वेद्यां मण्डलमालिखार्चितासितैश्चूर्णै: सिताकल्पभृन्-
नागाधीश धनेशपीतवसनालंकारपीतैश्च तै:।
नीलैर्नीलभ नीलवेषसुमनो रक्ताभ रत्तैस्ततो,
रक्ताकल्पक कृष्णवेशविलसत्कृष्णैश्च कृष्णप्रभ।।१।।
वेदी में यागमण्डल रचिये, हे नागाधिप! सित चूर्णों से।
धनपति पीतांबर पीतचूर्ण, नीलभसुर नीले वर्णों से।।
हे रक्ताकल्पक लालचूर्ण, कृष्णाप्रभ काले चूर्णों से।
ये रत्नचूर्ण पाँचों रंग के, इनसे मंडल रचिये विधि से।।१।।
ॐ ह्रीं श्वेतपीतहरितारुणकृष्णमणिचूर्णं स्थापयामि स्वाहा।
पंचचूर्णस्थापनमंत्र:।
श्वेतांगरागाम्बरमाल्यभूष श्वेताभ्रयानेन समेत्य सद्य:।
श्वेताभ नागेन्द्र जिनेन्द्रयज्ञे, श्वेतैर्वितर्द्धिं लिख रत्नचूर्णै:।।१।।
चंद्रकांतितनु नागराज भो! सितवस्त्राभरणावृत।
सितमालाधर सितविमान चढ़, रतन चूर्ण लेवो सित।।
जिनवर यज्ञविधी में आवो, यागमण्डल को रच दो।
अनुपम सुन्दर रचना करके, जन मन आनन्द भर दो।।१।।
ॐ ह्रीं नागराजाय अमिततेजसे स्वाहा। (श्वेत चूर्ण स्थापन करना)।
पीतांगरागाम्बरमाल्यभूष! पीताभ्रयानेन समेत्य सद्य:।
पीताभ यक्षेन्द्र! जिनेन्द्रयज्ञे पीतैर्वितर्द्धिं लिख रत्नचूर्णै:।।१२।।
पीतकांतितनु यक्षइंद्र भो! पीतवस्त्रभूषणवृत।
पीतमाल्ययुत पीतयान चढ़, रतन चूर्ण लेवो इत।।
जिनवरयज्ञविधी में आवो, यागमण्डल को रच दो।
पीतचूर्ण से रचना करके, धनपति आनन्द भर दो।।२।।
ॐ ह्रीं हेमप्रभाय धनदाय अमिततेजसे स्वाहा। (पीत चूर्ण स्थापन करना)।
नीलांगरागांबरमाल्यभूष! नीलाभ्रयानेन समेत्य सद्य:।
नीलाभ देवेन्द्र! जिनेन्द्रयज्ञे, नीलैर्वितर्द्धिं लिख रत्नचूर्णै:।।३।।
हे देवेन्द्र! नीलवर्णतनु, नीलवस्त्रभूषणयुत।
नीलमाल्यधर नीलयान चढ़, नीलरत्न चूरण युत।।
जिनवर यज्ञविधी में आवो, यागमण्डल को रच दो।
नीलचूर्ण से रचना करके, जन मन आनंद भर दो।।३।।
ॐ ह्रीं हरित्प्रभाय मम शत्रुमथनाय स्वाहा। (हरित चूर्ण स्थापन करना)।
रक्तांगरागाम्बरमाल्यभूष! रक्ताभ्रयानेन समेत्य सद्य:।
रक्ताभदेवेन्द्र! जिनेन्द्रयज्ञे, रत्तैर्वितर्द्धिं लिख रत्नचूर्णै:।।४।।
पद्मकांतितनु रक्तवस्त्रमाला-भूषणयुत सुरपति।
पद्मयान चढ़ पद्मरागमणि-चूर्ण लिये आवो इत।।
जिनवर यज्ञविधी में आकर, यागमण्डल को रच दो।
अनुपम सुंदर रचना करके, सब जन में सुख भर दो।।४।।
ॐ ह्रीं रक्तप्रभाय मम सर्वशंकराय वषट् स्वाहा (लाल चूर्ण स्थापित करना)
कृष्णांगरागांबरमाल्यभूष! कृष्णाभ्रयानेन समेत्य सद्य:।
कृष्णाभ देवेन्द्र! जिनेन्द्रयज्ञे, कृष्णैर्वितर्द्धिं लिख रत्नचूर्णै:।।५।।
कृष्णकांतितनु कृष्णवस्त्र-मालाभूषा से शोभित।
हे देवेन्द्र! कृष्णयान चढ़, कृष्णमणी चूर्णों युत।।
जिनवरयज्ञविधी में आवो, यागमण्डल को रच दो।
अनुपम सुंदर मंडल रचके, सर्वविघ्न को हर दो।।५।।
