-शंभु छंद-
अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय, साधु पंचपरमेष्ठी हैं।
त्रयकालिक चौबिस तीर्थंकर, शत इन्द्रों से नित वंदित हैं।।
चउ मंगल लोकोत्तमशरणं, जिनधर्म जिनागम जिनप्रतिमा।
जिन चैत्यालय इन सोलह को, मैं पूजूँ इनकी अति महिमा।।१।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालय समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालय समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालय समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
गंगा नदि का शीतल जल ले, जिनपद धार करूँ मैंं।
साम्य सुधारस शीतल पीकर, भव-भव त्रास हरूँ मैं।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर चंदन घिस, जिनपद में चर्चं मैं।
मानस-तनु-आगन्तुक त्रयविध, ताप हरो अर्चूं मैं।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल अक्षत ले, प्रभु नव पुंज चढ़ाऊँ।
निज गुणमणि को प्रगटित करके, फेर न भव में आऊँ।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही मोगरा सेवंती, बासंती पुष्प चढ़ाऊँ।
कामदेव को भस्मसात् कर, आतम सौख्य बढ़ाऊँ।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर फेनी लड्डू पेड़ा, रसगुल्ला भर थाली।
तुम्हें चढ़ाऊँ क्षुधा नाश हो, भरें मनोरथ खाली।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णदीप में ज्योति जलाऊँ, करूँ आरती रुचि से।
मोह अंधेरा दूर भगे सब, ज्ञान भारती प्रगटे।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांगी अग्निपात्र में, खेवत उठे सुगंधी।
कर्म जलें सब सौख्य प्रगट हो,फैले सुयश सुगंधी।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।७।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आडू लीची सेब संतरा, आम अनार चढ़ाऊँ।
सरस मधुर फल पाने हेतू, शत-शत शीश झुकाऊँ।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक अर्घ्य बनाकर, सुवरण पुष्प मिलाऊँ।
भक्तिभाव से गीत-नृत्य कर, प्रभु को अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
श्री अरिहंत सिद्ध आदी को, मन वच तन से पूजूूँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, सब दु:खों से छूटूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरुत्रैकालिकतीर्थंकर-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-
जिनागमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यमुना सरिता नीर, प्रभु चरणों धारा करूँ।
मिले निजात्म समीर, शांतीधारा शं करे।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित खिले सरोज, जिन चरणों अर्पण करूँ।
निर्मद करूँ मनोज, पाऊँ निज गुण संपदा।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि सकल, चिंतित फल दातार।
तुम गुणकण भी गाय के, पाऊँ सौख्य अपार।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय जिन मोह अरी हन के, अरिहंत नाम तुमने पाया।
जय जय शत इन्द्रों से पूजित, अर्हत् का यश सबने गाया।।
प्रभु गर्भागम के छह महिने, पहले ही सुरपति आज्ञा से।
धनपति ने रत्नमयी पृथ्वी, कर दी रत्नों की धारा से।।२।।
जब जन्म लिया तीर्थेश्वर ने, त्रिभुवन जन में आनंद हुआ।
इन्द्रोें द्वारा मंदरगिरि पर, प्रभु का अभिषेक प्रबंध हुआ।।
दीक्षा कल्याणक उत्सव कर, इन्द्रों ने अनुपम पुण्य लिया।
जब केवलज्ञान हुआ प्रभु को, जन-जन ने निज को धन्य किया।।३।।
इन पंचकल्याणक के स्वामी, तीर्थंकरगण ही होते हैं।
कुछ दो या तीन कल्याणक पा, निज पर का कल्मष धोते हैं।।
बहुतेक भविक निज तप बल से, चउ घाति कर्म का घात करें।
ये सब अरिहंत कहाते हैं, जो केवलज्ञान विकास करें।।४।।
जिन अष्टकर्म को नष्ट किया, लोकाग्र विराजें जा करके।
वे सिद्ध हुए कृतकृत्य हुए, निज शाश्वत सुख को पा करके।।
आचार्य परमगुरु चतु:संघ, अधिनायक गणधर कहलाते।
जो पढ़े पढ़ावें जिनवाणी, वे उपाध्याय निज पद पाते।।५।।
जो करें साधना निज की नित, वे साधु परमगुरु माने हैं।
त्रयकालिक चौबिस तीर्थंकर, उनकी पूजा भव हाने हैं।।
अर्हंत सिद्ध साधू केवलि-भाषित वरधर्म चार मानें।
ये मंगलकारी लोकोत्तम, हैं शरणभूत भवि सरधानें।।६।।
जिनधर्म अहिंसा धर्म परम, त्रिभुवन में शान्ति प्रदाता है।
जिन आगम द्वादशांग वाङ्मय, भवि को शिवपथ दिखलाता है।।
जिनप्रतिमा कृत्रिम-अकृत्रिम, आनन्त व असंख्यात जग में।
जिनचैत्यालय भी इतने ही, त्रयकालों में मानें श्रुत में।।७।।
इनको अर्चूं पूजूँ वंदूँ, औ नमस्कार भी नित्य करूँ।
निज हृदय कमल में धारण कर, सम्पूर्ण अमंगल विघ्न हरूँ।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे मम बोधि लाभ होवे।
