भगवान महावीर स्वामी के बाद
कसायपाहुड़ (जयधवला टीका) पुस्तक-१ का प्रमाण
जिणउवदिट्ठत्तादो होदु दव्वागमो पमाणं, किन्तु अप्पमाणीभूदपुरिसपव्वोलीकमेण आगयत्तादो अप्पमाणं वट्टमाणकालदव्वागमो त्ति ण पच्चवट्ठादुं जुत्तं, राग-दोष-भयादीदआइरियपव्वोलीकमेण आगयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो। तं जहां, तेण महावीर- भडारएण इदंभूदिस्स अज्जस्स अज्जखेत्तुप्पण्णस्स चउरमल-बुद्धिसंपण्णस्स दित्तुग्गतत्ततवस्स अणिमादिअट्ठविह-विउव्वणलद्धिसंपण्णस्स सव्वट्ठसिद्धिणि-वासिदेवेहिंतो अणंतगुणबलस्स मुहुत्तेणेक्केण दुवालसंगत्थगंथाणं सुमरण-परिवादिकरणक्खमस्स सयपाणिपत्तणिवदिदरव्वं पि अमियसरूवेण पल्लट्टावणसमत्थस्स पत्ताहारवसहि-अक्खीणरिद्धिस्स सव्वोहिणाणेण दिट्ठासेसपोग्गलदव्वस्स तपोबलेण उप्पायिदुक्कस्सविउलमदि-मणपज्जवणाणस्स सत्तभयादीदस्स खविदचदुकसायस्स जियपंचिंदियस्स भग्गतिदंडस्स छज्जीवदयावरस्स णिट्टवियअट्ठमयस्स दसधम्मुज्जयस्स अट्ठमाउगणपरिवालियस्स भग्गबाबीसपरीसहपसरस्स सच्चालंकारस्स अत्थो कहिओ। तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा अंतोमुहुत्तेणावहारिय-दुवालसंगत्थेण तेणेव कालेण कयदुवालसंगगंथरयणेण गुणेहि सगसमाणस्स सुहमा (म्मा) इरियस्स गंथो वक्खाणिदो। तदो केत्तिएण वि कालेण केवलणाणमुप्पाइय वारसवासाणि केवलविहारेण विहरिय इंदभूदिभडारओ णिव्वुइं संपत्तो १२। तद्दिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामियादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खएण केवली जादो। तदो सुहम्मभडारयो वि बारहवस्साणि १२ केवलविहारेण विहरिय णिव्वुइं पत्तो। तद्दिवसे चेव जंबूसामिभडारओ बिट्ठू (विष्णु) आइरियादीणमणेयाणं वक्खाणिददुवालसंगो केवली जादो। सो वि अट्ठत्तीसवासाणि ३८ केवलविहारेण विहरिदूण णिव्वुइं गदो। एसो एत्थोसप्पिणीए अंतिमकेवली।
यदि कोई ऐसा माने कि जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट होने से द्रव्यागम प्रमाण होओ किन्तु वह अप्रमाणीभूत पुरुष- परम्परा से आया हुआ है। अर्थात् भगवान के द्वारा उपदिष्ट आगम जिन आचार्यों के द्वारा हम तक लाया गया है, वे प्रमाण नहीं थे। अतएव वर्तमानकालीन द्रव्यागम अप्रमाण है, सो उसका ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यागम राग, द्वेष और भय से रहित आचार्यपरम्परा से आया हुआ है इसलिए उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है। आगे इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं-
जो आर्य क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं, मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार निर्मल ज्ञानों से सम्पन्न हैं, जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है, जो अणिमा आदि आठ प्रकार की वैक्रियिक लब्धियों से सम्पन्न हैं, जिनका सर्वार्थसिद्धि में निवास करने वाले, देवों से अनन्तगुणा बल है, जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांगरूप ग्रंथों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ हैं, जो अपने पाणिपात्र में दी गई खीर को अमृतरूप से परिवर्तित करने में या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है, जिन्होंने सर्वावधिज्ञान से अशेष पुद्गलद्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है, तप के बल से जिन्होंने उत्कृष्ट विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सात प्रकार के भय से रहित हैं, जिन्होंने चार कषायोें का क्षय कर दिया है, जिन्होंने पाँच इन्द्रियों को जीत लिया हैं, जिन्होंने मन, वचन और कायरूप तीन दंडों को भग्न कर दिया है, जो छह कायिक जीवों की दया पालने में तत्पर हैं, जिन्होंने कुलमद आदि आठ मदों को नष्ट कर दिया है, जो क्षमादि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत हैं, जो आठ प्रवचन मातृकगणों का अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्तियों का परिपालन करते हैं, जिन्होंने क्षुधा आदि बाईस परीषहों के प्रसार को जीत लिया है और जिनका सत्य ही अलंकार है, ऐसे आर्य इन्द्रभूति के लिए उन महावीर भट्टारक ने अर्थ का उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्र में उत्पन्न हुए इन्द्रभूति ने एक अन्तर्मुहूर्त में द्वादशाङ्ग के अर्थ का अवधारण करके उसी समय बारह अंगरूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान श्री सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवलज्ञान को उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी दिन सुधर्माचार्य, जम्बूस्वामी आदि अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान करके चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवली हुए। तदनन्तर सुधर्म भट्टारक भी बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी दिन जम्बूस्वामी भट्टारक विष्णु आचार्य आदि अनेक ऋषियों को द्वादशांग का व्याख्यान करके केवली हुए। वे जम्बूस्वामी भी अड़तीस वर्ष तक केवलि-विहार रूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। ये जम्बूस्वामी इस भरतक्षेत्र संबंधी अवसर्पिणी काल में पुरुषपरम्परा की अपेक्षा अंतिम केवली हुए हैं।
एदम्हि णिव्वुइं गदे विष्णुआइरियो सयलसिद्धंतिओ उवसमियचउकसायो णंदिमित्ताइरियस्स समप्पियदुवालसंगो देवलोअं गदो। पुणो एदेण कमेण अवराइयो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे पंच पुरिसोलीए सयलसिद्धंतिया जादा। एदेसिं पंचण्हं पि सुदकेवलीणं कालो वस्ससदं १००। तदो भद्दबाहुभयवंते सग्गं गदे सयलसुदणाणस्स वोच्छेदो जादो।
इन जम्बूस्वामी के मोक्ष चले जाने पर सकल सिद्धान्त के ज्ञाता और जिन्होंने चारों कषायों को उपशमित कर दिया था ऐसे विष्णु Dााचार्य, नन्दिमित्र आचार्य को द्वादशांग समर्पित करके अर्थात् उनके लिए द्वादशाङ्ग का व्याख्यान करके देवलोक को प्राप्त हुए। पुन: इसी क्रम से पूर्वोक्त दो और अपराजित गोवर्द्धन तथा भद्रबाहु इस प्रकार ये पाँच आचार्य पुरुष परम्पराक्रम से सकल सिद्धान्त के ज्ञाता हुए। इन पाँचों ही श्रुतकेवलियों का काल सौ वर्ष होता है। तदनन्तर भद्रबाहु भगवान् के स्वर्ग चले जाने पर सकल श्रुतज्ञान का विच्छेद हो गया।
णवरि, विसाहाइरियो तक्काले आयारादीणमेक्कारसण्ह-मंगाणमुप्पायपुव्वाईणं दसण्हं पुव्वाणं च पच्चक्खाण-पाणावाय-किरियाविसाल-लोगबिंदुसारपुव्वाणमेगदेसाणं च धारओ जादो। पुणो अतुट्टसंताणेण पोट्ठिल्लो खत्तिओ जयसेणो णागसेणो सिद्धत्थो धिदिसेणो विजयो बुद्धिल्लो गंगदेवो धम्मसेणो त्ति एदे एक्कारस जणा दसपुव्वहरा जादा। तेसिं कालो तेसिदिसदवस्साणि १८३। धम्मसेणे भयवंते सग्गं गदे भारहवस्से दसण्हं पुव्वाणं वोच्छेदो जादो। णवरि, णक्खत्ताइरियो जसपालो पांडू धुवसेणो कंसाइरियो चेदि एदे पंच जणा जहाकमेण एक्कारसंगधारिणो चोद्दसण्हं पुव्वाणमेगदेसधारिणो च जादा। एदेसिं कालो बीसुत्तरविसदवास-मेत्तो २२०। पुणो एक्कारसंगधारए कंसाइरिए सग्गं गदे एत्थ भरहखेत्ते णत्थि कोइ वि एक्कारसंगधारओ।
