-स्थापना (शंंभु छंद)-
सिद्धक्षेत्र गिरनार गिरी, गुजरात प्रान्त का तीरथ है।
प्रभु नेमिनाथ के मोक्षगमन से, पावन उसकी कीरत है।।
तप, ज्ञान और निर्वाण तीन कल्याणक स्थल को वंदूँ।
गिरनार तीर्थ की पूजन कर, मैं भी निज कर्मों को खंडूँ।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्र!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्र!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्र!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (शंभु छन्द)-
सागर सरवर नदियों का जल, खारा औ मीठा होता है।
पर क्षीर सिंधु का जल केवल, मीठा व दुग्धसम होता है।।
भावों से उस जल के द्वारा, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय जन्मजरा-
मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतल चन्दन को घिस घिसकर, उसकी शीतलता बढ़ती है।
काश्मीरी केशर परिणामों को, भी केशरिया करती है।।
उस चन्दन केशर के द्वारा, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय संसारताप-
विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती के दानों से शीतलता, की औषधि बन जाती है।
पूजन एवं जपमाला में, मोती भी चढ़ाई जाती है।।
मोती सम अक्षत के द्वारा, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय अक्षयपद-
प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
फूलों की माला प्रभु चरणों से, जब स्पर्शित हो जाती।
तब जयमाला बनकर मानव के, कंठ में वह शोभा पाती।।
सुरभित पुष्पों की माला से, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय कामबाण-
विध्वसंनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
शारीरिक क्षुधा मिटाने के, साधन नाना विधि व्यंजन हैं।
आध्यात्मिक क्षुधा मिटाने में, तप ध्यान ज्ञान अवलम्बन हैं।।
सुन्दर पकवान थाल लेकर, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युत् के दीपक बाह्य अंधेरा, नष्ट करें आलोक भरें।
अन्तरतम का अज्ञान अंधेरा, प्रभु आरति से दूर करें।।
दीपक का थाल सजाकर मैं, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय मोहांधकार-
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित चन्दन की धूप बना, अग्नी में दहन किया जाता।
वह धूप जलाकर निज आत्मा की, सुरभी को पाया जाता।।
उस मलयागिरि की धूप से मैं, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय
अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम अमरूद आदि फल, खाकर मन कुछ तृप्त हुआ।
लेकिन आत्मा का लक्ष्य कभी उन, फल से नहिं संतृप्त हुआ।।
नाना फल थाल सजाकर मैं, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय मोक्षफल-
प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल से फल तक वसु द्रव्य मिलाकर, अर्घ्य बनाया जाता है।
‘‘चन्दनामती’’ तब पद अनर्घ्य का, भाव हृदय में आता है।।
अब स्वर्ण थाल में अर्घ्य सजा, गिरनार क्षेत्र पूजन कर लूँ।
गिरिवर पर ध्यान करूँ मैं भी, ऐसी आतम शक्ती भर लूँ।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमि गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद-
प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
स्वर्ण भृंग में नीर ले, जाऊँ गिरि गिरनार।
रत्नत्रय की प्राप्ति हित, करूँ धार त्रयबार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
विविध पुष्प की अंजली, भर पूजूँ गिरिराज।
गुण पुष्पों के संग ही, पाऊँ पद सुरराज।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(इति मंडलस्योपरि द्वाविंशतितमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
-अर्घ्य-
शौरीपुर से बारात लिए, जूनागढ़ पहुँचे नेमिकुंवर।
जहाँ इंतजार में खड़ी हुई, थी राजुल वरमाला लेकर।।
पशु बंधन देख चले प्रभुवर, गिरनारगिरी पर तप करने।
