चार गतियों में से देवगति का एक भेद है-ज्योतिर्वासीदेव। ये ज्योतिषी देव मध्यलोक के आकाशमण्डल में स्थित अपने-अपने विमानों में रहकर धरती के प्राणियों पर भी अपना प्रभाव डालते हैं। मनुष्य जिस समय माँ के गर्भ से उत्पन्न होता है, उसी समय उसकी जन्मतिथि के साथ-साथ समय, ग्रह, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, योग आदि को ध्यान में रखते हुए माता-पिता ज्योतिषी से संंतान की जन्मकुंडली बनवाकर पूछते हैं कि इसका भविष्य शुभ है अथवा अशुभ ?
कुंडली में स्थित ग्रहचक्रों के अनुसार ज्योतिषी की भविष्यवाणी उसके शुभाशुभ की घोषणा करती है और तभी से परिवार के लोग अपनी चिन्तानिवारण हेतु तरह-तरह के उपक्रम में लग जाते हैं। कहते हैं कि बालक या बालिका आदि मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुए हैं तो पिता पर संकट आता है अतः उसकी शांति का पुरुषार्थ तुरंत करना चाहिए। इसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा एवं ग्रहों का संचार भी देखा जाता है कि चन्द्रमा किस राशि में था ? सूर्य किस महादशा अथवा निम्न दशा में था ?……इत्यादि।
यद्यपि जैन सिद्धान्त में कर्मव्यवस्था को ही सर्वाधिक बलवान् मानकर उनसे लड़ने का मार्ग हमारे तीर्थंकरों ने बतलाया है, फिर भी व्यवहारिक बाह्य निमित्तों में ग्रह आदि का भी महत्वपूर्ण स्थान माना है। ये ग्रह नव माने गये हैं-सूर्य,चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु। इन नव ग्रहों के अधिपति देवता पूर्व जन्म के वैर या मित्रतावश अथवा इस जन्म में मात्र क्री़ड़ा आदि के निमित्त से लोगों को सुख-दुःख पहुँचाते रहते हैं अर्थात् उच्च स्थान वाले ग्रह प्राणियों को उच्चपद, यश, धन, आरोग्यता की प्राप्ति कराते हैं एवं निम्नस्थान में पड़े ग्रह अपयश, आर्थिक हानि, शारीरिक-मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न कराते हैं इसीलिए संसारी मानव इनकी शांति के उपाय करते हैं।
नवग्रह अरिष्टनिवारक पूजा, विधान एवं स्तोत्र की परम्परा काफी दिनों से हमारे समाज में चल रही है, जिसके माध्यम से भक्तगण चौबीसों तीर्थंकरों की आराधना करते हैं। पहले की जो कवि ‘‘मनसुख’’ द्वारा रचित नवग्रह की समुच्च्य पूजन है उसमें भी चौबीसों तीर्थंकर के नाम लिए हैं तथा विधान में जब अलग-अलग प्रत्येक ग्रह की पूजा करते हैं तो क्रम से सूर्यग्रह अरिष्ट निवारण हेतु पद्मप्रभ जिनेन्द्र की पूजा, चन्द्रग्रह में चन्द्रप्रभ, मंगलग्रह में वासुपूज्य, बुधग्रह में विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुंथु, अरह, नमि और वर्धमान इन आठ भगवन्तों की, गुरुग्रह में ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, सुपारस, शीतल और श्रेयांस इन आठ जिनेन्द्रों की, शुक्रग्रह में पुष्पदन्त भगवान, शनिग्रह में मुनिसुव्रत जिनेन्द्र, राहुग्रह में नेमिनाथ भगवान तथा केतुग्रह में मल्लिनाथ एवं पार्श्वनाथ भगवान् की पूजा होती है। इसी प्रकार अलग-अलग ग्रहों की जाप्य में उपर्युक्त क्रमानुसार चौबीसों तीर्थंकर समाविष्ट किये गये हैं किन्तु मैंने ‘‘नवग्रहशांति विधान’’ में नवग्रह के अरिष्ट निवारण करने वाले मात्र नौ तीर्थंकरों की ही पूजन लिखी है। इसमें प्रमुख कारण यह है कि ६-७ वर्ष पूर्व पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने एक प्राचीन जिनवाणी संग्रह में नवग्रह शांतिकारक नव तीर्थंकरों के नाम प्राप्त किये सो उसी प्रमाणानुसार उन्होंने एक नवग्रहशांति यंत्र बनवाया जिसमें नव भगवन्तों के चरणचिन्ह हैं। पूज्य माताजी ने मुझे भी इसी प्रमाणानुसार नवग्रह का लघु विधान लिखने की प्रेरणा प्रदान की।
प्राचीन काल से ही जैन आगम में नवग्रहों की शांति हेतु नवग्रहशांति स्तोत्र-पाठ, पूजन, विधान इत्यादि करने की परम्परा रही है। इस युग के अंतिम श्रुतकेवली मुनिराज श्री भद्रबाहु के द्वारा रचित नवग्रहशांति स्तोत्र में नौ ग्रहों की शांति हेतु चौबीसों तीर्थंकरों का क्रम बताया है, उस स्तोत्र का भी मैंने हिन्दी पद्यानुवाद किया है जो कि नवग्रहशांति विधान में प्रकाशित है तथा श्री जिनसागरसूरि रचित नवग्रह स्तोत्र एवं दक्षिण भारत से प्राप्त प्रमाण एवं प्राचीन अन्य पुस्तकों के आधार पर नवग्रहों की शांति करने वाले नौ तीर्थंकरों के नाम प्राप्त होते हैं। इन नव तीर्थंकरों के क्रम से भी एक स्तोत्र की मैंने रचना की है वह भी उसी विधान में प्रकाशित है, जिसे पढ़कर ग्रहों से पीड़ित व्यक्ति अपने ग्रहों की उपशान्ति कर सकते हैं और तीर्थंकरों की भक्ति करके अपने कर्मों की निर्जरा भी कर सकते हैं।
विशेष नोट – नवग्रह शांति विधान के नाम से सन् १९९५ में मेरे द्वारा (आर्यिका चन्दनामती) रचित विधान जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित हुआ है, पुन: उसके अनेक संस्करण आज तक भी प्रकाशित हो रहे हैं किन्तु इसके मध्य में इस विधान में किसी के द्वारा ‘चन्दनामती’ नाम हटाकर जगह-जगह निश्चय शब्द जोड़ दिया गया है अत: पाठकगण ध्यान दें कि इस विषय में संबंधित सन्त से वार्ता हो चुकी है कि यह “निश्चय” शब्द अनजान में एक बार किसी ने लिख दिया है जो कि गलत हुआ है ऐसे परिवर्तन नैतिक रूप से गलत हैं।