जिनवर की प्रथम दिव्य देशना, नंतर सुरपति अति भक्ती से।
निज विकसित नेत्र हजार बना, प्रभु को अवलोके विक्रिय से।।
प्रभु एक हजार लक्षणधारी सब भाषा के स्वामी।
शुभ एक हजार आठ नामों, से स्तुति करता वह शिवगामी।।१।।
एक हजार सु आठ ये, श्रीजिननाम महान्।
उनकी मैं पूजा करूँ, करके इत आह्वान।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
सरयू नदी का शुचिनीर, सुवरण भृंग भरूँ।
मिल जावे भवदधि तीर, जिनपद धार करूँ।।
शुभ एक हजार सु आठ, जिनवर नाम जजूँ।
कर कर नामावलि पाठ, सुखप्रद स्वात्म भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर शुद्ध, चंदन संग घिसूँ।
जिनपद चर्चत अविरुद्ध, भव संताप नशूँ।।शुभ.।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल धौत, तंदुल पुंज धरूँ।
मिल जावे, अक्षय सौख्य, प्रभु पद पूज करूँ।।शुभ.।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जूही केवड़ा गुलाब, सुरभित सुमनों से।
पूजत छुट जाऊँ नाथ, भव भव भ्रमणों से।।शुभ.।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरण पोली घृतपूर, हलुआ भर थाली।
पूजत हो अमृतपूर, मनरथ नहिं खाली।।शुभ.।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति प्रजाल, आरति करते ही।
भगता मन का तम जाल, ज्योती प्रगटे ही।।शुभ.।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दस गंधी धूप सुगंध, खेवॅूँ अगनी में।
सब जलते कर्म प्रबंध, पाऊँ निजसुख मैं।।शुभ.।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आप फल सेव, अर्पण करते ही।
निज आत्म सम्पति लेव, फल से जजते ही।।शुभ.।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत आदि, अर्घ बनाऊँ मैं।
अर्पण करते भव व्याधि, सर्व नशाऊँ मैं।।शुभ.।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सहसनाम को पूजहूँ, शांतीधारा देय।
सर्वसौख्य सम्पति मिले, आत्मसुधा वरसेय।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पारिजात के पुष्प बहु, सुरभित दिक् महकंत।
पुष्पांजलि अर्पण किये, आतम सुख विलसंत।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
गुण अनंत भंडार, नाम असंख्यों धारते।
स्वात्म सौख्य कर्तार, पुष्पांजलि से पूजहूँ।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
‘श्रीमान’ आप अंतर अनंत सुख ज्ञान वीर्य दर्शन श्रीपति।
बहिरंग समवसरणादि महावैभव प्रातिहार्यमयी श्रीपति।।
इन अन्तरंग बहिरंग श्री के स्वामी प्रभु श्रीमान् बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘स्वयंभू’ स्वयं हुये निज में निज ज्ञान प्रगट करके।
नहिं गुरु की तनिक अपेक्षा थी निज को गुरु स्वयं बना करके।।
निज द्वारा निज को निज में ध्या, स्वयमेव स्वयंभू आप बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वृषभ’ धर्मघन मेघ सतत् दिव्यध्वनि वर्षा करते हैं।
‘वृष’ धर्म अहिंसा लक्षण से ‘भा’ शोभित होते रहते हैं।।
अथवा भक्तों के लिये सदा इच्छित वर्षाकर वृषभ बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शंभव’ शं-सुख भव-हो तुमसे इससे शंभव कहलाते हो।
अथवा ‘संभव’ सं-समीचीन भव-जन्म धरा मुस्काते हो।।
हे संभव शांतिमूर्ति प्रभु तुम वंदन करते हम शांत बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।४।।
ॐ ह्रीं शंभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शम्भू’ शं-परमानंदरूप सुख देने वाले आप प्रभो।
ंंइंद्रिय विषयों से रहित अतींद्रिय सौख्य सुधारस लीन विभो।।
परमानंदामृत पीने की शक्ती दीजे हे नाथ! हमें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।५।।
ॐ ह्रीं शंभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा से हुये ‘आत्मभू’ हैं आत्मा शुद्ध बुद्ध स्वभावी है।
चिच्चमत्कार लक्षण परमैक ब्रह्ममय सौख्य स्वभावी है।।
टंकोत्कीर्ण स्फटिकमणी आत्मा भु-धरा पा़इ तुमने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।६।।
ॐ ह्रीं आत्मभुवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘स्वयंप्रभ’ आप स्वयं, प्रकृष्ट शोभते रहते हैं।
निज प्रभा-कांति से त्रिभुवनको भी आप प्रकाशित करते हैं।।
मेरी निज आत्मप्रभा मुझको, मिल जावे गुणमणि तेज घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।७।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘प्रभु’ हो सबके स्वामी होने से इस जग में।
परिपूर्ण समर्थ नाथ तुमही, भक्तों के मनरथ भरने में।।
मैं स्वयं समर्थ बनूँ निज को, पाने से सब पुरुषार्थ बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य ब्नें।।८।।
ॐ ह्रीं प्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भोक्ता’ प्रभु आप सदा परमानंदसुख के अनुभव कर्ता हैं।
निजके अनंत दृग ज्ञान वीर्य सुखरूप चतुष्टय भर्ता हैं।।
निज आत्मा से उत्पन्न परम आह्लाद सौख्य हो प्राप्त हमें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।९।।
ॐ ह्रीं भोक्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘विश्वभू’ केवलज्ञान अपेक्षा व्याप्त विश्व में हो।
अथवा भू-मंगल करे विश्व का या वृद्धी भी करते हो।।
भू गत्यर्थक-ज्ञानार्थक है त्रैलोक्य ज्ञान है नाथ तुम्हें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१०।।
ॐ ह्रीं विश्वभुवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अपुनर्भव’ नाथ पुवर्भव नहिं प्रभु जन्म मरण से छूट चुके।
अथवा भव-रुद्र विष्णु ब्रह्मा इन देवरूप नहिं हो सकते।।
अर्हत सर्वज्ञ आप भगवान् नहिं पुनर्जन्म धरते जग में।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।११।।
ॐ ह्रीं अपुनर्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वात्मा’ आप विश्व को निज सदृश गिनते विश्वात्मा हैं।
या विश्व-सुकेवल ज्ञानमयी आत्मा-स्वरूप विश्वात्मा हैं।।
त्रिभुवनस्थित प्राणीगण को, निज सदृश गिना सु दयालु बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१२।।
ॐ ह्रीं विश्वात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वलोकेश’ विश्वके-तीनलोक के जीवों के।
प्रभु ईश-नाथ बस एक आप, नहिं अन्य कोई भी बन सकते।।
जो खुद की रक्षा कर न सके, वो जग के ईश कभी न बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१३।।
ॐ ह्रीं विश्वलोकेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘विश्वतश्चक्षु’ आप सब विश्व-लोक में व्याप्त हुआ।
चक्षू-केवल दर्शन प्रभु का इससे प्रभुने सब देख लिया।।
श्रुतचक्षू से केवलचक्षू पाया जगदर्शी आप बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१४।।
ॐ ह्रीं विश्वतश्चक्षुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अक्षर’ प्रभु क्षरण न होता है,नहिं चलित आप हो सकते हैं।
या अक्ष-इंद्रियों को मन को, वश में कर अक्षर बनते हैं।।
तुम नाम स्तुति करते करते, मेरा भी अक्षर नाम बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१५।।
ॐ ह्रीं अक्षराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्ववित्’ ज्ञानरश्मि से विश्व माहिं सुप्रविष्ट हुये।
सब विश्व-चराचर जग जाना, अतएव विश्ववित् प्रगट हुये।।
यह आत्मा ज्ञानस्वभावी है मुझ अल्पज्ञान भी पूर्ण बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१६।।
ॐ ह्रीं विश्वविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वविद्येश’ आपकी विद्या विश्वा-सकला है।
वह सकल विमल वैâवल्य ज्ञानमय पूर्ण स्वरूप अविकला है।।
तुम गुण गागाकर भव्य जीव, सब विद्याओं के ईश बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१७।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्येशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वयोनि’ संपूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति के कारण हो।
संपूर्ण पदार्थों के उपदेशक विश्वयोनि जगतारण हो।।
तुम नाम मंत्र जपते जपते, भाक्तिक जन तुम सम नाथ बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१८।।
ॐ ह्रीं विश्वयोनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अनश्वर’ कभी नाश, नहिं हो सकता युग युग तक भी।
आत्मा के नाशक गुणघातक, कर्मों का नाश किया है भी।।
प्रभु मुझे अनश्वर पद दे दो, इस हेतु वंदना करूँ तुम्हें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।१९।।
ॐ ह्रीं अनश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वदृश्वा’ सो जग को इक क्षण में देख लिया।
तुम गुणस्तुति करते करते, भव्यों ने तुमको देख लिया।।
मैं भी तुमको अवलोकन कर, निज को देखॅूँ यह युक्ति बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२०।।
ॐ ह्रीं विश्वदृश्वने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभु’ आप विशेष करें मंगल, भविके तारन में समरथ हैं।
निज समवसरण में प्रभू राजते लोकालोक विजानत हैं।।
निजकेवलज्ञानकिरण से लोकालोक व्याप्त कर विभू बनें।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२१।।
ॐ ह्रीं विभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धाता’ चहुँगति में पड़े जीव को निकाल कर मुक्तिपद में।
धर देते अथवा सर्व प्राणियों, का पालन करते जग में।।
प्रभु परम कारुणिक आप, सर्व रक्षा कर धाता स्वयं बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२२।।
ॐ ह्रीं धात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वेश’ विश्व-त्रैलोक्य ईश-स्वामी त्रिभुवन के रक्षक हो।
उपदेश अहिंसामयी दिया, सबके बंधू प्रतिपालक हो।।
प्रभु धर्म आपका विश्व धर्म, भवसागर तारण सेतु बने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२३।।
ॐ ह्रीं विश्वेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वलोचन’ त्रिभुवन, प्राणी के चक्षु समान कहें।
सबको हित का उपदेश दिया, इस कारण सबके नेत्र कहें।।
अथवा सब जगका इक क्षण में, अवलोकन करते आप घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।२४।।
ॐ ह्रीं विश्वलोचनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘विश्वव्यापी’ कण कण में ज्ञान आपका व्याप रहा।
त्रिभुवन के सर्वपदार्थ आप, जाने ऐसा विज्ञान लहा।।
नहिं आत्म प्रदेशों से व्यापक, तन में ही रहें प्रदेश घने।
मैं प्रभु नामावलि को पूजूँ मेरे सब इच्छित कार्य बनें।।।।
ॐ ह्रीं विश्वव्यापिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीाfत स्वाहा।
‘विधु१’ आप कर्म विधान करते कर्म विधि बतलावते।
निजज्ञान केवल किरण से, मोहान्धकार भगावते।।
निज ज्ञानज्योति प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मंत्र अमोघ शक्ति, उसी की चर्चा करूँ।।२६।।
ॐ ह्रीं विधवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘वेधा’ धर्म की सृष्टी करें सुखहेतु हैं।
जिनधर्म तीर्थ चलावते, इस हेतु भवदधि सेतु हैं।।निज.।।२७।।
ॐ ह्रीं वेधसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नाम ‘शाश्वत’ धारते, शश्वत विराजें मोक्ष में।
निज भक्त को शाश्वत, परमपद दें रहे हैं लोक में।।निज.।।२८।।
ॐ ह्रीं शाश्वताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वतोमुख’ समवसृति में, चारदिश चउमुख दिखें।
या जल सदृश भवि पाप कीचड़, धोय स्वच्छ सु कर सकें।।निज.।।२९।।
ॐ ह्रीं विश्वतोमुखाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वकर्मा’ कर्मभूमी, की व्यवस्था के समय।
असि मषि प्रभृति सब क्रिया, उपदेशी सभी को उस समय।।निज.।।३०।।
ॐ ह्रीं विश्वकर्मणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जगज्जेष्ठ’ त्रिलोक में, भी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ महान हैं।
तुमसे बड़ा नहिं और कोई, अत: सर्व प्रधान हैं।।निज.।।३१।।
ॐ ह्रीं जगज्येष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वमूर्ति’ अनंत गुणमय देहधारी आप हैं।
