कौरव-पांडव ने यहाँ, युद्ध किया घमसान। पांडव मुनि होकर पुन:, किया स्वात्म कल्याण।।६।।
लोहमयी आभूषणों, को अग्नी में तप्त। कर पहनाये शत्रु ने, पांडव मुनि के अंग।।७।।
उपसर्गों को जीतकर, धर्मराज मुनि भीम। अर्जुन त्रय मुनि अन्तकृत्, केवलि हुए प्रवीण।।८।।
नकुल और सहदेव मुनि, उपसर्गों को जीत। सर्वारथसिद्धी गये, महापुण्य से प्रीत।।९।।
ऋषभदेव-महावीर तक, समवसरण इस देश। आकर भव्यों को दिये, धर्मामृत उपदेश।।१०।।
पावन तीर्थ प्रसिद्ध यह, हस्तिनागपुर देश। मन-वच-तन से नित्य मैं, वंदूँ भक्ति समेत।।११।।
भरत क्षेत्र
इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य में एक लाख योजन व्यास वाला गोलाकार जम्बूद्वीप है। उसके दक्षिण भाग में १९०वें भागप्रमाण अर्थात् योजनप्रमाण भरतक्षेत्र है। इस भरतक्षेत्र में भी बीचों बीच में पूर्व-पश्चिम लंबा विजयार्ध पर्वत है, हिमवान पर्वत स्थित पद्म सरोवर के पूर्व-पश्चिम तोरणद्वार से गंगा-सिंधु नदी निकलकर विजयार्ध पर्वत की गुफाओं में होकर आगे दक्षिणी भरत क्षेत्र में आकर पूर्व-पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती हैं। इस प्रकार से भरतक्षेत्र के छह खंड हो गये हैं। इन छह खण्डों में लवण समुद्र की तरफ के (उत्तरी भरत क्षेत्र के) मध्य का खण्ड ‘आर्यखण्ड’ कहलाता है, बाकी के पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। इस आर्यखण्ड में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के निमित्त से षट्काल परिवर्तन होता रहता है। यथा-अवसर्पिणी काल के ६ भेद हैं-सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादु:षमा, दु:षमासुषमा, दु:षमा और अतिदु:षमा। ऐसे ही उत्सर्पिणी काल के भी ६ भेद हैं-अतिदु:षमा, दु:षमा, दु:षमासुषमा, सुषमादु:षमा, सुषमा और सुषमासुषमा।
भगवान ऋषभदेव
अवसर्पिणी के प्रथम काल मे उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था थी। दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्तम-उत्तम भोगसामग्री प्राप्त होती थी। दूसरे काल में मध्यम भोगभूमि एवं तृतीयकाल में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था थी। तृतीयकाल में जब पल्य का आठवाँ भाग शेष रह गया तब ‘प्रतिश्रुति’ को आदि लेकर चौदह कुलकर क्रम से उत्पन्न हुए। इनमें अंतिम कुलकर नाभिराय महाराज थे। जब नाभिराय हुए, उस समय कल्पवृक्ष प्राय: समाप्त हो चुके थे और प्रजा नाभिराय के पास आकर आजीविका के उपाय समझकर उन्हें करने लगी। इन्द्र ने महाराज नाभिराय का विवाह मरुदेवी के साथ सम्पन्न कराया तथा इन दोनों से भगवान ऋषभदेव जन्म लेंगे, ऐसा समझकर इन्द्र ने अयोध्या नगरी की रचना की थी। इसमें नाभिराय का ‘सर्वतोभद्र’ नाम का राजभवन इक्यासी तल का, रत्नों से निर्मित था। जब अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमादु:षमा नामक काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ माह, एक पक्ष बाकी रह गया था, तब आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर अहमिन्द्र (भगवान ऋषभदेव) माता मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए। भगवान का गर्भ महोत्सव इन्द्रों ने विधिवत् मनाया। नवमास के बाद चैत्र कृष्णा नवमी के दिन, उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में माता मरुदेवी ने मति, श्रुत, अवधि ऐसे तीन ज्ञानधारक पुत्ररत्न को जन्म दिया। इन्द्रों ने बालक का सुमेरु पर्वत पर अभिषेक महोत्सव करके ‘ऋषभदेव’ यह नाम रखा। भगवान