ऋषभदेव को नित नमूँ, नमूँ अयोध्या तीर्थ।
हुए अनंतानंत ही, तीर्थंकर मुनि कीर्त्य।।१।।
चौबीसवें तीर्थकर, महावीर भगवन्त।
नमूँ अनन्तों बार मैं, पाऊँ सौख्य अनंत।।२।।
द्वादशांग वाणी नमूँ, सरस्वती मुनिवंद्य।
गौतम गणधर गुरु नमूँ, नमूँ साधु निग्रंथ ।।३।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
उनके पट्टाचार्य थे, वीरसागराचार्य।।४।।
देकर दीक्षा आर्यिका, दिया ज्ञानमती नाम।
गुरुवर कृपाप्रसाद से, सार्थ हुआ कुछ नाम।।५।।
वीर शब्द पच्चीस सौ, उनंचास जगख्यात।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, पार्श्वनाथ तिथि ख्यात।।६।।
तीर्थ अयोध्या शाश्वती, वर्षायोग प्रवास।
पार्श्वनाथ निर्वाण तिथी, महिमामयी प्रभात।।७।।
सुदं मे आउस्संतो! किया संकलन पूर्ण।
अतिशयकारी ग्रंथ से, हो श्रुतज्ञान प्रपूर्ण।।८।।
गौतमगणधर वचन हैं, अमृतवाणी मान्य।
इनको पाकर हम सभी, किया जन्म को धन्य।।९।।
षट्खंडागम ग्रंथ को, महापुराण को वंद्य।
धवला टीका को नमूँ, नमूँ साधु निग्रंथ ।।१०।।
जब तक जिनवर धर्म है, जग में सुखकर पूर्ण।
तब तक ग्रंथ स्थायि हो, करे ‘ज्ञानमती’ पूर्ण।।११।।
इति प्रशस्ति संपूर्णा।