जो मुनि उदारमन हो करके, सब जन के बंधू बनते हैं।
बहु भेद तपश्चर्या करके, अक्षीण ऋद्धि को लभते हैं।।
उनकी चरणांबुज की पूजा से, जन सर्व समृद्धि करते हैं।
जो विधिवत् पूजें गुण गावें, उनके मनवांछित फलते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
क्षीरोदधि का शुचि जल लेकर, गुरु चरण चढ़ाने आया हूँ।
भव भव का कलिमल धोने को, श्रद्धा से अति हरषाया हूँ।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।१।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हरि चंदन कुंकुम गंध लिये, गुरु चरण चढ़ाने आया हूँ।
मोहारि ताप संतप्त हृदय, प्रभु शीतल करने आया हूँ।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।२।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरांबुधि फेन सदृश उज्ज्वल, अक्षत धो करके लाया हूँ।
क्षय विरहित अक्षयसुख हेतू, प्रभु पुंज चढ़ाने आया हूँ।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।३।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला चंपक अरविंद कुमुद, सुरभित पुष्पों को लाया हूँ।
मदनारिजयी तव चरणों में, मैं अर्पण करने आया हूँ।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।४।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली खाजे ताजे, सेमई खीर बहु लाया हूँ।
निज आतम अनुभव अमृत हित, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।५।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिमय दीपक में ज्योति जले, सब अंधकार क्षण में नाशे।
दीपक से पूजा करते ही, सज्ज्ञान ज्योति निज में भासे।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।६।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध विमिश्रित धूप सुरभि, धूपायन में खेते क्षण ही।
कटु कर्म दहन हो जाते हैं, मिलता समरस सुख तत्क्षण ही।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।७।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला अंगूरों के, गुच्छे अति सरस मधुर लाया।
परमानंदामृत चखने हित, फल से पूजन कर सुख पाया।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।८।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलचंदन अक्षत पुष्प चरु, वरदीप धूप फल अर्घ्य लिये।
रत्नत्रयनिधि पाने हेतू, गुरुचरणों अर्घ्य समर्प्य किये।।
अक्षीण ऋद्धिधारी मुनिवर की पूजा अक्षय निधिदाता।
द्वयविध ऋद्धी को भी पूजूँ, जिससे होवे निज सुख साता।।९।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम शांति के हेतु, शांतीधारा मैं करूँ।
विश्वशांति के हेतु, चउ संघ में भी हो सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगंधित अर्पिते।
भरे सौख्य भंडार, दुख दारिद्र पलायते।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
गणधर गुरुवर के चरण, विघ्नहरण शोभंत।
पुष्पांजलि कर पूजते, मिले स्वात्म आनंद।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
कहे ऋद्धि अक्षीण के भेद दो हैं।
मुनी लेंय आहार जिस गेह में हैं।।
भले चक्रवर्ती कटक जीम लेवे।
जजॅूं ऋद्धि जिससे नहीं अन्न छीवे।।१।।
ॐ ह्रीं अक्षीणमहानसऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धनुष चार ही हो चतुष्कोण भूमी।
असंख्ये दिविज नर पशू बैठते भी।।
सु अक्षीण आलय महा ऋद्धि पूजूूं।
मिले शक्ति ऐसी सभी ऋद्धि लूटूँ।।२।।
ॐ ह्रीं अक्षीणमहालयऋद्धये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप बल से अशन व आलय को, अक्षीण विशाल बना देते।
ऐसे ऋद्धीधारी ऋषिवर, सब जग में शांति, लुटा देते।।