किन्तु इतना विशेष है कि उसी समय विशाखाचार्य आचार आदि ग्यारह अंगों के और उत्पादपूर्व आदि दशपूर्वों के तथा प्रत्याख्यान, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वों के एकदेश के धारक हुए। पुन: अविच्छिन्न संतानरूप से प्रोष्ठिल्ल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह मुनिजन दस पूर्वों के धारी हुए। उनका काल एक सौ तिरासी वर्ष होता है। धर्मसेन भगवान् के स्वर्ग चले जाने पर भारत वर्ष में दस पूर्वों का विच्छेद हो गया। इतनी विशेषता है कि नक्षत्राचार्य, जसपाल, पांडु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य ये पाँच मुनिजन ग्यारह अंगों के धारी और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारी हुए। इनका काल दो सौ बीस वर्ष होता है। पुन: ग्यारह अंगों के धारी कंसाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर यहाँ भरतक्षेत्र में कोई भी आचार्य ग्यारह अंगों का धारी नहीं रहा।
णवरि, तक्काले पुरिसोलीकमेण सुहदो जसभद्दो जहबाहू लोहज्जो चेदि एदे चत्तारि वि आयारंगधरा सेसंगपुव्वाणमेगदेसधरा य जादा। एदेसिमायारंगधारीणं कालो अट्ठारसुत्तरं वाससदं ११८। पुणो लोहाइरिए सग्गं गदे आयारंगस्स वोच्छेदो जादो। एदेसिं सव्वेसिं कालाणं समासो छसदवासाणि तेसीदिवासेहि समहियाणि ६८३। वड्ढमाणजिणिंदे णिव्वाणं गदे पुणो एत्तिएसु वासेसु अइक्कंतेसु एदम्हि भरहखेत्ते सव्वे आइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसधारया जादा।
इतनी विशेषता है कि उसी काल में पुरुषपरम्पराक्रम से सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारी और शेष अंग और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए। आचारांग के धारण करने वाले इन आचार्यों का काल एक सौ अठारह वर्ष होता है। पुन: लोहाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर आचारांग का विच्छेद हो गया। इन समस्त कालों का जोड़ ६२±१००±१८३±२२०±११८·६८३ तेरासी अधिक छह सौ वर्ष होता है।
विशेषार्थ-तीन केवलियों के नामों में से धवला में सुधर्माचार्य के स्थान में लोहार्य नाम आया है। लोहार्य सुधर्माचार्य का ही दूसरा नाम है। जैसा कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की ‘तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण’ इस गाथांश से प्रकट होता है तथा दस पूर्वधारियों के नामों में जयसेन के स्थान में जयाचार्य, नागसेन के स्थान में नागाचार्य और सिद्धार्थ के स्थान में सिद्धार्थदेव नाम धवला में आया है। इन नामों में विशेष अन्तर नहीं है। मालूम होता है कि प्रारंभ के दो नाम जयधवला में पूरे लिखे गये हैं और अंतिम नाम धवला में पूरा लिखा गया है तथा ग्यारह अंग के नामधारियों में जसपाल के स्थान में धवला में जयपाल नाम आया है। बहुत संभव है कि लिपिदोष से ऐसा हो गया हो या ये दोनों ही नाम एक आचार्य के रहे हों। इसी प्रकार आचारांगधारी आचार्यों के नामों में जहबाहू के स्थान में धवला में जसबाहू नाम पाया जाता है। इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में इसी स्थान में जयबाहू यह नाम पाया जाता है इसलिए यह कहना बहुत कठिन है कि ठीक नाम कौन सा है। लिपिदोष से भी इस प्रकार की गड़बड़ी हो जाना बहुत कुछ संभव है। जो भी हो। यहाँ एक ही आचार्य की दोनों कृति होने से पाठ भेद का दिखाना मुख्य प्रयोजन है।
