-स्थापना-
तर्ज-सपने में रात में………
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्म तत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
तीजा अधिकार है इसमें, वह कर्ता-कर्म नाम से।
फिर पुण्य-पाप का कथन है, चौथे अधिकार का क्रम है।।
इन सबको सौ गाथाओं में बतलाया है।
शुद्धात्म तत्त्व पाने का भाव बनाया है।।१।।
आह्वानन स्थापन कर, सन्निधीकरण के द्वारा।
अध्यात्म भावना भाऊँ, मण्डल पर अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
अब पाप कर्म तजने का मन में आया है।
शुद्धात्म तत्त्व पाने का भाव बनाया है।।२।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् स्थापनम्।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसारग्रंथराज!
अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधिकरणम्।
तर्ज – सपने में रात में………
-अष्टक-
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
गंगा का पावन जल है, जो करता मन निर्मल है।
उसे श्रुत के निकट चढ़ाऊँ, जन्मादिक रोग नशाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।१।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय
जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
मलयागिरि का चंदन है, जो करता शीतल मन है।
उसे श्रुत के निकट चढ़ाऊँ, भव आतम शीघ्र नशाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्म तत्त्व पाने का भाव बनाया है।।२।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय संसारताप-
विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
ये शुभ्र धवल तंदुल हैं, जो करें अखंडित बल हैं।
इन्हें श्रुत के निकट चढ़ाऊँ, अक्षयपद मैं पा जाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।३।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय अक्षयपद-
प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
पुष्पों की माल बनाऊँ, सोने का थाल सजाऊँ।
उसे श्रुत के निकट चढ़ाऊँ, विषयाशा शीघ्र नशाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।४।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय कामबाण-
विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
नैवेद्य अनेक बने हैं, जो तन की क्षुधा हने हैं।
उसे श्रुत के निकट चढ़ाऊँ, अपना क्षुधरोग नशाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।५।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
दीपक अनेक जलते हैं, बाहर का तम हरते हैं।
श्रुत की आरती उतारूँ, निज मोह तिमिर को भगा दूँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।६।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय मोहांधकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
अग्नी में धूप जलाई, घ्राणेन्द्रिय तृप्ती पाई।
इसे श्रुतपूजन में जलाऊँ, तब कर्मदहन कर पाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।७।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय अष्टकर्म-
दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
बादाम सेवफल आदी, हर सकते भूख व व्याधी।
इन्हें श्रुत के निकट चढ़ाऊँ, तो मोक्ष महाफल पाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।८।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय मोक्षफल-
प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री समयसार पूजन का थाल सजाया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।टेक.।।
‘‘चन्दनामती’’ जल आदी, आठों द्रव्यों की थाली।
ले श्रुत को अर्घ्य चढ़ाऊँ, जिससे अनर्घ्य पद पाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।९।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्माधिकार-पुण्यपापाधिकारसमन्वितश्रीसमयसाराय अनर्घ्यपद
प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
कलशे में जल भर लाऊँ, अब शांतीधार कराऊँ।
मैं आतम शांती पाऊँ, जग को भी शांति दिलाऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।१०।।
शांतये शांतिधारा
पुष्पों को चुन चुन लाऊँ, पुष्पांजलि कर सुख पाऊँ।
मन में गुण पुष्प खिलाऊँ, जग में सुगंध बिखराऊँ।।
श्रुत अध्ययन का शुभ भाव हृदय में आया है।
शुद्धात्मतत्त्व पाने का भाव बनाया है।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:
अथ प्रत्येक अर्घ्य
समयसार मण्डल विधान में, दुतिय वलय के निकट चलो।
इसमें सौ छन्दों के संग उन, अर्थ को भी स्मरण करो।।
कर्तृकर्म अरु पुण्य-पाप ये, दो अधिकार कहे इसमें।
अर्घ्य समर्पण से पहले, पुष्पांजलि करना है इसमें।।१।।
इति श्री समयसारमण्डलविधानस्य द्वितीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(1)
जाव ण वेदि विसे-संतरं तु आदासवाण दोह्णंपि।
अण्णाणी तावदु सो, कोधादिसु वट्टदे जीवो।।७४।।
-शंभु छंद-
यह जीव नहीं जाने जब तक, मेरी आत्मा शुद्धात्मा है।
इससे क्रोधादिक आस्रव का, संबंध नहीं जीवात्मा है।।
तब तक बहिरात्म अवस्स्था में, क्रोधादिरूप बन जाता है।
वह अज्ञानी निज भाव छोड़, परभावों में रम जाता है।।७४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं अज्ञानजनितक्रोधादिभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(2)
कोधादिसु वट्टंतस्स, तस्स कमस्स संचओ होदि।
जीवस्सेवं बंधो, भणिदो खलु सव्वदरसीहिं।।७५।।
क्रोधादिक भावों में प्रवृत्ति, करने से आस्रव होता है।
सब रागद्वेष भावों से नित, कर्मों का संचय होता है।।
बस इसी संचयन को निश्चय, ही कर्मबंध कहते ज्ञानी।
सर्वज्ञदेव की वाणी को, नहिं माने वह है अज्ञानी।।७५।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयेन क्रोधादिरूपपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(3)
जइया इमेण जीवेण, अप्पणो आसवाण य तहेव।
णादं होदि विसे-संतरं तु तइया ण बंधो से।।७६।।
जिस समय जीव निज आत्मा को, शुद्धात्मस्वरूप समझता है।
आस्रव को भिन्न समझ उससे, नहिं आस्रवमय परिणमता है।।
अज्ञानभाव को छोड़ तभी, सम्यक्ध्यानी बन जाता है।
नूतन कर्मों का बंध न कर, शुद्धात्मा में रम जाता है।।७६।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं नूतनकर्माश्रवनिरोधरूपअबंधकात्मतत्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(4)
णादूण आसवाणं, असुचित्तं च विवरीयभावं च।
दुक्खस्स कारणं ति य, तदो णियत्तिं कुणदि जीवो।।७७।।
ये आस्रव हैं अपवित्र तथा, जड़ पुद्गल आतमभिन्न सदा।
सर्वदा दु:ख के कारण हैं, इनका स्वभाव विपरीत कहा।।
ये आस्रव भाव जान करके, जो जीव उसे तज देता है।
वह रत्नत्रय वैराग्य भाव से, निज स्वरूप पा लेता है।।७७।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयानुसारेण आश्रवनिवृत्तात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(5)
अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो।
तह्मि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं णेमि।।७८।।
मैं हूँ निश्चय से एक शुद्ध, ममता विरहित शुद्धात्मा है।
सम्यग्दर्शन अरु ज्ञान चरण, से पूर्ण एक जीवात्मा है।।
चैतन्य स्वभावी आत्मा में, मैं लीन सदा ही रहता हूँ।
इसलिए सभी आस्रव भावों को, जान उन्हें क्षय करता हूँ।।७८।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं परमार्थेन ज्ञानदर्शनपरिपूर्णचैतन्यतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(6)
जीवणिबद्धा एए, अधुव अणिच्चा तहा असरणा य।
दुक्खा दुक्खफलात्ति य, णादूण णिवत्तए तेहिं।।७९।।