या सर्व वस्तु ज्ञान दर्पण में, झलकते साफ हैं।।
निज ज्ञानज्योति प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मंत्र अमोघ शक्ति, उसी की चर्चा करूँ।।३२।।
ॐ ह्रीं विश्वमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘जिनेश्वर’ भव्य, सम्यग्दृष्टि मुनिगण आदि के।
ईश्वर कहाते आप इस, हेतू जिनेश्वर सार्व के।।निज.।।३३।।
ॐ ह्रीं जिनेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वदृक्’ संसार की, सब वस्तु सत्तामात्र से।
अवलोकते हैं आप नित, प्रति सर्वदर्शी नाम से।।निज.।।३४।।
ॐ ह्रीं विश्वदृशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वभूतेशा’ तुम्हीं, सब प्राणिगण के ईश हैं।
या विश्वभू-त्रैलौक्य लक्ष्मी, ईश सब भूतेश हैं।।निज.।।३५।।
ॐ ह्रीं विश्वभूतेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वज्योती’ विश्व के लोचन जगत में ख्यात हैं।
प्रभु आप केवलज्ञान ज्योती, सर्व जग में व्याप्त है।।निज.।।३६।।
ॐ ह्रीं विश्वज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘अनीश्वर’ आपसम, नहिं अन्य ईश्वर लोक में।
प्रभु ईश सबके आप नहिं कोइ, आपका प्रभु लोक में।।निज.।।३७।।
ॐ ह्रीं अनीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जिन’ आप घाती कर्मशत्रू, जीतकर ‘जिन’ हो गये।
मन इंद्रियों को जीतकर, ‘जिन’ नाम सार्थक कर दिये।।निज.।।३८।।
ॐ ह्रीं जिनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जिष्णु’ तुम कर्मारि जीतन, का स्वभाव प्रसिद्ध है।
जयशील शासन आपका, जग में सदैव विशुद्ध है।।निज.।।३९।।
ॐ ह्रीं जिष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अमेयात्मा’ आप में, आनन्त्य गुण अतिशय भरे।
नहिं जान सकता अन्य कोई, माप नहिं सकता खरे।।निज.।।४०।।
ॐ ह्रीं अमेयात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वरीश’ तुम्हीं मही के ईश जग में ख्यात हैं।
इस हेतु भविजन नित्य ही, तुम को नमाते माथ हैं।।निज.।।४१।।
ॐ ह्रीं विश्वरीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जगत्पति’ त्रैलोक्य के, स्वामी भविक त्राता तुम्हीं।
रक्षा करो सब द्वंद्व से, सुख शांति होवे आज ही।।निज.।।४२।।
ॐ ह्रीं ङ्कागत्पतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘अनंतजित्’ मिथ्यात्व आदी जीत के।
प्रभु नाम सार्थक कर दिया, संसार अनंत सुजीत के।।निज.।।४३।।
ॐ ह्रीं अनंतजिते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अचिन्त्यात्मा’ तुम स्वरूप, अचिन्त्य जन मन वचन से।
नहिं चिंतवन कर सके कोई, आप आत्मा चित्त से।।निज.।।४४।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘भव्यबंधु’ भव्य जन के, बंधु उपकारक तुम्हीं।
जो रत्नत्रय के योग्य हैं उनके हितंकर हो तुम्हीं।।निज.।।४५।।
ॐ ह्रीं भव्यबंधवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘अबंधन’ कर्म बंधन, से रहित गुणखान हो।
सब मोहद्वय आवरण विघ्न विघात कर जग मान्य हो।।निज.।।४६।।
ॐ ह्रीं अबंधनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘युगादीपुरुष’ चौथे काल युग की आदि में।
प्रभु तीर्थकर पहले हुये युग आदि पुरुष भरत में।।निज.।।४७।।
ॐ ह्रीं युगादिपुरुषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मा’ सुकेवल ज्ञान आदिक गुण सुवृद्धिंगत हुये।
निज शुद्ध आत्मजनित सुखामृत तृप्त ब्रह्मा तुम्हीं हुये।।निज.।।४८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पंचब्रह्मामय’ सु पांचों ज्ञानमय विख्यात हो।
या पंचपरमेष्ठी स्वरूप अनंत गुण से सार्थ हो।।
निज ज्ञानज्योति प्रगट हेतू, नाथ मैं अर्चा करूँ।
तुम नाम मंत्र अमोघ शक्ति, उसी की चर्चा करूँ।।४९।।
ॐ ह्रीं पंचब्रह्मामयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शिव’ मोक्ष हो आनंदमय, हो सर्व दोष विहीन हो।
निर्वाण अक्षय शांत परम कल्याण पद में लीन हो।।निज.।।५०।।
ॐ ह्रीं शिवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पर’ नाम सुआप, सब जीवों को पालें।
ज्ञान आदि गुण सर्व, पूरण करने वाले।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाऊँ युक्ती से।।५१।।
ॐ ह्रीं पराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परतर’ नाम धरंत, सबसे श्रेष्ठ तुम्हीं हो।
हित उपदेश करंत, प्रभु सर्वेश तुम्हीं हो।।नाम.।।५२।।
ॐ ह्रीं परतराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सूक्ष्म’ आप मन इंद्रिय, इनके विषय नहीं हो।
केवलज्ञान अतींद्रिय, उनके व्िाषय सही हो।।नाम.।।५३।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्माय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमेष्ठी’ प्रभु परम, उत्तम पद में तिष्ठो।
अर्हत सिद्धाचार्य आदि पाँचपद तिष्ठो।।नाम.।।५४।।
ॐ ह्रीं परमेष्ठिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम ‘सनातन’ आप सदा एक से रहते।
सदा सदा विद्मान, रूप पुरातन धरते।।नाम.।।५५।।
ॐ ह्रीं सनातनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंज्योति’ प्रभु आप, स्वयं आत्मा ज्योती।
चक्षु जगत्प्रकाश, स्वयं सूर्यमय ज्योती।।नाम.।।५६।।
ॐ ह्रीं स्वयंज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! आप ‘अज’ नाम, जग में नहिं उत्पत्ती।
सदा जपूँ आप नाम, मिले निजातम शक्ती।।नाम.।।५७।।
ॐ ह्रीं अजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘अजन्मा’ आप, जन्म कभी नहिं धारो।
गर्भवास नहिं आप, मेरा जन्म निवारो।।नाम.।।५८।।
ॐ ह्रीं अजन्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्ययोनि’ प्रभु आप, द्वादशांगमय वेदा।
इनकी उतपति आप, से होती विन खेदा।।नाम.।।५९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मयोनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘अयोनिज’ आप, योनी लाख चुरासी।
इनमें नहिं उत्पाद, हरो सकल दुख राशी।।नाम.।।६०।।
ॐ ह्रीं अयोनिजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मोहारीविजयीश’, मोहशत्रु को जीता।
या अरि मोह के आप, विजयशील शिवनीता१।।नाम.।।६१।।
ॐ ह्रीं मोहारिविजयिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु मल्ल को जीत, ‘जेता’ आप कहाये।
सर्व जगत मे मीत२, कर्म शत्रु जय पाये।।नाम.।।६२।।
ॐ ह्रीं जेत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मचक्र के ईश, श्री विहार कर जग में।
भव्यों को संबोध, ‘धर्मचक्रि’ त्रिभुवन में।।नाम.।।६३।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दयाध्वज’ आप, दया ध्वजा फहरायी।
अथवा दया सुमार्ग, प्रगटाया सुखदायी।।
नाम मंत्र तुम पूज्य, मैं पूजूँ भक्ती से।
भविमन पंकज सूर्य, शिव पाऊँ युक्ती से।।६४।।
ॐ ह्रीं दयाध्वजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रशान्तारि’ प्रभु आप, कर्म शत्रु बलवंता।
उनको किया प्रशांत, पूर्ण शांत भगवंता।।नाम.।।६५।।
ॐ ह्रीं प्रशान्तारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘अनंतात्मा’ अनंत केवलज्ञानी।
या अनंत अविनाश, अंतरहित शिवगामी।।नाम.।।६६।।
ॐ ह्रीं अनंतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘योगी’ चित्त निरोध, करके निज को ध्याया।
मन वच तन कर शुद्ध, परम समाधि लगाया।।नाम.।।६७।।
ॐ ह्रीं योगिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘योगी’ मुनि के ईश, गणधर से भी अर्चित।
‘योगिश्वरार्चित’ गीत, तीन भुवन में चर्चित।।नाम.।।६८।।
ॐ ह्रीं योगीश्वरार्चिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘ब्रह्मवित्’ आप, ब्रह्म-आत्म को जाना।
उसका अनुभव-स्वाद, कर लीना शिव थाना।।नाम.।।६९।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘ब्रह्मतत्त्वज्ञ’ आत्मतत्त्व के ज्ञानी।
ज्ञान दया का मर्म, जान हुये निज ज्ञानी।।नाम.।।७०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मतत्त्वज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मोद्याविद्’ आप, ब्रह्म विद्या के वेत्ता।
आत्म विद्या के नाथ, त्रिभुवन के गुरु नेता।।नाम.।।७१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मोद्याविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘यतीश्वर’ आप, यतियों के ईश्वर हो।
रत्नत्रय में यत्न करें यती उन गुरु हो।।नाम.।।७२।।
ॐ ह्रीं यतीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शुद्ध’ आप रागादि, भाव कर्ममल रहिता।
फटिकमणी सम नाथ, करो मुझे मल रहिता।।नाम.।।७३।।
ॐ ह्रीं शुद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बुद्ध’ आप संपूर्ण, वस्तु जानते ज्ञानी।
केवलज्ञान सुबुद्धि, पायी अंतर्यामी।।नाम.।।७४।।
ॐ ह्रीं बुद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रबुद्धात्मा’ आप, सदा आपकी आत्मा।
शुद्ध ज्ञान से जगमगती सर्व गुणात्मा।।नाम.।।७५।।
ॐ ह्रीं प्रबुद्धात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम ‘सिद्धार्थ’ धरें जगसिद्धा।
सर्व प्रयोजन हुये सुसिद्धा।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ।
परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।७६।।
ॐ ह्रीं सिद्धार्थाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो ‘सिद्धशासन’ तुम जग में।
शासन सर्व हितंकर सच में।।मै.।।७७।।
ॐ ह्रीं सिद्धाशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सिद्ध’ निजगुणमणि नंते।
प्राप्त किया, शिवगामी संते।।मै.।।७८।।
ॐ ह्रीं सिद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सिद्धांतविद्’ सर्वप्रकाशी।
द्वादशांग जानो, निज भासी।।मै.।।७९।।
ॐ ह्रीं सिद्धांतविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ध्येय’ आप, मुनिगण आराध्या।
योगिध्यान के ध्येय सुसाध्या।।मै.।।८०।।
ॐ ह्रीं ध्येयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धसाध्य’ प्रभु के सब कार्या।
सिद्ध हो चुके हैं, निरबाध्या।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ।
परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।८१।।
ॐ ह्रीं सिद्धासाध्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगद्धित’ जग हितकर्ता।
सबके लिये ‘पथ्य’ सुखभर्ता।।मै.।।८२।।
ॐ ह्रीं जगद्धिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सहिष्णु’ गुण क्षमा धरे हो।
सहनशील हो सौख्य भरे हो।।मै.।।८३।।
ॐ ह्रीं सहिष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अच्युत’ निज स्वभाव से च्युत ना।
ज्ञानादिकगुण युत परमात्मा।।मै.।।८४।।
ॐ ह्रीं अच्युताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अनंत’ अंतक से रहिता।
गुण अनंत सुख आदिक सहिता।।मै.।।८५।।
ॐ ह्रीं अनंताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रभविष्णू’ बहु प्रभावशाली।
शक्ती अनंती समरथशाली।।मै.।।८६।।
ॐ ह्रीं प्रभविष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘भवोद्भाव’ भव सब श्रेष्ठा।
पंचविद्या संसार विनष्टा।।मै.।।८७।।
ॐ ह्रीं भवोद्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘प्रभूष्णु’ सब शक्तीशाली।
इंद्रादिक के प्र्ाभु गुणमाली।।मै.।।८८।।
ॐ ह्रीं प्रभूष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अजर’ वृद्ध नहिं होते कबहूँ।
सर्व दु:ख नाशो मुझ अबहूँ।।मै.।।८९।।
ॐ ह्रीं अजराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘अजर्य१’ नाम के धारी।
तुम गुण जीर्ण न हों अविकारी।।मै.।।९०।।
ॐ ह्रीं अजर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भ्राजिष्णू’ ज्ञानादि गुणों से।
अतिशय दीप्तमान् निज सुख से।।मै.।।९१।।
ॐ ह्रीं भ्राजिष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीश्वर’ केवलज्ञानमयी जों
बुद्धी उसके ईश्वर प्रभु हो।।मै.।।९२।।