ॐ ह्रीं कृष्णप्रभाय मम शत्रुविनाशनाय फट् घे घे स्वाहा। (कृष्णचूर्ण स्थापित करना)।
इस प्रकार पंचवर्णचूर्ण स्थापन विधि पूर्ण हुई।वङ्कास्थापन विधि
सन्मंगलस्यास्य कृते कृतस्य, कोणेषु बाह्यक्षितिमंडलस्य।
वङ्कााणि चत्वारि च वङ्कापाणे! वङ्कास्य चूर्णेन लिखाद्य वेद्याम्।।१।।
यागमण्डल में सन्मंगलहित बाह्यपृथ्वी मंडल के।
चारों कोणों पर इक-इक ही, हीरा को रख करके।।
वङ्कापाणि हे इन्द्र! यहाँ तुम, आवो यज्ञविधी में।
वङ्काचूर्ण से मंडल रच दो कर दो क्षेम जगत् में।।१।।
वेदीकोणेषु प्रत्येकं हीरकं न्यसेत्।
(यागमण्डल पर चारों कोणों पर एक-एक हीरा स्थापित करें)
(अब यागमण्डल बनाने की विधि बताते हैं)
इस प्रकार मंत्रपूर्वक चूर्णों की स्थापना करके वेदी के बीच में-यागमण्डल के बीच में पीतचूर्ण से कर्णिका बनावें। श्वेत, पीत, हरे, लाल और काले चूर्णों से क्रम से पाँच गोल मंडल बनावें। उसके बाहर चौकोन वाले चार द्वार सहित चौकोन ही पाँच मंडल बनावें, पुन: उसके बाहर वङ्कासहित पीले रंग के पृथ्वीमंडल बनावें, अर्थात् मंडल के बाहर चारों तरफ का स्थान पीले चूर्ण से भर दें। पुन: गोलाकार मंडलों में क्रम से चार, आठ, सोलह, चौबीस और बत्तीस दलों के कमलों को लालवर्ण से बनाकर सुवर्णशलाका से या अपामार्ग-चिरचिरा की लेखनी या डाभ से कर्णिका के ठीक बीच में निम्नलिखित मंत्र लिखें।
इन मंत्रों को लिखने का क्रम बताते हैं-
कर्णिका में ‘‘ॐ ह्रीं णमो अरहंताणं स्वाहा। इस अर्हन्मंत्र को लिखें पुन: इस कर्णिका के चारों तरफ चार दल के कमल में पूर्व दिशा में ‘‘ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं’’, दक्षिण दिशा के दल में ‘‘ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं’’, पश्चिम दिशा के दल में ‘‘ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं’’ तथा उत्तर दिशा के दल में ‘‘ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं’’ लिखें। इन मंत्रों को अनाहत, अर्हत् बीज, मायाबीज, श्रीकार और प्रणवमंत्र से पृथक्-पृथक् वेष्टित करके, इनके बाहर सोलह स्वर के वलय को, पास में स्थित झ्रौंकार द्वय से सहित कर, उसके बाहर ‘‘ॐ ह्रीं श्रीं र्हं अर्हत्सिद्धकेवलिभ्य: स्वाहा।’’ इस मंत्रवलय को बनावें। इसके बाहर एक ‘‘ठकार’’ वलय बनावें।
अनंतर आठ दल वाले कमल में चार दलों पर-पहले पूर्वदिशा के दल में ‘‘ॐ अरहंत मंगलं अरहंत लोगुत्तमा अरहंतसरणं पव्वज्जामि स्वाहा’’ यह मंत्र लिखें। दक्षिण दल में ‘‘सिद्धमंगलं सिद्धलोगुत्तमा सिद्धसरणं पव्वज्जामि स्वाहा’’ लिखें। पश्चिम दिशा के दल में ‘‘साहु मंगलं साहु लोगुत्तमा साहुसरणं पव्वज्जामि स्वाहा’’ ऐसा लिखें। उत्तर दिशा के दल में ‘‘केवलिपण्णत्तो धम्मं मंगलं धम्मो लोगुत्तमा धम्मो सरणं पव्वज्जामि स्वाहा’’ यह मंत्र लिखें। पुन: इसी आठ दल कमल में आग्नेय दिशा के दल में ‘‘ॐ श्रीं ह्रीं र्हं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्य: स्वाहा’’, नैऋत्य विदिशा के दल में ‘‘ॐ श्रीं ह्रीं र्हं जिनागमेभ्य: स्वाहा’’, वायव्यविदिशा के दल में ‘‘ॐ श्रीं ह्रीं र्हं जिनचैत्येभ्य: स्वाहा’’, और ईशान विदिशा के दल में ‘‘ॐ श्रीं ह्रीं र्हं जिनचैत्यालयेभ्य: स्वाहा’’ इन मंत्रों को लिखें।
पुन: चार दलों के अग्रभाग पर ‘‘ॐ’’ लिखें और चार विदिशा के अंतराल में ‘‘झ्रौं’’ लिखें। इन सभी को ‘‘ह्रीं’’ से तीन बार वेष्टित करके ‘‘क्रों’’ से संरूद्व करें। आगे के आठ दल वाले कमल में पूर्वदिशा के दल में ‘‘ॐ जयायै स्वाहा।’’ दक्षिण दिशा के दल में ‘‘ॐ विजयायै स्वाहा।’’ पश्चिम दिशा में ‘‘ॐ अजितायै स्वाहा।’’ उत्तरदिशा के दल में ‘‘ॐ अपराजितायै स्वाहा।’’ ऐसे मंत्र लिखें पुन: विदिशा के दलों में अर्थात् आग्नेयविदिशा में ‘‘ॐ जंभायै स्वाहा’’, नैऋत्यविदिशा के दल में ‘‘ॐ मोहायै स्वाहा’’, वायव्य विदिशा के दल में ‘‘ॐ स्तंभायै स्वाहा’’ और ईशान विदिशा के दल में ‘‘ॐ स्तंभिन्यै स्वाहा’’ इन मंत्रों को लिखें। अनन्तर इन्हीं आठ दलों के अन्तराल में ‘‘ह्रीं’’ और दलों के अग्रभाग में ‘‘क्रौं’’ बीजाक्षर लिखें।
अनन्तर सोलह दल वाले कमल में क्रम से एक-एक दलों पर रोहिणी आदि सोलह विद्या देवताओं के मंत्र लिखें। उनका स्पष्टीकरण-१. ॐ ह्रीं रोहिण्यै स्वाहा, २. ॐ ह्रीं प्रज्ञप्त्यै स्वाहा, ३. ॐ ह्रीवज्रशृंखलायै स्वाहा, ४. ॐ ह्रीं वज्रांकुशायै स्वाहा, ५. ॐ ह्रीं जांबूनदायै स्वाहा, ६. ॐ ह्रीं पुरुषदत्तायै स्वाहा, ७. ॐ ह्रीं काल्यै स्वाहा, ८. ॐ ह्रीं महाकाल्यै स्वाहा, ९. ॐ ह्रीं गौर्ये स्वाहा, १०. ॐ ह्रीं गांधार्यै स्वाहा, ११. ॐ ह्रीं ज्वालामालिन्यै स्वाहा, १२. ॐ ह्रीं मानव्यै स्वाहा, १३. ॐ ह्रीं वैरोट्यै स्वाहा, १४. ॐ ह्रीं अच्युतायै स्वाहा, १५. ॐ ह्रीं मानस्यै स्वाहा, १६. ॐ ह्रीं महामानस्यै स्वाहा।
इन सोलह मंत्रों के कमल दलों के अन्तराल में ‘‘क्लीं’’ पुन: दलों के अग्रभाग में ‘‘ब्लें’’ ये बीजाक्षर लिखें।
आगे चौबीस दलों के कमल में क्रम से एक-एक दलों पर जिनमाता के नाम लिखें। उनके मंत्र निम्न प्रकार हैं-
ॐ ह्रीं मरुदेव्यै स्वाहा। ॐ ह्रीं विजयायै स्वाहा। ॐ ह्रीं सुषेणायै स्वाहा। ॐ ह्रीं सिद्धार्थायै स्वाहा। ॐ ह्रीं मंगलायै स्वाहा। ॐ ह्रीं सुषीमायै स्वाहा। ॐ ह्रीं पृष्वीषेणायै स्वाहा। ॐ ह्रीं लक्ष्मणायै स्वाहा। ॐ ह्रीं रामायै स्वाहा। ॐ ह्रीं सुनंदायै स्वाहा। ॐ ह्रीं विष्णुश्रियै स्वाहा। ॐ ह्रीं जयायै स्वाहा। ॐ ह्रीं जयश्यामायै स्वाहा। ॐ ह्रीं सुव्रतायै स्वाहा। ॐ ह्रीं सुप्रभायै स्वाहा। ॐ ह्रीं ऐरिण्यै स्वाहा। ॐ ह्रीं सुमित्रायै स्वाहा। ॐ ह्रीं प्रभावत्यै स्वाहा। ॐ ह्रीं पद्मावत्यै स्वाहा। ॐ ह्रीं वप्रायै स्वाहा। ॐ ह्रीं विनूतायै स्वाहा। ॐ ह्रीं शिवदेव्यै स्वाहा। ॐ ह्रीं देवदत्तायै स्वाहा। ॐ ह्रीं प्रियकारिण्यै स्वाहा।’’
