पू० माता जी ने द्रव्य के लक्षण सत् (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक) एवं उनके प्रकट स्वरूप द्रव्य – गुण – पर्याय का विवेचन अति सुन्दर एवं स्पश्ट रूप में करके नियमसार के हार्द को खोल दिया है। विशय विस्तार के भय से यहाँ हम मात्र उनकी कतिपय पक्तियाँ प्रस्तुत करेंगे जिससे उनकी अध्यात्मिक ज्ञानपुज स्याद्वाद चन्द्रिका की गरिमा प्रकट हो सके। स्वभाव, विभाव पर्यायों का विवेचन करते हुए माता जी ने लिखा है,
“स्वभावपर्यायाः शुद्धाः, विभावपर्यायाष्चाशुद्धाः।
अथवा अर्थव्यंजनभेदात् पर्यायो द्वेधा।
अर्यते गम्यते निष्चीयतेऽनेनेति अर्थपर्यायाः।
व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽनेनेति व्यंजनपर्यायाः
प्रत्येकमपि स्वभावविभावभेदात् द्विधा च।
स्वभावार्थपर्यायाः द्वादषधा ‘शट्हानिवृद्धिरूपाः।
विभावार्थपर्यायाः ‘शड्विधाः
मिथ्यात्वकशायरागद्वेशपुण्यपापाध्यवसायाः।
कर्मोपाधिविवर्जिताः सिद्धपर्यायाः स्वभावव्यंजनपर्यायाः,
नरनारकादि विभावव्यंजन- पर्यायाष्च।“
इमे विभावपर्याया आ अयोगगिकेवलिनः
मनुश्यगत्यायुरादि विद्यमानत्वात्।
सिद्धा एव स्वभावपर्यायपरिणताः सन्ति।
शुद्धनयापेक्षयात्तु भव्याभव्यानां सर्वसंसारिणामपि विभावपर्याया न सन्ति।
सरागसम्यग्दृश्टयः निष्चयनयेन सम्यग्निजतत्त्वश्रद्धानात् स्वात्मनः विभावपर्यायाद् भिन्नं केवलं श्रद्धत्ते।
वीतरागचारित्रावलम्बिनो वीतरागसम्य-
ग्दृश्टयो निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा एवोपयोगात् तं पृथक् कुर्वन्ति।
सयोग केवलिनष्च सहजस्वाभाविकानन्तज्ञानदर्षनसुखवीर्यस्वरूपेण
परिणतत्वात् शुद्धा एव अतः तेशां मनुश्यपर्यायरूपेण
विभाव पर्याय स्यादस्तित्वमात्रमेव इति।“
भावार्थ – यहाँ पर ग्रन्थकार ने (आ० कुन्दकुन्द ने) चारों गतियों को विभाव पर्याय कहा है। इस दृश्टि से अर्हन्त भगवान के भी मनुश्य गति होने से वे भी विभाव पर्याय सहित हो जाते हैं, किन्तु नय विवक्षा से टीका में इस बात को स्पश्ट किया है कि छठे गुणस्थान तक के जीव निष्चय से “आत्मा विभाव पर्याय से रहित हैं“ ऐसा श्रद्धान मात्र करते हैं। आगे शुद्धोपयोगी मुनि अपने उपयोग में आत्मा का ही चिन्तन करते हैं, उन विभाव पर्यायों को उपयोग में नहीं लाते हैं। अतः वे उपयोग से पृथक् करते हैं। इसके आगे अरिहन्त भगवान साक्षात् अनन्तचतुष्टय के धनी हैं। अतः उनके भी ये विभाव पर्यायें नहीं है फिर भी मनुश्य गति, आयु, शरीर आदि रूप के आधार से संक्षिप्त कथन किया गया है।”
उपरोक्त वर्णन कितना सटीक है। अरिहन्त परमेश्ठी परमात्मा है अतः उनको विभाव पर्याययुक्त कहने से हमारी श्रद्धा को कोई ठेस न पहुँचे, इस हेतु उनके विशय में यह स्पश्टीकरण आवष्यक था। उनके मनुश्य गति, आयु आदि कर्म के अस्तित्व होते हुए भी उनका उदय अति मन्द होता है और उनकी वीतराग परिणति में वे बाधक नहीं होते। यहाँ माता जी ने शुद्धोपयोगी मुनि को भी विभाव परिणति से रहित कहा है उसका तात्पर्य यह है कि चारित्र मोहनीय संज्वलन कशाय का मदन्तर एवं मदन्तम उदय होने से वह भी ध्यान में मलिनता लाने में असमर्थ है। यह भी विवक्षा से समझना चाहिए। आ० कुन्दकुन्द स्वामी ने विवक्षा से धर्म ध्यान में स्थित साधुओं को भी आत्मस्वभाव में स्थित निरूपित किया है, दृष्टव्य है,
भरहे दुक्खमकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तं अप्पसहावट्ठिदं णहि मण्णइ सो वि अणाणी।। मोक्षपाहुड।।
भरत क्षेत्र में दुश्शम काल में साधु के धर्मध्यान होता है, वह आत्मस्वभाव में स्थित है ऐसा जो नहीं मानता वह अज्ञानी है।
