तीर्थंकरों के तीर्थ में अनुबद्ध केवलि जिन हुये।
बहुतेक मुनि अहमिंद्र हुये बहुतेक यतिगण शिव गये।।
बहुतेक मुनि सौधर्म आदिक ग्रैवेयक तक भी गये।
उन सर्व यति की थापना कर, पूजते सब सुख भये।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तमुनिसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तमुनिसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तमुनिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
स्वच्छ गंगा नदी का जल है। जो स्वातम का हरता मल है।
पूजते ही मिले इष्ट फल है। मुनींद्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें नगन मुनिनाथा। जिन्हें सुरगण नमाते माथा।
तीन रत्नों के हैं ये प्रदाता। मुनीन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध कर्पूर केशर लाऊँ, सौगंधित बनाके घिसाऊँ।
चर्चते चर्ण में शांति पाऊँ, मुनींद्र पाद वंदन करूँ मैं नितही।।आ.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रकांती सदृश तंदुल हैं। पुंज धारे हृदय निर्मल है।
स्वात्मसुखप्राप्त होता विमल है मुनींद्रपाद वंदन करूँ मैं नितही।।आ.।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद पुष्पों का हार बनाऊँ। काम जेता मुनी को चढ़ाऊँ।
आत्मगुण की सुगंधी पाऊँ। मुनींद्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।आ.।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सेमई खीर लाडू भराऊँ। अर्पते भूख बाधा मिटाऊँ।
आत्म पीयूष का स्वाद पाऊँ। मुनीन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।आ.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य:नौवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण दीपक में कर्पूर ज्वाला। आरती से भगे तम काला।
हो स्वातम में ज्ञान उजाला। मुनींद्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।आ.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप खेऊँ सुगंधि अगनि में। कर्म जल के भसम होें क्षण में।
स्वात्मगुण कीर्ति पैâले गगन में। मुनींद्र पादवंदन करूँ मैं नित ही।।आ.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम अंगूर सेव सरस हैं। अर्पते ही मिले समरस है।
हो संयम सुधामय रस है। मुनींद्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।आ.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीर गंधादि अर्घ बनाऊँ। स्वर्ण पुष्प भी उसमें मिलाऊँ।
साधुगणके निकट में चढ़ाऊँ। मुनीन्द्र पाद वंदन करूँ मैं नित ही।।आ.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिवर चरण सरोज, जलधारा से पूजते।
मिले पूर्ण संतोष, शांतिधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प, सुरभित करते दश दिशा।
होवे पुष्टी, तुष्टि, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
अनुक्रम केवलि मुक्तिपद, प्राप्त स्वर्ग पद प्राप्त।
पुष्पांजलि से पूजते, मिटे सकल भवताप।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
आदिनाथ के चुरासि आनुबद्ध केवली।
स्वात्म सौख्य दे सके इन्हों कि भक्ति एकली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
पूजते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभदेवस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनुबद्ध केवली चुरासि अजितेश के।
मुक्ति वल्लभा वरी सुजात रूप धार के।।इष्ट.।।२।।
ॐ ह्रीं अजितनाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवेश के चुरासि केवली अनुक्रमे।
देव इंद्र खेचरादि आप पाद में रमें।।इष्ट.।।३।।
ॐ ह्रीं संभवनाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अभीनंदनेश के चुरासि केवली।
एक बाद एक आनुबद्ध पात्रता भली।।इष्ट.।।४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदननाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ सुमति के चुरासि आनुबद्ध केवली।
पाद धारते जहाँ पे पूज्य हो वही थाली।।इष्ट.।।५।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मनाथ के चुरासि केवली अनुक्रमे।
