-स्थापना (शंभ् छंद)-
तीर्थंकर प्रभु श्री पार्श्वनाथ, उपसर्गविजेता कहलाते।
इसलिए पार्श्व प्रभु संकट मोचन, चिंतामणि हैं कहलाते।।
उनकी उपसर्ग विजय एवं कैवल्यभूमि अहिच्छत्र जजूँ।
तीर्थंकर पद की प्राप्ति हेतु, उनकी कल्याणकभूमि नमूँ।।१।।
-दोहा-
आह्वानन स्थापना, करूँ प्रथम हे नाथ!
नंतर सन्निधिकरण कर, पूजूँ तीर्थ सनाथ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर पार्श्वनाथ केवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर पार्श्वनाथ केवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर पार्श्वनाथ केवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक–
स्वर्णिम झारी में जल लेकर, जलधारा प्रभु सम्मुख कर लूँ।
भवजल को जलांजली देकर, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मन की शीतलता हेतु शुद्ध, केशर प्रभु चरणों में चर्चंू।
भव के संकल्प-विकल्प तजूँ, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षय पद पाने हेतु प्रभो! अक्षत पुंजों से मैं अर्चूं।
कर्मों को खण्डित करने हित, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
इन्द्रिय विषयों के नाश हेतु, पुष्पों द्वारा प्रभु को अर्चूं।
आत्यंतिक सुख की प्राप्ति हेतु, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हलुवा पूड़ी नैवेद्य आदि का, थाल सजा प्रभु को अर्चूं।
क्षुधरोग विनाशन हेतु नाथ, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचन थाली में दीपक ले, मैं जिनवर की आरति कर लूँ।
मोहांधकार के नाश हेतु, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन अरु अगर तगर आदिक, अग्नी में धूप दहन कर लूँं।
कर्मारि दग्ध करने हेतू, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला अंगूर आदि, फल के द्वारा प्रभु को अर्चूं।
निर्वाण प्राप्ति के लिए नाथ, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ले अष्टद्रव्य ‘‘चन्दनामती’’, जिनवरपद में अर्पण कर दूँ।
निजपद अनर्घ्य की प्राप्ति हेतु, निज को निज में स्थिर कर लूँ।।
प्रभु पार्श्वनाथ उपसर्ग विजय, भूमी अहिच्छत्र को वंदन है।
उपसर्ग सहिष्णू बनने हित, तीरथ का कर लूँ अर्चन मैं।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र तीर्थक्षेत्राय
अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
अहिच्छत्र शुभ तीर्थ है, शांति प्रदायक नित्य।
शांतीधारा मैं करूँ, उस पूजन के निमित्त।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
विविध भांति के पुष्प ले, पुष्पांजली करंत।
क्रम से पूजन पाठ कर, होवे भव का अंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(इति मंडलस्योपरि अष्टादशमदले पुष्पांजलि क्षिपेत्)
अर्घ्य (शंभु छंद)
श्री पार्श्वनाथ भगवान जहाँ इक बार ध्यान में तिष्ठे थे।
कमठाचर संवर देव के उपसर्गों में भी वे अविचल थे।।
धरणेन्द्र व पद्मावति ने आ उपसर्ग प्रभू का दूर किया।
तब केवलज्ञान हुआ प्रभुवर ने घाति कर्म चकचूर किया।।१।।
-दोहा-
अष्टद्रव्य का अर्घ्य ले, यजन करूँ तीर्थेश।