उपरोक्त का सारांष यह है कि विवक्षित एकदेष शुद्ध निष्चय नय से यह कथन है। परम शुद्ध निष्चय नय से तो सभी, संसारी अथवा मुक्त शुद्ध हैं यह अवष्य ज्ञातव्य है कि संसारी जीवों में शुद्धनय का विशय शक्तिरूप है व्यक्तता तो सिद्ध अवस्था में ही होती है।
इससे स्पश्ट है कि माता जी ने अध्यात्म की गम्भीरतम गहराइयों का स्पर्ष किया है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म विशय भी उनके अगम्य नहीं है। अध्यात्म के अंगभूत जीव के स्वभाव विभाव परिणामों, अषुभ-शुभ-शुद्धोपयोग की कर्म सापेक्ष एवं कर्मनिरपेक्ष अवस्था, अनुभव, रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्षग्न-ज्ञान-चारित्र) आदि धर्म, ‘ाड्द्रव्य, पचस्तिकाय, सात, तत्त्व, नव पदार्थ, निमित्त उपादान, जीव को जानने योग्य नौ अधिकार, जीव उपयोगमय, अमूत्र्तिक, कत्र्ता, स्वदेह परिमाण, भोक्ता, संसारी सिद्ध, ऊर्ध्वगमनस्वभाव1, विविध दर्शन आदि, नय स्वरूप व विवक्षा आदि सभी विशयों पर स्याद्वाद चन्द्रिका में प्रकाष डाला गया है। चन्द्रिका गत निम्न स्थल ज्ञातव्य है,
“तात्पर्यमिदम् – स्वात्मोपलब्धिस्वरूपो मोक्षः।
तत्प्राप्त्यर्थं नित्यनिरजननिर्वि- कारनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुश्ठानरूपाभेदरत्नत्रयं,
तत्साधनभूतमश्टा›- सम्यग्दर्षनमश्टविधसम्यग्ज्ञानत्रयोदषविधसम्यक्चारित्रमिति
समुदायरूपेण भेदरत्नत्रयं तदुभयमपि मार्ग इति ज्ञात्वा शक्त्यनुसारेण तदुपरि गन्तव्यं।
किच मोक्ष एव उपादेय साक्षात् तदुपायभूतमभेदरत्नत्रयमुपादेयरूपेण भेद रत्नत्रयमप्युपादेयमेव।“
उपरोक्त शुब्दों में माता जी ने मोक्ष एवं निष्चय रत्नत्रय एवं व्यवहार रत्नत्रय की साध्यसाधकता सिद्ध की है। वर्तमान् में कतिपयजन व्यवहार मोक्षमार्ग को हेय मानकर अप्राप्य निष्चय मोक्षमार्ग के निरर्थक प्रयास में रत हैं, वे वस्तुतः मोक्षमार्ग से बाहर हैं।
आगे अपनी बात न कहकर हम स्याद्वाद चन्द्रिका में प्रकट अध्यात्म वैभव को उनके शब्दों में हिन्दी अनुवाद के रूप में लिखते हैं।
”इस संसार में कर्मबन्धन से बँधा हुआ अषुद्ध भी यह आत्मा शुद्धनय से वैसा निर्दण्ड इत्यादि विषेशणों से विषिश्ट ही है। इसलिए ऐसे जीव के स्वरूप को जानकर परनिमित्तोदय से हुए दण्ड, द्वन्द्व आदि विकारों को छोड़कर सराग चारित्र के बल से शक्ति संचय करते हुए अनन्तर निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर तुम्हें अपनी आत्मा भी शुद्ध करनी चाहिए।“
”तात्पर्य यह निकला कि सकल विमल केवल ज्ञान दर्षन सुख वीर्य स्वभाव वाले शुद्ध जीव के संसार का सद्भाव ही नहीं है पुनः ये चर्तुगति भ्रमण से लेकर मार्गणास्थान पर्यन्त विकार भाव कैसे सम्भव होंगे ? अर्थात् किसी प्रकार भी नहीं है। ऐसा जानकर निज स्वभाव का श्रद्धान करते हुए आपको अषुद्ध नय से कर्ममल से ढकी हुई अपनी आत्मा को शुद्ध करने के लिए विशय कशाय छोड़कर सतत पुरूशार्थ करना चाहिए।“ पृश्ठ 136।
“सम्यग्दृश्टि जीव शुद्धनय से निज शुद्ध स्वरूप को जानकर परम प्रमोद को प्राप्त होता हुआ उसी में ठहरना चाहता है। फिर भी जब तक निर्विकल्प नहीं होगा तब व्यवहार नय का आश्रय लेकर शुद्ध सिद्ध जीवों की आराधना करता हुआ गुरुओं के प्रसाद से व्यवहार चारित्र के बल से निष्चय रत्नत्रय को प्राप्त करके क्रम से अपनी आत्मा की उपलब्धि कर लेता है। ऐसा जानकर सतत निज परमात्मतत्व को ध्येय बनाकर प्रारंम्भिक अवस्था में प×चपरमेश्ठी का ध्यान करना चाहिए।“ पृश्ठ 150।
शंका-जीव द्रव्य तो त्रिकाल में ध्रुव शुद्ध है, उसकी गुण पर्यायें ही अषुद्ध है इसलिए द्रव्यार्थिक नय से जीव शुद्ध है और पर्यायार्थिक नय से अषुद्ध है, ऐसा कहना चाहिए ?