पादपद्म मैं नमूँ निजात्म सौख्य पावने।।इष्ट.।।६।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभनाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व के चुरासि आनुपूर्व्य१ केवली।
वंदते अनंत जन्म की सभी व्यथा टली।।इष्ट.।।७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रनाथ के चुरासि आनुबद्ध केवली।
पूजते निजात्म तत्त्व की कली कली खिली।।इष्ट.।।८।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभनाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत के चुरासि आनुपूर्व्य केवली।
पादपद्म के जजें समस्त आपदा टली।।इष्ट.।।९।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतलेश के चुरासी आनुबद्ध केवली।
नाम मात्र लेवते निजात्म्ा संपदा मिली।।इष्ट.।।१०।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथस्य चतुरशीतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांस के नुबद्ध केवली बहत्तरा।
घाति घात के अघाति घातते जिनेश्वरा।।इष्ट.।।११।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथस्य द्वासप्ततिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य के चवालिसों-नुबद्ध केवली।
घाति घातते उन्हें अनंत सम्पदा मिली।।इष्ट.।।१२।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनाथस्य चतुश्चत्वािंरशत्अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ विमल के सु चालिसों नुबद्ध केवली।
तीन रत्न पावते हि सिद्धि वल्लभा मिली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
पूजते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१३।।
ॐ ह्रीं विमलनाथस्य चत्वािंरशत्अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनंत के नुबद्ध केवली छतीस हैं।
सर्वकर्म नाश राजते त्रिलोक शीश हैं।।इष्ट.।।१४।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथस्य षट्त्रिंशत्अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मनाथ के नुबद्ध केवली बतीस हैं।
धर्म प्राण भव्य जीव से हि पूजनीक हैं।।इष्ट.।।१५।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथस्य द्वात्रिंशत्अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ के नुबद्ध केवली अठाइसे।
नाम लेत ही अपूर्व सौख्य शांति हो वशे।।इष्ट.।।१६।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथस्य अष्टािंवशतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथु के नुबद्ध केवली सुचार बीस हैं।
मृत्यु मल्ल मार के बसें त्रिलोक शीश हैं।।इष्ट.।।१७।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथस्य चतुर्विंशतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अरह के नुबद्ध केवली सु बीस हैं।
देव इंद्र चक्रवर्ति वंद्य सर्व ईश हैं।।इष्ट.।।१८।।
ॐ ह्रीं अरनाथस्य वशतिअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ के सु सोलहों नुबद्ध केवली।
धर्म अर्थ काम मोक्ष साधके हुये बली।।इष्ट.।।१९।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथस्य षोडशअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुव्रतेश के हि बारहों नुबद्ध केवली।
संयमादि धार के अनंत वीर्य से बली।।इष्ट.।।२०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतनाथस्य द्वादशअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनुबद्ध केवली नमीश के सु आठ हैं।
भव्य वृन्द के सदैव सर्व ठाठ बाट हैं।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
पूजते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।२१।।
ॐ ह्रीं नमिनाथस्य अष्टाअनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ के सुचार आनुबद्ध केवली।
मैं नमूँ उन्हें सदैव स्वात्म ज्योति हो भली।।इष्ट.।।२२।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथस्य चतुरनुुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ के नुबद्ध केवली सु तीन ही।