जीवात्मा के संग लगे हुए, क्रोधादिक आस्रवभाव सभी।
विद्युत् सम चंचल अध्रुव हैं, नहिं नित्य अवस्था प्राप्त कभी।।
अशरण और दु:खस्वरूप तथा, दुखफल ही देने वाले हैं।
आस्रव को समझ भेदज्ञानी, नहिं इसमें फंसने वाले हैं।।७९।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं जीवनिबद्धदु:खफलरूपआस्रवनिरोधप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(7)
कम्मस्स य परिणामं, णोकम्मस्स य तहेव परिणामं।
ण करेइ एयमादा, जो जाणदि सो हवदि णाणी।।८०।।
जो जीव कर्म नोकर्मों को, पुद्गल का कर्ता मान रहा।
नहिं आत्मा इनका उपादान, शुद्धात्मा उसको जान रहा।।
वे परमसमाधी में स्थित, मुनिजन ज्ञानी कहलाते हैं।
व्यवहार क्रियाओं से छुटकर, बस निश्चय में रम जाते हैं।।८०।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं कर्मनोकर्मपरिणामाकर्ताज्ञानीजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(8)
कत्ता आदा भणिदो, ण य कत्ता केण सो उवाएण।
धम्मादी परिणामे, जो जाणदि सो हवदि णाणी।।८१।।
यह आत्मा व्यवहारिक नय से, पुद्गल भावों का कर्ता है।
जो पुण्य पाप रागादिभाव, उनसे नहिं वह छुट सकता है।।
पर निश्चय नय से वही जीव, त्रैकालिक शुद्ध कहाता है।
वह मात्र जानता कर्ता नहिं, जिससे ज्ञानी बन जाता है।।८१।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं उभयनयाश्रयेण धर्मादिद्रव्याणां कर्ता-अकर्ताभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(9)
णवि परिणमइ ण गिण्हइ, उप्पज्जइ ण परदव्वपज्जाए।
णाणी जाणंतो वि हु, पुग्गलकम्मं अणेयविहं।।८२।।
पुद्गल की नानाभेद रूप, जो कर्म अवस्था मानी है।
उनको उस रूप जानकर भी, नहिं उसमें परिणति ठानी है।।
ऐसा सहजानन्दी ज्ञानी, नहिं उनको ग्रहण कभी करता।
परद्रव्यरूप पर्यायों में, निश्चय से नहिं वह रह सकता।।८२।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिश्चयेन पुद्गलादिपरद्रव्याणां अकर्तारूपजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(10)
णवि परिणमदि ण गिण्हदि, उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए।
णाणी जाणंतो वि हु, सगपरिणामं अणेयविहं।।८३।।
ज्ञानी मुनि अपनी आत्मा के, नाना विभाव पर्यायों को।
परद्रव्य समझकर निश्चय से, परिणमन कभी उसरूप न हो।।
ज्ञाता दृष्टा बस बना रहे, नहिं उसको कभी ग्रहण करता।
उनमें उत्पन्न न होता है, क्योंकि कर्ता वह नहिं इनका।।८३।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयेन परद्रव्यपर्यायाणां अकर्तृ-अग्राहकात्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(11)
णवि परिणमदि ण गिण्हदि, उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए।
णाणी जाणंतो वि हु, पुग्गलकम्मफलमणंतं।।८४।।
शुद्धातम में बसने वाले, ज्ञानीमुनि कर्म अनंतों के।
फल सुख-दुख आदि जानकर भी, नहिं हर्ष-विषाद करें उनमें।।
उन फल स्वरूप नहिं परिणमते, उत्पन्न न उनमें होते हैं।
निश्चय से उनका ग्रहण नहीं, बस निज फल को ही भोक्ते हैं।।८४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं अनंतभेदरूपपुद्गलकर्मफलानि ज्ञात्वापि अपरिणामिजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(12)
णवि परिणमदि ण गिण्हदि, उप्पज्जदि ण परद्रव्वपज्जाए।
पुग्गलदव्वं पि तहा, परिणमइ सएहिं भावेहिं।।८५।।
जैसे जीवात्मा पुद्गलमय, नहिं कभी परिणमन करता है।
वैसे ही पुद्गल भी पर की, पर्याय ग्रहण नहिं करता है।।
परद्रव्य रूप परिणमन नहीं, उत्पन्न न उनमें होता है।
पुद्गल तो पुद्गलमय परिणामों, से ही परिणत होता है।।८५।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निजशुद्धभावपरिणामकात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(13)
जीवपरिणामहेदुं, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति।
पुग्गलकम्मणिमित्तं, तहेव जीवो वि परिणमइ।।८६।।
ज्यों जीवात्मा के रागद्वेष, परिणाम निमित्तों को पाकर।
पुद्गल भी कर्मरूप बनते, संबंधी भावों को लाकर।।
त्यों ही पुद्गल कर्मों के भी, उदयादिक हेतू को पाकर।
रागादिभावमय परिणमता यह जीव निमित्त स्वयं पाकर।।८६।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं जीवपुद्गलपरिणामयो: निमित्तेन रागादिभावग्राहकात्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(14)
णवि कुव्वइ कम्मगुणे, जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे।
अण्णोण्णणिमित्तेण दु, परिणामं जाण दोण्हं पि।।८७।।
नहिं उपादान से जीवात्मा, कर्मादिरूप परिणमता है।
नहिं कर्म भि जीवस्वरूप बने, वह पुद्गलमय ही रहता है।।
नहिं उपादान परिणमन करे, फिर भी निमित्त बन जाते हैं।
घट औ कुम्हार की भाँति निमित्त, नैमित्तिक भाव धराते हैं।।८७।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं जीवकर्मणो: परस्परनिमित्त-नैमित्तिकपरिणमनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(15)
एएण कारणेण दु, कत्ता आदा सएण भावेण।
पुग्गलकम्मकयाणं, ण दु कत्ता सव्वभावाणं।।८८।।
इसलिए वास्तविकता यह है, आत्मा निज भावों का कर्ता।
निज आत्मभाव के द्वारा ही, चैतन्य स्वरूप रमण करता।।
पुद्गलकर्मों से बने हुए, भावों का नहिं वह कर्ता है।
निश्चय तो ऐसा ही कहता, व्यवहार नहीं कह सकता है।।८८।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं स्वपरिणामकर्तृत्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(16)
णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि।
वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं।।८९।।
निश्चयनय की दृष्टी से आत्मा, आत्मा का ही कर्ता है।
वह अपनी आत्मा के द्वारा, आत्मा का ही अनुभोक्ता है।।
हे शिष्य! जानकर तुम ऐसा, कर्तृत्वबुद्धि का त्याग करो।
निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि बनकर, निज आत्मा में अनुराग करो।।८९।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयेन स्वात्मस्वभावकर्तृत्वभोक्तृत्वप्रतिपादकसमयसारायअर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(17)
ववहारस्स दु आदा, पुग्गलकम्मं करेदि णेयविहं।
तं चेवपुणो वेयइ, पुग्गलकम्मं अणेयविहं।।९०।।
व्यवहारदृष्टि से वही जीव, नानाविध कर्मों का कर्त्ता।
उन ही पुद्गल कर्मों के भी, नानाविध सुख दुख को भरता।।
कर्ता भोक्तापन की बातें, व्यवहार नयाश्रित होती हैं।
नहिं निश्चयनय से औपाधिक, पर्याय जीव में होती हैं।।९०।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयाश्रितपुद्गलकर्मणां कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(18)
जदि पुग्गलकम्ममिणं, कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा।
दो किरियावदिरित्तो, पसज्जए सो जिणावमदं।।९१।।
पुद्गलकर्मों के करने में, आत्मा ही उपादान यदि है।
सुखदु:ख अनुभव करने में भी, भोक्ता यह उपादान से है।।
ऐसी ऐकान्तिक कथनी से, द्विव्रिâयावाद आ जाएगा।
यह जिनशासन में इष्ट नहीं, वह दोनों नय बतलाएगा।।९१।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं उपादानरूपेण पुद्गलकर्मकर्तृत्वभोक्तृत्वनिराकरणप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(19)
जह्मा दु अत्तभावं, पुग्गलभावं च दोवि कुव्वंति।
तेण दु मिच्छादिट्ठी, दोकिरियावादिणो हुँति।।९२।।
द्विक्रियावाद के मत में आत्मा, स्वपर भाव का कर्ता है।
जीव रु पुद्गल दोनों भावों, का वह निश्चित अनुभोक्ता है।।
दो क्रिया एक ही कहने से, वे मिथ्यादृष्टि होते हैं।