इस कमल के बाहर प्रत्येक दलों के अन्तराल में ‘‘झं’’ बीजाक्षर लिखें और दलों के अग्रभाग में ‘‘वं’’ बीजाक्षर लिखें।
आगे बत्तीस दल के कमल में एक-एक दलों पर क्रम से बत्तीस इन्द्रों के मंत्र लिखें। जैसे-
ॐ ह्रीं असुरेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं नागकुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं सुपर्णकुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं द्वीपकुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं उदधिकुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं स्तनितकुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं विद्युत्कुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं दिक्कुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं अग्निकुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं वातकुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं किन्नरेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं किम्पुरुषेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं महोरगेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं गंधर्वेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं यक्षेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं राक्षसेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं भूतेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं पिशाचेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं सोमेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं सूर्येन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं सौधर्मेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं ईशानेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं सनत्कुमारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं माहेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं ब्रह्मेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं लान्तवेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं शुक्रेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं शतारेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं आनतेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं प्राणतेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं आरणेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं अच्युतेन्द्राय स्वाहा।
इन मंत्र दलों के बाहर अन्तराल में ‘‘झं’’ और दलों के अग्रभागों में ‘‘वं’’ बीजाक्षर लिखें। इन सभी को ‘‘ह्रींकार’’ से तीन बार वेष्टित करके ‘‘क्रों’’ से रोककर जलमंडल से वेष्टित कर देवें।
अनन्तर जो चौकोन पाँच मंडल बनाये हैं उनमें से चार में क्रम से तिथि देवों के, नवग्रहों के, चौबीस यक्षों के और चौबीस यक्षिणियों के मंत्रों को लिखें। जैसे-ॐ यक्ष, वैश्वानर, राक्षस, नधृत, पन्नग, असुर, सुकुमार, पितृ, विश्वमालि, चमर, वैरोचन, महाविद्य, मार, विश्वेश्वर, पिंडाशिभ्य: स्वाहा।
दूसरे चौकोन मंडल में-ॐ रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतुभ्य: स्वाहा।
तृतीय मंडल में-ॐ गोमुख-महायक्ष-त्रिमुख-यक्षेश्वर-तुंबुर-पुष्पयक्ष-मातंगयक्ष-श्याम-अजित-ब्रह्मयक्ष-ईश्वर-कुमार-षण्मुख-पाताल-किन्नर-गरुड़-गंधर्व-रवेन्द्र-कुबेर-वरुण-भृकुटि-गोमेध१-धरणेन्द्र-मातंगयक्षेभ्य: स्वाहा।
चतुर्थ मंडल में-ॐ चक्रेश्वरी-अजिता-नम्रेक्षी-दुरितारि-संसारिदेवी-मोहनी-मानवी-ज्वालामालिनी-भृकुटिदेवी-चामुण्डी-गोमेधयक्षी-विद्युन्मालिनी-विजृंभिणी-परभृता-कंदर्पादेवी-गांधारिण-काल-अनातजा-सुगंधिनी-कुसुममालिनी२-कूष्माण्डिनी-पद्मावती-सिद्धायिनीयक्षीभ्य: स्वाहा।
पाँचवें मंडल में-ॐ श्रीदेवी-ह्रीदेवी-धृतिदेवी-कीर्तिदेवी-बुद्धिदेवी-लक्ष्मीदेवी-शांतिदेवी-पुष्टिदेवीभ्य: स्वाहा।
इसी पाँचवें मंडल में-दिक्पालों के मंत्र लिखें-इन्द्र-अग्नि-यम-नैऋत्य-वरुण-पवन-कुबेर-ईशान-धरणेन्द्र-सोमेभ्य: स्वाहा।
अनंतर पूर्व आदि चारों द्वारों में-सोम-यम-वरुण-धनद मंत्र लिखें। पुन: वेदी के-यागमण्डल के पूर्वादि चारों दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित, इन चारों के मंत्रों को लिखें।
ईशानकोण में अनावृतयक्ष के मंत्र को लिखें।
ब्रह्मेन्द्र के ऊपर लौकांतिक मंत्र को और अच्युतेन्द्र के ऊपर अहमिन्द्र मंत्र को लिख्ाकर पृथ्वीमंडल में आठ मंगल द्रव्य, आठ आयुध और आठ पताका के मंत्रों को लिखकर आगे कही गई विधि से उनको स्थापित करके यथास्थान आठ कलशों की स्थापना करके पंचवर्णी सूत्र से वेष्टित करके वेदी-मंडल के चारों कोनों पर चार बाण, सिद्धार्थ-सफेद सरसों, यवारक-उगे हुए धान्यांकुर कुंडों की स्थापना करें। वेदी-मंडल के आगे या मंडल पर आगे पाषाण का सिलबट्टा स्थापित करें।
अनंतर महोत्सवपूर्वक महार्घ्य को चढ़ावें। तीन बार प्रदक्षिणा देकर प्रणाम करें, पुन: धूपादि से यंत्र को (मंडल को) विभूषित करें।
तत्पश्चात् चार या आठ जप करने वाले श्रावकों को वेदी के चारों तरफ बिठाकर श्वेत सुगंधित पुष्पों से अनादिसिद्धमंत्र की जाप्य करावें, इस तरह यागमण्डल आराधना को पूर्ण करें।
इस प्रकार यागमण्डल बनाने की विधि पूर्ण हुई।