ज्ञानकल्याणक तीर्थ है, पार्श्वनाथ अहिच्छेत्र।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणक पवित्र अहिच्छत्र
तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
-दोहा-
अहिच्छत्र शुभ तीर्थ को, नितप्रति करूँ प्रणाम।
तीर्थंकर प्रभु पार्श्व को, हुआ जहाँ पर ज्ञान।।१।।
-शंभु छंद-
सिद्धों की श्रेणी में आकर, जिनने इतिहास बनाया है।
सिद्धी कन्या का परिणय कर, आत्यंतिक सुख को पाया है।।
उन सिद्धशिला के स्वामी पारसनाथ प्रभू को नमन करूँ।
उनकी उपसर्ग विजय भूमी, अहिच्छत्र तीर्थ को नमन करूँ।।२।।
इतिहास पुराना है लेकिन, हर पल हमको सिखलाता है।
शुभ क्षमा धैर्य अरु सहनशीलता का संदेश सुनाता है।।
अपनी आतमशांती से शत्रू, भी वश में हो सकता है।
क्या दुर्लभ है जो कार्य क्षमा के, बल पर नहिं हो सकता है।।३।।
अहिच्छत्र तीर्थ उत्तरप्रदेश के, जिला बरेली में आता।
जिसके दर्शन-वंदन करके, भक्तों को मिलती सुख साता।।
धरणेन्द्र और पद्मावति ने, जहाँ फण का छत्र बनाया था।
उपसर्ग निवारण कर प्रभु का, सार्थक अहिच्छत्र बनाया था।।४।।
है वर्तमान में भी अतिशय, वहाँ पार्श्वनाथ तीर्थंंकर का।
मंदिर तो है अवलम्बन बस, कण-कण पावन है तीरथ का।।
इस तीरथ के पारस प्रभु को, कहते तिखाल वाले बाबा।
प्रतिमा छोटी है किन्तु वहाँ, भक्तों का बड़ा लगे तांता।।५।।
वहाँ तीन पूर्व मुख वेदी के ही, बीच में पद्मावति देवी।
अपने अतिशय को दिखा रहीं, पारसप्रभु की शासन देवी।।
लौकिक सुख की इच्छा से सारे, भक्त पूजते हैं इनको।
प्राचीन पद्धती है यह ही, मिथ्यात्व न तुम समझो इसको।।६।।
इस मंदिर के बीचों बिच में, खड्गासन पार्श्वनाथ प्रतिमा।
प्रभु के शरीर अवगाहनयुत, होने से उसकी है महिमा।।
यह मंदिर बना ज्ञानमति माताजी की पुण्य प्रेरणा से।
उनके ही द्वारा दिये गये, प्रभु नाम यहाँ उत्कीर्ण भी हैं।।७।।
ढाईद्वीपों के पाँच भरत, पंचैरावत की प्रतिमाएँ।
दश क्षेत्रों के त्रैकालिक सात सौ बीस जिनेश्वर कहलाए।।
इनका वंदन करने से इक दिन, खुद का भी वंदन होगा।
इनका अर्चन करने से इक दिन, निज का भी अर्चन होगा।।८।।
इस तीस चौबीसी मंदिर में, दश कमलों पर जिनप्रतिमाएँ।
वे सात शतक अरु बीस मूर्तियाँ, सर्वसिद्धि को दिलवाएँ।।
इस जिनभक्ती की तुलना कोई, पुण्य नहीं कर सकता है।
इस भक्ती के द्वारा मानव, भवसागर से तिर सकता है।।९।।
श्री पार्श्वनाथ पद्मावति मंदिर, नाम से इक मंदिर भी है।
जहाँ पार्श्वनाथ के साथ मात, पद्मावति पूजी जाती हैं।।
जिनवर के आजू-बाजू में, धरणेन्द्र व पद्मावति प्रतिमा।
बतलाती हैं अहिच्छत्र तीर्थ, सार्थकता की गौरव-गरिमा।।१०।।
अहिच्छत्र तीर्थ की जयमाला, पढ़कर उसका ही स्मरण करूँ।
पारस प्रभु के अगणित गुण में से, क्षमा भाव को ग्रहण करूँ।।
जयमाला का पूर्णार्घ्य चढ़ाकर, मन में यह अरमान बने।
‘‘चन्दनामती’’ इस जीवन में, अहिच्छत्र तीर्थ वरदान बने।।११।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरपार्श्वनाथकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रअहिच्छत्रतीर्थक्षेत्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।