-अथ स्थापना-
पद्मप्रभू जिन मुक्तिरमा के नाथ हैं।
श्री आनन्त्य चतुष्टय सुगुण सनाथ हैं।।
गणधर मुनिगण हृदय कमल में धारते।
आह्वानन कर जजत कर्म संहारते।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टकं-चौपाई छंद-
कर्म पंक प्रक्षालन काज, जल से पूजूँ जिन चरणाब्ज।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन घिसूँ कपूर मिलाय, पूजूँ आप चरण सुखदाय।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र किरण सम तंदुल श्वेत, पुंज चढ़ाऊँ निज पद हेत।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुल कमल सुम हरसिंगार, चरण चढ़ाऊँ हर्ष अपार।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कलाकंद गुझिया पकवान, तुम्हें चढ़ाऊँ भवदु:ख हान।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक ज्योति करे उद्योत, पूजत ही हो निज प्रद्योत।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांग अग्नि में ज्वाल, दुरित कर्म जलते तत्काल।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला द्राक्ष बदाम, पूजत हो निज में विश्राम।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत पाऊँ निज सुखसद्म।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य चढ़ाय जजूँ जिनराज, प्रभु तुम तारण तरण जिहाज।।
पद्मप्रभू जिनवर पदपद्म, पूजत ‘ज्ञानमती’ सुख सद्म।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
पद्मप्रभू पदपद्म में, शांतीधार करंत।
चउसंघ में भी शांति हो, मिले भवोदधि अंत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
लाल कमल नीले कमल, सुरभित हरसिंगार।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भंडार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-चौबोल छंद-
कौशाम्बी नगरी के राजा, धरण राज के आंगन ही।
वर्षे रतन सुसीमा माता, हर्षी गर्भ बसे प्रभुजी।।
माघकृष्ण छठ तिथि उत्तम थी, इन्द्रों ने यँह आ करके।
गर्भ महोत्सव किया मुदित हो, हम भी पूजें रुचि धरके।।१।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाषष्ठ्यां श्रीपद्मप्रभतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्तिक कृष्णा तेरस तिथि में, पद्मप्रभू ने जन्म लिया।
इन्द्राणी माँ के प्रसूतिगृह, जाकर शिशु का दर्श किया।।
सुरपति जिन शिशु गोद में लेकर, रूप देख नहिं तृप्त हुआ।
नेत्र हजार बना करके प्रभु, दर्शन कर अति मुदित हुआ।।२।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपद्मप्रभतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जातिस्मृति से विरक्त होकर, कार्तिक कृष्णा तेरस में।
निवृति करि पालकी सजाकर, इन्द्र सभी आये क्षण में।।
सुभग मनोहर वन में पहुँचे, प्रभु ने दीक्षा स्वयं लिया।
बेला कर ध्यानस्थ हो गये, जजत मिले वैराग्य प्रिया।।३।।
ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णात्रयोदश्यां श्रीपद्मप्रभतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र सुदी पूनम तिथि शुभ थी, नाम मनोहर वन उत्तम।
शुक्लध्यान से घात घातिया, केवलज्ञान हुआ अनुपम।।
सुरपति ऐरावत गज पर चढ़, अगणित विभव सहित आये।
गजदंतों सरवर कमलों पर, अप्सरियाँ जिनगुण गायें।।४।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लापूर्णिमायां श्रीपद्मप्रभतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि चौथ तिथी सायं, प्रभु सम्मेदशिखर गिरि से।
एक हजार मुनी के संग में, मुक्ति राज्य पाया सुख से।।
इन्द्र असंख्यों देव देवियों, सहित जहाँ आये तत्क्षण।
