अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद (चाल-इह विध राज्य करें….)
पश्चिम पुष्कर अर्ध द्वीप में, मध्य कनक गिरि सोहे।
ताके दक्षिण-उत्तर दिश में, भोगधरा मन मोहें।।
उत्तरकुरु ईशान कोण में, पुष्करवृक्ष सुहावे।
दक्षिण देवकुरु अग्नि दिश, शाल्मलि तरु मन भावे।।१।।
-दोहा-
दोनों तरु की शाख पर, भूकायिक जिनगेह।
जिनमूर्ती की थापना, करूँ भक्ति भर नेह।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरो: ईशाननैऋत्यकोणसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थित-
जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरो: ईशाननैऋत्यकोणसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थित-
जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरो: ईशाननैऋत्यकोणसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थित-
जिनालयस्थजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टकं (चाल-मेरी भावना…..)-
पद्माकर को जल अतिशीतल, पद्म पराग सुवास मिला।
रागभाव मल धोवन कारण, धार करूँ मन कंज खिला।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थ-
जिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर घिस कर्पूर मिलाया, भ्रमर पंक्तियाँ आन पड़ें।
जिनपद पूजन से नश जाते, कर्म शत्रु भी बड़े-बड़े।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्र चंद्रिका सम सित तंदुल, पुंज चढ़ाऊँ भक्ति भरे।
अमृत कण सम जिन समकित गुण, पाऊँ अतिशय शुद्ध खरे।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कल्पवृक्ष के सुमन सुगंधित, पारिजात वकुलादि खिले।
कामवाणविजयी जिनवल्लभ, चरण जजत नवलब्धि मिले।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
रसगुल्ला रसपूर्ण अंदरसा, कलाकंद पयसार लिये।
अमृतपिंड सदृश नेवज से, जिनपद पंकज पूज किये।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हेमपात्र में घृत भर बत्ती, ज्योति जले तमनाश करे।
दीपक से करते जिन पूजन, हृदय पटल की भ्रांति हरे।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निपात्र में धूप जलाकर, अष्ट कर्म को दग्ध करें।
निज आतम के भावकर्म मल, द्रव्य कर्म भी भस्म करें।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल अंगूर अनंनासादिक, सरस मधुर ले थाल भरें।
नव क्षायिकलब्धी फल इच्छुक, पूजूँ तुम पादाब्ज खरे।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल अर्घ्य लिया।
त्रिभुवन पूजित पद के हेतू, तुम पदवारिज अर्घ्य किया।।
पृथ्वीकायिक तरु शाखा पे, जिनमंदिर जग पूज्य कहें।
जो जन पूजें भक्ति भाव से, वे पद त्रिभुवन पूज्य लहें।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
यमुना सरिता नीर, कंचन झारी में भरा।
जिनपद धारा देय, शांति करो सब लोक में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुल कमल अरविंद, सुरभित फूलों को चुने।
जिनपद पंकज अर्प्य, यश सौरभ चहुँदिश भ्रमें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
मुक्तिवधू भरतार, श्रीजिनवर के बिंब हैं।
पूजूँ शिव करतार, पुष्पांजली चढ़ाय के।।१।।
इति धातकीशाल्मलिमेरुसंबंधिद्वयवृक्षस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-रोला छंद-
पश्चिम पुष्कर द्वीप, सुरगिरि के ईशाने।
पदम वृक्ष की शाख, उत्तर दिश परधाने।।
तापे श्रीजिनगेह, नाना रत्नमयी है।
मृत्युंजयि जिनबिंब, पूजूँ सौख्य मही है।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनकाचल नैऋत्य शाल्मलि द्रुम मन भावे।
दक्षिण शाखा उपरि, जिनवर भवन सुहावे।।
उनके श्री जिनबिंब अकृत्रिम अविकारी।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, पाऊँ शिवतिय प्यारी।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्व्रशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयस्थजिन-
बिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
इन तरु के परिवार, अगणित शास्त्र बखाने।
उन सब में सुरवृंद, वैभव संयुत मानें।।
प्रतिदेवन गृह मािंह, जिनगृह शाश्वत जानो।
पूरण अर्घ्य बनाय, पूजत ही शिव थानो।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिसपरिवारपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालय-
स्थजिनबिम्बेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रैलोक्यजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
-दोहा-
वीतराग विज्ञान घन, सर्वसार में सार।
वंदूँ श्री जिनदेव को, जिनप्रतिमा अविकार।।१।।
चाल-हे दीन बंधु…..
