-दोहा-
घाति चतुष्टय घातकर प्रभु तुम हुए कृतार्थ।
नव केवल लब्धीरमा, उसको किया सनाथ।।१।।
-शेरछंद-
प्रभु दर्शमोहनीय को निर्मूल किया है।
सम्यक्त्व क्षायिकाख्य को परिपूर्ण किया है।।
चारित्र मोहनीय का विनाश जब किया।
क्षायिक चरित्र नाम यथाख्यात को लिया।।२।।
संपूर्ण ज्ञानावर्ण का जब आप क्षय किया।
कैवल्य ज्ञान से त्रिलोक जान सब लिया।।
प्रभु दर्शनावरण के क्षय से दर्श अनंता।
सब लोक औ अलोक देखते हो तुरंता।।३।।
दानांतराय नाश के अनंत प्राणि को।
देते अभय उपदेश तुम शिवपथ का दान जो।।
लाभान्तराय का समस्त नाश जब किया।
क्षायिक अनंतलाभ का तब लाभ प्रभु लिया।।४।।
जिससे परमशुभ सूक्ष्म दिव्य नंत वर्गणा।
पुद्गलमयी प्रत्येक समय पावते घना।।
जिससे न कवलाहार हो फिर भी तनू रहे।
शिवप्राप्त होने तक शरीर भी टिका रहे।।५।।
भोगांतराय नाश के अतिशय सुभोग हैं।
सुरपुष्पवृष्टि गंध उदकवृष्टि शोभ हैं।।
पग के तले वरपद्म रचें देवगण सदा।
सौगंध्य शीतपवन आदि सौख्य शर्मदा।।६।।
उपभोग अन्तराय का क्षय हो गया जभी।
प्रभु सातिशय उपभोग को भी पा लिया तभी।।
सिंहासनादि छत्र चंवर तरु अशोक हैं।
सुर दुुंदुभी भाचक्र दिव्यध्वनि मनोज्ञ हैं।।७।।
वीर्यान्तराय नाश से आनंत्य वीर्य हैं।
होते न कभी श्रांत आप धीर वीर हैं।।
प्रभु चार घाति नाश के नव लब्धि पा लिया।
आनन्त्य ज्ञान आदि चतुष्टय प्रमुख किया।।८।।
जय जय श्री जिनदेव देवदेव हमारे।
जय जय प्रभो! तुम सेव करें सुरपति सारे।।
जय जय अनंत सौख्य के भंडार आप हो।
जय जय समोसरण के सर्वस्व आप हो।।९।।
जो भव्य भक्ति से तुम्हें निज शीश नावते।
वे शिरोरोग नाश स्मृति शक्ति पावते।।
जो एकटक हो नेत्र से प्रभु आप को निरखें।
उन मोतिबिन्दु आदि नेत्र व्याधियाँ नशें।।१०।।
जो कान से अति प्रीति से तुम वाणि को सुनें।
उनके समस्त कर्ण रोग भागते क्षण में।।
जो मुख से आपकी सदैव संस्तुती करें।
मुख दंत जिह्वा तालु रोग शीघ्र परिहरें।।११।।
जो कंठ में प्रभु आपकी गुणमाल पहनते।
उनके समस्त कंठ ग्रीवा रोग विनशते।।
श्वासोच्छ्वास से जो आप मंत्र को जपते।
सब श्वांस नासिकादि रोग उनके विनशते।।१२।।
जो निज हृदय कमल में आप ध्यान करे हैं।
वे सर्व हृदय रोग आदि क्षण में हरे हैं।।
जो नाभिकमल में तुम्हें नित धारते मुदा।
नश जातीं उनकी सर्व उदर व्याधियाँ व्यथा।।१३।।
जो पैर से जिनगृह में आके नृत्य करे हैं।
वे घुटने पैर रोग सर्व नष्ट करे हैं।।
पंचांग जो प्रणाम करें आपको सदा।
उनके समस्त देह रोग क्षण में हों विदा।।१४।।
जो मन में आपके गुणों का स्मरण करें।
वे मानसिक व्यथा समस्त ही हरण करें।।
ये तो कुछेक फल प्रभो! तुम भक्ति किये से।
फल तो अचिन्त्य है न कोई कह सके उसे।।१५।।
तुम भक्ति अकेली समस्त कर्म हर सके।
तुम भक्ति अकेली अनंत गुण भी भर सके।।
तुम भक्ति भक्त को स्वयं भगवान बनाती।
फिर कौन-सी वो वस्तु जिसे ये न दिलाती।।१६।।
अतएव नाथ! आप चरण की शरण लिया।
संपूर्ण व्यथा मेट दीजिए अरज किया।।
अन्यत्र नहीं जाऊँगा मैंने परण किया।
बस ‘ज्ञानमती’ पूरिये यहँ पे धरण दिया।।१७।।
श्री पूज्यपादयतीकृत, भक्ती अचिन्त्य है।
जो नेत्ररोग हरण में, अतिशय प्रसिद्ध है।।
यह शांतिभक्ति का विधान सर्व व्याधिहर।
भवरोग दूर करने में भी पूर्ण है प्रवर।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्य शांतिभक्ति का, विधान यह करें।
वे आधि व्याधि, शोक, दु:ख का शमन करें।।
संसार के सम्पूर्ण सौख्य, संपदा धरें।
कैवल्यज्ञानमती से, निजात्मसुख भरें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।