प्रभु निर्वाण कल्याणक पूजेंं, जजूँ भक्ति से मैं इस क्षण।।५।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्थ्यां श्रीपद्मप्रभतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (दोहा)-
श्री पद्मप्रभ पदकमल, शिवलक्ष्मी के धाम।
पूजूँ पूरण अर्घ्य ले, मिले निजातम धाम।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकरपंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय नम:।
-दोहा-
पद्मप्रभ जिनराज के, चरणकमल नत शीश।
पुष्पांजलि से मैं जजूं, प्रभु तुम त्रिभुवन ईश।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—शालिनी छंद—
‘दिग्वासा’ हो वस्त्र दिश् ही तुम्हारे।
ऐसी मुद्रा हो कभी नाथ मेरी।।
श्रद्धा से मैं जजूं पद्मप्रभु को।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं दिग्वाससे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सुन्दर ‘वातरशना’ तुम्हीं हो।
धारी वायू करधनी है कटी में।।श्रद्धा.।।२।।
ॐ ह्रीं वातरशनाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निर्ग्रंथेश’ हो बाह्य अंत:।
चौबीसों ही ग्रन्थ में मुक्त मानें।।श्रद्धा.।।३।।
ॐ ह्रीं निर्ग्रंथेशाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी भूमी पे ‘दिगम्बर’ तुम्हीं हो।
धारा अम्बर दिक्मयी शील पूरे।।श्रद्धा.।।४।।
ॐ ह्रीं दिगम्बराय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नििंष्कचन’ हो नाथ सर्वस्व त्यागा।
आत्मांनते सद्गुणों से भरी है।।श्रद्धा.।।५।।
ॐ ह्रीं नििंष्कचनाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छा त्यागी हो ‘निराशंस’ स्वामी।
आशा मेरी पूरिये सिद्धि पाऊँ।।श्रद्धा.।।६।।
ॐ ह्रीं निराशंसाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी ज्ञान ही नेत्र पाया।
स्वामी मेरे ‘ज्ञानचक्षू’ तुम्हीं हो।।श्रद्धा.।।७।।
ॐ ह्रीं ज्ञानचक्षुषे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाशा मोहारी ’अमोमुह’ कहाये।
स्वामी मेरे मोह रागादि नाशो।।श्रद्धा.।।८।।
ॐ ह्रीं अमोमुहाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तेजोराशी’ तेज के पुंज स्वामी।
चंदा से भी सौम्य शीतल भये हो।।श्रद्धा.।।९।।
ॐ ह्रीं तेजोराशये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंते ओजस्वी ‘अनंतौज’ स्वामी।
मेरी शक्ति को बढ़ा दो सभी ही।।श्रद्धा.।।१०।।
ॐ ह्रीं अनंतौजसे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘ज्ञानाब्धी’ ज्ञान के सिंधु स्वामी।
स्वामी मेरे ज्ञान को पूर्ण कीजे।।श्रद्धा.।।११।।
ॐ ह्रीं ज्ञानाब्धये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीलों से भृत ‘शीलसागर’ तुम्हीं हो।
अठरा साहस्र शील को पूरिये भी।।श्रद्धा.।।१२।।
ॐ ह्रीं शीलसागराय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तेजोमय’ हो नाथ! तेज: स्वरूपी।
आत्मा तेजोरूप मेरी करो भी।।श्रद्धा.।।१३।।
ॐ ह्रीं तेजोमयाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमितज्योती’ आप ज्योति अनंती।
मेरी आत्मा ज्योति से पूर दीजे।।
श्रद्धा से मैं जजूँ पद्मप्रभु को।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं अमितज्योतिषे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्योतिर्मूर्ती’ ज्योतिमय देह धारा।
मेरे घट में ज्ञान ज्योति भरीजे।।श्रद्धा.।।१५।।
ॐ ह्रीं ज्योतिर्मूर्तये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहारी हन के ‘तमोपह’ तुम्हीं हो।
मेरे चित्त का सर्व अज्ञान नाशो।।श्रद्धा.।।१६।।
ॐ ह्रीं तमोपहाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल ‘जगच्चूड़ामणी’ आप ही हो।