ऋषभदेव की आयु चौरासी लाख पूर्व वर्ष एवं शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण थी। जब भगवान का कुमारकाल (बीस लाख पूर्व वर्ष का) व्यतीत हो गया, तब इन्द्र ने भगवान को साम्राज्य पद पर अभिषिक्त किया। किसी समय प्रजा भगवान के पास आई और अपने लिए वर्षा, आतप आदि से बचने के तथा जीवित रहने के उपाय पूछने लगी। तब भगवान ने अपने अवधिज्ञान से विदेहक्षेत्र की स्थिति को जानकर वहीं के सदृश क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था की और असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, विद्या व शिल्प इन षट्कर्मों का उपदेश दिया। भगवान ने सभी व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिए इन्द्र का स्मरण किया। इन्द्र ने भगवान की आज्ञा से शुभ दिन, शुभ नक्षत्र एवं शुभलग्न में प्रथम मांगलिक कार्य करके अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना की। इसके बाद पूर्वादि चारों दिशाओं में भी जिनमंदिरों की रचना की। अनंतर कौशल, काश्मीर, अवन्ति, कुरुजांगल आदि महादेश तथा अयोध्या, उज्जयिनी, हस्तिनापुर, वाराणसी आदि नगरों की रचना की। भगवान ने हरि, अकंपन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार महाभाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सन्मान और सत्कार किया। तदनंतर राज्याभिषेक कर उन्हें महामांडलिक राजा बनाया। ये चार हजार छोटे-छोटे राजाओं के अधिपति थे। सोमप्रभ राजा, भगवान से कुरुराज नाम पाकर कुरुदेश का राजा हुआ और ‘कुरुवंश’ का शिखामणि कहलाया। हरि राजा, भगवान की आज्ञा से हरिकांत नाम को धारण करता हुआ ‘हरिवंश’ को अलंकृत करने लगा। अवंâपन महाराज भगवान से श्रीधर नाम पाकर ‘नाथवंश’ के नायक हुए और कश्यप राजा भगवान से मघवा नाम प्राप्तकर ‘उग्रवंश’ के मुख्य राजा हुए। अनंतर भगवान ने कच्छ-महाकच्छ आदि प्रमुख-प्रमुख राजाओं का सत्कार कर उन्हें अधिराज के पद पर स्थापित किया। भगवान के यशस्वती और सुनंदा दो रानियाँ थीं। यशस्वती से ‘भरत चक्रवती’ आदि सौ पुत्र तथा ‘ब्राह्मी’ नामक एक पुत्री का जन्म हुआ था और सुनंदा से कामदेव ‘बाहुबली’ और ‘सुन्दरी’ नामक कन्या का जन्म हुआ था। भगवान ने ब्राह्मी, सुन्दरी दोनों कन्याओं को क्रम से ब्राह्मी लिपि और गणित शास्त्र का अभ्यास कराकर सभी शास्त्रों में निपुण बनाया तथा भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्रों को सर्व विद्याओं में योग्य बनाया। भगवान ने मनुष्यों को इक्षुरस संग्रह करने का उपदेश दिया था इसलिए प्रजा ने उन्हें इक्ष्वाकु कहा था। भगवान आदिनाथ का राज्यकाल तिरेसठ लाख पूर्व वर्ष तक रहा। इस प्रकार भगवान का बीस लाख पूर्व वर्ष ‘कुमार अवस्था’ में एवं तिरेसठ लाख पूर्व वर्ष राज्यावस्था में, ऐसे तिरासी लाख पूर्व वर्ष का काल व्यतीत हो गया। किसी समय राज्यसभा में नीलांजना का नृत्य देखते हुए अकस्मात् उसकी आयु समाप्त हुई जानकर भगवान भोगों से विरक्त हो गये और लौकांतिक देवों द्वारा स्तुत्य, देवों द्वारा लाई गई ‘सुदर्शना’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर अयोध्या नगरी से बाहर कुछ दूर पर सिद्धार्थ नामक वन में पहुँचे। पंचमुष्टि केशलोंच करके सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर दिया और ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’कहते हुए स्वयं सिद्धों की साक्षीपूर्वक जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। इसलिए भगवान स्वयंबुद्ध भी