जय शान्तिनाथ! सुगति के साधन त्रिलोक में।।
जय शान्तिनाथ! कुगति में जाने से रोकते।
जय शान्तिनाथ! दुःखनाश सौख्य पोषते।।५।।
जय शान्तिनाथ! मातृ सदृश जगत् के लिए।
जय शान्तिनाथ! परमपिता हैं भुवन त्रये।।
जय शान्तिनाथ! परम श्रेष्ठ बुद्धि के धनी।
जय शान्तिनाथ! प्राणियों के हित करें धुनी।।६।।
जय शान्तिनाथ! सर्व रोग शोक को हरें।
जय शान्तिनाथ! भक्त को संपत्ति सुख भरें।।
जय शान्तिनाथ! भवि को मोक्ष सौख्य दे रहें।
जय शान्तिनाथ! भव्य के भव भय को हर रहें।।७।।
जय शान्तिनाथ! वादियों का मानमद हरें।
जय शान्तिनाथ! गुण गणों की वृद्धि को करें।।
जय शांतिनाथ! भूत औ पिशाच भय हरें।
जय शांतिनाथ! चोर लुटेरों के भय हरें।।८।।
जय शान्तिनाथ! ग्रहों की बाधा को अपहरें।
जय शान्तिनाथ! सर्प आदि जंतु भय हरें।।
जय शान्तिनाथ! भव्यकमल हेतु सूर्य हो।
जय शान्तिनाथ! चिदानंद कारि आप हो।।९।।
दोहा- आत्यंतिक शान्ति मिले, ‘‘ज्ञानमती’’ हो पूर्ण।
शान्तिनाथ की अर्चना, करे सौख्य संपूर्ण।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-कर्माश्रित कृत पाप जो, उनके क्षालन हेतु।
शान्तिधारा मैं करूँ, श्री जिनपद पंकेज।।११।।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि।
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