जीव के दो भेद हैं—आहारक और अनाहारक। शरीर नामकर्म के उदय से औदारिक आदि किसी शरीर के योग्य तथा वचन, मन के योग्य वर्गणाओं का यथासम्भव ग्रहण होना आहार है उसको ग्रहण करने वाला जीव आहारक है। इसके विपरीत अर्थात् नोकर्म वर्गणाओं को ग्रहण न करने वाले जीव अनाहारक हैं।
अनाहारक जीव—विग्रहगति वाले जीव, केवली समुद्घात में प्रतर और लोकपूरण समुद्घात वाले सयोगिकेवली जीव तथा अयोगिकेवली और सभी सिद्ध अनाहारक होते हैं।
आहारक जीव—उपर्युक्त अनाहारक से अतिरिक्त शेष सभी जीव आहारक होते हैं।
आहारक के छह भेद हैं—कवलाहार, कर्माहार, नोकर्माहार, लेपाहार, ओज आहार और मानसिक आहार। ग्रास उठाकर खाना कवलाहार है। यह सभी मनुष्य और तिर्यंच आदि में होता है। आठ कर्मयोग्य वर्गणाओं का ग्रहण करना कर्माहार है, यह विग्रहगति में भी होता है। शरीर और पर्याप्ति के योग्य नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण करना नोकर्माहार है यह केवली भगवान के भी होता है, उनके भी शरीर के योग्य वर्गणायें आ रही हैं वे आहारक हैं। फिर भी वे कवलाहार नहीं करते हैं। जो लेप से पोषण होता है वह लेपाहार है, यह वृक्षों में पाया जाता है। जो शरीर की गर्मी से पोषण करता है वह ओजाहार है जैसे—मुर्गी अण्डे को सेकर गर्मी देती है। देवों के मन में इच्छा होते की कंठ से अमृत झर कर तृप्ति हो जाती है यह मानसिक आहार है। देव लोग बलि या माँस भक्षण अथवा सुरापान आदि नहीं करते हैं। अनाहारक का उत्कृष्ट काल तीन समय और जघन्यकाल एक समय है। आहारक का जघन्यकाल तीन समय कम श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट काल सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। आहारक मार्गणा को समझकर कवलाहार के त्यागपूर्वक उपवास, तपश्चरण करते हुए कर्म-नोकर्माहार से रहित अनाहारक सिद्ध पद प्राप्त करना चाहिए।