ॐ ह्रीं धीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अव्यय’ व्यय नहिं नाथ तुम्हारा।
शिवपद प्राप्त किया सुखकारा।।मै.।।९३।।
ॐ ह्रीं अव्ययाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मेंधन को अग्निसमाना।
‘विभावसु’ तमहर रवि माना।।मै.।।९४।।
ॐ ह्रीं विभावसवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुनि उत्पन्न जगत में नहिं हों।
‘असंभूष्णू’ मुझ जन्म विलय हो।।मै.।।९५।।
ॐ ह्रीं असंभूष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वयंभूष्णु’ स्वयमेव हुये हो।
सिद्ध अवस्था प्राप्त किये हो।।मै.।।९६।।
ॐ ह्रीं स्वयंभूष्णवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘पुरातन’ बहु प्राचीना।
द्रव्यदृष्टि से आदि विहीना।।मै.।।९७।।
ॐ ह्रीं पुरातनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परमात्मा’ अतिशय उत्कृष्टा।
परम ज्ञानसुख गुणमणि निष्ठा।।
मैं प्रभु नाममंत्र को जपहूँ।
परमानंदमय निजसुख भजहूँ।।९८।।
ॐ ह्रीं परमात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमोत्कृष्ट ज्योतिमय ज्ञानी।
‘परंज्योति’ गुणमणि रजधानी।।मै.।।९९।।
ॐ ह्रीं परंज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन जगत् के परमेश्वर हो।
‘त्रिजगत्परमेश्वर’ प्रभु तुम हो।।मै.।।१००।।
ॐ ह्रीं त्रिजगत्परमेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीमान’ नाम से लेकर के, ‘त्रिजगत्परमेश्वर’ तक नामा।
सौ नाम आपके सार्थक हैं, इंद्रोें से स्तुत गुणधामा।।
इन नाममंत्र को जप जप के, बस ‘सिद्ध’ नाम इक पा जाऊँँ।
प्रभु तुम सम शुद्ध अवस्था हो, नहिं बार बार जग में आऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीमदादिशतनामावलिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
हे नाथ ‘दिव्यभाषापति’ आप कहाये।
अठरा महाभाषा व लघू सात सौ गाये।।
तुम नाम मंत्र पूजा भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।१०१।।
ॐ ह्रीं दिव्यभाषापतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘दिव्य’ तुम हो, अतिशय सुरूप से।
नर सुर से अधिक सुंदर तन आपका दिपे।।तुम.।।१०२।।
ॐ ह्रीं दिव्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘पूतवाक्’ आपकी वाणी पवित्र है।
सब दोष से विवर्जित अतिशय विशुद्ध है।।तुम.।।१०३।।
ॐ ह्रीं पूतवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘पूतशासन’ तुम मत पवित्र है।
वह पूर्व अपर के विरोध दोष रहित है।।तुम.।।१०४।।
ॐ ह्रीं पूतशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूतात्मा’ प्रभु आपकी आत्मा पवित्र है।
अरु आप भव्यजीव को करते पवित्र हैं।।तुम.।।१०५।।
ॐ ह्रीं पूतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘परमज्योति’ आप ज्योतिपुंज हैं।
उत्कृष्ट ज्ञानज्योति रूप तेजपुंज हैं।।तुम.।।१०६।।
ॐ ह्रीं परमज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘धर्माध्यक्ष’ चरित के अधीश हो।
दशधर्म के अध्यक्ष ज्ञान के अधीश हो।।तुम.।।१०७।।
ॐ ह्रीं धर्माध्यक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्रियजयी दमी मुनी के ईश आप हैं।
हे नाथ ‘दमीश्वर’ प्रसिद्ध मुक्तिनाथ हैं।।तुम.।।१०८।।
ॐ ह्रीं दमीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संसार मोक्ष संपदा लक्षमी के पती हों
हे नाथ आप ‘श्रीपति’ मुक्ती के पती हो।।तुम.।।१०९।।
ॐ ह्रीं श्रीपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भगवान्’ आप ज्ञान व ऐश्वर्य पूर्ण हो।
सुरपूज्य आठ प्रातिहार्य विभव पूर्ण हो।।तुम.।।११०।।
ॐ ह्रीं भगवते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अर्हंत’ इंद्र आदि से पूजा को प्राप्त हो।
अरि रज१ रहस्य चार कर्म रहित आप हो।।तुम.।।१११।।
ॐ ह्रीं अर्हते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘अरज’ आप कर्मधूलि हीन हो।
ज्ञानावरण व दर्शनावरण विहीन हो।।
तुम नाम मंत्र पूजा भव व्याधि हरेगी।
ये ज्ञानज्योति देके अज्ञान हरेगी।।११२।।
ॐ ह्रीं अरजसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘विरज’ आप कर्मरज विहीन हो।
भव्यों की कर्मधूलि नाश में प्रवीण हो।।तुम.।।११३।।
ॐ ह्रीं विरजसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘शुचि’ ब्रह्मचर्य से पवित्र हो।
निज शुद्ध आत्म तीर्थ स्नान से पवित्र हो।।तुम.।।११४।।
ॐ ह्रीं शुचये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे, ‘तीर्थकृत्’ भवोदधि से भव्य तारते।
श्रुत द्वादशांग तीर्थ के कर्ता बखानते।।तुम.।।११५।।
ॐ ह्रीं तीर्थकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण मोह आवरण व विघ्न१ नाशिया।
वैâवल्य पाय ‘केवली’ हो मुनि भाषिया।।तुम.।।११६।।
ॐ ह्रीं केवलिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ईशान’ आप अनंत शक्ति से समर्थ हो।
अहमिंद्र आदि के भि ईश जग प्रसिद्ध हो।।तुम.।।११७।।
ॐ ह्रीं ईशानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूजार्ह’ पांचविधा अर्चना के योग्य हो।
मह कल्पतरु ऐन्द्रध्वज आदि पूज्य हो।।तुम.।।११८।।
ॐ ह्रीं पूजार्हाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्म मल कलंक धोय शुद्ध आत्मा।
हे नाथ ‘स्नातक’ सुज्ञान चंद्रपूर्णिमा२।।तुम.।।११९।।
ॐ ह्रीं स्नातकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘अमल’ देह मलादि विहीन हो।
नैर्मल्य आप राग आदि दोष क्षीण हो।।तुम.।।१२०।।
ॐ ह्रीं अमलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनंतदीप्ति’ नाथ ज्ञानदीप्ति धारते।
निजदेह दीप्ति से समस्त ध्वांत वारते।।तुम.।।१२१।।
ॐ ह्रीं अनंतदीप्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु पांंच विधे ज्ञान से ‘ज्ञानात्मा’ कहे।
वैवल्यज्ञानदेहमयी आत्मा कहे।।तुम.।।१२२।।
ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘स्वयंबुद्ध’ स्वयं ही प्रबुद्ध हो।
गुरु की सहाय बिन समस्त ज्ञान युक्त हो।।तुम.।।१२३।।
ॐ ह्रीं स्वयंबुद्धाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रजापति’ त्रिलोक जीव रक्षते पती।
संपूर्ण प्रजा को सदा पालें प्रजापती।।तुम.।।१२४।।
ॐ ह्रीं प्रजापतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘मुक्त’ कर्म बंधनादि मुक्त हों
संपूर्ण दोष से विमुक्त भ्रमण मुक्त हो।।तुम.।।१२५।।
ॐ ह्रीं मुक्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शक्त’ नाम है आप, परिषह सहन किया।
तुम भक्ति करे निष्पाप, इससे शरण लिया।।
तुम नाम मंत्र की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।१२६।।
ॐ ह्रीं शक्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निराबाध’ उपसर्ग, बाधा विरहित हो।
निज भक्तों को सुख स्वर्ग, देते शिवप्रद हो।।
तुम नाम मंत्र की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।१२७।।
ॐ ह्रीं निराबाधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निष्कल’ देह विमुक्त, काल कला हीना।
विज्ञान कलागुण युक्त, कवलाहार बिना।।तुम.।।१२८।।
ॐ ह्रीं निष्कलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भुवेनश्वर’ त्रिभुवन ईश, भविजन के त्राता।
मैं जजूँ नमाकर शीश, पाऊँ सुख साता।।तुम.।।१२९।।
ॐ ह्रीं भुवनेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरंजन’ आप, कर्मांजन शून्या।
सब द्रव्यभाव नोकर्म, विरहित सुख पूर्णा।।तुम.।।१३०।।
ॐ ह्रीं निरंजनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘जगज्योति’ जिनराज, केवलज्ञान लहा।
सब लोक अलोक प्रकाश, अनुपम ज्योतिमहा।।तुम.।।१३१।।
ॐ ह्रीं जगज्ज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरुक्तोक्ती’ य, सार्थक वचन धरो।
सब पूर्वापर अविरोध, हित उपदेश करो।।तुम.।।१३२।।
ॐ ह्रीं निरुक्तोक्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘निरामय’ आप, व्याधिविवर्जित हो।
पूजत ही स्वास्थ्य सुलाभ, भविजन हर्षित हो।।तुम.।।१३३।।
ॐ ह्रीं निरामयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अचलस्थिति’ हे जिननाथ, तुम थल अचल कहा।
हो अचल आत्म थल वास, पूजूँ हरस महा।।तुम.।।१३४।।
ॐ ह्रीं अचलस्थितये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अक्षोभ्य’ नाथ नहिं क्षोम, तुममें कभी हुआ।
सब मिटे चित्त का क्षोभ, ये ही विनय किया।।तुम.।।१३५।।
ॐ ह्रीं अक्षोभ्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कूटस्थ’ कूट-लोकाग्र, ऊपर तिष्ठे हो।
करिये मुझ मन एकाग्र, ईप्सित देते हो।।तुम.।।१३६।।
ॐ ह्रीं कूटस्थाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ आप ‘स्थाणु’, गमनागम न नहीं।
है लोकशिखर विश्राम, काल अनंत सही।।तुम.।।१३७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अक्षय’ क्षय नहिं होय, काल अनंते भी।
याइंद्रिय सुख नहिं कोय आप अतीन्द्रिय भी।।तुम.।।१३८।।
ॐ ह्रीं अक्षयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘अग्रणी’ आप, जग में मुख्य सही।
ले जाते तुम लोकाग्र, भवि को सौख्य मही।।तुम.।।१३९।।
ॐ ह्रीं अग्रण्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘ग्रामणी’ आप, जग में भव्यों को।
करवाते मुक्ती प्राप्त, निज सुख दो मुझको।।तुम.।।१४०।।
ॐ ह्रीं ग्रामण्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भविजन को हितपथ माहिं, ले जाते ‘नेता’।
मैं पूजूँ भक्ति बढ़ाय, शिवपथ के नेता।।तुम.।।१४१।।
ॐ ह्रीं नेत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु द्वादशांगमय शास्त्र, रचना करते हो।
इसलिये ‘प्रण्ोता’ आप, हित उपदिशते हो।।तुम.।।१४२।।
ॐ ह्रीं प्रणेत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु न्यायशास्त्र उपदेश, करते आप सदा।
तुम ‘न्यायशास्त्रवित्’ नाम कहते इंद्र मुद्रा।।तुम.।।१४३।।
ॐ ह्रीं न्यायशास्त्रविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नित धर्मामृत उपदेश, देते गुरु ‘शास्ता’।
हित अनुशास्ता परमेश, देवो मुझ साता।।तुम.।।१४४।।
ॐ ह्रीं शास्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धर्मपती’ तुम नाम, धर्माधीश्वर हो।
दश धर्मों के तुम धाम, शिवप्रद ईश्वर हो।।
तुम नाम मंत्र की भक्ति, भवभव ताप हरे।
प्रगटावे आतम शक्ति, सौख्य अबाध करे।।१४५।।
ॐ ह्रीं धर्मपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु चउविध१ धर्मसमेत, धर्म्य कहाते हो।
रत्नत्रय२ जीवदयादि३, वस्तुस्वभाव४ कहो।।तुम.।।१४६।।
ॐ ह्रीं र्ध्म्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम आत्मा धर्मस्वरूप, शिवफल प्राप्त किया।
‘धर्मात्मा’ नाम अनूप, सुरपति आन दिया।।तुम.।।१४७।।
ॐ ह्रीं धर्मात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धर्मतीर्थकृत’ आप, धर्म सुतीर्थ किया।
सम्यक् चारितमय तीर्थ, का उपदेश दिया।।तुम.।।१४८।।
ॐ ह्रीं धर्मतीर्थकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वृषध्वज’ आप प्रसिद्ध, धर्मध्वजा धारो।
तुम वृषभ चिन्ह से सिद्ध, पाप सु परिहारो।।तुम.।।१४९।।
ॐ ह्रीं वृषध्वजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृष-धर्म अहिंसारूप, उसके स्वामी हो।
हो ‘वृषाधीश’ निज रूप, अंतर्यामी हो।।तुम.।।१५०।।
ॐ ह्रीं वृषाधीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषकेतु’ आप धर्म की ध्वजा धरो।
जैन धर्म की ध्वजा त्रिलोक में भि फरहरो।।
आप नाममंत्र की सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो जहाँ पे दु:ख रंचना।।१५१।।
ॐ ह्रीं वृषकेतवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म शत्रु नाश हेतु धर्मशास्त्र धारते।
नाथ! ‘वृषायुध’ अनंत जन्म को निवारते।।आप.।।१५२।।
ॐ ह्रीं वृषायुधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्व्हा।
आप ‘वृष’ नाम धारि धर्मरूप विश्व में।