समाधान – आर्श ग्रन्थों में ऐसा नहीं सुना जाता है किन्तु “गुण और पर्यायों वाला ही द्रव्य है“ ऐसा सूत्र का वचन है (गुणपर्ययवद द्रव्यं)। इसका अर्थ है कि गुण पर्यायों का समूह ही द्रव्य है। पुनः द्रव्य तो तीनों काल शुद्ध रहे और उसकी गुणपर्यायें अषुद्ध रहें, यह कैसे सम्भव है। क्योंकि गुणपर्यायों के बिना तो द्रव्य का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होगा। इसलिए जब अथवा जिस नय से द्रव्य शुद्ध है, तब अथवा उसी नय से गुणपर्यायें भी शुद्ध हैं। ………………….. इस कथन से जाना जाता है कि षुद्ध द्रव्यार्थिक और शुद्ध पर्यायार्थिक इन दोनों नयों से सभी संसारी जीव सिद्धों के समान अषुद्ध द्रव्यार्थिक नय से और अषुद्ध पर्यायार्थिक नय से संसारी जीव अषुद्ध हैं उनकी गुणपर्यायें भी अषुद्ध ही हैं।“
”षुद्ध बुद्ध एक अपना स्वरूप आत्मतत्व है उसको छोड़कर और जो जीव अजीव आदि है उनके औपषमिक आदि बहुत प्रकार के विकल्प रूप परिणाम हैं ओर जो अनेक प्रकार की व्यंजन पर्यायें हैं वे सभी परद्रव्य से सम्बन्धित होने से परद्रव्य हैं। वे सब द्रव्य कर्म के उदय से उत्पन्न होने से सब पर स्वभाव हैं इसलिए हेय है, छोड़ना योग्य है। आत्मा ही स्वद्रव्य है अपने अस्तित्व रूप होने से वही अंतसर््वरूप है, अतः वही उपादेय है – सतत ग्रहण करने योग्य है।“
“तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार से आत्र्तध्यान न हो सके ऐसा ही आचरण करते हुए मुनिराज आज्ञा विचय, उपायविचय, विपाकविचय और संस्थान विचय इनमें से किसी भी ध्यान का आश्रय लेते हुए रहें। चित्त की एकाग्रता के अभाव में स्वाध्याय और छः आवष्यक क्रियाओं को करते हुए सावधानी पूर्वक विहार करें और ”कब अथवा कैसे मैं अपनी आत्मा के ध्यान रूपी अमृत को पीऊँगा“? ऐसी भावना से तथा पुरुशार्थ से किसी न किसी दिन अथवा किसी न किसी भव में ध्यान सिद्धि होगी ही-ऐसा मानकर दुध्र्यान से बचने के लिए जिनराज के चरणों की शरण ग्रहण करना चाहिए।
तत्त्व विचार के समय अथवा सामायिक में निष्चय प्रतिक्रमण की भावना भी करते रहना चाहिए। उदाहरण स्वरूप –
”मैं वचन रचना रूप द्रव्य प्रतिक्रमण से रहित, रागादि भाव से रहित, व्रता की विराधना से रहित, चतुर्विध आराधना से सहित, निज शुद्ध आत्मा की आराधना से परिणत, अनाचार से रहित, यति के आचार से परिणत, उन्मार्ग से रहित जिनमार्ग में (परिणत) स्थित, तीन “शल्य से रहित, निषल्य भाव में स्थित, अगुप्ति भाव से रहित तीन गुप्ति से सहित आत्र्तरौद्र दुध्र्यान से रहित, धम्र्य व शुक्लध्यान से परिणत निष्चय प्रतिक्रमण स्वरूप हूँ।“
”जो मयूर पिच्छिकाधारी दिगम्बर मुनि निःसंग होकर वीतरागस्वसंवेदन – ज्ञानरूप निज स्वरूप में आचरण करते हुए निजज्ञान, दर्षन-भाव आदि अनन्त गुणसमूह को कभी भी नहीं छोड़ते हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वेशादि किन्हीं भी विभाव भावों को ग्रहण नहीं करते हैं, जो सभी स्व और पर के स्वभाव को केवल जानते और देखते हैं, अर्थात् मात्र सबके ज्ञाता और दृश्टा ही रहते हैं। यहाँ पर यह परमात्मा का स्वभाव बताया बया है। यद्यपि रागद्वेश आदि भावों का उत्पादन कारण आत्मा ही है, फिर भी द्रव्यकर्मोदय के निमित्त से ये भाव उत्पन्न होते हैं, अतः ये परभाव ही हैं। ………………… इस प्रकार तत्त्व के विचार के समय और निज आत्मा के ध्यान के समय वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी मुनि ऐसा चिंतवन करें, भावना करें और शुद्धपयोग में स्थित होकर ऐसा अनुभव करें।