वंदते उन्हें निजात्म भेद ज्ञान हो सही।।इष्ट.।।२३।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथस्य त्रयानुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीरनाथ के सु तीन आनुबद्ध केवली।
गौतमो सुधर्मसूरि जंबुस्वामि केवली।।इष्ट.।।२४।।
ॐ ह्रीं महावीरस्वामिन: त्रयानुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस दिन तीर्थंकर मुक्ति गये उस दिन हो केवलज्ञान जिन्हें।
फिर उनके मुक्ती जाते ही जो मुनि उस दिन केवली बनें।।
इस तरह श्रृंखला नहिं टूटे अनुबद्ध केवली होते हैं।
उनके चरणों का वंदन कर हम कर्म कालिमा धाते हैं।।
ग्यारह सौ व्यासी कहे, अनुक्रम केवलि ईश।
या१तेरह सौ सत्तरे, नमूूँ नमूँ नत शीश।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकराणां द्व्यशीत्युत्तरएकादशशतानुबद्धकेवलिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
ऋषभदेव के शिष्य मुनि, बीस हजार प्रमाण।
अनुत्तरों में जा बसे, नितप्रति करूँ प्रणाम।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभदेवस्य अनुत्तरप्राप्तिंवशतिसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ के शिष्य यति, मानें बीस हजार।
विजय आदि में जा बसे, जजूँ करें भवपार।।२।।
ॐ ह्रीं अजितनाथस्य अनुत्तरप्राप्तिंवशतिसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवप्रभु के शिष्य मुनि, बीस हजार प्रमाण।
संयम निधिमय जो जजूँ, बसें अनुत्तर जान।।३।।
ॐ ह्रीं संभवनाथस्य अनुत्तरप्राप्तिंवशतिसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनंदन के शिष्य मुनि, बारह सहस प्रमाण।
अनुत्तरों में गये हैं, नमूँ नमूँ गुण खान।।४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदननाथस्य अनुत्तरप्राप्तद्वादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ के शिष्य गण, बारह सहस अशेष।
अनुत्तरों में जन्मते, जजत हरूँ भवक्लेश।।५।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथस्य अनुत्तरप्राप्तद्वादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मनाथ के शिष्य ऋषि, बारह सहस गिनेय।
अनुत्तरों में जन्म लिए, नमत सर्वसुख देंय।।६।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभनाथस्य अनुत्तरप्राप्तद्वादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व के शिष्य मुनि, हैं बारह हज्जार।
अनुत्तरों में जा बसें, नमूँ करो भवपार।।७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथस्य अनुत्तरप्राप्तद्वादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रनाथ के शिष्यगण, बारह सहस्र मान।
अनुत्तरों में जन्मते, नमत पाप की हान।।८।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभनाथस्य अनुत्तरप्राप्तद्वादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत के शिष्यगण, ग्यारह सहस प्रसिद्ध।
अनुत्तरों में जन्मते, जजत मिले सब सिद्धि।।९।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथस्य अनुत्तरप्राप्तएकादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल जिनके शिष्य मुनि, ग्यारह सहस्र अनिंद्य।
अनुत्तरों को पा लिया, सुरनर मुनिगण वंद्य।।१०।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथस्य अनुत्तरप्राप्तएकादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांस के साधुगण, ग्यारह सहस प्रमाण।
लिया अनुत्तर सौख्य को, रत्नत्रय की खान।।११।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथस्य अनुत्तरप्राप्तएकादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं नर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य के साधुगण, ग्यारह सहस बखान।
चरित शील गुण के धनी, बसे अनुत्तर थान।।१२।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनाथस्य अनुत्तरप्राप्तएकादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्यारह हजार शिष्यगण, विमलनाथ के तीर्थ।
अनुत्तरों में जन्मते, सुरनर खग से कीर्त।।१३।।