वर्द्धमान जिनेन्द्र के निर्वाण चले जाने के पश्चात् इतने अर्थात् ६८३ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर इस भरतक्षेत्र में सब आचार्य सभी अंगों और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए।
तदो अंगपुव्वाणमेगदेसो चेव आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं संपत्तो। पुणो तेण गुणहरभडारएण णाणपवादपंचम-पुव्व-दसमवत्थु-तदियकसायपाहुडमहण्णवपारएण गंथवोच्छेदभएण पवयणवच्छलपरवसीक-यहियएण एदं पेज्जदोसपाहुडं सोलसपद-सहस्सपमाणं होंतं असीदि-सदमेत्तगाहाहि उवसंघारिदं। पुणो ताओ चेव सुत्त गाहाओ आइरियपरपंराए आगच्छमाणीओ अज्जमंखु-णागहत्थीणं पत्ताओ। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्तं कयं।
उसके पश्चात् अंग और पूर्वों का एकदेश ही आचार्यपरम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ। पुन: ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तुसंबंधी तीसरे कषायप्राभृतरूपी महासमुद्र के पार को प्राप्त श्री गुणधर भट्टारक ने, जिनका हृदय प्रवचन के वात्सल्य से भरा हुआ था सोलह हजार पदप्रमाण इस पेज्जदोसपाहुड़ का ग्रंथ विच्छेद के भय से, केवल एक सौ अस्सी गाथाओं के द्वारा उपसंहार किया।
विशेषार्थ-ऊपर जो पेज्जपाहुड सोलह हजार पदप्रमाण बतलाया है वह ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के मूल पेज्जपाहुड का प्रमाण समझना चाहिए। यहाँ पद से मध्यमपद लेना चाहिए, क्योंकि द्वादशांग की गणना मध्यमपदों के द्वारा ही की गई है।पुन: वे ही सूत्र गाथाएँ आचार्य परम्परा से आती हुईं आर्यमंक्षु और नागहस्ती आचार्य को प्राप्त हुईं। पुन: उन दोनों ही आचार्यों के पादमूल में गुणधर आचार्य के मुखकमल से निकली हुईं उन एक सौ अस्सी गाथाओं के अर्थ को भली प्रकार श्रवण करके प्रवचनवत्सल यतिवृषभ भट्टारक ने उन पर चूर्णिसूत्रों की रचना की।
जेणेदे सव्वे वि आइरिया जियचउकसाया भग्गपंचिंदियपसरा वू (चू) रियचउसण्णसेण्णा इड्ढि-रस-सादगारवुम्मुक्का सरीरवदिरित्तासेसपरिग्गहकलंकुत्तिण्णा एक्कसंथाए चेव सयलगंथत्थावहारया अलीयकारणा-भावेण अमोहवयणा तेण कारणेणेदे पमाणं। ‘‘वत्तृâप्रामाण्याद् वचनस्य प्रामाण्यम्।।३२।। इति न्यायात् एदेसिमाइरियाणं वक्खाणमुवसंहारो च पमाणमिदि घेत्तव्वं, प्रमाणीभूतपुरुषपंक्तिक्रमायातवचनकलापस्य नाप्रामाण्यम् अतिप्रसंगात्।
इस प्रकार जिसलिए ये सर्व ही आचार्य चारों कषायों को जीत चुके हैं, पाँचों इन्द्रियों के प्रसार को नष्ट कर चुके हैं, चारों संज्ञारूपी सेना को चूरित कर चुके हैं, ऋद्धिगारव, रसगारव और सादगारव से रहित हैं, शरीर से अतिरिक्त बाकी के समस्त परिग्रहरूपी कलंक से मुक्त हैं, एक आसन से ही सकल ग्रंथों के अर्थ को अवधारण करने में समर्थ हैं और असत्य के कारणों के नहीं रहने से मोहरहित वचन बोलते हैं इस कारण ये सब आचार्य प्रमाण हैं। ‘‘वक्ता की प्रमाणता से वचन की प्रमाणता होती है।।३२।।’’ ऐसा न्याय होने से इन आचार्यों का व्याख्यान और उनके द्वारा उपसंहार किया गया ग्रंथ प्रमाण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रामाणिक पुरुषपरम्पराक्रम से आया हुआ वचनसमुदाय अप्रमाण नहीं हो सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायेगा।