रत्नकरण्डश्रावकाचार में धर्म का लक्षण—
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदुः। यदीय-प्रत्यनी-कानि, भवन्ति भवपद्धति।।३।।
सम्यग्दर्शन औ ज्ञान चरित, ये धर्म नाम से कहलाते। धर्मेश्वर तीर्थंकर गणधर, इनको ही शिवपथ बतलाते।। इनसे उल्टे मिथ्यादर्शन, औ मिथ्याज्ञान चरित्र सभी। भव दु:खों के ही कारण हैं, निंह हो सकते सुख हेतु कभी।।३।।
अर्थ — सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन्हीं का नाम धर्म है। धर्म के स्वामी तीर्थंकर और गणधर इन्हें ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों संसार दुख के कारण हैं ये कभी भी सुख के हेतु नहीं हो सकते हैं।।३।।
उमास्वामी श्रावकाचार में धर्म का लक्षण—
सम्यग्दृग्बोधवृत्तान्यविविक्तानि विमुक्तये। धर्म सागारिणामाहुर्धर्मकर्मपरायणाः।।४।।
अर्थ — सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्चारित्र की एकता ही मोक्ष का मार्ग है। धर्म कार्यो में अत्यन्त निपुण ऐसे गणधर देव इस रत्नत्रय को ही मोक्षमार्ग बतलाते हैं तथा यही रत्नत्रय एक देशरूप गृहस्थों का धर्म कहलाता है।
अष्टपाहुड़ ग्रंथ में दर्शन प्राभृत में धर्म का लक्षण—
दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेिंह सिस्साणं। तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।२।।
दर्शनमूलो धर्म उपदिष्टो जिनवरैः शिष्याणाम्। तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः।।२।। (दंसणमूलो धम्मो) दर्शनं सम्यक्त्वं मूलमधिष्ठानमाधारा प्रासादस्य गर्तापूरवत् वृक्षस्य पातालगत-जटावत् प्रतिष्ठा यस्य धर्मस्य स दर्शनमूल एवंगुणविशिष्टो धर्मो दयालक्षणः (जिणवरेिंह) तीर्थंकरपरम-देवैरपरकेवलिभिश्च (उवइट्ठो) उपदिष्टः प्रतिपादितः। केषामुपदिष्टः ? (सिस्साणं) शिष्याणां गणधर-चक्रधर-वङ्काधरादीनां भव्यवरपुण्डरीकाणाम्। (तं सोऊण सकण्णे) तं धर्म श्रुत्वाऽऽकण्र्यं स्वकर्णे निजश्रवणे आत्मशब्दग्रहे। (दंसणहीणो ण वंदिव्वो) दर्शनहीनः सम्यक्त्वरहितो न वन्दितव्यो नैव वन्दनीयो न माननीयः। तस्यान्नदानादिकमपि न देयम्। उक्तं च—
मिथ्यादृग्भ्यो ददद्दानं दाता मिथ्यात्ववर्धक:।
गाथार्थ — जिनेन्द्र भगवान् ने शिष्यों के लिये सम्यग्दर्शनमूलक धर्म का उपदेश दिया है, सो उसे अपने कानों से सुनकर सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य की वन्दना नहीं करना चाहिये।।२।।
विशेषार्थ — जिस प्रकार महल का मूल आधार नींव है और वृक्ष का मूल आधार पाताल तक गई हुई उसकी जड़ें हैं उसी प्रकार धर्म का मूल आधार सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन बिना धर्मरूपी महल अथवा धर्मरूपी वृक्ष ठहर नहीं सकता है। जीवरक्षारूप आत्मा की परिणति को दया कहते हैं, वह दया ही धर्म का लक्षण है। तीर्थंकर परमदेव तथा अन्यान्य केवलियों ने अपने गणधर, चक्रवर्ती तथा इन्द्र आदि शिष्यों को धर्म का यही स्वरूप बताया है। इसे अपने कानों से सुनकर सम्यग्दर्शन से हीन मनुष्य को नमस्कार नहीं करना चाहिये। धर्म की जड़स्वरूप सम्यग्दर्शन ही जिसके पास नहीं है वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ? और जो धर्मात्मा नहीं है वह वन्दना या नमस्कार का पात्र किस तरह हो सकता है ? ऐसे मनुष्य को तो आहारदान आदि भी नहीं देना चाहिये, क्योंकि कहा है—
मिथ्येति — मिथ्यादृष्टियों के लिये दान देने वाला दाता मिथ्यात्व को बढ़ाने वाला है।
पद्मनन्दिपञ्चिंवशतिका ग्रन्थ में धर्मोपदेशामृत में धर्म का लक्षण
धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद्द्विधा च त्रयं रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः।
मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता वागङ्गसङ्गोज्झिता शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते।।७।।
अर्थ — समस्त जीवों पर दया करना इसी का नाम धर्म है अथवा एकदेश गृहस्थ का धर्म तथा सर्वदेश मुनियों का धर्म इस प्रकार उस धर्म के दो भी भेद हैं अथवा उत्कृष्ट रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यव्— चारित्र) ही धर्म है अथवा उत्तमक्षमा—मार्दव—आर्जव आदिक दश प्रकार भी धर्म है अथवा मोह से उत्पन्न हुवे समस्त विकल्पों कर रहित तथा जिसको वचन से निरूपण नहीं कर सकते ऐसी जो शुद्ध तथा आनन्दमय आत्मा की परिणति उसी का नाम उत्कृष्ट धर्म है इस प्रकार सामान्यतया धर्म का लक्षण तथा भेद इस श्लोक में बतलाये गये हैं।।७।।