ॐ ह्रीं विमलनाथस्य अनुत्तरप्राप्तएकादशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत जिनके संयमी, दश हजार मुनिनाथ।
अनुत्तरों में हैं गये, नमूँ जोड़ जुग हाथ।।१४।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथस्य अनुत्तरप्राप्तदशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मनाथ के साधुगण, दश हजार विख्यात।
रत्नत्रय गुणमणि भरे, गये अनुत्तर खास।।१५।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथस्य अनुत्तरप्राप्तदशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ के शिष्य यति, दश हजारगुणधाम।
स्वात्मसिद्धि हित मैं नमूँ, लिया अनुत्तर धाम।।१६।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथस्य अनुत्तरप्राप्तदशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथुनाथ के शिष्य मुनि, दश हजार विख्यात।
अनुत्तरों में राजते, नमत करें सुख सात।।१७।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथस्य अनुत्तरप्राप्तदशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरजिनवर के साधुगण, दश हजार जगसिद्ध।
अनुत्तरों को पावते, जजतें सौख्य समृद्ध।।१८।।
ॐ ह्रीं अरनाथस्य अनुत्तरप्राप्तदशसहस्रमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ के साधु सब, अट्ठासी सौ मान्य।
अनुत्तरों में जा बसे, जजत भरें धन धान्य।।१९।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथस्य अनुत्तरप्राप्तअष्टसहस्राष्टशतमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत के शिष्यगण, अट्ठासी सौ ख्यात।
महाव्रतों से पूर्ण हो, किया अनुत्तर वास।।२०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतनाथस्य अनुत्तरप्राप्तअष्टसहस्राष्टशतमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमिनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ सिद्ध।
यम नियमों को पूर्णकर, लिया अनुत्तर इष्ट।।२१।।
ॐ ह्रीं नमिनाथस्य अनुत्तरप्राप्तअष्टसहस्राष्टशतमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ जान।
शील गुणों को पूर्णकर, लिया अनुत्तर थान।।२२।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथस्य अनुत्तरप्राप्तअष्टसहस्राष्टशतमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ मान्य।
अनुत्तरों को प्राप्त कर, हुये सर्वजन मान्य।।२३।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथस्य अनुत्तरप्राप्तअष्टसहस्राष्टशतमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर्धमान के शिष्यगण, अट्ठासी सौ सिद्ध।
अनुत्तरों में जा बसे, भरें सर्वनिधि ऋद्धि।।२४।।
ॐ ह्रीं महावीरस्वामिन: अनुत्तरप्राप्तअष्टसहस्राष्टशतमुनिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजय वैजयंता जयंत अपराजित अरु सर्वारथसिद्ध।
पाँच अनुत्तर ये माने हैं, इन्हें लहें रत्नत्रय इद्ध।।
दोय लाख सु हजार सतत्तर, आठ शतक निज पर ज्ञानी।
चौबीसों जिनवर के मुनिगण, गये अनुत्तर सुखदानी।।
वर्ण गंध रस स्पर्श से, शून्य स्वात्म का ध्यान।
किया नित्य उनको नमूँ, करें सर्व कल्याण।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकराणां अनुत्तरप्राप्तद्विलसप्तसप्ततिसहस्राष्ट-शतमुनिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
ऋषभदेव के शिष्य, साठ सह नौ सो कहे।
लिया मुक्ति पद नित्य नित प्रति पूजूँ भाव सों।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभदेवस्य सिद्धपदप्राप्तषष्टिसहस्रनवशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ के साधु, रत्नत्रय निधि के धनी।
सतहत्तर सु हजार, इक सौ यति गण शिव गये।।२।।
ॐ ह्रीं अजितनाथस्य सिद्धपदप्राप्तसप्तसप्ततिसहस्रएकशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव के इक लाख, सत्तर सहस सु एक सौ।
मुक्ति गये मुनिनाथ, पूजत समकित निधि मिले।।३।।
ॐ ह्रीं संभवनाथस्य सिद्धपदप्राप्तएकलक्षसप्ततिसहस्रएकशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोय लाख अस्सी, सहस एक सौ यतिवरा।