तीनोें लोकों के शिखारत्न स्वामी।।श्रद्धा.।।१७।।
ॐ ह्रीं जगच्चूड़ामणये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देदीप्यात्मा ‘दीप्त’ स्वामी तुम्हीं हो।
मेरी आत्मा दीप्त कीजे गुणों से।।श्रद्धा.।।१८।।
ॐ ह्रीं दीप्ताय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शंवान्’ स्वामी सौख्य शांती तुम्हीं में।
मेरी आत्मा सौख्य से पूर्ण कीजे।।श्रद्धा.।।१९।।
ॐ ह्रीं शंवते श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी मेरे ‘विघ्नवीनायका’ हो।
मेरे विघ्नों को हरो नाथ! जल्दी।।श्रद्धा.।।२०।।
ॐ ह्रीं विघ्नविनायकाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीनों लोकों में ‘कलिघ्ना’ तुम्हीं हो।
मेरे कलिमल नाश के सौख्य दीजे।।श्रद्धा.।।२१।।
ॐ ह्रीं कलिघ्नाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरे स्वामी ‘कर्मशत्रुघ्न’ ही हो।
दुष्कर्मों को नष्ट कीजे प्रभू जी।।श्रद्धा.।।२२।।
ॐ ह्रीं कर्मशत्रुघ्नाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘लोकालोक प्रकाशक’ जिनेशा।
देखा तीनों लोक अलोक भी तो।।श्रद्धा.।।२३।।
ॐ ह्रीं लोकालोकप्रकाशकाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जागे आत्मा में ‘अनिद्रालु’ स्वामी।
मेरी आत्म मोह निद्रा तजे भी।।श्रद्धा.।।२४।।
ॐ ह्रीं अनिद्रालवे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आलस नाशा हो ‘अतन्द्रालु’ स्वामी।
मेरी आत्मा ज्ञान से स्वस्थ होवे।।श्रद्धा.।।२५।।
ॐ ह्रीं अतन्द्रालवे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—लोलतरंग छंद—
जाग्रत संतत ‘जागरूक’ हो।
मोह कि नींद हरो तुम ध्याऊँ।।
पद्मप्रभू प्रणमूं मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।२६।।
ॐ ह्रीं जागरूकाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रमामय’ ज्ञानमयी हो।
ज्ञान गुणाधिक हो मुझ आत्मा।।पद्म.।।२७।।
ॐ ह्रीं प्रमामयाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! ‘लक्ष्मीपति’ जग में हो।
नंत चतुष्टय श्रीपति जिन हो।।पद्म.।।२८।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीपतये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगज्ज्योती’ कहलाये।
ज्योति भरो तम को हर लीजे।।पद्म.।।२९।।
ॐ ह्रीं जगज्ज्योतिषे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म दयापति ‘धर्मराज’ हो।
नाथ हृदे मुझ धर्म विराजे।।
पद्मप्रभू प्रणमूं मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।३०।।
ॐ ह्रीं धर्मराजाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रजाहित’ सर्व प्रज्ञा की।
पालन रीति नृपाल सिखायी।।पद्म.।।३१।।
ॐ ह्रीं प्रजाहिताय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘मुमुक्षु’ कहें मुनि ज्ञानी।
इच्छुक कर्म अरी सब छूटें।।पद्म.।।३२।।
ॐ ह्रीं मुमुक्षवे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बंधमोक्षज्ञा’ हो तुम स्वामी।
जानत बंध रु मोक्ष विधी को।।पद्म.।।३३।।
ॐ ह्रीं बंधमोक्षज्ञाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जिताक्ष’ जिता पण इंद्री।
जीत सकें विषयों को हम भी।।पद्म.।।३४।।
ॐ ह्रीं जिताक्षाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जितमन्मथ’ काम विजेता।
काम अरी मुझ मार भगावो।।पद्म.।।३५।।
ॐ ह्रीं जितमन्मथाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रशांतरसशैलुष’ हो।
किया प्रदर्शन शांतिरसों का।।पद्म.।।३६।।
ॐ ह्रीं प्रशांतरसशैलूषाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भव्यनपेटकनायक’ मानें।
