(२४०)
सीता बोली हे नाथ! नहीं, इसमें कुछ दोष तुम्हारा है।
मैं नहीं किसी पर कुपित देव! निजकर्मों से जग हारा है।।
हे नाथ ! बहुत सुख भोग लिए, अब और न कोई इच्छा है।
दुखों का क्षय करने वाली, अब ग्रहण करूँगी दीक्षा है।।
(२४१)
प्रारम्भ कर दिया केशलोंच, खुद अपना अपने हाथों से ।
रघुवर के सम्मुख डाल दिया, मन कर सुमेरु विश्वासों से।।
श्रीराम देख उन केशों को, मूच्र्छित होकर गिर जाते हैं।
होकर सचेत बोले देखूँ अब कौन उसे ले जाते हैं।।
(२४२)
तब पृथ्वीमती आर्यिका से,आर्याव्रत अंगीकार किया।
अब किसी हृदय के कोने ने, था भोग नहीं स्वीकार किया।।
चाहे नर हो या नारी हो, वैराग्य जिसे भा जाता है।
उसको इस जग का आकर्षण, फिर जरा न सहला पाता है।।
(२४३)
जब सबके संग में रामचंद्र, पहुँचे थे समवशरण भीतर ।
तब मोहशोक को भूल गये,सब शांत हुआ दिल के अंदर ।।
स्तुति पूजा कर बैठ गये, सीता को नमस्कार करके।
उपदेश श्रवण कर विरत हुआ, सेनापति बोला आ करके ।।
(२४४)
हे नाथ ! मुझे भी आज्ञा दे, अब अपना आत्मविकास करूँ।
तब कहा राम ने सुनो भद्र ! जब भी मैं संकटबीच घिरूँ ।।
यदि देव बनो तो आकर के मुझको सम्बोधन कर जाना।
देकर स्वीकृति सहर्ष चले, मुनिवर का धरने वे बाना।।
(२४५)
जब जाते समय पुन: राघव, सीता के पास पहुँचते हैं।
तब जैसे—तैसे अश्रु रोक, वंदामि कहकर कहते हैं।।
तुम धन्य हो गयी हे देवी ! जिनवर का पथ अपनाया है।
मैं अभी मोह में फंसा हुआ, मुझमें अज्ञान समाया है।।
(२४६)
मुझसे जाने—अनजाने में, जो भी अपराध हुआ होगा।
उन सबका पुन: क्षमायाचक, जिससे मन शांत मेरा होगा।।
लक्ष्मण—लवकुश भी दर्शनकर,श्री रामचंद्र के साथ चले।
सीता को खोने का दुख था, अब यादें लेकर साथ चले।।