कहलाये। वह दिन भी चैत्र वदी नवमी का था। जहाँ भगवान ने दीक्षा ली उस स्थान का ‘प्रयाग’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया है। जिस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली वह वटवृक्ष ‘अक्षय वटवृक्ष’ हो गया। उस समय भगवान शरीर से ममत्व छोड़कर छह महीने के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर ध्यान में स्थित हो गये। दीक्षा के अनन्तर ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था। चार हजार अन्य राजाओं ने भी भगवान की भक्ति से प्रेरित होकर बिना कुछ सोचे-समझे भगवान के साथ ही निर्गं्रथ अवस्था धारण कर ली किन्तु वास्तव में ये सब द्रव्यलिंगी साधु थे, भावलिंगी नहीं थे। महीने-दो महीने में ही ये सब साधु भूख-प्यास से पीड़ित होकर, परीषहों से घबरा गये और स्वयं वन के फल आदि खाने लगे तथा तालाब का पानी पीने लगे। तब वनदेवता ने यह कहकर मना किया कि निग्र्रन्थ दिगम्बर वेष में तुम लोग यह कार्य मत करो, यह मुद्रा चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के धारण करने योग्य है, इसे दीनता का स्थान मत बनाओ। तब इन भ्रष्ट साधुओं ने डरकर ‘इस अवस्था में स्वच्छंद आचरण करना ठीक नहीं है’ ऐसा समझकर किसी ने जटायें बढ़ा लीं, किसी ने परिव्राजक का वेष बना लिया और कोई एकदण्डी, त्रिदण्डी आदि बन गये।
ऋषभदेव की आहारचर्या
जब जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव को योग धारण किये हुए छह मास पूर्ण हो गये, तब यतियों की चर्या अर्थात् शरीर की स्थिति के अर्थ आहार लेने की विधि बतलाने के उद्देश्य से निर्दोष आहार ढूंढने के लिए वे (भगवान) विचार करने लगे कि बड़े दु:ख की बात है कि ये बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न हुए नवदीक्षित साधु क्षुधादि परीषहों से शीघ्र ही भ्रष्ट हो गये इसलिए अब सुखपूर्वक मोक्ष की सिद्धि के लिए मैं आहार देने की विधि सिखलाता हूँ। संयम की सिद्धि के लिए मुनियों को निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए, ऐसा निश्चय कर भगवान आहार के लिए विहार करने लगे। उस समय मुनियों की आहारविधि से अनभिज्ञ सभी लोग भगवान को विहार करते हुए देखकर कोई प्रणाम करते, कोई भगवान के पीछे-पीछे चलने लगते, कोई रत्न आदि बहुमूल्य वस्तुएँ भेंट में लाते, कोई हाथी, घोड़ा आदि सामग्री भेंट में देना चाहते और कोई मूढ़ लोग कन्याओं को लाकर भगवान से प्रार्थना करते कि हे देव! इन्हें ग्रहण कीजिए। भगवान प्रसन्न होइये। कितने ही लोग प्रार्थना करते कि हे भगवन्! स्नान कीजिए, भोजन कीजिए इत्यादि। इस प्रकार की प्रक्रिया से भगवान की चर्या में विघ्न आ जाता और वे आगे विहार कर जाते। इस तरह गूढ़ चर्या से उत्कृष्ट चर्या धारण करने वाले भगवान के छ: महीने और भी व्यतीत हो गये क्योंकि तब तक कोई भी विधिपूर्वक आहार देना नहीं जानता था।
हस्तिनापुर में भगवान का आगमन
एक वर्ष पूर्ण होने पर भगवान ऋषभदेव कुरुजांगल देश के आभूषण के समान सुशोभित हस्तिनापुर नगर में पहुँचे, उस समय इस नगर के स्वामी राजा सोमप्रभ थे, उनके छोटे भाई राजा श्रेयांस कुमार थे। जब भगवान हस्तिनापुर नगर के समीप आने को हुए तब श्रेयांस कुमार ने रात्रि के पिछले प्रहर में सात स्वप्न देखे। ‘‘सुवर्णमय सुमेरुपर्वत, कल्पवृक्ष, सिंह, बैल, सूर्य-चन्द्र, समुद्र एवं सातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्य धारण कर सामने खड़े हुए व्यंतर देवों की मूर्तियाँ देखीं। विनय सहित राजा सोमप्रभ के पास श्रेयांस कुमार ने इन स्वप्नों को कहा और राजा सोमप्रभ ने भी इनका फल यह बतलाया कि आज अपने घर में कोई देव अवश्य ही आवेंगे। दोनों भाई पुरोहित के साथ इन स्वप्नों के फल की चर्चा करते हुए बैठे थे कि इतने में ही भगवान ऋषभदेव ने अकेले ही हस्तिनापुर में प्रवेश किया।