दीक्षाकल्याणक से पवित्र वन, सहस्राम्र को नमन करें।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथदीक्षाकल्याणकपवित्रगिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
आश्विन शुक्ला प्रतिपद के दिन, शिरसा वन में शुभ ज्ञान हुआ।
धनपति के द्वारा गगनांगण, में समवसरण निर्माण हुआ।।
उस ज्ञानकल्याणक स्थल श्री गिरनार गिरी को नमन करूँ।
शुद्धात्मज्ञान की प्राप्ति हेतु, अज्ञानभाव उपशमन करूँ।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथकेवलज्ञानकल्याणकपवित्रगिरनारगिरि-सिद्धक्षेत्राय
अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
आषाढ़ सुदी सप्तमि प्रभु ने, निर्वाण धाम को प्राप्त किया।
इन्द्रों ने आकर नेमिनाथ का, महामोक्ष कल्याण किया।।
गिरनार की पंचम टोंक को प्रभु का, मोक्ष धाम मान् जाता।
मैं अर्घ्य चढ़ाकर नमन करूँ, मेरा शिवपद से हो नाता।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथमोक्षकल्याणकपवित्रगिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय अर्घ्यम्
निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
प्रभु नेमिनाथ के तीन-तीन कल्याणक से जो पावन है।
गुजरात प्रान्त में ऊर्जयन्त, गिरि का उपवन मन भावन है।।
गणिनी आर्या राजुलमति की, भी तपोभूमि सिरसा वन है।
उस गिरि को मैं पूर्णार्घ्य, चढ़ाकर पूजूँ यह मेरा मन है।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथस्य दीक्षाज्ञानमोक्षत्रयकल्याणकपवित्र-
गिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
-शंभु छन्द-
श्रीसिद्धक्षेत्र गिरनार तीर्थ, का अर्चन सिद्धिप्रदायक है।
आतमसिद्धि के साथ-साथ, सांसारिक सुख परिचायक है।
निर्वाणभूमि की श्रेणी में, इसका प्राचीन कथानक है।
शौरीपुर से जूनागढ़ तक, जुड़ गये पंचकल्याणक हैं।।१।।
छ्यासी हजार अरू पाँच शतक, वर्षों पहले की घटना है।
बाइसवें तीर्थंकर नेमिप्रभु के, जीवन की घटना है।।
शौरीपुर के नृप समुद्रविजय जी, शिवादेवी संग रहते थे।
उनके आँगन में धनकुबेर, रत्नों की वर्षा करते थे।।२।।
कार्तिक शुक्ला षष्ठी को वहाँ पर, गर्भकल्याणक उत्सव था।
श्रावण शुक्ला षष्ठी को, नेमीनाथ का जन्म महोत्सव था।
इन्द्रों ने मेरू पर्वत पर, जन्माभिषेक का ठाट किया।
शचि इन्द्राणी ने जिनबालक को, गोद में ले शृंगार किया।।३।।
कर दिया इन्द्र ने नामकरण, तब नेमिनाथ जयकार हुआ।
श्रीकृष्ण और बलदेव भ्रात के, साथ एक इतिहास जुड़ा।।
थी श्यामवर्ण काया प्रभु की, पर सुन्दरता कुछ अनुपम थी।
सूरज चन्दा की दिव्यप्रभा भी, प्रभुवर के सम्मुख कम थी।।४।।
शैशव से बचपन में आये, फिर क्रम से वे युवराज बने।
पितु भ्रात सभी बारात लिये, फिर जूनागढ़ गिरनार चले।।
कुछ षड्यंत्रों से रचे गये, पशुबंधन को देखा प्रभु ने।
तत्क्षण विरक्त हो गये नाथ, नहिं ब्याह किया पहुँचे वन में।।५।।
राजुल भी उनके संग गई, पति की अनुगामिनि बन करके।
प्रभु समवसरण की गणिनी बन, कल्याण किया राजुल सति ने।।
बस इस इतिहास से ही प्रभु के, तीनों कल्याणक हुए वहाँ।
गिरनार बना तीरथ फिर तो, कितने मुनियों ने मोक्ष लहा।।६।।
है वर्तमान में यह पर्वत, सबकी श्रद्धा का केन्द्र कहा।
थक थक कर पर्वत पर चढ़कर, भी भक्त अथक श्रम करें वहाँ।।
फिर भी पुण्योपार्जन का सुख, नहिं दुख किंचित् होने देता।
पर्वत यात्रा कर हर यात्री, सुख की अनुभूती कर लेता।।७।।
इस पर्वत का वन्दन करने, श्रीकुन्दकुन्द गुरु आए थे।
निज संघसहित यात्रा करके, कुछ चमत्कार दिखलाए थे।।
पाषाण अम्बिका बोल पड़ी जिनधर्म दिगम्बर सच्चा है।
जय जय कारों से गूँजा तब, निर्ग्रन्थ पंथ ही अच्छा है।।८।।
अतिशयकारी गिरनार क्षेत्र की, पूजन को हम आये हैं।
आठों द्रव्यों का थाल सजा, पूर्णार्घ्य चढ़ाने आये हैं।।
यह सिद्धक्षेत्र हम सभी प्राणियों, के मनरथ को पूर्ण करे।
‘‘चन्दनामती’’ बस यही कामना है, आतम रस पूर्ण भरे।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथनिर्वाणभूमिगिरनारगिरिसिद्धक्षेत्राय जयमाला
पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।