“ निम्न गाथा अध्यात्म क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध हैं,
एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।102।।
अर्थ– मेरा आत्मा एक है, शष्वत है, और ज्ञान दर्शन लक्षण वाला है, शोक संयोग लक्षण वाले सभी भाव मेरे से वाह्य है।
टीकांष – “वे ही मुनि अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेते हैं ऐसा जानकर प्रतिदिन और प्रतिक्षण भी इस गाथा स्मरण चाहिए, इसी का चिन्तन करना चाहिए और इसी का अभ्यास करना चाहिए, तब तक जब तक कि मन की प्रवृत्ति ध्यान एकलीनता को न प्राप्त कर लेवें। अर्थात् जब तक ध्यान की सिद्धि न हो जावे तब तक इस गाथा को अपने हृदय में स्थापित कर बार बार इसी का चिंतवन करते रहना चाहिए।“
इसी प्रकार के असंख्यातविध भावों में से एक भी भाव होता है, तो वह आत्मा को दुखित कर देता है, इनसे भाव मन की शुद्ध नहीं है, अतः इन मद आदि से रहित भावों का होना ही भावशुद्ध कही गई है।“
इसलिए दोनों प्रकार के मन से सहित महामुनि के भावमन या चित्त को ज्ञान शब्द से कहना शक्य है। यह सर्वोत्कृश्ट ज्ञान भेद विज्ञान ही है, जब वह ज्ञान मुनि के होता है, तभी उनके सम्पूर्ण दोशों को दूर करने के लिए निष्चय प्रायचिष्चत्त होता है, क्योंकि भेद विज्ञान ही साक्षात् मुक्ति का कारण है। …………….. यहाँ तात्पर्य यह है कि अपहृत संयमी मुनि परमोपेक्षा संयम का अवलम्बन लेकर भेद विज्ञान के बल से परमसमाधि में स्थित होकर सहज शुद्धज्ञान दर्षन स्वभाव आत्मा को जब ध्याते हैं, तभीशुद्ध प्रायष्चित्त करके शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, परमस्वस्थ परमात्मा हो जाते हैं। ऐसा जानकर प्रारंभ अवस्था में छठे गुणस्थान के योग्य संयम की भावना करनी चाहिए।“
उपर्युक्त उद्धरणों से प्रकट होता है कि स्याद्वाद चन्द्रिका का अध्यात्म पक्ष मूल ग्रन्थ के विशयानुरूप संचरित हो रहा है। आत्म के सम्मुख परिणाम या आत्मा को ध्यान में प्राप्त करने रुप परिणाम अध्यात्म कहलाता है। शुद्धनय और अनुभव ये दो अध्यात्म के प्रमुख तत्व हैं। इनसे ही ध्यान की एकाग्रता प्रादुर्भूत होती है। द्रव्यानुयोग में अध्यात्म का विषेश वर्णन है। माता जी ने आध्यात्मिक वर्णन में द्रव्यानुयोग के सभी प्रमुख ग्रन्थों के सार रूप में विशय लिया है। उनका अध्यात्म चरणानुयोग सापेक्ष ही ग्रहण में आता है। बिना व्यवहार चारित्र के आत्मानुभवता की असंभवता है। इन आदि विशयों का खुलासा अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में टीकाकत्र्री ने किया है। स्याद्वाद चन्द्रिका वस्तुतः अध्यात्म का पिटारा ही बन गई है।