भव्य समूह कहें तुम स्वामी।।पद्म.।।३७।।
ॐ ह्रीं भव्यपेटकनायकाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म प्रधान कहा युग आदी।
‘मूलसुकर्ता’ आप बखाने।।पद्म.।।३८।।
ॐ ह्रीं मूलकर्त्रे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व पदारथ पूर्ण प्रकाशा।
नाथ! ‘अखिलज्योती’ सुर गाते।।पद्म.।।३९।।
ॐ ह्रीं अखिलज्योतिषे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘मलघ्न’ सभी मल हाने।
सर्व अघों मल नाश करो मे।।पद्म.।।४०।।
ॐ ह्रीं मलघ्नाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मूूलसुकारण’ मुक्ति सुपथ के।
नाथ! मुझे शिवमार्ग दिखा दो।।पद्म.।।४१।।
ॐ ह्रीं मूलकारणाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आप्त’ यथारथ देव तुम्हीं हो।
नाथ! तपोनिधि दो सुखदाता।।पद्म.।।४२।।
ॐ ह्रीं आप्ताय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वागीश्वर’ दिव्यधुनी के।
लोल तरंग वचोऽमृत गंगा।।पद्म.।।४३।।
ॐ ह्रीं वागीश्वराय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘श्रेयान्’ प्रभो! श्रिय दाता।
अंतर बाहिर श्री मुझको दो।।पद्म.।।४४।।
ॐ ह्रीं श्रेयसे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रायसउक्ति’ हितंकर वाणी।
नाथ! मुझे निज रत्नत्रयी दो।।पद्म.।।४५।।
ॐ ह्रीं श्रायसोक्तये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सार्थकवाच ‘निरुक्तवाक्’ हो।
आप धुनी मन शांति करेगी।।पद्म.।।४६।।
ॐ ह्रीं निरुक्तवाचे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रवक्ता’ श्रेष्ठ वचों से।
धर्मसुधा बरसा जन तोषा।।
पद्मप्रभू प्रणमूं मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।४७।।
ॐ ह्रीं प्रवक्त्रे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘वचसामिश’ मानें।
धर्म वचन के ईश्वर ही हो।।पद्म.।।४८।।
ॐ ह्रीं वचसामीशाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मारजीता’ प्रभु कामजयी हो।
सर्व मनोरथ पूर्ण करो जी।।पद्म.।।४९।।
ॐ ह्रीं मारजिते श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वभाववित्’ तीन जगत् को।
जान लिया मुझ ज्ञान सुधा दो।।पद्म.।।५०।।
ॐ ह्रीं विश्वभावविदे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—त्रिभंगी छंद—
हे नाथ ‘सुतनु’ हो, उत्तमतनु हो, अतिशय दीप्ती, धारक हो।
हन आधी व्याधी, मेट उपाधी, पूर्ण निरामय कारक हो।।
हे पद्मप्रभू तुम, अतिशय उत्तम, जो जन पूजें भक्ति करें।
सब आपद टालें, संपति पालें, निज आतम में तृप्ति धरें।।५१।।
ॐ ह्रीं सुतनवे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु देहरहित हो, ज्ञानदेह हो, ‘तनुनिर्मुक्त’ कहाते हो।
तनु बंधन काटूं, अघ अरि पाटूूं, भवितनुमल, को नाशे हो।।हे.।।५२।।
ॐ ह्रीं तनुनिर्मुक्तये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगत’ तुम्हीं हो, अधर गमन हो, आत्मरूप में लीन रहे।
मुझ सुगति करोगे, सौख्य भरोगे, दो शक्ति शिवमार्ग लहें।।हे.।।५३।।
ॐ ह्रीं सुगताय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु‘हतदुर्नय’ हो, स्वयं सुनय हो, मिथ्यानय को दूर किया।
जो नहिं निरपेक्षी, नित सापेक्षी, सम्यक् का कथन किया।।
हे पद्मप्रभू.।।५४।।
ॐ ह्रीं हतदुर्नयाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘श्रीश’ हो, मुक्ति ईश हो, अंतर बाहिर लक्ष्मी से।
श्री आदि देवियां, मात सेविया, तुम महिमा सुर भक्ती से।।
हे पद्मप्रभू.।।५५।।
ॐ ह्रीं श्रीशाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री-लक्ष्मी सेवित, चरणकमलयुग, प्रभु ‘श्रीश्रितपादाब्ज’ तुम्हीं।