धर्ममय पियूष वृष्टि कारि मेघ भव्य में।।आप.।।१५३।।
ॐ ह्रीं वृषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषपती’ दयामयी सुधर्म के पती।
आप शर्ण पाय भव्य लेय पंचमी गती।।आप.।।१५४।।
ॐ ह्रीं वृषपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘भतृ’ आप भव्य जीव पोषते सदा।
दु:ख से निकाल श्रेष्ठ सौख्य में धरें सदा।।आप.।।१५५।।
ॐ ह्रीं भर्त्रेनम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषभांक’, बैल चिन्ह आपका कहा।
श्रेष्ठ धर्म चिन्ह से समस्त को सुखी किया।।आप.।।१५६।।
ॐ ह्रीं वृषभांकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘वृषोद्भव’ सुआप धर्म को जनम दिया।
धर्म से हि तीर्थनाथ होय जन्म धारिया।।आप.।।१५७।।
ॐ ह्रीं वृषोद्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘हिरण्यनाभि’ स्वर्ण रूप नाभि धारते।
आप गर्भ पूर्व इन्द्र स्वर्णवृष्टि कारते।।आप.।।१५८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यनाभये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत आतमा’ जिनेश! सत्यरूप आतमा।
आप पाद शीश नाय होउं अंतरातमा।।आप.।।१५९।।
ॐ ह्रीं भूतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूभृत् प्रभो! समस्त भव्यजीव पोषते।
आप शर्ण आय साधु सर्व कर्म धोवते।।आप.।।१६०।।
ॐ ह्रीं भूभृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत भावनो’ सुआप भावना सुउत्तमा।
हाथ जोड़ शीश नाय भव्य जांय मुक्ति मा।।
आप नाममंत्र की सदा करूँ उपासना।
आत्म सौख्य प्राप्त हो जहाँ पे दु:ख रंचना।।१६१।।
ॐ ह्रीं भूतभावनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘प्रभव’ आप मुक्ति प्राप्ति हेतु भव्य को।
आप जन्म है प्रशंस सौख्य हेतु विश्व को।।आप.।।१६२।।
ॐ ह्रीं प्रभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विभव’ भव विमुक्त भव्य भव विनाशते।
भव विशिष्ट पायधर्म चक्र को चलावते।।आप.।।१६३।।
ॐ ह्रीं विभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘भास्वान्’ आप ज्ञानदीप्ति रूप हो।
आत्म को प्रकाश्य भव्य को प्रकाश हेतु हो।।आप.।।१६४।।
ॐ ह्रीं भास्वते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘भव’ उत्पत्ति व्यय व ध्रौव्य रूप हो।
भव्य चित्त मांहि होय पापपंक धोत हो।।आप.।।१६५।।
ॐ ह्रीं भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भाव’ आप चित्स्वरूप स्वात्म में हि लीन हो।
साधुवृन्द के हृदय निलीन दु:ख हीन हो।।आप.।।१६६।।
ॐ ह्रीं भावाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘भवांतको’ चतुर्गती भवों कुनाशिया।
भव्य के अनंतभव क्षणेक में विनाशिया।।आप.।।१६७।।
ॐ ह्रीं भवान्तकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो! ‘हिरण्यगर्भ’ गर्भ पूर्व स्वर्ण वर्षते।
आपके पिता कि जीत ना किसी से हो सके।।आप.।।१६८।।
ॐ ह्रीं हिरण्यगर्भाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्री गरभ’ सुआप अंतरंग नंतसंपदा।
श्री सु आदि देवियों ने मात सेव की मुदा।।आप.।।१६९।।
ॐ ह्रीं श्रीगर्भाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो! ‘प्रभूतविभव’ आपका विभव महान है।
तीन लोक साम्राज्य पाय सुख निधान हैं।।आप.।।१७०।।
ॐ ह्रीं प्रभूतविभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अभव’ आप जन्म ना धरें कभी यहां।
आप पाद सेय भव्य जन्म नाशते यहाँ।।आप.।।१७१।।
ॐ ह्रीं अभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्वयंप्रभु’ आप ही स्वयं समर्थ हैं।
सर्व कर्म नाश हेतु आप पूर्ण दक्ष हैं।।आप.।।१७२।।
ॐ ह्रीं स्वयंप्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रभूतातमा’ सुआप आतमा यहाँ।
ज्ञान से समस्त लोक व्यापता सुखावहा१।।आप.।।१७३।।
ॐ ह्रीं प्रभूतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूतनाथ’ सर्वजीव के हि आप नाथ हो।
आप भक्ति से मुनीशवृंद भी सनाथ हों।।आप.।।१७४।।
ॐ ह्रीं भूतनाथाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जगत्प्रभु’ त्रिलोक स्वामि हो समर्थ हो।
सर्व सौख्यदान हेतु आप पूर्ण दक्ष हो।।आप.।।१७५।।
ॐ ह्रीं जगत्प्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वादि’ सर्व-जग आदी। तुमसे सृष्टी उत्पादी।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७६।।
ॐ ह्रीं सर्वादये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सर्वदृक्’ तुम हो। सब वस्तु देखते प्रभु हो।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७७।।
ॐ ह्रीं सर्वदृशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सार्व’ सभी को पालें। सबका हित करने वाले।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७८।।
ॐ ह्रीं सार्वाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वज्ञ’ सर्व जग जानो। त्रैलोक्य त्रिकालिक जानो।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१७९।।
ॐ ह्रीं सर्वज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘सर्वदर्शन’ हो। सब कुमतों के मर्दक हो।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८०।।
ॐ ह्रीं सर्वदर्शनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वात्मा’ तुम अंतर में। सब वस्तु झलकती क्षण में।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८१।।
ॐ ह्रीं सर्वात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सर्वलोकेशा’। तिहुंलोक अलोक अधीशा।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८२।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सर्वविद्’ मानें। इक क्षण में सबको जानें।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८३।।
ॐ ह्रीं सर्वविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सर्वलोकजित्’ तुम हो। पणविध संसार विजित् हो।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८४।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकजिते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगति’ मोक्षगति सुंदर। वैâवल्यज्ञान उत्तम धर।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्यािध से छूटूँ।।१८५।।
ॐ ह्रीं सुगतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत’ अतिशायि प्रसिद्धा। सब भावश्रुतों के धर्ता।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८६।।
ॐ ह्रीं सुश्रुताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुश्रुत्’ सब अरज सुना है। भव्यों हित मार्ग भणा है।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८७।।
ॐ ह्रीं सुश्रुते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप वचन उत्तम हैं। अतएव ‘सुवाक्’ प्रथम हैं।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८८।।
ॐ ह्रीं सुवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सूरि’ सभी के गुरु हो। सब विद्याओं के धुरि हो।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१८९।।
ॐ ह्रीं सूरये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बहुश्रुत’ सब श्रुत के ज्ञानी। तुमसे प्रकटी जिनवाणी।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९०।।
ॐ ह्रीं बहुश्रुताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्रुत’ त्रिभुवन विख्याता। श्रुत बिना चराचार ज्ञाता।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९१।।
ॐ ह्रीं विश्रुताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वत:पाद’ तम घाती। तुम ज्ञान किरण जग व्यापी।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९२।।
ॐ ह्रीं विश्वत:पादाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विश्वशीर्ष’ सिरताजो। तुम लोक शिखर पर राजो।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९३।।
ॐ ह्रीं विश्वशीर्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शुचिश्रवा’ तुम कर्णा। भवि वचन सुनें दें शर्णा।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९४।।
ॐ ह्रीं शुचिश्रवसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘सहस्रशीर्षा’ हो। आनन्त्य सुखी कीर्ता हो।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९५।।
ॐ ह्रीं सहस्रशीर्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षेत्रज्ञ’ क्षेत्र-आत्मा को। जाना सब पर आत्मा को।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९६।।
ॐ ह्रीं क्षेत्रज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सहस्राक्ष’ जग मानें। आनन्त्य पदार्थ सुजानें।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९७।।
ॐ ह्रीं सहस्राक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सहस्रपात्’ जगव्यापा। तुम बल अनंत जगख्याता।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९८।।
ॐ ह्रीं सहस्रपदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘भूत भव्यभवद्भर्ता’ हो। त्रैकालिक सुख कर्ता हो।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।१९९।।
ॐ ह्रीं भूतभव्यभवद्भर्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वविद्यामहेश्वर’ तुम ही। सब विद्या के ईश्वर ही।
तुम नाममंत्र मैं पूजूँ, सब आधि-व्याधि से छूटूँ।।२००।।
ॐ ह्रीं विश्वविद्यामहेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिवभाषापति से लेकर, सुविश्वविद्यामाहेश्वर तक।
सौ नाम मंत्र तुम जपने से, शतखंड खंड हो जावें अघ।।
मैं अतिशय भक्ती श्रद्धा से, तुम नाम मंत्र को नित पूजूँ।
नित आतम अमृतरस पीकर, सब जन्म मरण दुख से छूटूूँ।।२।।
ॐ ह्रीं दिव्यभाषापत्यादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
समीचीन गुणसहित आप अतिशय स्थूल कहे हो।
‘स्थविष्ठ’ नाम के धारी त्रिभुवन पूज्य भये हो।।
प्रभु तुम नाम मंत्र को पूजत, आतम निधि को पाऊँ।
परमाल्हाद परमसुख अमृत, पीकर शिवपद पाऊँ।।२०१।।
ॐ ह्रीं स्थविष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृद्ध आप ज्ञानादिगुणों से अत ‘स्थविर’ कहाये।
मुक्तीपद में तिष्ठ रहे हो, मुनिगण शीश नमायें।।प्रभु.।।२०२।।
ॐ ह्रीं स्थविराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘ज्येष्ठ’ तीनों लोकों में, सबसे बड़े तुम्हीं हो।
इंद्रादिक से प्रशंसनीया गुणमणि जड़े तुम्हीं हो।।प्रभु.।।२०३।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबके अग्रगामि होने से ‘प्रष्ठ’ आप कहलाये।
तुम गुणमाला जपते भविजन दुख दारिद्र नशायें।।प्रभु.।।२०४।।
ॐ ह्रीं प्रष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्र फणींन्द्र नरेन्द्र चंद्र रवि, सबको अतिशय प्रिय हो।
सब मुनीन्द्र से वंद्य ‘प्रेष्ठ’ प्रभु त्रिभुवन जनमन प्रिय हो।।प्रभु.।।२०५।।
ॐ ह्रीं प्रेष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञान सुविस्तृत धीधर प्रभु ‘वरिष्ठधी’ मानें।
स्वपर भेद विज्ञान बुद्धि दो, जिससे भव दुख हानें।।प्रभु.।।२०६।।
ॐ ह्रीं वरिष्ठधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अत्यंत स्थिर-नित्य आप हैं, अतएव ‘स्थेष्ठ’ बखानें।
शत इंद्रों के मध्य विराजें, कर्म कुलाचल हानें।।प्रभु.।।२०७।।
ॐ ह्रीं स्थेष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब द्वादशगण में अतिशयगुरु, आप ‘गरिष्ठ’ कहे हो।
भक्तों को शिवमार्ग दिखाकर कर्म कलंक दहे हो।।प्रभु.।।२०८।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुण अनंत से प्रभू आप ही रूप अनेक धरे हो।
अत: नाथ! ‘बंहिष्ठ’ नामसे अतिशय रूप धरे हो।।
प्रभु तुम नाम मंत्र को पूजत, आतम निधि को पाऊँ।
परमाल्हाद परमसुख अमृत, पीकर शिवपद पाऊँ।।२०९।।
ॐ ह्रीं बंहिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबमें अतिशय प्रशस्य हो प्रभु ‘श्रेष्ठ’ नाम जग जाने।