उन गुरुओं को अरु ऋद्धी को, नित पूजूँ ध्याऊँ गुण गाऊँ।
अक्षीण सौख्य संपत्ति मिले, निज आत्मा में ही रम जाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं द्विविध अक्षीणऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो बुद्धि विक्रिया और क्रिया चारण तप बल औषध रस युत।
अक्षीण इन्हीं आठों के चौंसठ भेद सभी ऋद्धी से युत।।
ये गणधर गुरु ही होते अन्य, मुनी कतिपय ऋद्धी धारें।
उन गुरुओं को सब ऋद्धी को पूजूँ मुझ सौख्य मिलें सारे।।४।।
ॐ ह्रीं चतु:षष्टिऋद्धिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं अक्षीणमहानसऋद्धिभ्यो नम:।
तर्ज-आवो बच्चों तुम्हें दिखायें…….।
आवो हम सब करें अर्चना, तीर्थंकर भगवान की।
जो अक्षीण महानस ऋद्धी, धारी उन गुणवान की।।
जय जय जिनवरं….।।४।।
ऋषभदेव ने हस्तिनापुर में, इक्षूरस आहार लिया।
कोड़ाकोड़ी सागर तक भी, इक्षु यहाँ वरदान हुआ।।
अधिक ऋद्धियाँ तीर्थंकर में, स्वयं प्रगट होती दिखतीं।
गणधर गुरु में सर्व ऋद्धियाँ, एक साथ भी हो सकतीं।।
तप से मुनि को ऋद्धी प्रगटे, पूजा साधु पधान की।।आवो.।।१।।
जय जय जिनवरं….।।४।।
समवसरण में एक साथ सब तीन लोक के भव्य रहे।
मुनि अक्षीण महालय धारी, जहाँ बैठे बहु भक्त रहें।।
असंख्यात भी देव देवियाँ, वहाँ बैठें गुरु भक्ति करें।
यह प्रभाव इस ऋद्धी का ही, सब जन मैत्री भाव धरें।।
जो पूजें वे ऋद्धी पावते, इन मुनिराज महान की।।आवो.।।२।।
जय जय जिनवरं….।।४।।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण से, निज आत्मा को शुद्ध करें।
ऐसे मुनिगण तपश्चरण से, ऋद्धि सिद्धि को प्राप्त करें।।
केवलज्ञानबुद्धि ऋद्धी को, पा करके अर्हंत बनें।
भव्यों को धर्मामृत देकर, कर्मनाश कर सिद्ध बनें।।
भक्ति वंदना पूजा अर्चा, होती कृपानिधान की।।आवो.।।३।।
जय जय जिनवरं….।।४।।
ग्रीष्मकाल में पर्वत ऊपर, वर्षाऋतु में वृक्ष तले।
शीतकाल में नदी किनारे, तप करते मुनि खड़े खड़े।।
वन के हिंसक पशु पक्षी भी, प्रेम भाव से गले मिलें।
परमशांति मुनि के प्रभाव से, षट् ऋतु के फल फूल खिलें।।
इन मुनियों की पूजा करते, मिले राह निर्वाण की।।आवो.।।१।।
जय जय जिनवरं….।।४।।
पाँच कोटि अड़सठ लक्षा निन्यानवे हजार पाँच सौ।
चौरासी ये कही व्याधियाँ, नरक धरा में प्रगटित हों।।
मानव तन में भी अगणित ही, रोग उदय आ दुख देते।
ऋद्धिमंत मुनिवर वंदन से, सर्व रोग क्षण में नशते।।
गणधर गुुरु की पूजा करते, मिले बुद्धि कल्याण की।।आवो.।।५।।
जय जय जिनवरं….।।४।।
मैंने मोहमहामदिरा पी, काल अनंत बिताया है।
बड़े भाग्य से हे भगवन्! अब, दर्श आपका पाया है।।
सम्यग्दशरन रत्न प्राप्त कर, मालामाल हुआ हूँ मैं।
ज्ञान और चारित्ररत्न भी, दे दीजे यह इच्छा मे।।
तीन रत्न से ही मिल जाती, शिवकन्या शिवराम की।।आवो.।।६।।
जय जय जिनवरं….।।४।।
जैसे धर्मात्मा जन के बिन, रह सकता है धर्म नहीं।
वैसे मुनियों के बिन ऋद्धी रह सकती भी कहीं नहीं।।
इसीलिये, ऋद्धी पूजा में, गणधर मुनिगण की पूजा।
तीर्थंकर भी महा ऋद्धिधर, इन सम नहीं अन्य दूजा।।
इन सबकी पूजा करते ही, मिले ऋद्धि निज आत्म की।।आवो.।।७।।
जय जय जिनवरं….।।४।।
बहुविध ऋद्धि समेत मुनि, गुण अनंत से युक्त।
नमूूँ नमूूँ नित भक्ति से, होऊँ कर्म विमुक्त।।८।।
ॐ ह्रीं द्विविधअक्षीणऋद्धिभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भविजन श्रद्धा भक्ति से, चौंसठ ऋद्धि विधान करें।
नवनिधि यश संपत्ति समृद्धी, अतुल सौख्य भंडार भरें।।
पुनरपि मुनि बन तपश्चरण कर, सर्वऋद्धियाँ पूर्ण करें।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ रवि किरणों, से अघतम निर्मूल करें।।१।
।।इत्याशीर्वाद:।।