नय शैली से जो कथन करें, वे सम्यग्दृष्टि होते हैं।।९२।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं आत्मन:द्विक्रियावादित्वदोषप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यंनिर्वपामीति
स्वाहा।
(20)
पुग्गलकम्मणिमित्तं, जह आदा कुणदि अप्पणो भावं।
पुग्गलकम्मणिमित्तं, तह वेददि अप्पणो भावं।।९३।।
यह आत्मा पुद्गल कर्मों का, उदयादि निमित्त से कर्ता है।
उसके निमित्त उत्पन्न हुए, निज भावों का ही कर्ता है।।
उन पुद्गल कर्म निमित्तों से, आत्मा में जो वेदन होता।
उन ही भावों का भोक्ता है, परभाव रूप वह नहिं होता।।९३।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं कर्मोदयादिनिमित्तरागादिभावकर्तृत्वभोक्तृत्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(21)
मिच्छत्तं पुण दुविहं, जीवमजीवं तहेव अण्णाणं।
अविरदि जोगो मोहो, कोहादीया इमे भावा।।९४।।
एकांत कथन मिथ्यात्व कहा, दो भेद रूप वह होता है।
जो हैं अजीव अरु जीव रूप, सब भेद इन्हीं में होता है।।
अज्ञान अविरती योग मोह, क्रोधादिक भाव कहे जो भी।
उन सबके दो-दो भेद हुए, जीवरु अजीव माने वो भी।।९४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं जीवाजीवभेदरूपमिथ्यात्वअज्ञानादिभावप्रतिपादकसमयसारायअर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(22)
पुग्गलकम्मं मिच्छं, जोगो अविरदि अणाणमज्जीवं।
उवओगो अण्णाणं, अविरइ मिच्छं च जीवो दु।।९५।।
मिथ्यात्व योग अविरति अज्ञान, जो ये कारण कहलाए हैं।
पुद्गल वर्गणा रूप होने से, वे अजीव बतलाए हैं।।
वे ही अज्ञान तथा अविरति, मिथ्यात्व विपर्यय जब होते।
उपयोग स्वरूप भाव होने से, जीव रूप परिणत होते।।९५।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं पुद्गलकर्मरूपजीव-उपयोगरूपजीवतत्त्वप्रतिपादकसमयसारायअर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(23)
उवओगस्स अणाई, परिणामा तिण्ण मोहजुत्तस्स।
मिच्छत्तं अण्णाणं, अविरदिभावो य णायव्वो।।९६।।
मोही संसारी प्राणी के, तीनों अनादि परिणाम कहे।
क्योंकी उसका उपयोग सदा, तीनों स्वरूप परिणमन करे।।
मिथ्या, अज्ञान तथा अविरति, ये भाव विकारी होते हैं।
ये कहे अशुद्ध जीव में ही, नहिं शुद्ध जीव के होते हैं।।९६।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्वादिअनादिकालीनपरिणामप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(24)
एएसु य उवओगो, तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो।
जं सो करेदि भावं, उवओगो तस्स सो कत्ता।।९७।।
यद्यपि यह आत्मा शुद्ध नयाश्रित, शुद्ध निरंजन है ज्ञानी।
तो भी अनादि से तीनों ही, परिणामरूप है अज्ञानी।।
ये भाव उदय में आने पर, उपयोग उसी में रहता है।
अतएव निजात्म अवस्था तज, इन अशुभभाव का कर्ता है।।९७।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं आत्मनां विकारिभावकर्तृत्वगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(25)
जं कुणइ भावमादा, कत्ता सो होदि तस्स भावस्स।
कम्मतं परिणमदे, तह्मि सयं पुग्गलं दव्वं।।९८।।
जो जीव जिस समय जिन भावों, से जिन भावों को करता है।
उन ही भावों का कर्ता बन, परपरिणति को निज कहता है।।
इस तरह विकारी होने पर, जो पुद्गल परमाणू आते।
वे आत्मा के संग बन्ध करके, स्वयमेव कर्मसंज्ञा पाते।।९८।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं कर्मभावपरिणतपुद्गलद्रव्यप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(26)
परमप्पाणं कुव्वं, अप्पाणं पि य परं किंरतो सो।
अण्णाणमओ जीवो, कम्माणं कारगो होदि।।९९।।
अज्ञानमयी यह जीव निरंतर, पर को अपना कहता है।
निजशुद्धात्मा में पर बुद्धी, कर करके उसको तजता है।।
ऐसी बहिरात्म अवस्था ही, संसार भ्रमण करवाती है।
बस इसीलिए सब कर्मों का, कर्ता आत्मा बन जाती है।।९९।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं अज्ञानभावेनोत्पन्नकर्मरूपपरिणतआत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(27)
परमप्पाणमकुव्वं, अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो।
सो णाणमओ जीवो, कम्माणमकारओ होदि।।१००।।
जब वही आत्मा अपने को, पररूप नहीं परिणमित करे।
पर को निजरूप नहीं माने, निजपर का भेद विज्ञान करे।।
तब वही जीव ज्ञानी बनकर, कर्मों का कर्त्ता नहिं बनता।
उसके नहिं नूतन कर्म बंध, वह परमसमाधी में रमता।।१००।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयज्ञानेन अकर्ताभावपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(28)
तिविहो एसुवओगो, अप्पवियप्पं करेइ कोहोहं।
कत्ता तस्सुवओगस्स, होइ सो अत्तभावस्स।।१०१।।
पूर्वोक्त कथित मिथ्यात्व आदि, त्रय भावों को जो करते हैं।
मैं क्रोधरूप हूँ यह विकल्प, आत्मा में करने लगते हैं।।
उस समय उन्हीं का आत्मभाव, उपयोग का कर्ता बन जाता।
वैभाविक यह उपयोग कहा, स्वाभाविक रूप नहीं ध्याता।।१०१।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं क्रोधरूपपरिणतकर्तास्वरूपात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(29)
तिविहो एसुवओगो, अप्पवियप्पं करेदि धम्माई।
कत्ता तस्सुवओगस्स, होदि सो अत्तभावस्स।।१०२।।
पूर्वोक्त कथित मिथ्यात्व आदि, त्रय भावों को जो करते हैं।
धर्मादि द्रव्य को आत्मरूप, निज भाव समझने लगते हैं।।
उस समय उन्हीं का आत्मभाव, उपयोग का कर्ता बन जाता।
वैभाविक परिणति में पड़कर, स्वाभाविक रूप नहीं पाता।।१०२।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं त्रिविधोपयोगरूपमिथ्यात्वभावपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(30)
एवं पराणि दव्वाणि, अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ।
अप्पाणं अवि य परं, करेइ अण्णाणभावेण।।१०३।।
संसारी मन्दबुद्धि प्राणी, परद्रव्यों को निज मान रहे।
आश्चर्य किन्तु निज आत्मा को ही, पर का कर्ता जान रहे।।
अज्ञानभाव ही मात्र जीव के, निजानन्द का बाधक है।
परमात्मअवस्था की प्राप्ती में, भेदज्ञान ही साधक है।।१०३।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं कर्तृत्वभावस्य मूलकारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(31)
एदेण दु सो कत्ता आदा, णिच्छयविदूहिं परिकहिदो।
एवं खलु जो जाणदि, सो मुंचदि सव्वकत्तित्तं।।।१०४।
निश्चयज्ञाता मुनि ने आत्मा को, निज का कर्ता माना है।
निज आत्मा में ही रम करके, उसके गुण को पहचाना है।।
जो भी प्राणी दृढ़तापूर्वक, ऐसी श्रद्धा कर लेते हैं।
वे कर्तापन को दूर भगा, क्रम से सिद्धि वर लेते हैं।।१०४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं कर्तृत्वाभावगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(32)
ववहारेण दु आदा, करेदि घडपडरथाणि दव्वाणि।
करणाणि य कम्माणि य, णोकम्माणीह विविहाणि।।१०५।।
यह आत्मा व्यवहारिक नय से, घट पट रथ आदिक द्रव्यों का।
कर्ता है तथा इन्द्रियों का भी, है कर्ता परद्रव्यों का।।
जो विविध कर्म नोकर्म कहे, उनका भी कर्ता आत्मा है।
केवल व्यवहारिक नय से ही, निश्चय से तो परमात्मा है।।१०५।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयापेक्षया घटवस्त्रादिकर्मनोकर्मादिकर्तृत्वभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(33)
जदि सो परदव्वाणि य, करिज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज।
जह्मा ण तम्मओ तेण, सो ण तेसिं हवदि कत्ता।।१०६।।
यदि कभी मान भी लें ऐसा, आत्मा पर द्रव्यों का कर्ता।
तो क्या परद्रव्यों के संग में, वह खुद भी तन्मय हो सकता ?
