(२५१)
श्रीरामचंद्र आकर बोले, क्यों इसको मृत बतलाते हो।
हे भाई! मुझसे बात करो, क्यों मुझको यूँ तड़पाते हो।।
यह कहकर कभी लगे रोने, और कभी उसे नहलाते हैं।
और कभी वस्त्र पहनाते हैं, तो भोजन कभी खिलाते हैं।।
(२५२)
यह दृश्य देखकर लवकुश ने,उन्हें बार—बार समझाया था।
पर आखिर हार गये जब वे, दीक्षा को कदम बढ़ाया था।।
जब सुना राम ने पुत्रों की, दीक्षा तब लक्ष्मण से बोले।
हे लक्ष्मण ! उठो चलो जल्दी, वरना वे कहीं योग ले लें।।
(२५३)
हे भ्रात ! अकेला हूँ अब मैं, अपने मन की सब बात बता।
क्यों चुपचुप हरदम रहते हो, किसने है सताया नाम बता।।
इस तरह राम का पागलपन, दिन पर दिन बढ़ता जाता है।
समझाया बहुत विभीषण ने, पर कोई न समझा पाता है।।
(२५४)
सोचा यदि घर में रहूँ रोज, ऐसे ही सब समझायेंगे।
जब बांस न होगा तो किससे, ये बजा बांसुरी पायेंगे।।
अब मृत लक्ष्मण को कांधे पर,लेकर वे वन की ओर चले।
तब आसन कंपित होने से, था स्वर्गों से दो देव चले।।