मुझ सुगती गमन समाधिमरण, होकर जिनगुण संपति होवे।।८।।
सोलह देवों का यजन, करे भवोदधि पार।
केवल ‘ज्ञानमती’ सहित, मिले स्वात्म सुखसार।।९।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमगुरु-त्रैकालिक-चतुर्मंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्मजिनागम-
जिनचैत्यचैत्यालयेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
(कर्णिका में अर्हंत की पूजा करना)
-चौबोल छंद-
श्री अरिहंत प्रथम परमेष्ठी, घाति चतुष्टय नाश किया।
धर्मतीर्थ का वर्तन करते, नंत चतुष्टय प्राप्त किया।।
गणधर मुनिगण सुरपति नरपति, इनकी भक्ती नित्य करें।
हम भी उनका आह्वानन कर, अतिशय पूजा भक्ति करें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं परब्रह्मन्अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं परब्रह्मन्अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं परब्रह्मन्अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीं अर्हत्परमेष्ठिने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
(मंडल पर पूर्व दिशा में पुष्पांजलि क्षेपण कर सिद्धों की पूजा करना)
-गीताछंद-
श्रीसिद्ध त्रिभुवन के शिखर पर, सर्वकाल विराजते।
सब गुण अनंतानंत युत, भविवृंद दुख संहारते।।
निज आतमा की शुद्धि हेतू, सिद्ध की आराधना।
हम पूजते आह्वान कर, थापें यहाँ कर वंदना।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
(ऐसे ही चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
(दक्षिण दिशा में पुष्पांजलि क्षेपण करके आचार्य की पूजा करना)
-गीता छंद-
जो स्वयं पंचाचार पालें, अन्य से पलवावते।
छत्तीस गुण धारें सदा, निज आत्मा को ध्यावते।।
ऐसे परम आचार्यवर, भवसिंधु से भवि तारते।
इस हेतु उनकी अर्चना हित, हम हृदय में धारते।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमदाचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीमदाचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीमदाचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं श्रीमदाचार्यपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
(ऐसे ही चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
(पश्चिम दिशा में पुष्पांजलि क्षेपण करके उपाध्याय की पूजा करना)
जो अंग ग्यारह पूर्व चौदह, धारते निज बुद्धि में।
पढ़ते पढ़ाते या उन्हें, जो शास्त्र हैं तत्काल में।।
वे गुरू पाठक मोक्षपथ, दर्शक उन्हीं की वंदना।
आह्वान विधि करके यहाँ पर, मैं करूँ नित अर्चना।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीउपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीउपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीउपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं श्रीउपाध्यायपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
(ऐसे ही चंदन आदि आठों द्रव्च चढ़ावें)
शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
(उत्तर दिशा में पुष्पांजलि क्षेपण करके सर्वसाधु की पूजा करना)
जो नग्न मुद्रा धारते, दिग्वस्त्रधारी मान्य हैं।
निज मूलगुण उत्तरगुणों से, युक्त पूज्य प्रधान हैं।।
सुर असुर मुकुटों को झुकाकर, अर्चते हैं भाव से।
मैं भी यहाँ आह्वान कर, पूजूँ उन्हें अति चाव से।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा। (ऐसे ही चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
-गीताछंद-
जंबूद्रुमांकित प्रथम जंबूद्वीप में दक्षिण दिशी।
वर भरत क्षेत्र प्रधान तहं, षट्काल वर्ते नितप्रती।।
जहं भूतकाल चतुर्थ में, चौबीस तीर्थंकर भये।
थापूँ यहाँ वर भक्ति पूजन, हेतु मन हर्षित भये।।१।।
ॐ ह्रीं निर्वाणसागराद्यतीतकालतीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं निर्वाणसागराद्यतीतकालतीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं निर्वाणसागराद्यतीतकालतीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं निर्वाणसागराद्यतीतकालतीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा। (ऐसे ही चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
(चाल-नंदीश्वर पूजा)
जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
वर धूप फलों से युक्त, अर्घ्य समर्प्य किया।।
इस भरत क्षेत्र के भूतकालिक तीर्थंकर।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, होऊँ क्षेमंकर।।१।।
ॐ ह्रीं निर्वाणसागराद्यतीतकालतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(मंत्रवलय के अभ्यन्तर में वर्तमानकालीन तीर्थंकर की पूजा करना)
-गीताछंद-
वृषभादि चौबिस तीर्थकर, इस भरत के विख्यात हैं।
जो प्रथित जम्बूद्वीप के, संप्रति जिनेश्वर ख्यात हैं।।
इन तीर्थकर के तीर्थ में, सम्यक्त्व निधि को पायके।
थापूँ यहाँ पूजन निमित, अति चित्त में हरषाय के।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभाजितादिवर्तमानकालतीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं वृषभाजितादिवर्तमानकालतीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं वृषभाजितादिवर्तमानकालतीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं वृषभाजितादिवर्तमानकालतीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा
(इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
-स्रग्विणी छंद-
तोयगंधादि वसु द्रव्य ले थाल में।
अर्घ्य अर्पण करूँ नाय के भाल मैं।।
श्री ऋषभ आदि चौबीस जिनराज को।
पूजते ही लहूँ स्वात्म साम्राज को।।
ॐ ह्रीं वृषभाजितादिवर्तमानकालतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(ठकारवलय के अभ्यन्तर में भविष्यत्कालीन तीर्थंकर की पूजा करना)
-गीताछंद-
इस भरत क्षेत्र विषे जिनेश्वर, भविष्यत् में होएंगे।
उनके निकट में भव्य अगणित, कर्मपंकिल धोएंगे।।
चौबीस तीर्थंकर सतत, वे विश्व में मंगल करें।
मैं पूजहूँ आह्वान कर, मुझ सर्वसंकट परिहरें।।१।।
ॐ ह्रीं महापद्मसुरदेवादिअनागतकालतीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं महापद्मसुरदेवादिअनागतकालतीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं महापद्मसुरदेवादिअनागतकालतीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं महापद्मसुरदेवादिअनागतकालतीर्थंकरेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
(इसी मंत्रन से चंदआदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
-चामर छंद-
तोय गंध अक्षतादि, अष्टद्रव्य लाइये।
अर्घ्य को चढ़ाय के, अखंड सौख्य पाइये।।
भाविकाल के जिनेन्द्रदेव की समर्चना।
जो करेंगे वे यहाँ, कभी धरेंगे जन्म ना।।
ॐ ह्रीं महापद्मसुरदेवादिअनागतकालतीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(अब अष्टकमल के अन्तर्गत चतुर्दिशा के चार दलों में क्रम से पूजा करना है
पूर्वदल के अभ्यंतर में-
-शंभुछंद-
अर्हंतदेव मल गालन करके, ‘‘मंग-सौख्य’’ को देते हैं।
त्रिभुवन में उत्तम लोकोत्तम, शरणागत रक्षक होते हैं।।
इनकी पूजा मंगलकारी, उत्तमपद दे रक्षा करती।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, प्रभु पूजा सब संकट हरती।।१।।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं अर्हन्मंगललोकोत्तमशरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दक्षिण दिशा के दल में-
श्रीसिद्धप्रभु मलगालन करके, ‘‘मंग-सर्वसुख’’ दाता हैं।
त्रिभुवन के शेखर लोकोत्तम, शरणागत भविजन त्राता हैं।।
इनकी पूजा मंगलप्रद उत्तम, पददायी रक्षाकारी।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, प्रभु पूजा सिद्ध सौख्यकारी।।२।।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सिद्धमंगललोकोत्तमशरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम दिशा में-
निग्रंथ साधु मल क्षालन कर, सुख देते रत्नत्रय देते।
मंगलकारी लोकोत्तम हैं, शरणागत के दु:ख हर लेते।।
आचार्य उपाध्याय सर्वसाधु, इनकी पूजा मंगलकारी।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, गुरु की पूजा भवदु:ख हारी।।३।।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं साधुमंगललोकोत्तमशरणेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर दिशा में-
केवलिप्रणीत है धर्म पापक्षालन कर सर्वसौख्य देता।
त्रिभुवन में मंगलकर उत्तम, शरणागत के दु:ख हर लेता।।
जो पूजें केवलिकथित धर्म, वे स्वयं धर्म अवतार धरें।
हम पूजें अर्घ्य चढ़ा करके, हम भी भवसागर शीघ्र तरें।।४।।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्ममंगललोकोत्तमशरणाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(अब अष्टकमल की विदिशा के दलों में स्थापित जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय की पूजा करना है)
आग्नेय विदिशा के दल में-
वर रत्नत्रय जिनधर्म हैं, औ दया धर्म प्रधान है।
वस्तू स्वभाव सु धर्म है, उत्तम क्षमादिक मान्य हैं।।
जो जीव को ले जाके धरता, सर्व उत्तम सौख्य में।
वह धर्म है जिनराज भाषित, पूजहूँ तिहुंकाल मैं।।१।।
-दोहा-
भरतैरावत क्षेत्र में, चौथे पाँचवे काल।
शाश्वत रहे विदेह में, धर्म जगत् प्रतिपाल।।२।।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