धन लक्ष्मी इच्छुक, भविजन अर्चत, सभी सौख्य श्री देत तुम्हीं।।
हे पद्मप्रभू.।।५६।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रितपादाब्जाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘वीतभी’, प्राप्त अभयधी, भविजन को निर्भीक करो।
हत जन्म मरण भय, शिवपद निर्भय, देकर मुझ भय शीघ्र हरो।।
हे पद्मप्रभू.।।५७।।
ॐ ह्रीं वीतभिये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन ‘अभयंकर’ जग क्षेमंकर, भव्य हितंकर आप कहे।
मेरे दुख टारो, भव निरवारो, मुझ आत्मा निज सौख्य लहे।।
हे पद्मप्रभू.।।५८।।
ॐ ह्रीं अभयंकराय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘उत्सन्नादोष’ हो, रत्नकोश हो, सब दोषों को दूर किया।
मुझ दोष दूर हों, सौख्य पूर हो, इस आशा से शरण लिया।।
हे पद्मप्रभू.।।५९।।
ॐ ह्रीं उत्सन्नदोषाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विघ्न विरहिते, मंगल सहिते, कर्म हते, निर्विघ्न भये।
मुझ शिवमारग में, दिन प्रतिदिन में, विघन घने, तुम जजत गये।।
हे पद्मप्रभू.।।६०।।
ॐ ह्रीं निर्विघ्नाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अतिशय सुस्थिर, ज्ञान चराचर, मुनिगण ‘निश्चल’ तुमहिं कहें।
मुझ चित्त विमल हो, ध्यान अचल हो, पद भी निश्चल शीघ्र लहें।।
हे पद्मप्रभू तुम, अतिशय उत्तम, जो जन पूजें भक्ति करें।
सब आपद टालें, संपति पालें, निज आतम में तृप्ति धरें।।६१।।
हे पद्मप्रभू.।।६१।।
ॐ ह्रीं निश्चलाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमपद प्रीती, सुद्रुण नीती, हरत अनीती, प्रेम भरे।
तुम ‘लोकसुवत्सल’, हरत करम मल, भरत महाबल, नेह धरें।।
हे पद्मप्रभू.।।६२।।
ॐ ह्रीं लोकवत्सलाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘लोकोत्तर’ सर्व अनुत्तर, नमत सुरासुर, भविक भजें।
जो तुमपद ध्यावें, निज सुख पावें, कर्म नशावें, सुगुण सजें।।
हे पद्मप्रभू.।।६३।।
ॐ ह्रीं लोकोत्तराय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीित स्वाहा।
प्रभु ‘लोकपति’ हो, त्रिजग अधिप हो, भवि रक्षक हो, त्रिभुवन में।
अतिशय सुखदाता, हरत असाता, मोक्ष विधाता, मुनिगण में।।
हे पद्मप्रभू.।।६४।।
ॐ ह्रीं लोकपतये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु भविक नयन हो, ‘लोकचक्षु’ हो, जगत लखत हो, प्रतिक्षण में।
मुझ ज्ञाननेत्र दो, भ्रम तम हर दो, निज रुचि भर दो, रग रग में।।
हे पद्मप्रभू.।।६५।।
ॐ ह्रीं लोकचक्षुषे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘अपारधी’, अनवधिबुद्धी, हरत कुबुद्धी, ज्ञानमयी।
मुझ कुमति हटा दो, सुमति बढ़ा दो, मोह मिटा दो, दु:खमयी।।
हे पद्मप्रभू.।।६६।।
ॐ ह्रीं अपारधिये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘धीरधी’ सुस्थिर बुद्धी, अतुलित बुद्धी, महामना।
मुझ ज्ञान विमल हो, सौख्य अमल हो, जन्म सफल हो, धर्मघना।।
हे पद्मप्रभू.।।६७।।
ॐ ह्रीं धीरधिये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु भवदधि पारग, भवि शिवमारग, आप ‘बुद्धसन्मार्ग’ कहे।
पथ स्वयं चले हो, कहत भले हो, तुमसे ही, जन मार्ग लहें।।
हे पद्मप्रभू.।।६८।।
ॐ ह्रीं बुद्धसन्मार्गाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘शुद्ध’ हो, स्वात्मसिद्ध हो, भविजन शुद्ध, बने तुमसे।
मुझ कलिमल नाशो, आत्म प्रकाशो, मन में भासो, नमुं रुचि से।।
हे पद्मप्रभू.।।६९।।
ॐ ह्रीं शुद्धाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सत्यपवित्रा, वचन धरित्रा, ‘सत्यसूनृतवाक्’ तुम्हीं।
तुम वचन औषधी, सर्व औषधी, मेटत जामन मरण मही।।
हे पद्मप्रभू.।।७०।।