लेकिन आत्मा तो तन्मय नहिं, हो सकता परद्रव्यों के संग।
तो फिर वैसे हो सकता पर का, कर्ता पर द्रव्यों के संग।।१०६।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं परमार्थतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(34)
जीवो ण करेदि घडं, णेव पडं णेव सेसगे दव्वे।
जोगुवओगा उप्पा-दगा य तेसिं हवदि कत्ता।।१०७।।
नहिं जीव कभी घट का कर्ता पट का कर्ता नहिं होता है।
नहिं शेष द्रव्य का भी कर्ता वह नहीं किसी का भोक्ता है।।
उपयोग योग जो जीवद्रव्य के घटपटादि में निमित्त बने।
बस इसीलिए आत्मा उनका कर्ता माना जाता जग में।।१०७।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निमित्तनैमित्तिकभावैरपि अकर्तागुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(35)
जे पुग्गलदव्वाणं, परिणामा होंति णाणआवरणा।
ण करेदि ताणि आदा, जो जाणदि सो हवदि णाणी।।१०८।।
जो पुद्गल द्रव्यों की परिणति, कर्मादि रूप से होती है।
ज्ञानावरणादि प्रकृतियों की, स्वाभाविक स्थिति होती है।।
आत्मा वास्तव में उन कर्मों का, कर्ता भी नहिं होता है।
जो निज में स्थित होता है, वह सम्यग्ज्ञानी होता है।।१०८।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं शुद्धज्ञानीगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(36)
जं भावं सुहमसुहं, करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता।
तं तस्स होदि कम्मं, सो तस्स दु वेदगो अप्पा।।१०९।।
शुभ अशुभ रूप जिन भावों को, संसारी आत्मा करता है।
बस किसी दृष्टि से वही जीव, उन सब भावों का कर्ता है।।
उन भावों को ही कर्म रूप, यह जीव ग्रहण जब करता है।
भोक्ता भी स्वयं बने प्राणी, कर्मों के फल को चखता है।।१०९।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया अज्ञानीजीवानामपि अकर्ताभावप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(37)
जो जह्मि गुणे दव्वे, सो अण्णह्मि दु ण संकमदि दव्वे।
सो अण्णमसंकंतो, कह तं परिणामए दव्वं।।११०।।
सच तो है जो गुण जिन द्रव्यों में, सतत वर्तता रहता है।
वह उसे छोड़ कर अन्य द्रव्य मय, कभी नहीं परिणमता है।।
तो सोचो अन्य द्रव्य वैसे, पर को निज रूप बना सकता।
यह केवल मन की भ्रान्ती है, स्वीकार न निश्चय कर सकता।।११०।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं परभावरूपसंक्रमणाभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(38)
दव्वगुणस्स य आदा, ण कुणदि पुग्गलमयह्मि कम्मह्मि।
तं उभयमकुव्वंतो, तह्मि कहं तस्स सो कत्ता।।१११।।
जैसे कुम्हार घट को रचकर, उस रूप न तन्मय हो जाता।
वैसे आत्मा कर्मों को कर, पुद्गल में ही नहिं खो जाता।।
गुण और द्रव्य दोनों स्वरूप, जब जीवात्मा नहिं बनता है।
तब बोलो उनका उपादान, क्यों जीव स्वयं बन सकता है?।।१११।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं शुद्धात्मन: अकर्तागुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(39)
जीवह्मि हेदुभूदे, बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं।
जीवेण कदं कम्मं, भण्णदि उवयारमत्तेण।।११२।।
कर्मों के आश्रव और बंध में, जीव निमित्त बना करता।
यदि जीव न हो तो केवल पुद्गल, कर्मबंध नहीं कर सकता।।
बस इसीलिए उपचार मात्र से, जीव भी कर्ता कहलाता।
व्यवहार धर्म इस हेतू से ही, हेय नहीं माना जाता।।११२।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं उपचारेण निमित्तनैमित्तिकभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(40)
जोधेहिं कदे जुद्धे, राएण कदंति जंपदे लोगो।
तह ववहारेण कदं, णाणावरणादि जीवेण।।११३।।
ज्यों रणभूमि में नृप सेना, जब शत्रुसैन्य संग लड़ती है।
योद्धा का युद्ध देख जनता, नृप युद्ध करे यह कहती है।।
त्यों ही व्यवहार नयाश्रय से, आत्मा कर्ता कहलाता है।
ज्ञानावरणादिक कर्मों का, परिणमन यही बतलाता है।।११३।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं शत्रुसैन्यं प्रति सन्नद्धनृपवत्उपचारगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(41)
उप्पादेदि करेदि य, बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य।
आदा पुग्गलदव्वं, ववहारणयस्स वत्तव्वं।।११४।।
आत्मा व्यवहार नयाश्रय से, पुद्गल कर्मों का कर्ता है।
उन सबको ग्रहण करे बांधे, उपजे उन मय परिणमता है।।
निश्चयनय से नहिं कर्ता नहिं, बंधता उत्पन्न नहीं करता।
उस रूप न परिणत होता है, वह शुद्ध भावमय परिणमता।।११४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं व्यवहारापेक्षया पुद्गलकर्मणां कर्तृभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(42)
जह राया ववहारा, दोसगुणुप्पादगोत्ति आलविदो।
तह जीवो ववहारा, दव्वगुणुप्पादगो भणिदो।।११५।।
ज्यों प्रजा के गुण औ दोषों का, उत्पादक राजा कहलाता।
व्यवहार दृष्टि से मात्र कथन, निश्चय नहिं यह सब बतलाता।।
त्यों ही व्यवहार नयापेक्षा, यह जीव द्रव्य भी कहलाता।
पौद्गलिक द्रव्य में कर्मरूप, गुण का उत्पादक बन जाता।।११५।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं उपचारेण पुद्गलद्रव्यगुणपर्यायाणां कर्तृत्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(43)
सामण्णपच्चया खलु, चउरो भण्णंति बंधकत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं, कसायजोगा य बोद्धव्वा।।११६।।
सामान्यतया इस जीव द्रव्य में, चार बन्ध के कारण हैं।
मिथ्यात्व तथा अविरति कषाय, अरु योग बंध के साधन हैं।।
ये चारों प्रत्यय कर्मास्रव, अरु बन्ध सदा करवाते हैं।
इनसे विरहित होकर प्राणी, प्रत्ययविरहित हो जाते हैं।।११६।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्वअविरतिकषाययोगचतु:बंधप्रत्ययप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(44)
तेसिं पुणोवि य इमो, भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो।
मिच्छादिट्ठीआदी, जाव सजोगिस्स चरमंतं।।११७।।
आगे इनके ही भेद कहे, तेरह गुणथान सहित प्राणी।
मिथ्यादृष्टी आदिक सयोग, केवली प्रभृति श्रेणी मानी।।
इनमें ही जीव शुभाशुभ भावों, से परिणमन किया करता।
ध्यानी मुनिध्यान अवस्था में, निज अमृत पान किया करता।।११७।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं मिथ्यादृष्ट्यादि सयोगिकेवलीपर्यंतजीवभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(45)
एदे अचदेणा खलु, पुग्गलकम्मुदयसंभवा जह्मा।
ते जदि करंति कम्मं, णवि तेसिं वेदगो आदा।।११८।।
जो पुद्गल कर्म उदय से हैं, उत्पन्न अचेतन भाव सभी।
वे कर्म करें यदि तो भी आत्मा, उनका वेदक बने नहीं।
पुद्गल ही पुद्गल का कर्ता, उससे आत्मा का क्या नाता।
कर्मों का जीवद्रव्य के संग, बस निमित्त मात्र से ही नाता।।११८।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं पुद्गलकर्मोदयोत्पन्नभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(46)
गुणसण्णिदा दु एदे, कम्मं कुव्वंति पच्चया जह्मा।
तह्मा जीवोऽकत्ता, गुणा य कुव्वंति कम्माणि।।११९।।
है गुणस्थान का तारतम्य, जब तक आत्मा संग लगा हुआ।
तब तक ही पुद्गल भावों का, सम्बन्ध जीव से जुड़ा हुआ।।
क्योंकि निश्चय से जीव अकर्ता, कर्मबंध नहिं हो उसमें।
गुणथान नाम के प्रत्यय ही, कर्मों को करते हैं सच में।।११९।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं गुणस्थानसंज्ञया कर्मणां कर्तृभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(47)
जह जीवस्स अणण्णुव-ओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो।
जीवस्साजीवस्स य, एवमणण्णत्तमावण्णं।।१२०।।
ज्यों आत्मा से तन्मय होकर, उपयोग सदा संग रहता है।
त्यों ही क्रोधादि विभाव भाव भी, यदि आत्मा में बसता है।।
तो जीव और पुद्गल में निश्चित, एकपना हो जावेगा।
नहिं भेद रहेगा दोनों में, आत्मा अजीव बन जावेगा।।१२०।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं जीव-प्रत्ययो: भिन्नत्वं प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(48)
एवमिह जो दु जीवो, सो चेव दु णियमदो तहाजीवो।
अयमेयत्ते दोसो, पच्चयणोकम्मकम्माणं।।१२१।।
जब जीव अजीव द्रव्य दोनों, सर्वथा एक हो जायेंगे।
एकत्त्व दोष के कारण वे, दोनों निजरूप गवाँयेंगे।।
बस इसी तरह नोकर्म कर्म, प्रत्यय अरु जीव यदी मानो।
दोनों में एकरूपता यदि तो, जड़स्वभाव आत्मा जानो।।१२१।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं जीवाजीवयो: एकत्वदोषप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(49)
अह दे अण्णो कोहो, अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा।
जह कोहो तह पच्चय, कम्मं णोकम्ममवि अण्णं।।१२२।।
इन दोषों से यदि बचना है, तो जीव अजीव भिन्न मानो।
है क्रोध अन्य उपयोगवान्, आत्मा भी अन्य सदा जानो।।
जैसे आत्मा से क्रोध अलग, वैसे ही सब प्रत्यय होते।
नोकर्म और कर्मादि भाव, आत्मा से भिन्न सदा होते।।१२२।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं कर्मनोकर्माभ्यां भिन्नात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(50)
जीवे ण सयं बद्धं ण, सयं परिणमदि कम्मभावेण।
जइ पुग्गलदव्वमिणं, अप्परिणामी तदा होदि।।१२३।।
नहिं जीव में पुद्गलद्रव्य बंधें, स्वयमेव जीव संग आ करके।
नहिं कर्मरूप परिणमे वही, पुद्गल निमित्त को पा करके।।
यदि ऐसा माने तो पुद्गल, परिणामी नहिं कहलाएगा।
वह नित्य अपरिणामी होकर, वैसे संसार चलाएगा।।१२३।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं पुद्गलद्रव्यस्य अपरिणामिदोषप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(51)
कम्मइयवग्गणासु य, अपरिणमंतीसु कम्मभावेण।
संसारस्स अभावो, पसज्जदे संखसमओ वा।।१२४।।
कर्मादि रूप से कर्मवर्गणाएँ, भी नहिं परिणमती हैं।
है अपरिणामि पौद्गलिक कर्म, नहिं उसमें ऐसी शक्ती है।।
ऐसी मान्यता सांख्यदर्शन के, भावों को बतलाती है।
संसार नहीं हो सकता फिर, मुक्ती भी नहिं बन पाती है।।१२४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं पौद्गलिककर्मणां प्रति सांख्यमतानुसारिदोषप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(52)
जीवो परिणामयदे, पुग्गलदव्वाणि कम्मभावेण।
ते सयमपरिणमंते, कहं णु परिणामयदि चेदा।।१२५।।
पुद्गलद्रव्यों को जीव स्वयं, हठपूर्वक कर्म बनाता है।
ऐसा यदि मानें तो पुद्गल, परिणामि स्वयं बन जाता है।।
यदि अपरिणामि होगा पुद्गल, तो वैसे परिणम सकता है ?