श्रेयांस कुमार को जातिस्मरण
वे दोनों भाई (सोमप्रभ व श्रेयांस कुमार) सिद्धार्थ द्वारपाल से सूचना पाकर राजमहल के आँगन तक बाहर आये और दूर से ही नम्रीभूत होकर भक्तिपूर्वक भगवान के चरणों को नमस्कार किया, जगद्गुरु भगवान की प्रदक्षिणा दी। भगवान के रूप को देखते ही श्रेयांस कुमार को जातिस्मरण हो गया जिससे उसने अपने पूर्वभवसंबंधी संस्कारों से भगवान को आहार देने की बुद्धि की।
श्रेयांस कुमार के पूर्व भव
इस भव से आठवें भव पहले भगवान ऋषभदेव वङ्काजंघ नाम के राजा थे और राजा श्रेयांस कुमार का जीव उनकी रानी श्रीमती था। इनके वीरबाहु आदि अट्ठानवे पुत्र थे जो कि मुनिदीक्षा ले चुके थे। किसी समय राजा वङ्काजंघ सेना सहित वन में किसी तालाब के किनारे ठहरे हुए थे। उसी समय आकाश में गमन करने वाले श्रीमान् दमधर नामक मुनिराज, सागरसेन नामक मुनिराज के साथ-साथ वङ्काजंघ के पड़ाव में पधारे। उन दोनों ने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा ली थी। राजा वङ्काजंघ ने श्रीमती रानी सहित दोनों मुनियों का पड़गाहन करके नवधाभक्ति से आहारदान दिया। उस आहारदान के प्रभाव से देवों ने पंचाश्चर्य किये। आहार लेकर मुनियों के जाने के बाद कंचुकी के द्वारा राजा वङ्काजंघ को पता चला कि ये अपने ही अंतिम पुत्र थे, तब राजा-रानी के आनंद का पार नहीं रहा। इस प्रकार आठ भव पहले जो रानी श्रीमती ने पति सहित आहारदान दिया था, उस भव का स्मरण हो गया और राजा श्रेयांस कुमार आहारदान की सारी विधि समझकर नवधाभक्ति करने लगे।
भगवान का प्रथम आहार
प्रथम ही दोनों भाइयों ने रानियों सहित भगवान का पड़गाहन किया- हे भगवन्! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु। अत्र तिष्ठ तिष्ठ। पुन: तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार कर उच्चासन पर विराजमान किया, चरण प्रक्षालन किये, अष्टद्रव्य से पूजा की, विधिवत् नमस्कार किया। अनंतर प्रासुक इक्षुरस लेकर बोले-हे भगवन्! मन शुद्ध है, वचन शुद्ध है, काय शुद्ध है, आहार जल शुद्ध है, भोजन ग्रहण कीजिए। मुनिराज का पड़गाहन करना, उन्हें ऊँचे स्थान पर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार की विशुद्धि रखना इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकार का पुण्य अथवा नवधाभक्ति कहलाती है। नवधाभक्ति के अनंतर भगवान ने खड़े होकर अपने दोनों हाथों की अंजली बनाई। श्रेयांस कुमार ने राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमती के साथ भगवान को आदरपूर्वक ईख (गन्ने) के प्रासुक रस का आहार दिया। उसी समय आकाश से देवों द्वारा छोड़ी गई रत्नों की वर्षा होने लगी, पुष्पवृष्टि होने लगी, देवदुंदुभि बजने लगी, शीतल सुगंध वायु चलने लगी और उच्च स्वर से जय-जयकार करते हुए देव कहने लगे कि ‘धन्य यह दान, धन्य यह पात्र और धन्य यह दाता, इस प्रकार बहुत भारी शब्द आकाश में हो गया। रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि, दुंदुभि वाद्य, शीतल वायु और अहोदानम् इत्यादि प्रशंसा वाक्य ये पाँच कार्य स्वाभाविकरूप से आहार दान के समय होते हैं, तब इन्हें पंचाश्चर्य कहते हैं। भगवान के पारणा के दिन दातारों के यहाँ अधिक से अधिक साढ़े बारह करोड़ एवं कम से कम साढ़े बारह लाख रत्न बरसते हैं। भगवान आहार ग्रहणकर वन को चले गये, कुछ दूर तक राजा सोमप्रभ, श्री श्रेयांस के साथ-साथ भगवान के पीछे-पीछे गये पुन: बारम्बार नमस्कार कर वापस आ गये। उस दिन वैशाख सुदी तृतीया थी, राजा श्रेयांस के यहाँ उस दिन रसोई गृह में भोजन अक्षीण हो गया अत: इसे आज भी सभी लोग ‘अक्षय तृतीया’ पर्व मानते हैं। जबकि आहारदान को हुए आज कुछ अधिक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण काल व्यतीत हो चुका है।
धर्मतीर्थ और दानतीर्थ
भगवान ऋषभदेव धर्मतीर्थ के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर थे तो राजा श्रेयांस दानतीर्थ के प्रवर्तक प्रथम दातार थे। इस हस्तिनापुर नगर से ही दानतीर्थ की प्रवृत्ति हुई है अत: यह नगर उसी समय से पुण्यभूमि बन गई है। भरतक्षेत्र में दान देने की प्रथा उस समय से प्रचलित हुई और दान देने की विधि भी राजकुमार श्रेयांस से ही प्रगट हुई। दान की इस विधि से भरत आदि राजाओं को और देवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। देवों ने आकर बड़े आदर से राजा श्रेयांस की पूजा की। महाराज भरत ने भी श्रेयांस के मुख से सारी बातों को सुनकर परम प्रीति को प्राप्त किया और राजा सोमप्रभ तथा श्रेयांस कुमार का खूब सम्मान किया।
भगवान को केवलज्ञान की उत्पत्ति
भगवान ने एक हजार वर्ष तक छद्मस्थ काल में तपश्चरण किया अनन्तर पुरिमतालपुर नगर के बाह्य उद्यान में-प्रयाग में न्यग्रोध वृक्ष-वटवृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्ण एकादशी के पूर्वाण्ह काल में उत्तराषाढ़ नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने भगवान का दिव्य समवसरण निर्माण किया जिसमें वृषभसेन को आदि लेकर चौरासी गणधर थे। भगवान ने अर्हंत अवस्था में एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष तक भव्य जीवों को धर्मामृत का उपदेश दिया।
भगवान का मोक्षगमन
पुन: भगवान ऋषभदेव माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन पूर्वाण्हकाल में केलाशपर्वत से दस हजार मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए थे, उनको मैं नमस्कार करता हूँ। तृतीय काल में तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष के अवशिष्ट रहने पर भगवान ऋषभदेव मुक्ति को प्राप्त हुए हैं।
श्रेयांस कुमार का दीक्षाग्रहण
भगवान को केवलज्ञान होने के बाद राजा सोमप्रभ और श्रेयांस कुमार भी भगवान के समवसरण में दीक्षित हो भगवान के गणधर हो गये थे। प्रथम गणधर भगवान के पुत्र वृषभसेन थे। ये गणधर मन:पर्ययज्ञान से सहित सात ऋद्धियों से विभूषित होते हैं और उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। भगवान ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे। आज इस हस्तिनापुर नगर में भगवान के आहार लाभ को हुए निम्नलिखित काल व्यतीत हो चुका है। भगवान की आयु का शेष काल एक वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष, तृतीय काल का अवशिष्ट काल तीन वर्ष साढ़े आठ माह, चतुर्थ काल का समय-बयालिस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर और वीरप्रभु के निर्वाण के अनन्तर का काल ढाई हजार वर्ष, इतना काल आज तक हो चुका है। भगवान के आहारदान से पवित्र हुई नगरी आज तक तीर्थ कहलाती है और भव्यजन बड़ी भक्ति से इसकी पूजा करते हैं। महापुराण में ऐसा वर्णन है कि यहाँ कुरुजांगल देश में भगवान ऋषभदेव का समवसरण आया था।