तीर्थंकर चौबीस तीर्थकर्ता कहे,
मुनिगण सुरगण वंद्य मुक्तिभर्ता कहे।
इनका गर्भकल्याणक उत्सव सुर करें,
हम इन पूजें यहाँ स्थापन विधि करें।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आहृवाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरण्।
परिपूर्ण विशुद्ध गुणांबुद्धि हो, जल से तुम पाद जजूँ मुद सों।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम जीत स्वदोष भये जिन जी, हम गंध लिये तुम पूजत जी।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सित तंदुल के इत पुंज धरूं, निज अक्षय सौख्य तुरंत भरूँ।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरद्रुम के पुष्प लिये कर में, पदपद्म जजूँ भक्ती भर मैं।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
बरफी गुझिया पकवान भरें, तुम पूजत ही भव रोग हरे।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीपक ज्योति अंधेर हरे, तुम पाद जजूँ भ्रम दूर करे।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ध्यान अगनि में शुद्ध हुए, हम खेतव धूप विशुद्ध हुए।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अखरोट बदाम अनार भले, तुम पूजत ही फल मोक्ष फले।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु द्रव्य मिलाकर अर्घ किया, तुम अर्पत सौख्य अनर्घ लिया।
प्रभु गर्भकल्याणक सौख्यप्रदा, शत इंद्र जजें तुम पाद मुदा।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर परमेश, तुम पदपंकज में सदा।
जग में शांती हेत, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार गुलाब, सुरभित करते दश दिशा।
तीर्थंकर पादाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
महापुण्यफलराशि तीर्थंकर प्रकृती यहाँ।
मिले सर्व सुखराशि, पुष्पांजलि से पूजते।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभदेवस्य आषाढ़कृष्णाद्वितीयायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं अजितनाथस्य ज्येष्ठकृष्णाअमावस्यायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं संभवनाथस्य फाल्गुनशुक्लाअष्टम्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं अभिनंदननाथस्य वैशाखशुक्लाषष्ठ्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथस्य श्रावणशुक्लाद्वितीयायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभनाथस्य माघकृष्णाषष्ठ्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथस्य भाद्रपदशुक्लाषष्ठ्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रनाथस्य चैत्रकृष्णापंचम्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथस्य फाल्गुनकृष्णानवम्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथस्य चैत्रकृष्णाअष्टम्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथस्य ज्येष्ठकृष्णाषष्ठ्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनाथस्य आषाढ़कृष्णाषष्ठ्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं विमलनाथस्य ज्येष्ठकृष्णादशम्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथस्य कार्तिककृष्णाप्रतिपदायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथस्य वैशाखशुक्लात्रयोदश्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथस्य भाद्रपदकृष्णासप्तम्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथस्य श्रावणकृष्णादशम्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं अरनाथस्य फाल्गुनकृष्णातृतीयायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथस्य चैत्रशुक्लाप्रतिपदायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतनाथस्य श्रावणकृष्णाद्वितीयायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं नमिनाथस्य आश्विनकृष्णाद्वितीयायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथस्य कार्तिकशुक्लाषष्ठ्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथस्य वैशाखकृष्णाद्वितीयायां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं महावीरस्वामिन: आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां गर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
चौबीस जिनवर जहँ जहाँ से, अवतरे आये यहाँ।
जिस नगर में जिनजनक गृह, जिस मात उर तिष्ठें यहाँ।।
जिस नखत में जिस शुभतिथी, में गर्भ उत्सव सुर किया।
मैं जजूँ इन सबको यहाँ, मन वचन तन पावन किया।।२५।।
सोलह स्वप्ने माता देखे, जब गर्भ में जिनवर आते हैं।
इंद्रों के आसन कंपते ही, वे वैभव से यहाँ आते हैं।।
माता पितु की पूजा करके, सुर महामहोत्सव करते हैं।
श्री आदि मात की सेवारत, आंगन में रतन बरसते हैं।।२६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरगर्भकल्याणकेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं गर्भकल्याणकसहितचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
जय जय श्री जिनराज, पृथ्वी तल पर आवते।
बरसें रत्न अपार, सुरपति मिल उत्सव करें।।१।।
प्रभु तुम जब गर्भ बसे आके, उसके छह महिने पहले ही।
सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से, बहुरतनवृष्टि धनपति ने की।।
मरकतमणि इंद्र नीलमणि औ, वरपद्मरागमणियाँ सोहें।
माता के आँगन में बरसें, मोटी धारा जनमन मोहें।१।।
प्रतिदिन साढ़े बारह करोड़, रत्नों की वर्षा होती है।
पंद्रह महीने तक यह वर्षा, सब जन का दारिद खोती है।।
जिनमाता पिछली रात्री में, सोलह स्वप्नों को देखे हैं।
प्रात: पतिदेव निकट जाकर, उन सबका शुभ फल पूछे हैं।।२।।
पतिदेव कहें हे देवि! सुनो, तुम तीर्थंकर जननी होंगी।
त्रिभुवनपति शतइंद्रों वंदित, सुत को जनि भव हरणी होंगी।।
ऐरावत हाथी दिखने से, तुमको उत्तम सुत होवेगा।
उत्तुंग बैल के दिखने से, त्रिभुवन में ज्येष्ठ सु होवेगा।।३।।
औ सिंह देखने से अनंत बल युक्त मान्य कहलायेगा।
मालाद्वय दिखने से सुधर्ममय उत्तम तीर्थ चलायेगा।।
लक्ष्मी के दिखने से सुमेरु गिरि पर उसका अभिषव होगा।
पूरण शशि से जन आनंदे, भास्कर से प्रभामयी होगा।।४।।
द्वयकलशों से निधि का स्वामी, मछली युग दिखीं-सुखी होगा।
सरवर से नाना लक्षण युत, सागर से वह केवलि होगा।।
सिंहासन को देखा तुमने उससे वह जगद्गुरु होगा।
सुर के विमान के दिखने से, अवतीर्ण स्वर्ग से वह होगा।।५।।
नागेन्द्र भवन से अवधिज्ञान, रत्नों से गुण आकर होगा।
निर्धूम अग्नि से कर्मेंधन, को भस्म करे ऐसा होगा।।
फल सुन रोमांच हुई माता, हर्षित मन निज घर आती हैं।
श्री ह्री धृति आदिक देवी मिल, सेवा करके सुख पाती हैं।।६।।
पति की आज्ञा से शची स्वयं, निज गुप्त वेश में आती है।
माता की अनुपम सेवा कर, बहु अतिशय पुण्य कमाती है।।
जब गूढ़ प्रश्न करती देवी, माता प्रत्युत्तर देती हैं।
त्रयज्ञानी सुत का ही प्रभाव, जो अनुपम उत्तर देती हैं।।७।।
इसविध से माता का माहात्म्य, प्रभु तुम प्रसाद से होता है।
तुम नाम मंत्र भी अद्भुत है, भविजन का अघ मल धोता है।।
मैं इसीलिए तुम शरण लिया, भगवन्! अब मेरी आश भरो।
निज ‘‘ज्ञानमती’’ संपति देकर, स्वामिन् अब मुझे कृतार्थ करो।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकर गर्भकल्याणकेभ्य: जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो पंचकल्याणक महापूजा महोत्सव को करें।
वे पंचपरिवर्तन मिटाकर पंचलब्धी को धरें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप हो मुक्तिकन्या वश करें।
‘सुज्ञानमति’ रविकिरण से भविजन कमल विकसित करें।।१।।