सर्व दोष निरवारण करिये गुण से भरूँ खजानें।।प्रभु.।।२१०।।
ॐ ह्रीं श्रेष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय सूक्ष्म मात्र योगी के ध्यान गम्य ही तुम हो।
अत: ‘अणिष्ठ’ नाम से पूजें, सर्व सुखाकर तुम हो।।प्रभु.।।२११।।
ॐ ह्रीं अणिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वाणी आप सर्व जगपूज्या गौरवमयी बखानी।
प्रभु ‘गरिष्ठगी’ इसीलिये हो तुम वाणी कल्याणी।।प्रभु.।।२१२।।
ॐ ह्रीं गरिष्ठगिरे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्गती संसार नष्ट कर आप ‘विश्वमुट्’ मानें।
सर्वविश्व के पालन कर्ता सुरनर मुनिगण जानें।।प्रभु.।।२१३।।
ॐ ह्रीं विश्वमुषे१ नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वविश्व की करो व्यवस्था नाथ ‘विश्वसृज्’ तुम हो।
धर्मसृष्टि से आदि विधाता मुक्तिप्रदाता तुम हो।।प्रभु.।।२१४।।
ॐ ह्रीं विश्वसृजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तीनलोक के ईश तुम्हीं ‘विश्वेट्’ मुनी कहते हैं।
सुरपति नरपति फणपति तुमको निजस्वामी गिनते हैं।।प्रभु.।।२१५।।
ॐ ह्रीं विश्वेशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जग की रक्षा करते हो अत: ‘विश्वभुज्’ तुमही।
सर्व जीवगण सुतवत् पालन पोषण करते तुमही।।प्रभु.।।२१६।।
ॐ ह्रीं विश्वभुजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अखिल लोक के स्वामी तुमही धर्मनीति सिखलाते।
अत: ‘विश्वनायक’ बन सबको मोक्षमार्ग दिखलाते।।प्रभु.।।२१७।।
ॐ ह्रीं विश्वनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जग का विश्वास आप में अत: आप ‘विश्वासी’।
तुम आशीष पा सभी प्राणिगण बने मुक्ति के वासी।।प्रभु.।।२१८।।
ॐ ह्रीं विश्वासिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवल ज्ञानरूप तुम आत्मा अत: ‘विश्वरूपात्मा’।
लोकपूर्ण के समय प्रदेशों से त्रिलोकमय आत्मा।।प्रभु.।।२१९।।
ॐ ह्रीं विश्वरूपात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विश्व-पांचविध भवको जीता, अत: ‘विश्वजित्’ तुम हो।
कर्म मल्ल यममल्ल विजेता विश्वविजेता तुम हो।।प्रभु.।।२२०।।
ॐ ह्रीं विश्ववजिते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विजितांतक’ अतंक-यम जीता मृत्युंजयी तुम्हीं हो।
निज भक्तों को मृत्युमल्ल से सदा छुड़ाते तुम हो।।प्रभु.।।२२१।।
ॐ ह्रीं विजितांतकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभव’ आपका भवविशेष है शतइंद्रोें से पूजित।
भव-संसार नष्टकर्ता तुम सर्व गुणों से भूषित।।प्रभु.।।२२२।।
ॐ ह्रीं विभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विभय’ सर्व कांती को जीता, सात भयों से छूटे।
तुम आश्रय लेकर भविप्राणी सर्व भयों से छूटें।।प्रभु.।।२२३।।
ॐ ह्रीं विभयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वीर’ मोक्षलक्ष्मी के दाता कर्मशत्रु के विजयी।
तुम पदपंकज भक्ति करें जो बने कर्मरिपु विजयी।।प्रभु.।।२२४।।
ॐ ह्रीं वीराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विगत शोक प्रभु तुम ‘विशोक’ हो, भविजन शोक हरंता।
शं-सुख रूप आप की आत्मा सौख्य अनंत धरंता।।प्रभु.।।२२५।।
ॐ ह्रीं विशोकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विजर’ वृद्ध नहिं कभी आप, तुमही ‘पुराणपूरुष’ विख्यात।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२२६।।
ॐ ह्रीं विजराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अजरन्१’ नहिं जीरण होंय आप, परमानंद क्रीड़ा करें आप।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२२७।।
ॐ ह्रीं अजरते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु रागरहित हो तुम ‘विराग’, सब रागद्वेष को दिया त्याग।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२२८।।
ॐ ह्रीं विरागाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत पापरहित हैं ‘विरत’ आप, भवसुखविरहित हो हरो पाप।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२२९।।
ॐ ह्रीं विरताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘असंग’ परिग्रह विहीन, मेरे दुख संकट करो क्षीण।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३०।।
ॐ ह्रीं असंगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विषयों से ही पृथग्भूत, अतएव ‘विविक्त’ तुम्हीं अनूप।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३१।।
ॐ ह्रीं विविक्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु विरहित मत्सर रागद्वेष, अतएव ‘वीतमत्सर’ जिनेश।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३२।।
ॐ ह्रीं वीतमत्सराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘विनेयजनताबंधु’ आप, सब शिष्यों को करते सनाथ।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३३।।
ॐ ह्रीं विनेयजनताबंधवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विलीनाशेषकल्मष’ जिनेश, कुछ पाप पंक नहिं रहे शेष।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३४।।
ॐ ह्रीं विलीनाशेषकल्मषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु मुक्तिरमा के साथ योग, अतएव तुम्हें कहते ‘वियोग’।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३५।।
ॐ ह्रीं वियोगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब योग-ध्यान जानो जिनेश, अतएव ‘योगवित्’ हो महेश।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३६।।
ॐ ह्रीं योगविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब त्रिभुवन को जाना महान्, ‘विद्वान्’ तुम्हीं हो ज्ञानवान्।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३७।।
ॐ ह्रीं विदुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु धर्मसृष्टि को करो आप, अतएव ‘विधाता’ हरो पाप।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३८।।
ॐ ह्रीं विधात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुुम उत्तम चारित्रवान्, अतएव ‘सुविधि’ विज्ञानवान्।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२३९।।
ॐ ह्रीं सुविधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम बुद्धी केवलज्ञान रूप, अतएव ‘सुधी’ तुम हो अनूप।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४०।।
ॐ ह्रीं सुधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम पूर्ण क्षमानिधि के निधान, हो ‘क्षान्तिभाक्’ जग में महान।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४१।।
ॐ ह्रीं क्षांतिभाजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीत् स्वाहा।
प्रभु ‘पृथिवीमूर्ति’ तुम्हीं जिनेश, सर्वंसह मेरे हरो क्लेश।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४२।।
ॐ ह्रीं पृथिवीमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शांतिभाक्’ तुम शांतरूप, मुझको भी शांती दो अनूप।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४३।।
ॐ ह्रीं शांतिभाजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सलिलात्मक’ प्रभु जल के समान, शीतलता करते हो महान।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४४।।
ॐ ह्रीं सलिलात्मकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वायुमूर्ति’ जगप्राणरूप, त्रिभुवन में व्यापी ज्ञानरूप।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४५।।
ॐ ह्रीं वायुमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘असंगात्मा‘ महान, परिग्रहविहीन भविसुख निधान।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४६।।
ॐ ह्रीं असंगात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वह्निमूर्ति’ अग्नी समान, कर्मेधन भस्म किया महान।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४७।।
ॐ ह्रीं वह्निमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘अधर्मधक्’ पाप क्षीण, सब भस्म अधर्म किया प्रवीण।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४८।।
ॐ ह्रीं अधर्मदहे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कर्मों का कर दिया होम, अतएव ‘सुयज्वा१’ शांत सौम्य।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२४९।।
ॐ ह्रीं सुयज्वने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘यजमानात्मा’ निज का स्वभाव, आराधन करते तज विभाव।
तुम नाममंत्र मैं जपूँ आज, मुझको दे दीजे मुक्तिराज।।२५०।।
ॐ ह्रीं यजमानात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू आप ‘सुत्वा’ निजानंद भरके।
निजात्मोदधी में सदा स्नान करते।।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ।
जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५१।।
ॐ ह्रीं सुत्वने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘सुत्रामपूजित’ कहाये, सभी इंद्र पूजें तुम्हें शीश नायें।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५२।।
ॐ ह्रीं सुत्रामपूजिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘ऋत्विक्’ किया यज्ञ भारी, जला ज्ञान अग्नी करम सर्व जारी।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५३।।
ॐ ह्रीं ऋत्विजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘यज्ञपति’ यज्ञ के ईश माने, करम का किया होम जग सर्व जाने।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५४।।
ॐ ह्रीं यज्ञपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘याज्य’ हो सर्व पूजा करे हैं, सभी इंद्र मिल आप अर्चा करे हैं।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५५।।
ॐ ह्रीं याज्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘यज्ञांग’ माने जगत् में, नहीं आप बिन पूज्य हो कोई जग में।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५६।।
ॐ ह्रीं यज्ञांगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो मृत्युजित् आप ‘अमृत’ कहाये, तृषा रोगहर सौख्य अमृत पिलायें।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५७।।
ॐ ह्रीं अमृताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अगनिज्ञान में होम दीया अशुभ को, ‘हवी’ आप हो सौख्य दीया सभी को।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५८।।
ॐ ह्रीं हविषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो ‘व्योममूर्ती’ करमलेप हीना, सभी लोक को ज्ञान से व्याप्त कीना।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२५९।।
ॐ ह्रीं व्योममूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमृर्तातमा’ वर्णरस गंध हीना, सदा भक्त को सौख्य देते प्रवीणा।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६०।।
ॐ ह्रीं अमूर्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘निर्लेप’ सब लेप हीना, करम लेप नाशा निजानंद लीना।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६१।।
ॐ ह्रीं निर्लेपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा आप ‘निर्मल’ सभी मल विहीना, करम पंक धोकर महासौख्य लीना।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६२।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा एकसे आप रहते ‘अचल’ हो, अचलथान निर्वाण पाया अचल हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६३।।
ॐ ह्रीं अचलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सोममूर्ती’ शशीवत् धवल हो, सदा शांत सुंदर प्रकाशी अमल हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६४।।
ॐ ह्रीं सोममूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुसौम्यातमा’ सौम्य छवि आपकी है, सभी के नयन चित्त को मोहती है।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६५।।
