हे धर्मधुरन्धर धर्मनाथ! धर्मामृतदायी मेघ तुम्हीं।
रत्नों की वर्षा होने से, वह रत्नपुरी थी रत्नमयी।।
यह सुतवन्ती सुप्रभावती, पितु भानुराज महिमाशाली।
वैसाख सुदी तेरस के दिन, गर्भागम उत्सव था भारी।।१।।
तिथि माघ सुदी तेरस शुभ थी, इन्द्रों ने जन्म न्हवन कीना।
उस ही तिथि में प्रभु दीक्षा ली, निज पर को पृथक्-पृथक् कीना।।
पौषी पूर्णा को ज्ञान पूर्ण, हो गया उजाला त्रिभुवन में।
शुभ ज्येष्ठ सुदी चौथी के प्रभु, शिवपद को प्राप्त किया क्षण में।।२।।
इक सौ अस्सी कर देह प्रभु! दस लाख वर्ष थिति१ कनक कांति।
है वङ्का चिह्न प्रभु कर्म शैल, को चूर किया तुम वङ्का भांति।।
हे धर्मतीर्थ के तीर्थंकर ! तुमने यम को चकचूर किया।
मैंने भी शरणा ले तेरी, अगणित दु:खों को दूर किया।।३।।
मैं मिथ्या अविरति क्रोध—मान, माया लोभों से भिन्न सही।
ये सब औपाधिक भाव कहे, मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी।।
मैं तुमको वंदन कर करके, बस तुम जैसा ही बन जाऊँ।
प्रभु ऐसा ही वर दो मुझको, मैं स्वयं स्वयंभू बन जाऊँ।।४।।