मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य आसवा होंति।
पण बारस पणवीसा पण्णरसा होंति तब्भेया।।२।।
मिथ्यात्वमविरमणं कषाया योगाश्च आस्रवा भवन्ति।
पंच द्वादश पंशविंशति: पंचदश भवन्ति तद्भेदा:।।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव कहलाते हैं। ये आस्रव के लिए कारणभूत हैं अत: इन्हें आस्रव कह देते हैं। इनके उत्तर भेद क्रम से मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के बारह, कषाय के पच्चीस और योग के पंद्रह भेद होते हैं।।२।।
मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्चअत्थाणं।
एयंतं विवरीयं विणयं संसयिदमण्णाणं।।३।।
मिथ्यात्वोदयेन मिथ्यात्वमश्रद्धानं तु तत्त्वार्थानां।
एकांतं विपरीतं विनयं संशयितमज्ञानम्।।
मिथ्यात्व के उदय से जो तत्वों का अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व कहलाता है उसके ५ भेद हैं-एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान।।३।।
छिंस्सदिएसुऽविरदी छज्जीवे तह य अविरदी चेव।
इंदियपाणासंजम दुदसं होदित्ति णिद्दिट्ठं।।४।।
षट्स्विन्द्रियेष्वविरति: षड्जीवेषु तथा चाविरतिश्चैव।
इन्द्रियप्राणासंयमा द्वादश भवन्तीति निर्दिष्टं।।
पाँच इंद्रिय और मन इन छह इंद्रियों के विषयों से विरक्त नहीं होना और पाँच स्थावर एवं त्रस ऐसे षट्काय जीवों की विराधना से विरक्त नहीं होना अविरति है। इस प्रकार से इंद्रिय असंयम और प्राणी असंयम के भेद से अविरति के १२ भेद होते हैं।।४।।
अणमप्पच्चक्खाणं पच्चक्खाणं तहेव संजलणं।
कोहो माणो माया लोहो सोलस कसायेदे।।५।।
१अनमप्रत्याख्यान: प्रत्याख्यान: तथैव संज्वलन:।
क्रोधो मानो माया लोभ: षोडश कषाया एते।।
अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन इन चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से कषाय के १६ भेद होते हैं।।५।।
हस्स रदि अरदि सोयं भयं जुगंछा य इत्थिपुंवेयं।
संढं वेयं च तहा णव एदे णोकसाया य।।६।।
हास्यं रति: अरति: शोक: भयं जुगुप्सा च स्त्री-पुंवेदौ।
षंढो वेद: च तथा नवैते नोकषायाश्च।।
एवं हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये नव नोकषायें मिलकर कषाय के २५ भेद होते हैं।।६।।
मणवयणाण पउत्ती सच्चासच्चुभयअणुभयत्थेसु।
तण्णामं होदि तदा तेहिं दु जोगा हु तज्जोगा।।७।।
मनोवचनानां प्रवृत्ति: सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु।
तन्नाम भवति तदा तैस्तु योगाद्धि तद्योगा:।।
सत्य, असत्य, उभय और अनुभय अर्थों में मन, वचन की प्रवृत्ति सत्य मन, सत्य वचन आदि नाम से कही जाती है। इन सत्य मन, असत्य मन की प्रवृत्तियों के निमित्त से जो आत्मा के प्रदेशों में हलन, चलन होता है वह योग कहलाता है अत; इन सत्यमन, वचन के योग से सत्य मनोयोग, असत्य मन, वचन के योग से असत्य मनोयोग आदि उन-उन नाम वाले योग कहलाते हैं। इनके नाम-सत्यमनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचन योग, असत्यवचन योग, उभयवचन योग, अनुभय वचन योग, ये मनोयोग, वचनयोग के आठ भेद हुये।।७।।
ओरालं तंमिस्सं वेगुव्वं तस्स मिस्सयं होदि।
आहारय तंमिस्सं कम्मइयं कायजोगेदे।।८।।
औदारिकं तन्मिश्रं वैक्रियिकं तस्य मिश्रकं।
आहारकं तन्मिश्रं कार्मणकं काययोगा एते।।
औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियकमिश्र काययोग, आहारक काययोग, आहारकमिश्र काययोग और कार्मणयोग ये काययोग के ७ मिलकर योग के पंद्रह भेद होते हैं।।८।।
मिच्छे खलु मिच्छत्तं अविरमणं देससंजदो१ त्ति हवे।
सुहुमो त्ति कसाया पुणु सजोगिपेरंत जोगा हु२।।९।।
मिथ्यात्वे खलु मिथ्यात्वं अविरमणं देशसंयतमिति भवेत्।
सूक्ष्ममिति कषाया: पुन: सयोगिपर्यन्तं योगा हि।।
मिथ्यात्व गुणस्थान तक मिथ्यात्व रहता है, देशसंयत गुणस्थान तक अविरति रहती है, सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान तक कषायें रहती हैं एवं सयोगकेवली पर्यंत योग रहते हैं।।९।।
मिच्छदुगविरदठाणे मिस्सदुकम्मइयकायजोगा य।
छट्ठे हारदु केवलिणाहे ओरालमिस्सकम्मइया।।१०।।
मिथ्यात्वद्विकाविरतस्थाने मिश्रद्विककार्मणकाययोगाश्च।
षष्ठे आहारद्विकं केवलिनाथे औदारिकमिश्रकार्मणा:।।
मिथ्यात्व, सासादन और असंयत गुणस्थानों में औदारिकमिश्र, वैक्रियक- मिश्र और कार्मण काययोग होते हैं। छठे गुणस्थान में आहारक, आहारकमिश्र योग होते हैं एवं केवली भगवान के औदारिक मिश्र और कार्मण योग होते हैं।।१०।।
३पंच चदु सुण्ण सत्त य पण्णर दुग सुण्ण छक्क छक्केक्कं।
सुण्णं चदु सगसंखा पच्चयविच्छित्ति णायव्वा।।११।।
पंच चतु: शून्यं सप्त च पंचदश द्वौ शून्यं षट्कं षट्वैâकं१ एकं।
शून्यं चतु: सप्तसंख्या प्रत्ययविच्छित्ति: ज्ञातव्या।।
पहले गुणस्थान में ५, दूसरे में ४, तीसरे में शून्य, चौथे में ७, पाँचवें में १५, छठे में २, सातवें में शून्य, आठवें में छह, नवमें के छह भागों में क्रम से १-१ करके छह, दसवें में १, ग्यारहवें में शून्य, बारहवें में ४, तेरहवें में ७, चौदहवें में शून्य ऐसे आस्रवों की व्युच्छित्ति का क्रम जानना।।११।।
मिच्छे हारदु सासणसम्मे मिच्छत्तपंचकं णत्थि।
अण दो मिस्सं कम्मं मिस्से ण चउत्थए सुणह।।१२।।
मिथ्यात्वे आहारकद्विकं सासादनसम्यक्त्वे मिथ्यात्वपंचकं नास्ति।
२अन: द्वे मिश्रे३ कर्म मिश्रे न चतुर्थे शृणुत।।
मिथ्यात्व में आहारक योग, आहारकमिश्र नहीं हैं, सासादन सम्यक्त्व में पाँच मिथ्यात्व नहीं हैं, मिश्र गुणस्थान में अनंतानुबंधी ४, औदारिकमिश्र, वैक्रियकमिश्र, कार्मण ये ७ आस्रव नहीं हैं, अब चौथे गुणस्थान में सुनो!।।१२।।
दो मिस्स कम्म खित्तय तसवह वेगुव्व तस्स मिस्सं च।
ओरालमिस्स कम्ममपच्चक्खाणं तु ण हि पंचे।।१३।।
द्वे मिश्रे कर्म क्षिप, त्रसवधो वैक्रियिकं तस्य मिश्रं च।
औदारिकमिश्रं कर्माप्रत्याख्यानं तु न हि पंचमे।।
चतुर्थ गुणस्थान में औदारिकमिश्र, वैक्रियकमिश्र और कार्मणयोग नहीं है। पाँचवें में त्रसवध, वैक्रियक, वैक्रियकमिश्र, औदारिकमिश्र, कार्मण और अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ ये नव आस्रव नहीं हैं।।१३।।
इत्तो उविंर सगसगविच्छित्तिअणासवाण संजोगे।
उवरुविंर गुणठाणे होंतित्ति अणासवा णेया।।१४।।
इत: उपरि स्वस्वविच्छित्त्यास्रवाणां संयोगे।
उपर्युपरि गुणस्थाने भवन्तीति अनास्रवा ज्ञेया:।।
इसके आगे अपने-अपने गुणस्थानों में व्युच्छिन्न आस्रवों को ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में मिलाते जाइये, वे ही अनास्रव बन जाते हैं।।१४।।
१मिच्छे पणमिच्छत्तं साणे अणचारि मिस्सगे सुण्णं।
अयदे विदियकसाया तसवह वेगुव्वजुगलछिदी।।१५।।
मिथ्यात्वे पंचमिथ्यात्वं, साने अनचतुष्कं मिश्रके, शून्यं,।
अयते द्वितीयकषाया: त्रसवधवैक्रियिकयुगलच्छित्ति:।।
मिथ्यात्व गुणस्थान में ५ मिथ्यात्व की व्युच्छित्ति होती है। सासादन में अनंतानुबंधी चार की, मिश्र में शून्य, चतुर्थ गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय ४, त्रसवध, वैक्रियक, वैक्रियकमिश्र इन ७ की व्युच्छित्ति होती है।।१५।।
अविरयएक्कारह तियचउक्कसाया पमत्तए णत्थि।
अत्थि हु आहारदुगं हारदुगं णत्थि सत्तट्ठे।।१६।।
अविरत्यैकादश तृतीयचतुष्कषाया: प्रमत्तके न संति।
अस्ति हि आहारद्विकं, आहारद्विकं नास्ति सप्तमे अष्टमे।।
देशसंयत गुणस्थान में ११ अविरति, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि चार इन १५ की व्युच्छित्ति होती है अत: ये १५ आस्रव प्रमत्तसंयत में नहीं हैं एवं प्रमत्तसंयत में आहारकयुगल पाये जाते हैं। आगे सातवें, आठवें गुणस्थान में ये आहारकद्विक नहीं हैं अर्थात् छठे में आहारकद्विक की व्युच्छित्ति होती है। सातवें में व्युच्छित्ति किसी आस्रव की नहीं है।।१६।।
छण्णोकसाय णवमे ण हि दसमे संढमहिलपुंवेयं।
कोहो माणो माया ण हि लोहो णत्थि उवसमे खीणे।।१७।।
षण्णोकषाया:, नवमे १‘नहि’ दशमे पंढमहिलपुंवेदा:।
क्रोधो मानो माया २‘नहि’ लोभो, नास्ति३ उपशमे, क्षीणे।।
छह नोकषाय नवमें गुणस्थान में नहीं हैं अर्थात् आठवें में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छह आस्रवों की व्युच्छित्ति हो जाती है। दसवें गुणस्थान में नपुंसक, स्त्री, पुरुषवेद, क्रोध, मान, माया ये छह आस्रव नहीं हैं, इनकी व्युच्छित्ति नवमें गुणस्थान के छह भागों में क्रम से हो जाती है। उपशांतमोह, क्षीणमोह नामक ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में लोभ कषाय नहीं है मतलब दसवें में लोभ की व्युच्छित्ति हो जाती है, ग्यारहवें गुणस्थान में व्युच्छित्ति का अभाव है।।१७।।
अलियमणवयणमुभयं णत्थि जिणे अत्थि सच्चमणुभयं।
मिस्सोरालियकम्मं अपच्चयाऽजोगिणो होंति।।१८।।
अलीकमनोवचनं उभयं नास्ति४, जिने अस्ति सत्यमनुभयं।
मिश्रौदारिककार्मणा, अप्रत्यया अयोगिनो भवन्ति।।
असत्य मनोयोग, असत्यवचन योग, उभय मनोयोग, उभय वचनयोग ये ४ योग सयोगकेवली में नहीं हैं, इन चारों की व्युच्छित्ति बारहवें में हो चुकी है एवं सयोगकेवली जिनेन्द्र भगवान के सत्यमनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचन योग, अनुभयवचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण ये ७ आस्रव पाये जाते हैं किन्तु इस सयोगी गुणस्थान के अंत में इनकी व्युच्छित्ति हो जाने से अयोगकेवली आस्रव एवं आस्रव की व्युच्छित्ति से रहित हैं।।१८।।
भावार्थ-सयोगकेवली के जो सात योग के निमित्त से आस्रव कहा गया है, वह केवल नाम मात्र ही है क्योंकि ‘‘जोगा पयडिपदेसा ठिदि अणुभागा कषायदो होंति’’ इस कथन के अनुसार प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होते हैं एवं स्थिति और अनुभाग बंध कषाय से होते हैं अत: कषाय न होने से स्थिति, अनुभाग बंध नहीं होता है पुन: ‘‘समयट्ठिदिगोबंधो’’ इस कर्मकाण्ड के अनुसार एक समय मात्र की स्थिति वाला बंध होता है अर्थात् वह बंध नहीं के समान है अतएव यहाँ ईर्यापथ आस्रव माना है। ‘‘सकषायाकषाययो: सांपरायिकेर्यापथयो:’’ इस सूत्र के अनुसार कषाय सहित जीव के सांपरायिक आस्रव एवं कषायरहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है। केवल इन योगों के निमित्त से कर्म आये और चले गये। मात्र योग के अस्तित्व से यहाँ आस्रव का वर्णन किया गया है। कहा भी है-पहले गुणस्थान तक मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग इन चारों ही निमित्तों से बंध होता है, सासादन, मिश्र, अविरत गुणस्थान तक मिथ्यात्व से रहित तीन कारणों से बंध होता है।, पाँचवें में ११ अविरति एवं कषाय योग के निमित्त से बंध होता है। छठे से दसवें तक कषाय और योग के निमित्त से बंध होता है एवं ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान तक योग मात्र से बंध होता है।
पच्चयसत्तावण्णा गणहरदेवेहिं अक्खिया सम्मं।
ते चउबंधणिमित्ता बंधादो पंचसंसारे।।१९।।
प्रत्ययसप्तपंचाशत् गणधरदेवै: कथिता: सम्यक्।
ते चतुबन्धनिमित्ता: बन्धत: पंचसंसारे।।
इस प्रकार से गणधर देवों ने सम्यक् प्रकार से सत्तावन प्रत्यय-आस्रव बतलाये हैं। ये आस्रव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव रूप पाँच प्रकार के संसार को प्राप्त कराने में कारणभूत प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चार प्रकार के कर्मबंध के लिये निमित्तभूत हैं।।१९।।
१पणवण्णं पण्णासं तिदाल छादाल सत्ततीसा य।
चउवीस दुवावीसं सोलसमेगूण जाव णव सत्ता।।२०।।
पंचपंचाशत् पंचाशत् त्रिचत्वािंरशत् षट्चत्वािंरशत् सप्तिंत्रशच्च।
चतुर्विंशति: द्विद्वाविंशति: षोडश एकोनं यावन्नव सप्त।।
मिथ्यात्व गुणस्थान में ५५, सासादन में ५०, मिश्र में ४३, असंयत में ४६, देशविरत में ३७, प्रमत्त में २४, अप्रमत्त में २२, अपूर्वकरण गुणस्थान में २२, अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में १६, आगे छठे भाग तक एवं आगे नव आस्रव तक १-१ कम करते चलिये अर्थात् द्वितीय भाग में १५, तृतीय में १४, चतुर्थ में १३, पंचम में १२, छठे में ११ आस्रव हैं। वैसे ही दसवें गुणस्थान में १०, उपशांत में ९ और क्षीणकषाय गुणस्थान में ९ आस्रव होते हैं। सयोगकेवली में ७ आस्रव होते हैं।।२०।।
दुग१ सग चदुरिगिदसयं वीसं तियपणदुसहियतीसं च।
इगिसगअडअडदालं पण्णासा होंति सगवण्णा।।२१।।
द्वौ सप्त चतुरेकदशकं िंवशति: त्रिकपंच-द्विसहितत्रिंशच्च।
एकसप्ताष्टाष्टचत्वािंरशत् पंचाशत् भवन्ति सप्तपंचाशत्।।
प्रथम गुणस्थान में २, द्वितीय में ७, तृतीय में १४, चतुर्थ में ११, पंचम में २०, छठे में ३३, सातवें में ३५, आठवें में ३५, नवमें के प्रथम भाग में ४१, आगे ४७ तक एक-एक बढ़ते चलिये अर्थात् द्वितीय भाग में ४२, तृतीय भाग में ४३, चतुर्थ भाग में ४४, पंचम भाग में ४५, छठे भाग में ४६ आस्रव नहीं होते हैं। दसवें गुणस्थान में ४७, ग्यारहवें में ४८, बारहवें गुणस्थान में ४८, तेरहवें में ५० और चौदहवें में ५७ अनास्रव होते हैं अर्थात् उपर्युक्त आस्रव नहीं होते हैं।।२१।।