कर्मादि रूप बन करके वैसे, अपरिणामि रह सकता है?।।१२५।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं पुद्गलद्रव्यस्वयं परिणामित्वदोषप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(53)
अह सयमेव हि परिणमदि, कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं।
जीवो परिणामयदे, कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।।१२६।।
यदि मानें पुद्गल द्रव्य स्वयं, कर्मादि रूप परिणमता है।
पर का निमित्त नहिं उसे कर्म, नो कर्मरूप कर सकता है।।
तब तो जीवात्मा का निमित्त, मिथ्या भ्रान्ती करवाता है।
यह कथन तुम्हारा है असत्य, कर्मों को जीव कराता है।।१२६।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं पुद्गलद्रव्यस्वयं अपरिणामित्वदोषप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(54)
णियमा कम्म परिणदं, कम्मं चि य होदि पुग्गलं दव्वं।
तह तं णाणावरणाइ, परिणदं मुणसु तच्चेव।।१२७।।
सच तो यह पुद्गल द्रव्य नियम से, कर्मरूप परिणमता है।
वह पुद्गल ही ज्ञानावरणादिक, कर्मरूप खुद बनता है।।
अतएव कर्म को पुद्गल की, पर्याय सदा जानो जग में।
इनसे विरहित निज आत्मा को, नित शुद्ध बुद्ध मानो सच में।।१२७।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं पुद्गलद्रव्यमेव-ज्ञानावरणादिकर्मरूपपरिणतस्वरूपप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(55)
ण सयं बद्धो कम्मे, ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं।
जइ एस तुज्झ जीवो, अप्परिणामी तदा होदि।।१२८।।
नहिं जीव स्वयं बंधता कर्मों से, क्रोध रूप नहिं परिणमता।
आत्मा की स्थिति यदि ऐसी, माने तो वैसे बन सकता।।
एकांतरूप से जीव द्रव्य को, अपरिणामि नहिं कह सकते।
संसार व्यवस्था नहिं बनती, यदि जीव नहीं परिणमन करे।।१२८।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयेन क्रोधादिभि: अपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(56)
अपरिणमंतम्हि सयं, जीवे कोहादिएहिं भावेहिं।
संसारस्स अभावो, पसज्जदे संखसमओ वा।।१२९।।
निश्चय नय से नहिं जीव स्वयं, क्रोधादि रूप परिणमता है।
लेकिन संसार अवस्था में, कर्मों के संग ही रमता है।।
यदि एक रूप से मात्र जीव को, अपरिणामि कहना होगा।
तो सांख्य कथन आ जावेगा, संसार अभाव सिद्ध होगा।।१२९।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं एकांतेन अपरिणामिजीवकथनेन सांख्यमतदोषप्रतिपादकसमय-
साराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(57)
पुग्गलकम्मं कोहो, जीवं परिणामएदि कोहत्तं।
तं समयपरिणमंतं, कहं णु परिणामयदि कोहो।।१३०।।
क्रोधादि कर्म पुद्गलस्वरूप जब, जीवात्मा संग आते हैं।
निज के सहकारी से आत्मा को, क्रोधरूप परिणाते हैं।।
सोचो यदि जीवद्रव्य खुद ही, परिणमन नहीं कर सकता है।
तो वैसे क्रोधकर्म उसको, निज सम परिणत कर सकता है?।।१३०।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया परिणमनशीलजीवतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(58)
अह सयमप्पा परिणमदि, कोहभावेण एस दे बुद्धी।
कोहो परिणामयदे, जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।।१३१।।
यदि ऐसी तेरी बुद्धि है, आत्मा निज के परिणामों से।
क्रोधादि रूप परिणत होता, बंधता भी है उन कर्मों से।।
तो पुद्गलकर्म जीव को क्रोध, भाव से परिणत करता है।
यह कथन सदा मिथ्या होगा, नहिं जीव कुपित हो सकता है।।१३१।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं क्रोधरूपपरिणतात्मतत्त्वं भ्रांतभावविनाशनप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(59)
कोहुवजुत्तो कोहो, माणुवजुत्तो य माणमेवादा।
माउवजुत्तो माया, लोहुवजुत्तो हविद लोहो।।१३२।।
इसलिए कथन यह सिद्ध हुआ, क्रोधादि भाव से युक्तात्मा।
क्रोधी कहलाता मान कर्म से, युत है मानी यह आत्मा।।
माया में है उपयोग यदी, तो माया रूप कहाएगा।
है लोभ कर्म से युक्त तभी, लोभी आत्मा बन जाएगा।।१३२।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं व्यवहारेणक्रोधमानमायालोभकषायपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(60)
जो संगं तु मुइत्ता, जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं।
तं णिस्संगं साहुँ, परमट्ठवियाणया विंति।।१३३।।
जो साधु बाह्य आभ्यंतर का, सम्पूर्ण परिग्रह तजते हैं।
शुद्धोपयोगमय आत्मा का, नित अनुभव करते रहते हैं।।
परमार्थविज्ञ गणधर देवादिक, उनको ही नि:संग कहें।
वे ही श्रेणी पर चढ़ करके, परमात्म अवस्था शीघ्र लहें।।१३३।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं गणधरकथितशुद्धात्मतत्त्वज्ञायकनिष्परिग्रहीमुनिगुणप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(61)
जो मोहं तु मुइत्ता, णाणसहावाधियं मुणदि आदं।
तं जिदमोहं साहुँ, परमट्ठवियाणया विंति।।१३४।।
जो मोहकर्म पर विजय प्राप्त कर, निर्मोही बन जाते हैं।
बस ज्ञानस्वभावी आत्मा को ही, अपना ध्येय बनाते हैं।।
उस मोहरहित मुनिवर को ही, आगम के ज्ञाता गुरु कहते।
यह ही है जितमोही साधू, नहिं श्रावक यह पद पा सकते।।१३४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं ज्ञायकस्वभावस्थितजितमोहमुनिगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(62)
जो धम्मं तु मुइत्ता, जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं।
तं धम्मसंगमुक्कं, परमट्ठवियाणया विंति।।१३५।।
व्यवहारिक धर्म छोड़ करके, जो निश्चय धर्म को ध्याते हैं।
शुद्धात्मज्ञान दर्शन स्वरूप, उपयोगी आत्मा पाते हैं।।
परमार्थज्ञानधारी गणधर, उनको सद्धर्मगुरु कहते।
जो धर्म परिग्रह से विरहित, निज पद में ही रमते रहते।।१३५।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं धर्मसंगविमुक्तपरमार्थविज्ञायकमहामुनिगुणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(63)
जं कुणदि भावमादा, कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स।
णाणिस्स स णाणमओ, अण्णाणमओ अणाणिस्स।।१३६।।
आत्मा जो भाव करे जिस क्षण, उसका ही कर्ता होता है।
जो भाव जिस समय नहीं करे, उसका नहिं कर्ता होता है।।
ज्ञानी के ज्ञानभाव माना, जो निश्चयरत्नत्रयमय है।
अज्ञानी के अज्ञानभाव, होता रागादिभावमय है।।१३६।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निजात्मभावकर्तृत्वगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(64)
अण्णाणमओ भावो, अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि।
णाणमओ णाणिस्स दु, ण कुणदि तह्मा दु कम्माणि।।१३७।।
अज्ञानमयी जो जीव राग-द्वेषादि भाव को करता है।
वह नित्य कर्म का बंध करे, नहिं कभी अबंधक रहता है।।
लेकिन ज्ञानी वैरागी मुनि, जो निर्विकल्प बन जाते हैं।
वे किसी कर्म के कर्ता नहिं, निज में परिणत हो जाते हैं।।१३७।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं ज्ञानाज्ञानभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(65)
णाणमया भावाओ, णाणमओ चेव जायदे भावो।
जम्हा तम्हा णाणिस्स, सव्वे भावा हु णाणमया।।१३८।।
ज्ञानी के तो ज्ञानादिभाव ही, नित्य उपजते रहते हैं।
बस ज्ञान ज्ञान में लीन सदा, वह ज्ञान गंग में बहते हैं।।