ॐ ह्रीं सत्यसूनृतवाचे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु चरमसीम पे, बुद्धी पहुँचे, ‘प्रज्ञापारमिता’ तुम हो।
मुझ ज्ञान अल्पश्रुत, बने पूर्ण श्रुत, ज्ञान ध्यान शिव कारक हो।।
हे पद्मप्रभू.।।७१।।
ॐ ह्रीं प्रज्ञापारमिताय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्राज्ञ’ कहाये, मोह नशाये, सुरगण गायें, गुण नित ही।
मुझ विद्यादाता, दो सुखसाता, हरो असाता, हो सुख ही।।
हे पद्मप्रभू.।।७२।।
ॐ ह्रीं प्राज्ञाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु विषय विरत हो, स्वात्म निरत हो, महाव्रतिक हो, ‘यति’ तुमही।
इंद्रिय विषयन को, कषाय गण को, दूर करो जो, दुखद मही।।
हे पद्मप्रभू.।।७३।।
ॐ ह्रीं यतये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु! ‘नियमित इंद्रिय’ जित पण इंद्रिय, जीत लिया हिय, जिन तुमही।
मुझ इंद्रिय मन की, जीतन शक्ती, दीजे युक्ती, नमित मही।।
हे पद्मप्रभू तुम, अतिशय उत्तम, जो जन पूजें भक्ति करें।
सब आपद टालें, संपति पालें, निज आतम में तृप्ति धरें।।७४।।
ॐ ह्रीं नियमितेन्द्रियाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन् ! ‘भदंत’ तुम, पूज्य कहें मुनि, सुरनर यतिगण, तुम वंदे।
हम तज बहिरात्मा, अंतर आत्मा, हों परमात्मा गुण मंडे।।
हे पद्मप्रभू.।।७५।।
ॐ ह्रीं भदंताय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पृथ्वी छंद—
प्रभो! तुमहिं ‘भद्रकृत्’ सकल लोक कल्याणकृत्।
नमूूँ अतुल भक्ति से त्वरित सौख्य दीजे मुझे।।
जजूँ सतत आप मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।७६।।
ॐ ह्रीं भद्रकृते श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमहिं ‘भद्र’ हो सकल जीव श्रेयस् करो।
अमंगल हरो सदा अखिल विश्व मंगल करो।।जजूँ.।।७७।।
ॐ ह्रीं भद्राय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमहिं ‘कल्पवृक्ष’ मन चाहि वांछा भरो।
अत: सकल भव्यजीत नित भक्ति से पूजते।।जजूँ.।।७८।।
ॐ ह्रीं कल्पवृक्षाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वरप्रद’ जिनेशा एक वरदान दे दीजियें
मिले तुरत सिद्धिधाम बस और ना चाहिये।।जजूँ.।।७९।।
ॐ ह्रीं वरप्रदाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! यम नाश के ‘समुन्मूलिता कर्म अरि’ हो।
उखाड़ जड़मूल से करम शत्रु नाशा तुम्हीं।।जजूँ.।।८०।।
ॐ ह्रीं समुन्मूलितकर्मारिये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! तुम ‘कर्मकाष्ठाशुशुक्षणी’ लोक में।
समस्त अठ कर्म इंधन जलावते अग्नि हो।।जजूँ.।।८१।।
ॐ ह्रीं कर्मकाष्ठाशुशुक्षणये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त शिव कार्य में निपुण आप ‘कर्मण्य’ हो।
प्रभो! निमित्त आप पाय सब कार्य मेरे बनें।।जजूँ.।।८२।।
ॐ ह्रीं कर्मण्याय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त कर्मारि के हनन में सुमामर्थ्य है।
अतेव ‘कर्मठ’ तुम्हीं सकल कार्य में दक्ष हो।।जजूँ.।।८३।।
ॐ ह्रीं कर्मठाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समर्थ प्रभु आप ही सतत ‘प्रांशु’ सर्वोच्च भी।
समस्त अघ नाश के सकल सौख्य संपद् भरो।।जजूँ.।।८४।।
ॐ ह्रीं प्रांशवे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! बस आप ‘हेयआदेयवीचक्षण:’।
हिताहित विचारशील तुम सा नहीं अन्य है।।जजूँ.।।८५।।
ॐ ह्रीं हेयादेयविचक्षणाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त जग जानते प्रभु ‘अनंतशक्ती’ तुम्हीं।
अनंत गुण पूरिये हृदय में सदा राजिये।।जजूँ.।।८६।।
ॐ ह्रीं अनंतशक्तये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न छिन्न भिन्न हों कभी प्रभु सदैव ‘अच्छेद्य’ हो।