(ऐसे ही चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
सलिलादिक द्रव्य मिलाय, कंचनपात्र भरें।
जिनवृष को अर्घ्य चढ़ाय, शिवसाम्राज्य वरें।।
जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।
मैं जजूँ सार्वहित धर्म गुण रत्नाकर है।।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
नैऋत्यविदिशा के दल में-
जिनदेव के मुख से खिरी, दिव्यध्वनी अनक्षरी।
गणधर ग्रहण कर द्वादशांगी, ग्रंथमय रचनाकरी।।
उन अंग पूरब शास्त्र के ही, अंश ये सब शास्त्र हैं।
उस जैनवाणी को जजूँ, जो ज्ञान अमृत सार है।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनागम! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीजिनागम! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीजिनागम! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं श्रीजिनागमाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
वारि गंध शालि पुष्प चरू सुदीप धूप ले।
सत्फलों समेत अर्घ से जजें सुयश मिले।।
द्वादशांग जैनवाणि पूजते उद्योत हो।
मोहध्वांत नष्ट हो उदीत ज्ञान ज्योति हो।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनागमाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।।
वायव्यविदिशा के दल में पूजा करना-
-नरेन्द्र छंद-
त्रिभुवन में जिनप्रतिमा शाश्वत, असंख्यात हैं वर्णित।
ढाई द्वीप में कृत्रिम प्रतिमा, सुर नर निर्मित अगणित।।
इन सबका आह्वानन कर मैं, भक्ति भाव से ध्याऊँ।
जिनप्रतिमा जिनसदृश पूज्य हैं, वंदन कर सुख पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
(ऐसे ही चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल अर्घ्य लिया।
त्रिभुवन पूजित पद के हेतू, तुम पद वारिज अर्घ्य किया।।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सत्ताइस सहस कहीं।
नव सौ अड़तालिस असंख्य भी, कृत्रिम अगणित जजूँ यहीं।।
ॐ ह्रीं र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनबिंबसमूहाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
ईशान विदिशा के दल में पूजा करना-
त्रिभुवन के जिनमंदिर शाश्वत, आठ कोटि सुखराशी।
छप्पन लाख हजार सत्यानवे, चार शतक इक्यासी।।
व्यंतर ज्योतिष सुरगृह में हैं, असंख्यात जिनमंदिर।
ढाईद्वीप के कृत्रिम जिनगृह, पूजूँ सर्व हितंकर।।१।।
ॐ ह्री र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनचैत्यालयसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्री र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनचैत्यालयसमूह!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्री र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनचैत्यालयसमूह!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
ॐ ह्री र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनचैत्यालयेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा। (इसी मंत्र से चंदन आदि आठों द्रव्य चढ़ावें)
स्त्र्रग्विणी छंद-अर्घ में स्वर्ण चाँदी कुसुम ले लिये।
जैन मंदिर जजूँ सर्व सुख के लिए।।
सर्व शाश्वत अशाश्वत जिनालय जजूँ।
रत्नत्रय पायके स्वात्म अमृत चखूँ।।
ॐ ह्री र्हं श्रीं जगत्त्रयवर्तिजिनचैत्यालयेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
इस प्रकार अर्हंतादि की पूजा करके इन भगवन्तों का हृदय में चिंतन करते हुए अनादिसिद्ध मंत्र से कर्पूर चंदन केशर से चर्चित ऐसे श्वेत सुगंधित पुष्पों से इक्कीस बार मंत्र पढ़कर पूर्णार्घ्य चढ़ावें। अर्थात् नीचे लिखे मंत्र को २१ बार पढ़ें और पुष्पांजलि क्षेपण करें, पुन: पूर्णार्घ्य चढ़ावें…..।
ॐ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
ॐ ह्रौं शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।
इस अनादिसिद्ध मंत्र के द्वारा श्वेत पुष्पों से २१ बार आराधना करना।
जिसमें अर्हंत जिनेन्द्र मुख्य, ये सब सोलह१ देवता कहे।
इनकी पूजा विधिवत् की है, ये मुक्तिश्री सुखदायि कहे।।
हम महा अर्घ्य लेकर पूजें, भक्तों को स्वात्मसौख्य दाता।
इनका वंदन-पूजन जग में, भव-भव के दु:खों से त्राता।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु-भूतवर्तमान-भाविकालीनचतुर्विंशति-तीर्थंकर-अर्हन्मंगललोकोत्तमशरण-सिद्धमंगललोकोत्तमशरण-साधुमंगललोकोत्तम-शरण-केवलिप्रज्ञप्तधर्ममंगललोकोत्तमशरण-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-जिनचैत्यालयेभ्यो महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतयेशांतिधारा, पुष्पांजलि:।