इस कारण ज्ञानी के समस्त, परिणाम ज्ञानमय होते हैं।
जो निश्चय रत्नत्रय में ही, उत्कृष्ट ध्यान में होते हैं।।१३८।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया ज्ञानमयभावपरिणतज्ञानीजीवप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(66)
अण्णाणमया भावा, अण्णाणो चेव जायए भावो।
जम्हा तम्हा भावा, अण्णाणमया अणाणिस्स।।१३९।।
यूं ही अज्ञानी प्राणी के, अज्ञानभाव ही होते हैं।
रागीद्वेषी परिणामों से, परिणाम न निर्मल होते हैं।।
अज्ञानी के इसलिए सतत, अज्ञानभाव ही माना है।
पर में ही कर्ता बुद्धि लिए, निज को किंचित् नहिं जाना है।।१३९।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं अज्ञानभावपरिणताज्ञानीजीवप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(67)
कणयमया भावादो, जायंते कुण्डलादयो भावा।
अयमयया भावादो, जह जायंते तु कडयादी।।१४०।।
जैसे सोने के पासे से, स्वर्णाभूषण बन जाते हैं।
लोहे की धातू से लोहे के, बर्तनादि बन जाते हैं।।
नहिं स्वर्ण से लोहमयी वस्तू, को प्राप्त कभी कर सकते हैं।
लोहे से स्वर्णाभूषण नहिं, त्रैकाल में भी बन सकते हैं।।१४०।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं कनकमयकुण्डलादिवत्-पर्यायप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(68)
अण्णाणमया भावा, अणाणिणो बहुबिहा वि जायंते।
णाणिस्स दु णाणमया, सव्वे भावा तहा होंति।।१४१।।
इस विधि से अज्ञानी प्राणी, अज्ञानभाव को ही करता।
अज्ञान भाव को बना बना, नाना पर्यायों को धरता।।
ज्ञानी आत्मा तो ज्ञानभावमय, वीतराग बन जाता है।
वह ज्ञान ध्यान में परिणत हो, वैवल्यज्ञान बन जाता है।।१४१।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं वीतरागज्ञानमयपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(69)
अण्णाणस्स स उदओ, जं जीवाणं अतच्चउवलद्धी।
मिच्छत्तस्स दु उदओ, जीवस्स उसद्दहाणत्तं।।१४२।।
जीवों को जो अन्यथारूप, पर की उपलब्धी होती है।
उसको अज्ञान उदय जानो, नहिं जीव की वह निज परिणति है।।
एवं जीवात्मा को तत्त्वों में, अश्रद्धान जब होता है।
निज आत्मतत्त्व से बहिर्भूत, मिथ्यात्व उदय तब होता है।।१४२।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं अज्ञानमिथ्यात्वभावपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(70)
उदओ असंजमस्स दु, जं जीवाणं हवेइ अविरमणं।
जो दु कलुसोवओगो, जीवाणं सो कसाउदओ।।१४३।।
चारित्रमोहिनी कर्म असंयम, का जब तक है उदयभाव।
पापों से विरति नहीं होती, वैसे हों उसके विरतभाव।।
होगा कषाय का उदय जहाँ, कलुषित परिणाम वहीं होंगे।
जो भाव मलिनता लिए हुए, वे संयम के बाधक होंगे।।१४३।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं असंयमकषायभावपरिणतअविरतिभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(71)
तं जाण जोगउदयं, जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो।
सोहणमसोहणं वा, कायव्वो विरदिभावो वा।।१४४।।
जो जीवों के मनवचनकाय की, सदा प्रवृत्ति चलती है।
चाहे शुभ हो या अशुभ रूप, सब में ही योग प्रवृत्ती है।।
मनवचनकाय की चेष्टा का, उत्साह उन्हीं के होता है।
बस योग निमित्त से ही जीवों के, भाव बहुत विध होते हैं।।१४४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं मनवचनकाययोगनिमित्तेन उत्पन्नविविधभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(72)
एदेसु हेदुभूदेसु, कम्मइयवग्गणागयं जं तु।
परिणमदे अट्ठविहं, णाणावरणादिभावेहिं।।१४५।।
इन सब हेतू के मिलने पर, जो कर्मवर्गणा आती हैं।
ज्ञानावरणादिक भेदों से वे, आठरूप बन जाती हैं।।
इनसे विरहित कोई निमित्त, नहिं कर्मवर्गणा ला सकता।
यह कर्म ही पुद्गलजीव उभय का, सम्मेलन करवा सकता।।१४५।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं कार्मणवर्गणानिमित्तेन अष्टकर्मरूपपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(73)
तं खलु जीवणिबद्धं, कम्मइयवग्गणागयं जइया।
तइया दु होदि हेदू, जीवो परिणामभावाणं।।१४६।।
वह कर्मवर्गणागत पुद्गल, जब जीव के संग बंध जाता है।
जल और दूध की भाँति जीव, पुद्गल स्वरूप बन जाता है।।
उस समय हि उन अज्ञान आदि, परिणामों का उद्गम होता।
वास्तव में उन परिणामों का, जीवात्मा ही हेतू होता।।१४६।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं क्षीरनीरवत्जीवपुद्गलसंबंधयो:निमित्तभूतजीवात्मतत्त्वप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(74)
जीवस्स दु कम्मेण य, सह परिणामा हु होंति रागादी।
एवं जीवो कम्मं, च दोवि रागादिमावण्णा।।१४७।।
रागादि विकारी भाव जीव में, कर्मों के संग होते हैं।
कर्मों के साथ सदा उसके, परिणाम उसी मय होते हैं।।
यदि ऐसा है तो जीव कर्म, दोनों ही एक सदृश होंगे।
रागादिभाव को प्राप्त जीव, निश्चय से सिद्ध नहीं होंगे।।१४७।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयनयापेक्षया रागादिभावादस्पर्शितात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(75)
एकस्स दु परिणामो, जायदि जीवस्स रागमादीहिं।
ता कम्मोदयहेदूहिं, विणा जीवस्स परिणामो।।१४८।।
एकान्त से यदि रागादिभाव से, जीव सदा परिणमन करे।
तो शुद्ध जीव में भी मानो, रागादिक से परिणमन अरे।।
लेकिन उदयागत विधि से आत्मा, औ परिणाम पृथक् ही हैं।
कर्मोदय हेतु बिना परिणाम, नहीं होते निश्चित ही है।।१४८।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनयापेक्षया रागादिपरिणतात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(76)
जइ जीवेण सहच्चिय, पुग्गलदव्वस्स कम्म परिणामो।
एवं पुग्गलजीवा, हु दोवि कम्मत्त मावण्णा।।१४९।।
यदि जीव के संग पुद्गल कर्मों, का ऐकांतिक परिणमन कहें।
नहिं निश्चय नय स्वीकार करे, व्यवहार मात्र यह कथन करें।।
क्योंकि आत्मा और कर्म उभय को, कर्मपना बन जावेगा।
दोनों ही कर्म बन जाने से, जीवात्मा कहाँ से आवेगा।।१४९।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं निश्चयव्यवहारनयापेक्षया जीवपुद्गलयो: कर्मसंबंधप्रतिपादक-
समयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(77)
एकस्स दु परिणामो, पुगगलदव्वस्स कम्मभावेण।
ता जीवभावहेदूहिं, विणा कम्मस्स परिणामो।।१५०।।
इस कर्मभाव से यदि हो तो, परिणाम एक पुद्गल का ही।
तो जीवद्रव्य रागादिभाव के, बिना कर्म बन जाता भी।।
है कर्म परिणमन पृथव् पृथकता, जीवभाव में ही मानी।
स्याद्वाद कथन द्वारा दोनों की, बात कथंचित् है मानी।।१५०।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिश्चयेन पुद्गलद्रव्याद् भिन्नमेव आत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(78)
जीवे कम्मं बद्धं, पुट्ठं चेदि ववहारणयभणिदं।
सुद्धणयस्स दु जीवे, अबद्धपुट्ठं हवइ कम्मं।।१५१।।
व्यवहारिक नय यह कहता है, कि कर्म जीव से बंधते हैं।
आत्मा के सभी प्रदेशों में, मिल एक संग ही रहते हैं।।
लेकिन निश्चय नय का कहना है, कर्म जीव में नहिं बंधते।
आत्मा से कर्म अबद्ध और, अस्पृष्ट शुद्ध नय से रहते।।१५१।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं नयविभागेन कर्मबद्धाबद्धआत्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(79)