जय रत्नमयी वृक्ष ये अनादि अनंता।
जय पंचरत्न वर्ण सिद्धकूट धरंता।।
जय जय जिनेन्द्र देव के, जो भवन कहे हैं।
जय जिनेन्द्र मूर्तियाँ, जो पाप दहे हैं।।१।।
जिनमंदिरों में घंटिका औ किंकिणी बजे।
वीणा मृदंग बांसुरी, संगीत हैं सजे।।
मंगल कलश औ धूप घट अनेक धरे हैं।
जो देव-देवियों के सदा चित्त हरे हैं।।२।।
रत्नों की स्वर्ण मोतियाँ की मालिकायें हैं।
कौशेय२ वस्त्र सदृश रत्न की ध्वजायें हैं।।
उनमें बने हैं सिंह, हस्ति हंस बैल जो।
मयूर, चक्र, गरुड़, चंद्र-सूर्य-कमल जो।।३।।
इन दश प्रकार चिन्ह से चिन्हित हैं ध्वजायें।
जो भक्त गणों को सदा ही पास बुलायें।।
ये रत्नमयी होय के भी वायु से हिलें।
अद्भुत असंख्य रत्न हैं इस रूप में मिलें।।४।।
प्रत्येक जैनगेह में रचना अनंत है।
प्रत्येक में ही इक सौ आठ जैनबिंब हैं।।
प्रत्येक के तोरण दुवार रत्न के बने।
जिनदेव मानतंभ२ वहाँ मान को हनें।।५।।
ये जैनभवन हैं सदा सन्मार्ग के दाता।
निज आश्रितों के सत्य में हैं मुक्ति प्रदाता।।
इन नाम के जपे से नशे भूत की बाधा।
व्यंतर पिशाच प्रेत क्रूर, ग्रहों की बाधा।।६।।
इनके करें जो दर्श वे भवसिंधु तरे हैं।
जो भक्ति से पूजन करें वे सौख्य भरे हैं।।
इस लोक में धन धान्य पुत्र पौत्र को पाते।
चक्रेश की सी संपदा पा मौज उड़ाते।।७।।
जिनधर्म के प्रति गाढ़ प्रेम धारते सदा।
परलोक में इन्द्रादि विभव पावते मुदा।।
पश्चात यहाँ तीर्थ की पदवी को धरा के।
तीर्थंकरों का धर्म चक्र जग में चलाके।।८।।
आर्हन्त्य विभव पाय के भगवंत बनेंगे।
वे मुक्तिवल्लभा के भी तो कंत बनेंगे।।
इस विधि से नाथ आपकी कीर्ति को मैं सुनी।
अतएव शरण आपकी ली सुन के तुम धुनी।।९।।
बस एक आश आज मेरी पूरिये प्रभो।
मोहादि कर्म वैरियों को चूरिये प्रभो।।
बस मैं स्वयं निज आत्मा को श्द्ध करूँगा।
सम्यक्त्व शुद्ध ‘ज्ञानमती’ सिद्धि वरूँगा।।१०।।
-दोहा-
प्रभु तुम महिमा अगम है, तुम गुणरत्न अनंत।
इक गुण लव कभी पाय मैं, तरूँ भवाब्धि अनंत।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीविद्युन्मालीमेरुसंबंधिपुष्करशाल्मलिवृक्षस्थितजिनालयजिन-
बिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, त्रैलोक्य जिन पूजा करें।
सब रोग-शोक विनाश कर, भवसिंधु जल सूखा करें।।
चिंतामणी चिन्मूर्ति को, वे स्वयं में प्रगटित करें।
‘‘सुज्ञानमति’’ रविकिरण से, त्रिभुवन कमल विकसित करें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।