ॐ ह्रीं सुसौम्यात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सूर्यमूर्ती’ महाध्वांत नाशा, महातेज से सर्व जगको प्रकाशा।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६६।।
ॐ ह्रीं सूर्यमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाप्रभ’ तुम्हीं केवलज्ञान धारी, महातेज से भव्य अंधरे टारी।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् व् सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६७।।
ॐ ह्रीं महाप्रभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी मंत्र को जानते ‘मंत्रविद्’ हो, महामोक्ष का मंत्र भी दे रहे हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६८।।
ॐ ह्रीं मंत्रविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महामंत्र करते प्रभो! ‘मंत्रकृत’ हो, तथा चार अनुयोग शास्त्रादि कृत हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२६९।।
ॐ ह्रीं मंत्रकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी मंत्र से युक्त ‘मंत्री’ तुम्हीं हो, महाध्यान मंत्रादि देते तुम्हीं हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२७०।।
ॐ ह्रीं मंत्रिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! मंत्र सप्ताक्षरी मूर्तिमय हो, अत: ‘मंत्रमूर्ति’ मुनी के विषय हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२७१।।
ॐ ह्रीं मंत्रमूर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंते पदारथ सभी जानते हो, महामोक्षगत हो ‘अनंतग’ तुम्हीं हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२७२।।
ॐ ह्रीं अनंतगायनम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वतंत्र:’ स्व-आत्मा वही तंत्र-तनु है, सभी कर्म बंधनरहित स्वात्मवश हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२७३।।
ॐ ह्रीं स्वतंत्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाद्वादशांगीमयी शास्त्रकृत् हो, अत: ‘तंत्रकृत्’ जैनसिद्धांतकृत् हो।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२७४।।
ॐ ह्रीं तंत्रकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘स्वन्त’ अन्त: करण शोभना है, तुम्हारा हि सामीप्य सुखप्रद घना है।
प्रभु नाम को मैं नमूँ नित्य पूजूँ, जगत् के सभी दु:ख से शीघ्र छूटूँ।।२७५।।
ॐ ह्रीं स्वन्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृतान्तान्त’ प्रभु मृत्युराज को नाशिया।
अष्टकर्म को चूर मोक्षपद पा लिया।।
नाम मंत्र मैं जपूूं सर्व दुख दूर हों।
निज में परमानंदामृत सुख पूर हो।।२७६।
ॐ ह्रीं कृतान्तान्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कृतान्तकृत्’ आगम कर्ता आप हो।
दिव्यध्वनि से भावग्रंथकृत् आप हो।।नाम.।।२७७।।
ॐ ह्रीं कृतान्तकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृती’ पुण्यफलरूप कुशल विख्यात हो।
केवलज्ञान सौख्यमय हो विद्वान हो।।नाम.।।२७८।।
ॐ ह्रीं कृतिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कृतार्थ’ निजके पुरुषार्थ सफल किये।
भक्ती से भविजन कृतार्थ भी हो गये।।नाम.।।२७९।।
ॐ ह्रीं कृतार्थाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सत्कृत्य’ इन्द्र सत्कार किया करें।
आप भली विध सर्वप्रजा पोषण करें।।नाम.।।२८०।।
ॐ ह्रीं सत्कृत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कृतकृत्य’ आत्मकार्य सब कर चुके।
तुम पदभक्त स्वयं कृतकृत्य बनें सबे।।नाम.।।२८१।।
ॐ ह्रीं कृतकृत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘कृतक्रतू’ इन्द्रशत मिल पूजा करें।
तुम पूजा नहिं निष्फल निश्चित ही फले।।नाम.।।२८२।।
ॐ ह्रीं कृतक्रतवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘नित्य’ हैं काल अनंतों भी रहेंं
आपभक्त भी नित्य मोक्षपदवी लहें।।नाम.।।२८३।।
ॐ ह्रीं नित्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु जीत ‘मृत्युंजय’ प्रभु तुम हो गये।
तुमपद भक्त स्वयं मृत्युंजय पद लहें।।नाम.।।२८४।।
ॐ ह्रीं मृत्युंजयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘अमृत्यु’ मरण रहित हैं लोक में।
तुम पद आश्रय पाय भव्य मृत्यू हने।।नाम.।।२८५।।
ॐ ह्रीं अमृत्यवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमृतात्मा’ अमृतवत् सुखदायि हो।
भव्य भजें निज आतम अमृतपायि हों।।नाम.।।२८६।।
ॐ ह्रीं अमृतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अमृतोद्भव’ कहलाते आप हैं।
अमृत-शिवपद में उत्पन्न सनाथ हैं।।नाम.।।२८७।।
ॐ ह्रीं अमृतोद्भवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मनिष्ठ’ प्रभु शुद्ध आत्म में लीन हैं।
केवलज्ञान व मोक्ष निष्ठ भवहीन हैं।।नाम.।।२८८।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मनिष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परंब्रह्म’ उत्कृष्ट ब्रह्ममय आप हैं।
पंचम ज्ञानस्वरूप विश्व के तात१ हैं।।नाम.।।२८९।।
ॐ ह्रीं परंब्रह्मणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ब्रह्मात्मा’ तुम ज्ञानस्वरूपी आतमा।
केवलज्ञानगुणादि वृद्धिमय आतमा।।नाम.।।२९०।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘ब्रह्मसंभव’ आत्मा से उद्भवे।
भक्त आपसे ज्ञानरूप हों उद्भवें।।नाम.।।२९१।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मसंभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाब्रह्मपति’ पंचमज्ञानपती तुम्हीं।
गणधर इंद्रादिक के स्वामी हो तुम्हीं।।
नाम मंत्र मैं जपूूं सर्व दुख दूर हों।
निज में परमानंदामृत सुख पूर हो।।२९२।।
ॐ ह्रीं महाब्रह्मपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘ब्रह्मेट्’ ब्रह्म के ईश हो।
ज्ञान चरित अरु मुक्ती के परमेश हो।।नाम.।।२९३।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मेशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाब्रह्मपदेश्वर’ मुक्ती ईश्वरा।
गणधर मुनिगण सुरगण तुम वंदनपरा।।नाम.।।२९४।।
ॐ ह्रीं महाब्रह्मपदेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्रसन्न’ प्रभु प्रहसितमुख शांतीछवी।
भविजन स्वर्ग मोक्ष, सुखदायक हो तुम्हीं।।नाम.।।२९५।।
ॐ ह्रीं सुप्रसन्नाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘प्रसन्नात्मा’ अति निर्मल आतमा।
भवि कषाय मल धोय बने शुद्धातमा।।नाम.।।२९६।।
ॐ ह्रीं प्रसन्नात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञानधर्मदमप्रभू’ आप विख्यात हैं।
केवलज्ञान क्षमादिधर्म तप नाथ हैं।।नाम.।।२९७।।
ॐ ह्रीं ज्ञानधर्मदमप्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रशमात्मा’ क्रोधादि कषाय न आप में।
परम शांतप्रभु भक्त शांतिमय परिणमें।।नाम.।।२९८।।
ॐ ह्रीं प्रशमात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘प्रशान्तात्मा’ प्रभु अतिशय शांत हो।
आप भक्त परिपूर्ण शांति को प्राप्त हों।।नाम.।।२९९।।
ॐ ह्रीं प्रशान्तात्मा्नो नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पुराणपुरुषोत्तम’ सबमें श्रेष्ठ हो।
सर्व शलाका पुरुषों में भी ज्येष्ठ हो।।नाम.।।३००।।
ॐ ह्रीं पुराणपुरुषोत्तमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु स्थविष्ठ से पुराण पुरुषोत्तम तक नाम जपें जो भी।
वे शतक नाम धारें जग में फिर जीवन्मुक्त बनें वे भी।।
मैं नामगोत्र विघ्नादि रहित निज शुद्ध आत्मपद पा जाऊँ।
इसलिए आप पदपद्म भक्ति करता हूूँ फिर फिर शिर नाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं स्थविष्ठादिशतनामभ्य: नम: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
‘महाशोकध्वज’ आप जिनेश। वृक्ष अशोक चिन्ह परमेश।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०१।।
ॐ ह्रीं महाशोकध्वजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अशोक’ शोक से हीन। आप भक्त हों शोक विहीन।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०२।।
ॐ ह्रीं अशोकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘क’ नाम आत्म आधार। सब भक्तों को सुखदातार।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०३।।
ॐ ह्रीं काय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ग मोक्ष की सृष्टि करंत। ‘स्रष्टा’ नाम सुरेन्द्र यजंत।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०४।।
ॐ ह्रीं स्रष्ट्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पद्मविष्टर’ तुम नाम। आसन स्वर्णकमल तुम स्वामि।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०५।।
ॐ ह्रीं पद्मविष्टाराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पद्मेश’ आप विख्यात। लक्ष्मी के स्वामी हो नाथ।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०६।।
ॐ ह्रीं पद्मेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘पद्मसंभूति’ जिनेश। चरण कमल तल कमल हमेश।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०७।।
ॐ ह्रीं पद्मसंभूतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पद्मनाभि’ पंकजसम नाभि। वंदत मिटती सर्व उपाधि।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०८।।
ॐ ह्रीं पद्मनाभये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अनुत्तर’ तुम सम अन्य। श्रेष्ठ नहीं प्रभु तुमही धन्य।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३०९।।
ॐ ह्रीं अनुत्तराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पद्मयोनि’ मात का गर्भ। पद्माकृति से तुम उत्पत्ति।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१०।।
ॐ ह्रीं पद्मयोनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगद्योनि’ धर्ममय जगत्। उसकी उत्पति कारण जिनप।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३११।।
ॐ ह्रीं जगद्योनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘इत्य’ आप की प्राप्ती हेतु। भविजन तप तपते बहुभेद।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१२।।
ॐ ह्रीं इत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्तुत्य’ इन्द्र मुनि आदि। सबकी स्तुति योग्य अबाधि।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१३।।
ॐ ह्रीं स्तुत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘स्तुतीश्वर’ कहे। स्तुति के ईश्वर ही रहें।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१४।।
ॐ ह्रीं स्तुतीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्तवनार्ह’ स्तुति के योग्य। आप समान न अन्य मनोज्ञ।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१५।।
ॐ ह्रीं स्तवनार्हाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हृषीकेश’ इंद्रिय के ईश। विजितेन्द्रिय हो सर्व अधीश।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१६।।
ॐ ह्रीं हृषीकेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जितजेय’ अनूप। जीता मोह आदि अरि भूप।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१७।।
ॐ ह्रीं जितजेयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करने योग्य क्रियाये सर्व। पूर्ण किया ‘कृतक्रिय’ नामार्ह।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१८।।
ॐ ह्रीं कृतक्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह गण के स्वामी आप। अत: ‘गणाधिप’ हो निष्पाप।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३१९।।
ॐ ह्रीं गणाधिपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वजनों में तुम्ही श्रेष्ठ। अत: जगत में हो ‘गणज्येष्ठ’।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३२०।।
