तर्ज-जरा सामने तो आओ………
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।टेक.।।
चार प्रकार के दान को दे, श्रावक इसका पालन करते।
रत्नत्रय का दान मुनीजन, दे इसको धारण करते।।
आह्वानन करूँ स्थापना, पूजन की प्रथम पहचान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
प्रासुक जल लेकर झारी में, प्रभु पद में जलधार करूँ।
जन्म जरा मृत्यू नश जावे, त्याग को मैं स्वीकार करूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
मलयागिरि का चंदन लेकर, प्रभु पद में चर्चन कर लूँ।
भव आतप नश जावे मेरा, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
धवल अखण्डित तंदुल लेकर, पुंज से प्रभु पूजन कर लूँ।
अक्षय पद मिल जावे मुझको, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
पुष्प सुगंधित ले हाथों में, प्रभु सम्मुख अर्पण कर दूँ।
विषय वासनाओं को तजकर, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
पूरणपोली खुरमे खाजे, लेकर प्रभु पूजन कर लूँ।
क्षुधारोग नश जावे मेरा, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
स्वर्ण थाल में दीपक लेकर, जिनवर की आरति कर लूँ।
मोहतिमिर नश जावे मेरा, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
अष्टगंध की धूप बनाकर, अग्नी में मैं दहन कर लूँ।
अष्टकर्म नश जावें मेरे, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
खट्ठे-मीठे विविध फलों से, जिनवर की पूजन कर लूँ।
मोक्ष महाफल प्राप्त मुझे हो, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
अर्घ्य थाल ‘‘चन्दनामती’’, लेकर जिनवर पूजन कर लूँ।
पद अनर्घ्य मिल जावे मुझको, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।९।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
पावन जल से प्रभु चरणों में, शांतिधारा मैं कर लूँ।
आत्मशांति मिल जावे मुझको, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
करूँ त्याग धर्म की अर्चना, इसकी महिमा बड़ी ही महान है।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।
उपवन से फूलों को चुन-चुन, पुष्पांजलि अर्पण कर दूँ।
आत्मा गुण से सुरभित होवे, त्याग धर्म मन में धर लूँ।।
सब ममता व मोह को त्याग कर, इसे धारण करें इंसान हैं।
मुनि-श्रावक सभी इसे पालकर, बनते एक दिन भगवान हैं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
त्यागधर्म की अर्चना, मुझको करे निहाल।
पुष्पांजलि कर वन्दना, करूँ प्रभो! नत भाल।।
इति मण्डलस्योपरि अष्टमवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-दोहा-
तन ममत्व से जीव का, होता है अपकार।
आतम से ममता करो, तब होगा उद्धार।।
काया से ममता घटे, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।१।।
ॐ ह्रीं तनममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माँ की ममता जगत में, है सबसे विख्यात।
इससे भी दुख प्राप्त हो, कोई तात न मात।।
माता से ममता घटे, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।२।।
ॐ ह्रीं जननीममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पितृ मोह से विकल हो, मन में अति संताप।
इससे अति दुख प्राप्त हो, बहुत बनाये तात।।
ममता पितु से यदि घटे, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।३।।
ॐ ह्रीं पितृममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुत्र मोह बेड़ी सदृश, इस सम कोई न राग।
इससे अति दुख प्राप्त हो, वैसे हो वैराग।।
पुत्र से ममता यदि घटे, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।४।।
ॐ ह्रीं पुत्रममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बड़े भाग्य से राज्य की, मिली संपदा आन।
उसमें रमकर आत्म की, कर न सका पहचान।।
राज्य मोह को त्यागकर, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।५।।
ॐ ह्रीं राज्यममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धन कन कंचन आदि का, मोह पाप की खान।
चपला इनको जान कर भी, छुटता नहिं अज्ञान।।
इनसे ममता को घटा, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।६।।
ॐ ह्रीं धनादिममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सहस छ्यानवे रानियाँ, तजी गये वनराय।
चक्रवर्ति सम मोह तज, वैसे करूँ उपाय।।
तिरिया मोह का त्याग कर, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।७।।
ॐ ह्रीं स्त्रीममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गृह कुटुम्ब मेला यहाँ, समझो मैं हूँ यात्रि।
उसको निज गृह मानकर, छुटती ममता नाहिं।।
सांकल जान इसे तजूँ, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।८।।
ॐ ह्रीं गृहकुटुम्बममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस संसार में है प्रमुख, मिथ्या भाव कषाय।
इससे कर्म बंधे सतत, वैâसे करूँ उपाय।।
इस कषाय को त्याग कर, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।९।।
ॐ ह्रीं कषायभावत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जहाँ राग वहाँ द्वेष भी, निश्चित मानो बात।
इसी राग अरु द्वेष में, जीव भ्रमे दिन रात।।
इन भावों को छोड़कर, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।१०।।
ॐ ह्रीं रागद्वेषभावत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
मातपिता सुत नारि का, है ममत्व दुख काज।
राग द्वेष इनमें किया, तभी मिला सुख नाहिं।।
इन सबकी ममता तजूँ, करूँ त्याग स्वीकार।
अर्घ्य थाल अर्पण करूँ, होने को भवपार।।११।।
ॐ ह्रीं सर्वप्रकार ममत्वत्यागरूपउत्तमत्यागधर्मांगाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय नम:।
तर्ज-तुमसे मिलने को………….
त्याग लेने का मन करता है।
हे प्रभो! तेरी पूजन का मन करता है।।टेक.।।
भ्रान्तिवश मैंने शुभ कर्म को तज दिया।
विषय भोगों में ही अपना मन कर लिया।
उसे तजने का मन करता है।
हे प्रभो! तेरी पूजन का मन करता है।।१।।
त्याग की महिमा अब मैंने जानी प्रभो।
दान की गरिमा अब मैंने मानी प्रभो।।
दान देने का मन करता है।
हे प्रभो! तेरी पूजन का मन करता है।।२।।
देना आहार औषधि अभयदान भी।
ज्ञान का दान दे तजना अज्ञान भी।।
ज्ञान लेने का मन करता है।
हे प्रभो! तेरी पूजन का मन करता है।।३।।
साधु ही त्याग उत्तम धरम पालते।
आज भी वे परम शांति को धारते।।
शांति पाने का मन करता है।
हे प्रभो! तेरी पूजन का मन करता है।।४।।
दान देकर के श्रावक जनम धन्य हो।
‘‘चन्दनामति’’ मेरा मन भी धन धन्य हो।।
सुरभि लेने का मन करता है।
हे प्रभो! तेरी पूजन का मन करता है।।५।।
अष्टद्रव्यों का पूर्णार्घ्य ले आया मैं।
नाथ! जयमाल पढ़ शांति को पाया मैं।
गुण गाने का मन करता है।
हे प्रभो! तेरी पूजन का मन करता है।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मांगाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्यजन दशधर्म की, आराधना करें।
निज मन में धर्म धार वे, शिवसाधना करें।।
इस धर्म कल्पवृक्ष को, धारण जो करेंगे।
वे ‘‘चंदनामती’’ पुन:, भव में न भ्रमेंगे।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।