हता मृत्यु हस्ती, अभिनदंन के शिष्य ये।।४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदननाथस्य सिद्धपदप्राप्तद्विलक्षअशीतिसहस्रएकशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ के शिष्य, तीन लाख सोलह शतक।
लिया स्वात्मपद नित्य, ज्ञान ज्योति कीजे नमूँ।।५।।
ॐ ह्रीं सुमतिनाथस्य सिद्धपदप्राप्तत्रिलक्षषोडशशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभू के शिष्य, तीन लाख चौदह सहस।
लिया मुक्ति पद नित्य, पूजत निज गुण संपदा।।६।।
ॐ ह्रीं पद्मप्रभनाथस्य सिद्धपदप्राप्तत्रिलक्षचतुदर्शसहस्रयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्विलाख पच्चासीय, हजार छह सौ मुनिवारा।
जिन सुपार्श्व के शिष्य, मुक्ति गये मैं पूजहूँ।।७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथस्य द्विलक्षपंचाशीतिसहस्रषट्शतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रप्रभु के शिष्य, दोय लाख चौंतिस सहस।
मुक्ति वल्लभा नित्य, पाई पूजत अघ टले।।८।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभनाथस्य सिद्धपदप्राप्तद्विलक्षचतुिंस्रशत्सहस्रयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुविधिनाथ के शिष्य, इक लख उन्यासी सहस।
छह सौ शिव परिणीय, पूजत दुख दारिद टले।।९।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथस्य सिद्धपदप्राप्तएकलक्षएकोनाशीतिसहस्रषट्-शतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल के मुनिनाथ, अस्सी हजार छै शतक।
सिद्धिवधू के नाथ, नमते संयम निधि मिले।।१०।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथस्य सिद्धपदप्राप्तअशीतिसहस्रषट्शतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन श्रेयांस के शिष्य, पैंसठ हजार छह शतक।
मुक्तिरमा के प्रीय, जजत पुत्र पौत्रादि सुख।।११।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथस्य सिद्धपदप्राप्तपंचषष्टिसहस्रषट्शतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य के शिष्य, चौवन हजार छह शतक।
लिया मोक्ष सुख नित्य, जजत मिले धन संपदा।।१२।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनाथस्य सिद्धपदप्राप्तचतु:पंचाशत्सहट्षट्शतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विमलनाथ के शिष्य, सहस इक्यावन तीन सौ।
मुक्ति वधू से प्रीत्य, जजत सर्व व्याधी नशे।।१३।।
ॐ ह्रीं विमलनाथस्य सिद्धपदप्राप्तएकपंचाशत्ससहस्रत्रिशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन अनंत के शिष्य, इक्यावन्न हजार हैं।
शाश्वत सुख रस पीय, नित्य निरंजन सिद्ध हैं।।१४।।
ॐ ह्रीं अनंतनाथस्य सिद्धपदप्राप्तएकपंचाशत्सहस्रयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उनंचास हज्जार, सात शतक मुनि शिव गये।
अनवधिगुण भंडार, जजूँ शिष्य प्रभु धर्म के।।१५।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथस्य सिद्धपदप्राप्तएकोनपंचाशत्सहस्रसप्तशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ के शिष्य, सहस अड़तालिस१ चार सौ।
लिया शांति सुख नित्य, नमूँ शांतिपद के लिये।।१६।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथस्य सिद्धपदप्राप्तअष्टचत्वािंरशत्सहस्रचतु:शतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथुनाथ के शिष्य, छ्यालिस हजार आठ सौ।
मुक्ति वधू के प्रीत्य, नमत जन्म मृत्यू टले।।१७।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथस्य सिद्धपदप्राप्तषट्चत्वािंरशत्सहस्रअष्टशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरहनाथ के शिष्य, सैंतिस हजार दोय सौ।
पाया शिव सुख नित्य, जजत रोग पीड़ा नशे।।१८।।
ॐ ह्रीं अरनाथस्य सिद्धपदप्राप्तसप्तिंत्रशत्सहस्रद्विशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ के शिष्य, सहस अठाइस आठ सौ।
गये शिवालय नित्य, मृत्यु मल्ल को मार के।।१९।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथस्य सिद्धपदप्राप्तअष्टािंवशतिसहस्रअष्टशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत के शिष्य, उन्निस हजार दोय सौ।
लिया स्वात्मपद नित्य, पूजत संतति सुख बढ़े।।२०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतनाथस्य सिद्धपदप्राप्तएकोनिंवशतिसहस्रद्धिशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमितीर्थंकर शिष्य, नौ हजार छह सौ यती।
लिया मुक्तिपद नित्य, पूजत ही सुख संपदा।।२१।।
ॐ ह्रीं नमिनाथस्य सिद्धपदप्राप्तनवसहस्रषट्शतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ के शिष्य, आठ हजार तपोधना।
लिया मोक्षपद नित्य, पूजत रत्नत्रय मिले।।२२।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथस्य सिद्धपदप्राप्तअष्टसहस्रयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ के शिष्य, बासठ सौ मुनि गण भरे।
किया ज्ञान सुख नित्य, पूजत सब संकट हरें।।२३।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथस्य सिद्धपदप्राप्तषष्टिसहस्रद्विशतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महावीर जिन शिष्य, चवालिस सौ नग्न यति।
प्राप्त किया सुख नित्य, पूजत निज गुण संपदा।।२४।।
ॐ ह्रीं महावीरस्वामिन: सिद्धपदप्राप्तचतुश्चत्वािंरशत्शतयतिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृषभादि शांतिजिन तक सुशिष्य केवलोत्पत्ति दिन मोक्ष गये।
शेष आठ तीर्थकर ये यति गण, छह महिने तक में मोक्ष गये।।
कुंथू अर मल्लि सुव्रत के, क्रम से इक दो त्रय छह महिने।
नमि नेमि पार्श्व वीर जिन के, क्रम से इक दो त्रय छह महिने।।
चौबिस लाख चौंसठ सहस, चार शतक परिमाण।
चौबिस जिनके शिष्य शिव, गये जजूँ धर ध्यान।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकराणां सिद्धपदप्राप्तचतुर्विंशतिलक्षचतु:षष्टिसहस्रचतु: शतकयतिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
सौधर्मादि से ग्रैवेयक तक प्राप्त हुये मुनियों के अर्घ
ऋषभदेव के शिष्य, तीन हजार सु इक सौ।
सौधर्मादिक स्वर्ग, प्राप्त किया मुनिपाद सों।।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं ऋषभदेवस्य स्वर्गादिग्रैवेयकप्राप्तत्रसहस्रएकशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ के शिष्य, उनतिस सौ गुणधारी।
सौधर्मादिक स्वर्ग, प्राप्त किया सुखकारी।।पूजूँ.।।२।।
ॐ ह्रीं अजितनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकांतप्राप्तद्विसहस्रनवशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभव जिनके शिष्य, निन्यानवे शतक हैं।
स्वर्गादिक सुख दिव्य प्राप्त किया गुणभृत हैं।।पूजूँ.।।३।।
ॐ ह्रीं संभवनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तनवसहस्रनवशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभिनदंन के शिष्य, उन्यासी सौ मानो।
गुणमणि भूषित नित्य, पाया दिव सरधानो।।पूजूँ.।।४।।
ॐ ह्रीं अभिनंदननाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तसप्तसहस्रनवशत-साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमतिनाथ के शिष्य, चौंसठ सौ तपधारे।
ध्यानाध्ययन सुप्रीति, पाया दिवपद सारे।।पूजूँ.।।५।।
ॐ ह्रीं सुमनिनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तचतु:षष्टिशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मप्रभू के शिष्य, चार हजार मुनी हैं।
स्वर्गादिक सुख दिव्य, सुख पाया ज्ञान धनी हैं।।पूजूँ.।।६।।
ॐ ह्रीं पद्मनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तचतु:सहस्रसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व के शिष्य, चौबिस सौ मुनिपद में।
जात रूप धर दिव्य, सुख पाया स्वर्गन में।।पूजूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं सुपार्श्वनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तर्विंशतिशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रनाथ के शिष्य, चार हजार बखाने।
नग्न रूप धर दिव्य, सुख पाया मनमाने।।पूजूँ.।।८।।
ॐ ह्रीं चंद्रप्रभनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तचतु:सहस्रसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत के शिष्य, चौरानवे शतक हैं।
धर्मध्यान से सिद्ध, प्राप्त किया दिवपद है।।पूजूँ.।।९।।
ॐ ह्रीं पुष्पदंतनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तनवसहस्रचतु:शतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल जिनके शिष्य, चौरासी सौ कहिये।
समकित गुण से दिव्य, पद पाया सरदहिये।।पूजूँ.।।१०।।
ॐ ह्रीं शीतलनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तचतुरशीतिशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन श्रेयांस के शिष्य, चौहत्तर सौ जानो।
रत्नत्रय से दिव्य, पद पाया सुख ठानो।।पूजूँ.।।११।।
ॐ ह्रीं श्रेयांसनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तसप्तसहस्रचतु:शतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य के शिष्य, चौंसठ सौ गुणभृत हैं।
नमूँ नमूँ मैं नित्य, प्राप्त किया दिवपद है।।पूजूँ.।।१२।।
ॐ ह्रीं वासुपूज्यनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तचतु:षष्टिशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विमलनाथ के शिष्य, सत्तावन सौ मुनि हैं।
विमल गुणों के कीर्त्य, स्वर्ग विभूति फलत है।।पूजूँ.।।१३।।
ॐ ह्रीं विमलनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तपंचसहस्रसप्तशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अनंत के शिष्य, पाँच हजार कहाये।
अठरह हजार शील, भेद धरें दिव पायें।।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय, सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं अंनतनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तपंचसहस्रसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मनाथ के शिष्य, तेतालिस सौ गिनये।
दश धर्मों के ईश, करें प्राप्त दिव सुख ये।।पूजूँ.।।१५।।
ॐ ह्रीं धर्मनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तत्रिचत्वािंरशत्शतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ के शिष्य, छत्तिस सौ संयत हैं।
धर्मामृत को पीय, प्राप्त किया दिवपद है।।पूजूँ.।।१६।।
ॐ ह्रीं शांतिनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तषट्िंत्रशत्साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथुनाथ के शिष्य, बत्तिस सौ संयत हैं।
दु:ख भवार्णवतीर्य, प्राप्त करें दिवपद हैं।।पूजूँ.।।१७।।
ॐ ह्रीं कुंथुनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तद्वािंत्रशत्शतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरहनाथ के शिष्य, अट्ठाइस सौ जानो।
गुणधर गणधर प्रीत्य, उनकी पूजा ठानों।।पूजूँ.।।१८।।
ॐ ह्रीं अरहनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तअष्टािंवशतिशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ के शिष्य, चौबिस सौ संयत हैं।
मूल गुणट्ठाईस, धरें लहें दिवपद हैं।।पूजूँ.।।१९।।
ॐ ह्रीं मल्लिनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तचतुर्विंशतिशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिसुव्रत के शिष्य, दो हजार मुनि मणि हैं।
सर्व गुणों से पूज्य, लहें स्वर्ग सुखमणि हैं।।पूजूँ.।।२०।।
ॐ ह्रीं मुनिसुव्रतनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तद्विसहस्रसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नमि प्रभु के मुनि शिष्य, सोलह सौ गिन लीजे।
करके पूजा भक्ति, दु:ख जलांजलि दीजे।।पूजूँ.।।२१।।
ॐ ह्रीं नमिनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तषोडशशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ के शिष्य, बारह सौ परिमाणे।
उनकी पूजा भक्ति, भव भव के दुख हाने।।पूजूँ.।।२२।।
ॐ ह्रीं नेमिनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तद्वादशशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ के शिष्य, एक हजार कहाये।
सब गुण मणिसे पूर्ण, भव भव भ्रमण मिटायें।।पूजूँ.।।२३।।
ॐ ह्रीं पार्श्वनाथस्य स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तएकसहस्रसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर्धमान के शिष्य, मुनी आठ सौ गाये।
उनकी पूजा भक्ति, करके सौख्य बढ़ाये।।पूजूँ.।।२४।।
ॐ ह्रीं महावीरस्वामिन: स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तअष्टशतसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब मूलोत्तर गुण से पूरित, यम नियम शील श्रुत विनय धरें।
ये भावलिंग मुनिगण नित ही, तप संयम से शिव निकट करें।।
इक लाख पाँच हजार आठ सौ, अंत समाधी करते हैं।
सौधर्म स्वर्ग से लेकर के, ग्रैवेयक तक सुर बनते हैं।।
इनकी पूजा भक्ति ते, संयम रत्न लभेय।
नमूँ नमूँ गुरु प्रीति से, आतम सुख विलसेय।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकराणां स्वर्गादिग्रैवेयकपर्यंतप्राप्तएकलक्षपंचसहस्र अष्टशतसाधुभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
प्रत्येक तीर्थकर तीरथ में, दश दश मुनि घोर उपसर्ग सहें।
उसमें ही केवलज्ञान पाय, तत्क्षण मुक्ती पद सौख्य लहें।।
श्री वीरतीर्थ में नमि मतंग, सोमिल व रामसुत सूदर्शन।
यमलीक बलीक सु किष्कंबिल पालंब अष्टसुत दुखभंजन।।
दश दशांतकृत केवली, दो सौ चालिस सर्व।
नमूँ नमूँ मुझको मिले, गुण सहिष्णु सर्वस्व।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थकालेषु दशदशघोरोपसर्गविजयिअंतकृतकेव-लिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक तीर्थ में दश दश मुनि, दारुण उपसर्ग सहन करके।
पंचानुत्तरों में जन्म लहें, दशनाम सु अंतिम जिनवर के।।
ऋषिदास धन्य सु नक्षत्र मुनि कार्तिकेय आनंद नंदन।
गुरु शालिभद्र मुनिअभय वारिषेण चिलात सुत का अभिवंदन।।
दश दश मुनि उपसर्ग सह, अनुत्तरों में जांय।
दो सौ चालिस मुनि नमूँ सर्वोपसर्ग नशाय।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थकालेषु दशदशदारुणोपसर्गविजयिअनुत्तरौ-पादिकमुनिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
तीर्थंकर शिष्यत्व का, जिन्हें मिला सौभाग्य।
नमूँ नमूँ उनको सदा, उन्हें मुक्ति सुखसाध्य।।१।।
नमूँ अर्हन्मुद्रा नगनतन दिग्वस्त्र धरते।
नमूँ तीर्थंकर के निकट व्रत दीक्षादि धरते।।
नमूँ संयम शील प्रभृति बहुयोगादि धरते।
सदा ध्याते आत्मा समरस सुधास्वाद चखते।।२।।
अहो स्वात्मा नंते दरश सुख ज्ञानादि सहिता।
अनादी से शुद्धा करम मल दोषादि रहिता।।
नहीं ध्याते ऐसे विमल गुण पूरित स्वयम् को।
दुखी वे ही होते भ्रमत जग में भूल पथ को।।३।।
मुनी सच्चे वोही धरत अठविस मूलगुण जो।
तपें बारह तप जो परिषह सहें बाइसहिं जो।।
सदा स्वाध्यायी भी सतत निज को शुद्ध समझें।
सदा ज्ञानी ध्यानी स्वपर विद हों स्वात्म निरखें।।४।।
खड़े भूभृत् चोटी गरम ऋतु में आतपन में।
नदी तीरे तिष्ठें शरद ऋतु में स्वात्म सुख में।।
तरू नीचे बैठें जलद बरसें बूँद टपकें।
धरें त्रै योगों को मगन बहुतें साम्यरस में।।५।।
सहें उपसर्गों को क्षपक श्रयणीं माहिं चढ़के।
सभी घाती घातें उदित रवि वैâवल्य चमके।।
सुबोधे भव्यों को मुधर हित पीयूष वच से।
अघाती को घातें समय इक में मोक्ष पहुँचें।।६।।
मुनी धर्मध्यानी विविध गुण रत्नों सहित हों।
अनुत्तर में जन्में, इक द्वय भवों लेय शिव हों।।
कदाचित् स्वर्गों में जनम धरतें फेर क्रम से।
वरें मुक्ती कन्या अधिक भव में ना भ्रमत वे।।७।।
जहाँ ऐसे साधु विचरण करें प्रेम सब में।
न हों दुर्भिक्षादी सतत शुभ क्षेमादि जग में।।
फलें सबही खेती छह ऋतु फलें एक पल में।
महा क्रूरादी भी पशु गण धरें प्रीति सब में।।८।।
जयो साधू सर्वे नमहुँ कर जोड़े सतत में।
मिले सम्यक्त्वादी निजगुण मुझे एक क्षण में।।
नहीं होवे मेरा जन्म धरना फेर जग में।
यही माँगूूं स्वामी निजगुण भरो नाथ मुझ में।।९।।
जय जय तीर्थंकर, शिष्य साधुवर, जय त्रिभुवन में पूज्य गुरो।
जिन मुद्राधारी, गुणगण भारी, ज्ञानमती मुझ पूर्ण करो।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।