ॐ ह्रीं गणज्येष्ठाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणना योग्य आप ही ‘गण्य१’। चौरासी लख गुण युत धन्य।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३२१।।
ॐ ह्रीं गण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण पवित्र आप ही ‘पुण्य’। सबको पावन करें सुपुण्य।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३२२।।
ॐ ह्रीं पुण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब गण शिवपथ में ले जाव। ‘गणाग्रणी’ प्रभु आप कहाव।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३२३।।
ॐ ह्रीं गणाग्रण्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानाद्यनंत गुण की खान। नाथ ‘गुणाकर’ आप महान।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता आत्म निधान।।३२४।।
ॐ ह्रीं गुणाकाराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लाख चुरासी गुण की वार्धि। ‘गुणाम्भोधि’ हरते भव व्याधि।।
आप नाम सब सुख की खान। पूजत मिलता त्म निधान।।३२५।।
ॐ ह्रीं गुणाम्भोधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।
नाथ! ‘गुणज्ञ’ कहावते, गुणमणि ज्ञाता आप।
सर्वदोष मुझ हान के, करो शीघ्र निष्पाप।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।३२६।।
ॐ ह्रीं गुणज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुणनायक’ चौरासी लख, गुणमणि के हो नाथ।
रोग शोक दुखनाश कर, गुण से करो सनाथ।।नाम.।।३२७।।
ॐ ह्रीं गुणनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत्त्व आदि गुण आदरा, ‘गुणादरी’ तुम नाम।
क्रोध मोह सब नाशिये, झुक झुक करूँ प्रणाम।।नाम.।।३२८।।
ॐ ह्रीं गुणादरिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रजतम आदि विभावगुण, नाश किया प्रभु आप।
अत: ‘गुणोच्छेदी’ भये, करो मुझे निष्पाप।।नाम.।।३२९।।
ॐ ह्रीं गुणोच्छेदिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैभाविक गुण हीन हो, ‘निर्गुण’ कहें मुनीश।
या निश्चित ज्ञानादि गुण, धरते निर्गुण ईश।।नाम.।।३३०।।
ॐ ह्रीं निर्गुणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यगी’ पुण्यमय, पावनवाणी आप।
मुझ वाणी पावन करो, हरो सकल भव ताप।।नाम.।।३३१।।
ॐ ह्रीं पुण्यगिरे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणयुत और प्रधान हो, अत: नाम ‘गुण’ आप।
भव्य आपको ही गुने, हरो सकल यम ताप।।नाम.।।३३२।।
ॐ ह्रीं गुणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शरण्य’ हो जगत में, शरणागत प्रतिपाल।
सब दुख मथन करो सदा, नमूँ नमूँ नत भाल।।नाम.।।३३३।।
ॐ ह्रीं शरण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यवाक्’ प्रभु तुम वचन, भरें पुण्य भण्डार।
आतम निधि को देय के, करें मृत्यु संहार।।नाम.।।३३४।।
ॐ ह्रीं पुण्यवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पूत’ आप पावन परम, भक्तन करो पवित्र।
अंतर आत्म उपाय से, लहूँ परमपद शीघ्र।।नाम.।।३३५।।
ॐ ह्रीं पूताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वरेण्य’ मुक्तीरमा, वरण किया स्वयमेव।
सबमें श्रेष्ठ तुम्हीं कहे, करो सकल दुख छेव।।नाम.।।३३६।।
ॐ ह्रीं वरेण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यनायक’ तुम्हीं, सकल पुण्य के ईश।
पुण्यसंपदा देउ मुझ, नमूँ नमूँ नत शीश।।नाम.।।३३७।।
ॐ ह्रीं पुण्यनायकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अगण्य’ गणना नहीं, माप रहित गुण आप।
मेरे अनवधि गुण मुझे, देय हरो संताप।।नाम.।।३३८।।
ॐ ह्रीं अगण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यधी’ पावना, बुद्धी आपकी शुद्ध।
मुझ मन पावन कीजिये, होय आतमा शुद्ध।।
नाम मंत्र मैं नित जपूँ, हरो सकल भवव्याधि।
स्वपर भेद विज्ञानयुत, दीजे अंत समाधि।।३३९।।
ॐ ह्रीं पुण्यधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुण्य’ सर्वगण हित किया, गुण अनंत युत आप।
सर्वगुणों से पूर्ण कर, हरो दोष दुख पाप।।नाम.।।३४०।।
ॐ ह्रीं गुण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘पुण्यकृत्’ आपही, किया पुण्य हरपाप।
सब जन मन पावन किया, हो पवित्र निष्पाप।।नाम.।।३४१।।
ॐ ह्रीं पुण्यकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘पुण्यशासन’ यहाँ, तुम शासन-मत शुद्ध।
आतम अनुशासन करूँ, देवो ऐसी बुद्धि।।नाम.।।३४२।।
ॐ ह्रीं पुण्यशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धर्माराम’ तुम्हीं प्रभो! धर्मोद्यान विशाल।
छाया फल दे स्वर्ग शिव, हरिये ताप दयालु।।नाम.।।३४३।।
ॐ ह्रीं धर्मारामाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘गुणग्राम’ हैं, मूलोत्तर गुण युक्त।
इंद्रियगाँव उजाड़के, आप हुये जग मुक्त।।नाम.।।३४४।।
ॐ ह्रीं गुणग्रामाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुण्यापुण्यनिरोधका’, शुद्ध आत्म में लीन।
पुण्य पाप को रोक के, भये मुक्ति अधीन।।नाम.।।३४५।।
ॐ ह्रीं पुण्यापुण्यनिरोधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पापापेत’ तुम्हीं प्रभो! पाप रहित निष्पाप।
मेरे सब संकट हरो, पुण्य भरो हत पाप।।नाम.।।३४६।।
ॐ ह्रीं पापापेताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विपापात्मा’ कहे, पाप हीन अतिशुद्ध।
मेरे सब अघ क्षय करो, होऊँ सिद्ध विशुद्ध।।नाम.।।३४७।।
ॐ ह्रीं विपापात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘विपाप्मा’ कर्म अघ चूर किया भगवान्।
तुम भक्ती से भव्यजन, बने सकल धनवान।।नाम.।।३४८।।
ॐ ह्रीं विपाप्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रव्य भाव नोकर्ममल कल्मष धोकर शुद्ध।
प्रभो! ‘वीतकल्मष’ तुम्हीं मुझे करो झट शुद्ध।।नाम.।।३४९।।
ॐ ह्रीं वीतकल्मषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘निर्द्वंद्व’ हैं, द्वंद्व-कलह से मुक्त।
सर्व परिग्रह हीन हैं, करों हमें भव मुक्त।।नाम.।३५०।।
ॐ ह्रीं निर्द्वंद्वाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘निर्मद’ आठ विध मद रहित पूज्य महान।
तुम भक्त अतिशय स्वाभिमानी आत्म गौरववान।।
तुम नाम की अर्चा करूं मैं स्वात्म संपति हेतु।
बस पूरिये इक आश मेरी आप ही भव सेतु।।३५१।।
ॐ ह्रीं निर्मदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शांत’ क्रोधादी कषायें नष्ट कर दी आप।
तुम पद कमल की भक्ति भी करती भविक मन शांत।।तुम.।।३५२।।
ॐ ह्रीं शांताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निर्मोह’ प्रभु सब मोह अरु अज्ञान से भी दूर।
तुम भक्त का चारित्र दर्शन मोह करते दूर।।तुम.।।३५३।।
ॐ ह्रीं निर्मोहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘निरुपद्रव’ उपद्रव, उपसरग से हीन।
तुम भक्त भी जड़मूल से करते उपद्रव क्षीण।।तुम.।।३५४।।
ॐ ह्रीं निरुपद्रवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु दिव्यचक्षु नेत्रस्पंदन रहित विख्यात।
इससे कहें मुनि ‘निर्निमेष’ सुपाय ज्ञानविकास।।
तुम नाम की अर्चा करूं मैं स्वात्म संपति हेतु।
बस पूरिये इक आश मेरी आप ही भव सेतु।।३५५।।
ॐ ह्रीं निर्निमेषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निराहार’ न आपको है कभी कवलाहार।
तम भक्त भी आहार विरहित होंय निर्नीहार।।तुम.।।३५६।।
ॐ ह्रीं निराहाराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निष्क्रिय’ प्रभो! सामायिकादि क्रियाओं से शून्य।
संसार की सबही क्रियाओं से रहित सुखपूर्ण।।तुम.।।३५७।।
ॐ ह्रीं निष्क्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘निरुपप्लव’ विघन बाधारहित भगवान।
तुम पाद अर्चन से सभी निर्विघ्न होते काम।।तुम.।।३५८।।
ॐ ह्रीं निरुपप्लवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निष्कलंक’ कलंक-अपवादादि अघ से हीन।
संपूर्ण कर्मकलंक नाशा विश्वज्ञान प्रवीण।।तुम.।।३५९।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निरस्तैना’ सर्व एनस-पाप से हो दूर।
तुम भक्त भी मोहारि अघ नाशन करें बन शूर।।तुम.।।३६०।।
ॐ ह्रीं निरस्तैनसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘निर्धूतआगस्’ आप हैं अपराध अघ से हीन।
हे नाथ मुझ अपराध नाशो करो ज्ञान अधीन।।तुम.।।३६१।।
ॐ ह्रीं निर्धूतागसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निरास्रव’ संपूर्ण आस्रव रोक संवररूप।
मुझ पाप आस्रव नाशिये हो शुद्ध आतमरूप।।तुम.।।३६२।।
ॐ ह्रीं निरास्रवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘विशाल’ अनुपम शांति देते नित्य।
सबसे महान-विशाल मानें नमूँ मैं धर प्रीत्य।।तुम.।।३६३।।
ॐ ह्रीं विशालाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘विपुलज्योति’ समस्त लोकालोकव्यापक ज्ञान।
तुम ज्ञानज्योति से हनें भवि मोह ध्वांत महान्।।तुम.।।३६४।।
ॐ ह्रीं विपुलज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अतुल’ तुलनारहित जग में मुक्तिलक्ष्मीनाथ।
नहिं तोल सकते गुण तुम्हारे सर्व गण के नाथ।।तुम.।।३६५।।
ॐ ह्रीं अतुलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘अचिन्त्यवैभव’ विभव त्रिभुवन मान्य।
मन से न सुरपति योगिगण भी सोच सकते साम्य।।तुम.।।३६६।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यवैभवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘सुसंवृत’ आप सम्यक पूर्ण संवर युक्त।
तुम पदकमल की भक्ति से हों भव्य आस्रव मुक्त।।तुम.।।३६७।।
ॐ ह्रीं सुसंवृत्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगुप्तात्मा’ आप आत्मा कर्मअरि से गुप्त।
तुम भक्त भी मन वचन कायिक गुप्ति से हों युक्त।।तुम.।।३६८।।
ॐ ह्रीं सुगुप्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुबुध१’ अच्छी तरह त्रिभुवन जानते हैं आप।
मुझको निजातम तत्त्व का सुखबोध देवो आज।।तुम.।।३६९।।
ॐ ह्रीं सुबुधे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सुनयतत्त्ववित्’ सापेक्ष नय का मर्म।
जानों तुम्हीं बतला दिया जिन अनेकांत सुधर्म।।तुम.।।३७०।।
ॐ ह्रीं सुनयतत्त्वविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘एकविद्य’ सुएक केवलज्ञान विद्या युक्त।
मतिश्रुत अवधि मनपर्ययी चउज्ञान विद्या मुक्त।।तुम.।।३७१।।
ॐ ह्रीं एकविद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘महाविद्य’ महान् केवलज्ञान विद्याधार।
अठरा महाभाषा लघु तुम सात सौ ध्वनि कार।।
तुम नाम की अर्चा करूं मैं स्वात्म संपति हेतु।
बस पूरिये इक आश मेरी आप ही भव सेतु।।३७२।।
ॐ ह्रीं महाविद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मुनि’ आप त्रिभुवन चराचर को जानते प्रत्यक्ष।
मैं आपका वंदन करूँ हो स्वात्मज्ञान प्रत्यक्ष।।तुम.।।३७३।।
ॐ ह्रीं मुनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘परिवृढ’ सब गुणों का वर्धन किया जिनराज।
तुम वंदना से सर्व मेरे गुण प्रगट हो आज।।तुम.।।३७४।।
ॐ ह्रीं परिवृढाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पती’ प्राणीवर्ग को संसार दुख से काढ़।
रक्षा करो त्रिभुवनपती सुर नमें रुचिधर गाढ़।।तुम.।।३७५।।
ॐ ह्रीं पत्ये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैवल्यज्ञानमय बुद्धि धरंत ‘धीश’।
मेरे सुज्ञानमय ज्योति करो मुनीश।।
हे नाथ! नाममय मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।३७६।।
ॐ ह्रीं धीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विद्यानिधी’ स्वपर शास्त्र सुज्ञानरूपा।
भंडार आप उसके निधि है अनूपा।।हे नाथ.।।३७७।।
ॐ ह्रीं विद्यानिधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य की सकल वस्तु प्रतक्ष जानो।
‘साक्षी’ कहें सुरपती प्रभु ज्ञान भानू।।हे नाथ.।।३७८।।
ॐ ह्रीं साक्षिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोक्षैक मार्ग प्रकटी करते ‘विनेता’।
