श्रीमान् सीमंधर युगमंधर, बाहू जिन तथा सुबाहू हैं।
संजात स्वयंप्रभ वृषभानन, श्रीअनंतवीर्य को ध्याऊँ मैं।।
श्री सूरप्रभ विशालकीर्ति, जिनराज वङ्काधर चन्द्रानन।
श्री भद्रबाहु जिन भूजंगम, ईश्वर नेमिप्रभ शिवासान।।१।।
श्री वीरसेन और महाभद्र, जिनदेव देवयश अजितवीर्य।
ये बीस जिनेश्वर विद्यमान, रहते विदेह में जगतकीर्त्य।।
इन सबको मेरा नमस्कार, हों बार-बार ये सुखकारी।
ये बीसों तीर्थंकर नितप्रति, हों हम सबको मंगलकारी।।२।।
इस जंबूद्वीप मध्य मेरू के, पूर्व अपर दिश में जानो।
ये पूर्व और पश्चिम विदेह, इन दोनों मध्य नदी मानो।।
इस विध इन चारों भागों में, चउ-चउ वक्षार शैल माने।
त्रय-त्रय विभंगनदियों से भी, इक-इक के आठ भेद माने।।३।।
ये सब विदेह बत्तीस हुये, इस विध प्रत्येक मेरु के भी।
बत्तिस- बत्तीस कहे इससे, हैं इक सौ साठ विदेह सभी।।
इस जंबूद्वीप में सीमा के, उत्तर में ‘सीमंधर’ जिन हैं।
सीता नदि के दक्षिण तट में, नित राजित ‘युगमंधर’ जिन हैं।।४।।
सीतोदा दक्षिण ‘बाहू’ जिन, उत्तर दिश में ‘सुबाहु’ राजें।
वे विहरें वहाँ तथापि यहाँ, पर भी हों नित मंगल काजें।।
पांचों भी महाविदेहों में, हैं चार-चार जिन तीर्थंकर।
ये बीसों नित्य विहरते हैं, शाश्वत् जिनवर इस पृथ्वी पर।।५।।
कम से कम बीस तथा युगपत, हों अधिक-अधिक भी यदी कभी।
इक सौ सत्तर हो सकते हैं, तीर्थंकर जग में कभी-कभी।।
भरतैरावत दश क्षेत्रों के, दश मिलने से ही यह गणना।
ध्रुव ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी हेतू, उन सबको वंदन पुन: पुन:।।६।।
कोई-कोई जिन विदेह में, दो तीन कल्याणक को भि धरें।
औ पंचकल्याणक के स्वामी, वे सब मम चित्त पवित्र करें।।
जो नितप्रति यह स्तुती पढ़ें, वे पहले सीमंधर जिन के।
दर्शन करते हैं फिर निश्चित, संपूर्ण कल्याणक को भजते।।७।।