कम्मं बद्धमबद्धं, जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खातिक्कंतो पुण, भण्णदि जो सो समयसारो।।१५२।।
कर्मों की बद्ध अबद्ध अवस्था, जीव के संग में मानी है।
निश्चय व्यवहार नयों के बल पर, कर्म व्यवस्था जानी है।।
जो ध्यानी मुनि नय पक्षपात से, दूर स्वयं हो जाते हैं।
वे ही शुद्धात्मा के ध्याता, बस समयसार कहलाते हैं।।१५२।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं पक्षातिक्रान्तेन कथितात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(80)
दोंण्हवि णयाण भणियं, जाणइ णवरिं तु समयपडिबद्धो।
ण दु णयपक्खं गिण्हदि, किंचिवि णयपक्खपरिहीणो।।१५३।।
शुद्धात्म तत्त्वज्ञाता मुनिवर, निज समयसार में लीन रहें।
दोनों नयपक्षों को जानें, केवल लेकिन स्वाधीन रहें।।
नहिं दोनों पक्षों में से कुछ भी, ग्रहण करें निज जीवन में।
क्योंकि नयपक्ष रहित ऋषिवर, बस ध्यानलीन निजआतम में।।१५३।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं ्नायद्वयज्ञायक-नयातीतगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(81)
सम्मद्दंसणणाणं, एदं लहदित्ति णवरि ववदेसं।
सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।।१५४।।
जो असली समयसार वह तो, सब नयपक्षों से विरहित है।
वह तो वास्तव में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान रूप ही है।।
ऐसे ही निर्विकल्प ध्यानी मुनि, समयसार कहलाते हैं।
श्रावक तो श्रद्धा मात्र करें, नहिं समयसार लख पाते हैं।।१५४।।
दोहा- कर्तृकर्म अधिकार को, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज।
तजकर निज अज्ञान को, सिद्ध करूँ सब काज।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञाननामप्राप्तसमयसारगुणसमन्वितनयातीतअवस्था-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्थ पुण्य-पाप अधिकार की गाथाओं के अर्घ्य
(82)
कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं।
कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि।।१५५।।
-चामर छन्द-
शुभ अशुभरूप कर्म के हि दोय भेद हैं।
शुभ सुशील अशुभ को कुशील सर्वजन कहें।।
निर्विकल्प मुनि के लिए शुभ भी नहीं श्रेष्ठ है।
जो कराता है सदा संसार में प्रवेश है।।१५५।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं सुशीलकुशीलरूपशुभाशुभकर्मप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(83)
सौवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं।
बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं।।१५६।।
ज्यों सुवर्ण लोह बेड़ियों से जीव ही बंधे।
त्यों ही शुभ अशुभ करम से जीव ही सदा बंधे।।
शुद्ध आत्मा मुनी के लिये दोहि हेय हैं।
श्रावकों के लिये शुभ सदा ही उपादेय है।।१५६।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं सुवर्णलौहनिगलवत्शुभाशुभकर्मप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(84)
तह्मा दु कुसीलेहिय रायं, मा कुणह मा व संसग्गं।
साधीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण।।१५७।।
दोय कर्म को कुसील जानकर इन्हें तजो।
राग व संसर्ग इन दोनों के संग मत करो।।
क्योंकि इन कुसील के संसर्ग राग से सदा।
स्वतन्त्रता विनाश शुद्ध आत्म की हो सर्वदा।।१५७।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं कर्मद्वयसंगत्यागभावप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा।
(85)
जह णाम कोवि पुरिसो, कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता।
वज्जेदि तेण समयं, संसग्गं रायकरणं च।।१५८।।
जैसे कोई नर किसी को कुसील जानकर।
छोड़ देता उससे राग उसको बुरा मानकर।।
उसके संग न रहे ना बाह्य प्रेम भी करे।
तब ही वह शुद्ध निज स्वभाव को किया करे।।१५८।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं रागभावत्यागगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(86)
एमेव कम्मपयडी, सीलसहावं च कुच्छिदं णाउं।
वज्जंति परिहरंति य, तस्संसग्गं सहावरया।।१५९।।
वैसे ही कर्मप्रकृति को कुसील जानकर।
भेद ज्ञानी छोड़ देते हैं विभाव मानकर।।
निज स्वभाव में ही सदा लीन रहते जो मुनी।
वे ही त्याग कर सकें न श्रावकों में है सुनी।।१५९।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं कुसीलभावं त्यक्त्वा त्यागभावग्रहणस्वभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(87)
रत्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो।
एसो जिणोवदेसो, तह्मा कम्मेसु मा रज्ज।।१६०।।
रागी जीव के सदा कर्मों का बंध हो रहा।
किन्तु विरागी उन्हीं कर्मों से मुक्त हो रहा।।
ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव का कथन सुनो सभी।
बनके विरागी मुनी न कर्म से बंधो कभी।।१६०।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं पूर्णवैराग्यभावपरिणतशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(88)
परमट्ठो खलु समओ, सुद्धो जो केवली मुणी णाणी।
तह्मि ट्ठिदा सहावे, मुणिणो पावंति णिव्वाणं।।१६१।।
जो भि केवली मुनी परमार्थ शुद्ध हो रहे।
शुद्ध समयसार में हि लीन जो सदा रहें।।
इस स्वभावरत मुनी निर्वाण प्राप्त कर सकें।
इसके बिना शिव कभी भि प्राप्त नहीं हो सकें।।१६१।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं नियमेन शुद्धकेवलीमुनिज्ञानीआदिविशेषणसमन्वितपरमार्थतत्त्व-
प्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(89)
परमट्ठम्हि दु अठिदो, जो कुणदि तवं वदं च धारेई।
तं सव्वं वालतवं, वालवदं विंति सव्वण्हू।।१६२।।
ज्ञानरूप आत्मतत्त्व में न जिनकी स्थिती।
किन्तु व्रत तपों को धारता रहा पुरुष वही।।
उनके उस तपश्चरण को बालतप कहा गया।
बाल व्रत के नाम से सर्वज्ञदेव ने कहा।।१६२।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं व्रततपादिकुर्वन्नपि-परमार्थरहितबालव्रततपप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(90)
वदणियमाणि धरंता, सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता।
परमट्ठवाहिरा जे, णिव्वाणं ते ण विंदंति।।१६३।।
यद्यपी जो व्रत नियम को धारते सदा मुनी।
शील और तपश्चरण भी बालतप कथा सुनी।।
ज्ञान परमार्थ रहित बाह्य ज्ञान हैं सभी।
इसलिए अज्ञानि मोक्ष प्राप्त कर सके नहीं।।१६३।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं परमार्थबाह्यव्रततपश्चरणादिप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(91)
परमट्ठबाहिरा जे, ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति।
संसारगमणहेदुं, वि मोक्खहेउं अजाणंता।।१६४।।
परमार्थबाह्य जो मुनी अज्ञानयुक्त हो रहे।
अज्ञान भाव से ही पुण्य कर्म सदा कर रहे।।
पुण्य वह संसार गमन का ही हेतु मानिए।
क्योंकि मोक्ष हेतु ज्ञान उससे दूर जानिए।।१६४।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं परमार्थबहिर्भूतसंसारगमनकारणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(92)
जीवादीसद्दहणं, सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं।
रायादीपरिहरणं, चरणं एसो दु मोक्खपहो।।१६५।।
जीवादि का श्रद्धान ही सम्यक्त्व नाम धारता।
उनका यथार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान नाम धारता।।
रागादिभाव परिहरण सम्यक्चरित्र है कहा।
तीनों के सम्मिलन से पथिक मोक्षपंथ को लहा।।१६५।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं जीवादितत्त्वश्रद्वानज्ञानानुचरणरूपमोक्षतत्त्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(93)
मोत्तूण णिच्छयट्ठं, ववहारे ण विदुसा पवट्टंति।
परमट्ठमस्सिदाण दु, जदीण कम्मक्खओ विहिओ।।१६६।।
मात्र व्यवहार में वे प्रवर्तन करें।
जो नहीं निश्चय का अर्थ वर्तन करें।।
क्योंकि कर्मक्षय तो निश्चय बिना है नहीं।
शुक्लध्यानलीन यती मोक्ष पाते सही।।१६६।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयनयापेक्षया कर्मक्षयकारणप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(94)
वत्थस्स सेदभावो, जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
मिच्छत्तमलोच्छण्णं, तह सम्मत्तं खु णायव्वं।।१६७।।
जैसे श्वेतवस्त्र का मैल के सम्पर्क से।
श्वेतपना नष्ट होता निजस्वभाव छोड़ के।।
वैसे ही सम्यक्त्व गुण मिथ्यात्व के प्रभाव से।
नष्ट होता आतमा का गुण मिथ्यात्व भाव से।।१६७।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं मिथ्यात्वमलरहितसम्यक्त्वप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(95)
वत्थस्स सेदभावो, जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
अण्णाणमलोच्छण्णं, तह णाणं होदि णायव्वं।।१६८।।
ज्यों विशेष मैल से वस्त्र मलिन हो रहा।
श्वेतपन को छोड़कर निजस्वभाव खो रहा।।
त्यों ही जीवतत्त्व ज्ञानभाव गुण को छोड़कर।
अज्ञानरूपी मैल से दबता स्वभाव छोड़कर।।१६८।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं अज्ञानमलरहितज्ञानगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(96)
वत्थस्स सेदभावो, जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
कसायमलोच्छण्णं, तह चारित्तं पि णादव्वं।।१६९।।
जैसे वस्त्र का सफेद रंग मैल संग से।
नष्ट होता मूल भाव ज्यों स्वभाव भंग से।।
वैसे ही कषाय मल चारित्र गुण को नाशता।
क्योंकि वह चरित्र भी अचारित्र भासता।।१६९।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं कषायमलरहितचारित्रगुणप्रतिपादकसमयसाराय अर्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
(97)
सो सव्वणाणदरिसी, कम्मरएण णियेणवच्छण्णो।
संसारसमावण्णो, ण विजाणदि सव्वदो सव्वं।।१७०।।
आतमा स्वभाव से ही सर्वज्ञानदर्शि है।
फिर भी कामरूपी रज से शान्तभाव भ्रष्ट है।।
संसार में रहकर के वह संसाररूप ही बने।
संपूर्ण वस्तु जानने में वह नहीं समर्थ है।।१७०।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं कर्मरजसाच्छादितसंसारावस्थाप्राप्तप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(98)
सम्मत्तपडिणिबद्धं, मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं।
तस्सोदयेण जीवो, मिच्छादिट्ठित्ति णायव्वो।।१७१।।
जीव के सम्यक्त्व गुण को रोकता मिथ्यात्व है।
इसके ही उदय से मिथ्यादृष्टि नाम प्राप्त है।।
यह कथन श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा सही।
नष्ट जो मिथ्यात्व को करें लहें वे शिवमही।।१७१।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं आत्मन: सम्यक्त्वगुणावरोधकमिथ्यात्वप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(99)
णाणस्स पडिणिबद्धं, अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं।
तस्सोदयेण जीवो, अण्णाणी होदि णायव्वो।।१७२।।
आत्मा के ज्ञानगुण को रोकता अज्ञान है।
इस उदय से जीव द्रव्य हो रहा अज्ञानि है।।
यह कथन श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा सही।
नष्ट जो अज्ञान को करें लहें वे शिवमही।।१७२।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं आत्मन: ज्ञानगुणावरोधकअज्ञानभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(100)
चारित्तपडिणिबद्धं, कसायं जिणवरेहि परिकहियं।
तस्सोदयेण जीवो, अचरित्तो होदि णायव्वो।।१७३।।
जीव के चारित्र गुण को रोकता कषाय है।
इसका उदय ही चरित्रहीनता विभाव है।।
यह कथन श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा सही।
नष्ट जो कषाय को करें लहें वे शिवमही।।१७३।।
दोहा- है चतुर्थ अधिकार यह, पुण्य पाप से ख्यात।
अर्घ्य चढ़ाकर सार मैं, लहूँ पुण्य फल नाथ।।
ॐ ह्रीं आत्मन: चारित्रगुणावरोधककषायभावप्रतिपादकसमयसाराय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य (शंभु छंद)-
कर्तृकर्म अरु पुण्य पाप, अधिकार को अर्घ्य समर्पित है।
पुण्य पाप कर्मों को करता, हुआ जीव यह दु:खित है।।
कुन्दकुन्द आचार्य प्रवर ने, भेदज्ञान बतलाया है।
उसको पढ़ पूर्णार्घ्य चढ़ाने, भक्त पुजारी आया है।।२।।
ॐ ह्रीं समयसारग्रंथस्य कर्तृकर्म-पुण्यपापनामद्व्यधिकारयो: वर्णित
सर्वगाथासूत्रेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं शुद्धात्मतत्त्वप्राप्तये श्रीसमयसारग्रंथाय नम:।
तर्ज-माई रे माई………।
समयसार की पूजन कर, कुछ आतम अनुभव पाओ।
समयसार के आराधक, गुरुओं को शीश झुकाओ।।
बोलो समयसार की जय, बोलो महासाधु की जय।।टेक.।।
जीव और पौद्गलिक कर्म का है, सम्बन्ध अनादी।
कर्म अन्त करना हो यदि तो, कर लो मरण समाधी।।
कर्ता-कर्म-क्रिया के द्वारा, आत्मा शुद्ध बनाओ।
समयसार के आराधक, गुरुओं को शीश झुकाओ।।
बोलो समयसार की जय, बोलो महासाधु की जय।।१।।
आत्मा अरु आस्रव में जो, नहिं भेद जानता प्राणी।
क्रोधादिक के कारण जो, रहते सदैव अज्ञानी।।
उस अज्ञान को दूर भगाने, हेतू श्रुत को ध्याओ।
समयसार के आराधक, गुरुओं को शीश झुकाओ।।
बोलो समयसार की जय, बोलो महासाधु की जय।।२।।
वीतराग विज्ञानी परद्रव्यों को ग्रहण न करता।
इसीलिए वह कर्तृ कर्म, भावों को कभी न वरता।।
कर्तृकर्म अधिकार को पढ़कर, मन में इसे बसाओ।
समयसार के आराधक, गुरुओं को शीश झुकाओ।।
बोलो समयसार की जय, बोलो महासाधु की जय।।३।।
पुण्य-पाप इन दो कर्मों से, यह संसार सजा है।
वीतराग विज्ञानी मुनि ने, इन दोनों को तजा है।।
तुम भी सच्चे श्रद्धानी बन, पहले पाप भगाओ।
समयसार के आराधक, गुरुओं को शीश झुकाओ।।
बोलो समयसार की जय, बोलो महासाधु की जय।।४।।
सच्चे ज्ञान बिना जो दुष्कर, कठिन तपस्या करते।
उनके तप को समयसार में, बालतपस्या कहते।।
मोक्ष प्राप्ति इससे नहिं होगी, समझो अरु समझाओ।
समयसार के आराधक, गुरुओं को शीश झुकाओ।।
बोलो समयसार की जय, बोलो महासाधु की जय।।५।।
पुण्यपाप अरु कर्तृ कर्म, अधिकार की यह जयमाला।
पढ़करके ‘‘चन्दनामती’’, पूर्णार्घ्य चढ़ाओ प्यारा।।
निज सम्यग्दर्शन दृढ़ करके, आत्मा शुद्ध बनाओ।
समयसार के आराधक, गुरुओं को शीश झुकाओ।।
बोलो समयसार की जय, बोलो महासाधु की जय।।६।।
ॐ ह्रीं कर्तृकर्म-पुण्यपापअधिकारसमन्वितसमयसारमहाग्रंथाय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
–दोहा-
समयसार का सार ही, है जीवन का सार।
शेष द्रव्य का भार है, जीवन में निस्सार।।
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।