मुझे स्वपर ज्ञान हो स्वयम् ही स्वयंभू बनूँ।।जजूँ.।।८७।।
ॐ ह्रीं अच्छेद्याय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘त्रिपुरारि’ हो त्रिविध कर्म को नाश के।
जरा जनम मृत्यु तीन पुर नाश कीने तुम्हीं।।जजूँ.।।८८।।
ॐ ह्रीं त्रिपुरारये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिलोचन’ त्रिकालवर्ति सब वस्तु को देखते।
जिनेन्द्र! श्रुतज्ञान से विमल स्वात्म चिंतन करूँ।।जजूँ.।।८९।।
ॐ ह्रीं त्रिलोचनाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिनेत्र’ तुम जन्म से मति श्रुतावधी ज्ञानि थे।
पुन: त्रिजग देख के सकल ज्ञानधारी भये।।
जजूँ सतत आप मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।९०।।
ॐ ह्रीं त्रिनेत्राय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक पितु आप ‘त्र्यंबक’ कहें मुनीनाथ भी।
मुझे भी प्रभु पालिये निजगुणादि से पूरिये।।जजूँ.।।९१ ।।
ॐ ह्रीं त्र्यंबकाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘त्र्यक्ष’ हो सतत रत्नत्रैरूप हो।
मुझे भि त्रय रत्न दो सकल लोक स्वामी बनूँ।।जजूँ.।।९२।।
ॐ ह्रीं त्र्यक्षाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वघाति चउ नाश ‘केवलज्ञानवीक्षण’ बनें।
विघात घन घाति मैं सकल ज्ञान पाऊँ प्रभो।।जजूँ.।।९३।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानवीक्षणाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘समंतभद्र’ सब ओर मंगलमयी।
अमंगल हरो सभी भुवन में सुमंगल करो।।जजूँ.।।।९४।।
ॐ ह्रीं समंतभद्राय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! सकल शत्रु शांतकर आप ‘शांतरि’ हो।
मुझे करम शत्रु शांतकर शक्ति दे दीजिये।।जजूँ.।।९५।।
ॐ ह्रीं शांतारये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुधर्म संस्थाप के तुमहि ‘धर्माचार्य’ हो।
प्रभो सकल विश्व में सदय१ धर्मनेता तुम्हीं।।जजूँ.।।९६।।
ॐ ह्रीं धर्माचार्याय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दयानिधि’ तुम्हीं सभी जन दया के भंडार हो।
दयालु मुझपे दया अब करो दुखी जान के।।जजूँ.।।९७।।
ॐ ह्रीं दयानिधये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पदार्थ सब सूक्ष्म भी लखत ‘सूक्ष्मदर्शी’ प्रभों
मुझे अतुल शक्ति दो सकल लोक अलोक१ लूँ।।जजूँ.।।९८।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मदर्शिने श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वकाम अरि-जीत के प्रभु तुम्हीं ‘जितानंग’ हो।
अभीप्सित सुपूरिये विषय काम को नाश के।।जजूँ.।।९९।।
ॐ ह्रीं जितानंगाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृपालु’ करके कृपा सकल पाप को नाशिये।
अनंत सुख दीजिये भुवन शीश पे थापिये।।जजूँ.।।१००।।
ॐ ह्रीं कृपालवे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! भुवि ‘धर्मदेशक’ तुम्हीं सुधर्माब्धि हो।
मुझे स्वपर भेदज्ञानमय धर्म दीजे अबे।।जजूँ.।।१०१।।
ॐ ह्रीं धर्मदेशकाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शुभंयु’ शुभ युक्त हो प्रभु सुखामृताम्भोधि हो।
मुझे शुभमयी करो तुरत शुद्ध आत्मा बने।।जजूँ.।।१०२।।
ॐ ह्रीं शुभंयवे श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘सुखसाद्भूत’ अनुपं सुखाधीन हो।
अनंत सुख दो मुझे गुणसमूह से पूर्ण जो।।जजूँ.।।१०३।।
ॐ ह्रीं सुखसाद्भूताय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! तुम ‘पुण्यराशि’ शुभ पुण्य भंडार हो।
पवित्र निज को किया मुझ पवित्र आत्मा करो।।जजूँ.।।१०४।।
ॐ ह्रीं पुण्यराशये श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनामय’ प्रभो! तुम्हें सकल व्याधि पीड़ा नहीं।
समस्त तनु रोग नाश भव व्याधि मेरी हरो।।जजूँ.।।१०५।।
ॐ ह्रीं अनामयाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! तुम ‘धर्मपाल’ जिन धर्म को रक्षते।
अनंत जिनधर्म हे हृदय में विराजो सदा।।जजूँ.।।१०६।।
ॐ ह्रीं धर्मपालाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘जगत्पाल’ हो भुवन प्राणि को रक्षते।
मुझे सतत रक्षिये जगपते! मनोरक्ष हो।।
जजूँ सतत आप मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०७।।
ॐ ह्रीं जगत्पालाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! जगमध्य ‘धर्मसाम्राजनायक’ तुम्हीं।
सुमोक्षप्रद सार्वभौम जिनधर्म के ईश हो।।जजूँ.।।१०८।।
ॐ ह्रीं धर्मसाम्राज्यनायकाय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—शंभु छंद—
दिग्वासादिक नाम एक सौ, आठ आपके सुरपति गाते।
नाममंत्र को मन में ध्याकर, योगीजन निज संपति पाते।।
मैं भी प्रतिक्षण पद्मप्रभु को, हृदय कमल में धारण कर लूँ।
प्रभु ऐसी दो शक्ती मुझको, तुम भक्ती से भवदधि तर लूँ।।१।।
ॐ ह्रीं दिग्वासादि अष्टोत्तरशतमंत्रसमन्विताय श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय नम:।
(१०८ बार या २७ बार सुगन्धित पुष्प से, लौंग से या पीले
चावलों से जाप्य करें)
-दोहा-
श्रीपद्मप्रभु गुणजलधि, परमानंद निधान।
गाऊँ गुणमणि मालिका, नमूँ नमूँ सुखदान।।१।।
-चामरछंद-
देव देव आपके पदारिंवद में नमूँ।
मोह शत्रु नाश के समस्त दोष को वमूँ।।
नाथ! आप भक्ति ही अपूर्व कामधेनु है।
दु:खवार्धि से निकाल मोक्ष सौख्य देन है।।२।।
जीव तत्त्व तीन भेद रूप जग प्रसिद्ध है।
बाह्य अंतरातमा व परम आत्म सिद्ध हैं।।
मैं सुखी दु:खी अनाथ नाथ निर्धनी धनी।
इष्ट मित्र हीन दीन आधि व्याधियाँ घनी।।३।।
जन्म मरण रोग शोक आदि कष्ट देह में।
देह आत्म एक है अतेव दु:ख हैं घने।।
आतमा अनादि से स्वयं अशुद्ध कर्म से।
पुत्र पुत्रियाँ कुटुंब हैं समस्त आत्म के।।४।।
मोह बुद्धि से स्वयं बहीरात्मा कहा।
अंतरातमा बने जिनेन्द्र भक्ति से अहा।।
मैं सदैव शुद्ध सिद्ध एक चित्स्वरूप हूँ।
शुद्ध नय से मैं अनंत ज्ञान दर्शरूप हूँ।।५।।
आप भक्ति के प्रसाद शुद्ध दृष्टि प्राप्त हो।
आप भक्ति के प्रसाद दर्श मोह नाश हो।।
आप भक्ति के प्रसाद से चरित्र धार के।
जन्मवार्धि से तिरूँ प्रभो! सुभक्ति नाव से।।६।।
दो शतक पचास धनुष तुंग आप देह है।
तीस लाख वर्ष पूर्व आयु थी जिनेश हे।।
पद्मरागमणि समान देह दीप्तमान है।
लालकमल चिन्ह से हि आपकी पिछान है।।७।।
वङ्का चामरादि एक सौ दशे गणाधिपा।
तीन लाख तीस सहस साधु भक्ति में सदा।।
चार लाख बीस सहस आयिकाएँ शोभतीं।
तीन रत्न धार के अनंत दु:ख धोवतीं।।८।।
तीन लाख श्रावक पण लाख श्राविका कहे।
जैन धर्म प्रीति से असंख्य कर्म को दहें।।
एकदेश संयमी हो देव आयु बांधते।
सम्यक्त्व रत्न से हि वो अनंत भव निवारते।।९।।
धन्य आज की घड़ी जिनेन्द्र अर्चना करूँ।
पद्मप्रभ की भक्ति से यमारि खंडना करूँ।।
राग द्वेष शत्रु की स्वयंहि वंचना करूँ।
‘‘ज्ञानमती’’ ज्योति से अपूर्व संपदा भरूँ।।१०।।
-दोहा-
धर्मामृतमय वचन की, वर्षा से भरपूर।
मेरे कलिमल धोय के, भर दीजे सुखपूर।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीताछंद-
जो पद्मप्रभतीर्थेश की, अर्चा करें अति भाव से।
वे मन कमल विकसित करें, सम्यक्त्वज्योति प्रभाव से।।
संसारसागर पार करके, स्वात्मनिधि को पावते।
‘सज्ज्ञानमति’ रवि किरण से, त्रिभुवन त्रिकाल प्रकाशते।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।