पादाब्ज में नित नमूँ मुझ विघ्न नाशो।।हे नाथ.।।३७९।।
ॐ ह्रीं विनेत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यू विनाश ‘विहितांतक’ नाम धारा।
मेरे समस्त दुख रोष मिटाय दीजे।।हे नाथ.।।३८०।।
ॐ ह्रीं विहितान्ताकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षा करो दुर्गती दुख से बचाते।
साधू ‘पिता’ कह रहे सुख के जनक हो।।हे नाथ.।।३८१।।
ॐ ह्रीं पित्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रैलोक्य के गुरु कहें सबके सुत्राता।
इससे ‘पितामह’ तुम्हें कहते गणीशा।।हे नाथ.।।३८२।।
ॐ ह्रीं पितामहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षा करो नित भवोदधि दु:ख से ही।
‘पाता’ कहें सुरपती मुझको उबारो।।हे नाथ.।।३८३।।
ॐ ह्रीं पात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा पवित्र कर ली निजकी तुम्हीं ने।
इससे ‘पवित्र’ मुझको भि पवित्र कर दो।।हे नाथ.।।३८४।।
ॐ ह्रीं पवित्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भव्य जन को सुपवित्र करते।
‘पावन’ कहें मुनि तुम्हें मुझ पाप नाशो।।हे नाथ.।।३८५।।
ॐ ह्रीं पावनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण भव्य तप कर प्रभू आप जैसा।
होना चहें ‘गति’ अत: सबको शरण भी।।हे नाथ.।।३८६।।
ॐ ह्रीं गतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्राता’ समस्त जन रक्षक भी तुम्हीं हो।
पादाब्ज आश्रय लिया अतएव मैंने।।
हे नाथ! नाममय मंत्र सदा जपूँ मैं।
स्वात्मा पियूष रस कंद सदा भजूँ मैं।।३८७।।
ॐ ह्रीं त्रात्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो वैद्य आप भव रोग विनाश कर्ता।
इससे ‘भिषग्वर’ तुम्हीं मुझ व्याधि नाशो।।हे नाथ.।।३८८।।
ॐ ह्रीं भिषग्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वर्य’ आप जग में अतिश्रेष्ठ माने।
मुक्तीरमा तुम वरण अभिलाष धारे।।हे नाथ.।।३८९।।
ॐ ह्रीं वर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इच्छानुकूल सब वस्तू प्रदान करते।
इससे ‘वरद’ सुरग मोक्ष तुम्हीं प्रदाता।।हे नाथ.।।३९०।।
ॐ ह्रीं वरदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानादि से ‘परम’ आप त्रिलोक लक्ष्मी।
धारें अत: जन सभी तुम पास आते।।हे नाथ.।।३९१।।
ॐ ह्रीं परमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा व अन्य जन कोभि पवित्र करते।
इससे ‘पुमान्’ तुम ही जग के हितैषी।।हे नाथ.।।३९२।।
ॐ ह्रीं पुंसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! आप ‘कवि’ द्वादश अंग वर्णें।
सद्धर्म के कथन में अतिशायि पटुता।।हे नाथ.।।३९३।।
ॐ ह्रीं कवये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ना आदि नांत अतएव ‘पुराण पुरुष’।
आत्मा पुराण पुरुषा प्रभु आपकी है।।हे नाथ.।।३९४।।
ॐ ह्रीं पुराणपुरुषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञानादि से अतिशयी प्रभु वृद्ध ही हो।
इस हेतु नाम तुम ‘वर्षीयान्’ पाया।।हे नाथ.।।३९५।।
ॐ ह्रीं वर्षीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुश्रेष्ठ हो ‘ऋषभ’ नाम धरा तुम्हीं ने।
इंद्रादि वंद्य सुरपूजित सौख्य देवो।।हे नाथ.।।३९६।।
ॐ ह्रीं ऋषभाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे देव! आप ‘पुरु’ है युग के विधाता।
संपूर्ण द्वादश गणों मधि मुख्य ही हो।।हे नाथ.।।३९७।।
ॐ ह्रीं पुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्पत्ति है प्रतिष्ठा गुण की तुम्हीं से।
इससे तुम्हीं ‘प्रतिष्ठाप्रसवादि’ नामा।।हे नाथ.।।३९८।।
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठाप्रवसाय१ नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण कार्य हित कारण ‘हेतु’ आप।
संपूर्ण ज्ञानमय नाथ! सुज्ञानदाता।।हे नाथ.।।३९९।।
ॐ ह्रीं हेतवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो एकमात्र गुरु सर्व त्रिलोक में भी।
अतएव आप ‘भुवनैकपितामहा’ हो।।हे नाथ.।।४००।।
ॐ ह्रीं भुवनैकपितामहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु महाशोकध्वज आदि नाम सौ धारा सुरपति पूजित हो।
सौइंद्रों से वंदित गणधर मुनिगण से वंदित संस्तुत हो।।
प्रभु सात परम स्थान हेतु मैं नित प्रति तुम गुण को गाऊँ।
जब तक नहिं मुक्ति मिले मुझको तुमपद में ही मैं रम जाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं महाशोकध्वजादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
आप नाम ‘श्री वृक्षलक्षणा’ इंद्र सदा गावें।
दिव्य अशोक वृक्ष इक योजन मणिमय दर्शावें।।
नाममंत्र को मैं नित पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।४०१।।
ॐ ह्रीं श्रीवृक्षलक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंतलक्ष्मी प्रिया साथ में, आलिंगन करते।
सूक्ष्मरूप होने से भगवन् ‘श्लक्ष्ण’ नाम धरते।।नाम.।।४०२।।
ॐ ह्रीं श्लक्ष्णाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट महाव्याकरण कुशल हो, सर्वशास्त्रकर्ता।
प्रभू आप ‘लक्षण्य’ नामधर सबलक्षण भर्ता।।नाम.।।४०३।।
ॐ ह्रीं लक्षण्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शुभलक्षण’ श्रीवृक्ष शंख पंकज स्वस्तिक आदी।
प्रातिहार्य मंगल सुद्रव्य शुभ लक्षण सौ अठ भी।।नाम.।।४०४।।
ॐ ह्रीं शुभलक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘निरक्ष’ इंद्रिय से विरहित सौख्य अतीन्द्रिय हैं।
इंद्रिय निग्रहकर जो ध्याते वे निज सुखमय हैं।।नाम.।।४०५।।
ॐ ह्रीं निरक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पुण्डरीकाक्ष’ कहाये नेत्र कमलसम हैं।
नासादृष्टि सौम्य छवि लखते नेत्र प्रफुल्लित हैं।।नाम.।।४०६।।
ॐ ह्रीं पुण्डरीकाक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुष्कल’ आत्मगुणों से भगवन्! तुम परिपुष्ट हुये।
भक्तजनों का पोषण करते जो तुम शरण भये।।नाम.।।४०७।।
ॐ ह्रीं पुष्कलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभू ‘पुष्करेक्षण’ पंकज दल सदृश नेत्र लम्बे।
निजमन कमल खिलाने हेतू भवि तुम अवलंबे।।नाम.।।४०८।।
ॐ ह्रीं पुष्करेक्षणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सिद्धिदा’ स्वात्मलब्धि मुक्ती के दायक हो।
भक्तों की सब कार्यसिद्धि हित तुमही लायक हो।।नाम.।।४०९।।
ॐ ह्रीं सिद्धिदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘सिद्धसंकल्प’ सर्व संकल्प सिद्ध कीना।
भक्तों के भी सकल मनोरथ पूरे कर दीना।।नाम.।।४१०।।
ॐ ह्रीं सिद्धसंकल्पाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सिद्धात्मा’ प्रभु तुम आत्मा ने सिद्ध अवस्था ली।
सिद्ध शिला पर आप विराजे अनवधि गुणशाली।।नाम.।।४११।।
ॐ ह्रीं सिद्धात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम! ‘सिद्धसाधन’ शिवसाधन रत्नत्रय धारा।
जिनने आप चरण को पूजा उन्हें शीघ्र तारा।।नाम.।।४१२।।
ॐ ह्रीं सिद्धसाधनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञेयवस्तु सब जान लिया है नहीं शेष कुछ भी।
‘बुद्धबोध्य’ अतएव कहाये, लिया सर्वसुख भी।।नाम.।।४१३।।
ॐ ह्रीं बुद्धबोध्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रत्नत्रय गुण विभव प्रशंसित सब जग में प्रभु का।
‘महाबोधि’ अतएव आप ही हरो सर्व विपदा।।नाम.।।४१४।।
ॐ ह्रीं महाबोधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम श्रेष्ठ अतिशायी पूजा ज्ञान लहा तुमने।
सदा गुणों से बढ़ते रहते ‘वर्द्धमान’ जग में।।नाम.।।४१५।।
ॐ ह्रीं वर्द्धमानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बड़ी-बड़ी ऋद्धी के धारक आप ‘महर्द्धिक’ हो।
गणधर मुनिगण वंदित चरणा आप सौख्यपद हो।।नाम.।।४१६।।
ॐ ह्रीं महर्द्धिकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वेद-चार अनुयोग ज्ञान के अंग-उपाय तुम्हीं।
अत: आप ‘वेदांग’ ज्ञानप्राप्ती के हेतु तुम्हीं।।नाम.।।४१७।।
ॐ ह्रीं वेदांगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वेद-आत्मविद्या शरीर से भिन्न आतमा है।
इसके ज्ञाता भिन्न किया तनु अत: ‘वेदविद्’ हैं।।
नाममंत्र को मैं नित पूजूँ, भक्ती मन धरके।
पाऊँ निज गुण संपत्ती मैं, स्वपर भेद करके।।४१८।।
ॐ ह्रीं वेदविदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वेद्य’ आप ऋषिगण के द्वारा ज्ञान योग्य माने।
स्वसंवेद्य ज्ञान वो पाते जो पूजन ठाने।।नाम.।।४१९।।
ॐ ह्रीं वेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जातरूप’ तुम जन्में जैसे रूप दिगंबर है।
प्रकृतरूप निर्दोष आपका भविजन सुखप्रद है।।नाम.।।४२०।।
ॐ ह्रीं जातरूपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्वानों में श्रेष्ठ ‘विदांवर’ आप पूर्णज्ञानी।
तुमपद पंकज भक्त शीघ्र ही वरते शिवरानी।।नाम.।।४२१।।
ॐ ह्रीं विदांवराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वेदवेद्य’ प्रभु आगम से तुम जानन योग्य कहे।
केवलज्ञान से हि या प्रभु जानन योग्य रहे।।नाम.।।४२२।।
ॐ ह्रीं वेदवेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वसंवेद्य’ प्रभु स्वयं सुअनुभव गम्य आप ही है।
स्वयं स्वयं का अनुभव करके हुये केवली हैं।।नाम.।।४२३।।
ॐ ह्रीं स्वसंवेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘विवेद’ वेदत्रय विरहित स्त्री पुरुषादी।
हो विशिष्ट विज्ञानी भगवन्! आपम सुखस्वादी।।नाम.।।४२४।।
ॐ ह्रीं विवेदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वदताम्बर’ प्रभु वक्तागण में सर्वश्रेष्ठ तुम ही।
सब भाषामय दिव्यध्वनी से उपदेशा तुम ही।।।।नाम.।।४२५।।
ॐ ह्रीं वदताम्बराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अनादिनिधन’ तुम्हीं, आदि अंत से हीन।
अतिशय लक्ष्मीयुत तुम्हीं, पूजूँ भक्ति अधीन।।४२६।।
ॐ ह्रीं अनादिनिधनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘व्यक्त’ आप सुज्ञान से, प्रगट सर्वथा मान्य।
सर्व अर्थ प्रकटित किया, जजत मिले धन धान्य।।४२७।।
ॐ ह्रीं व्यक्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘व्यक्तवाक्’ प्रभु तुम वचन, सर्व प्राणि को गम्य।
सभी अर्थ स्पष्ट हो, नमत जन्म हो धन्य।।४२८।।
ॐ ह्रीं व्यक्तवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘व्यक्तशासन’ तुम्हीं, त्रिभुवन में स्पष्ट।
सब विरोधविरहित सुमत, नमूँ नमूँ अति इष्ट।।४२९।।
ॐ ह्रीं व्यक्तशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘युगादिकृत्’ कर्मभू, युग के कर्ता आप।
जीवन कला सिखाय दी, नमूँ हरो मुझ पाप।।४३०।।
ॐ ह्रीं युगादिकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगाधार’ युग की सभी, किया व्यवस्था आप।
राजनीति अरु धर्मद्वय, किया नमूँ नित आप।।४३१।।
ॐ ह्रीं युगाधाराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘युगादि’ तुम कर्मभू युग का कर प्रारंभ।
असि मषि आदि क्रिया कहीं, नमूँ तुम्हें तज दंभ।।४३२।।
ॐ ह्रीं युगादये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगदादिज’ युग के प्रथम, आप हुये उत्पन्न।
तीर्थंकर युग के प्रथम, पूजूँ चित्त प्रसन्न।।४३३।।
ॐ ह्रीं जगदादिजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज प्रभाव से इंद्रगण को भी कर अतिक्रांत।
प्रभु ‘अतीन्द्रि’ तुमको जजूँ, मिले सौख्य निर्भांत।।४३४।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘अतीन्द्रिय’ ज्ञानसुख, आप अतीन्द्रिय मान्य।
इंद्रिय के गोचर नहीं, नमूँ मिले सुख साम्य।।४३५।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धीन्द्र’ पूर्ण वैâवल्यमय, बुद्धी के हो ईश।
शुद्ध बुद्धि मेरी करो जजूँ नमाकर शीश।।४३६।।
ॐ ह्रीं धीन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम मोक्ष ऐश्वर्य का, अनुभव करते आप।
प्रभु ‘महेन्द्र’ तुमको नमॅँॅू, हरो सकल संताप।।४३७।।
ॐ ह्रीं महेन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सूक्ष्म अंतरित दूरके, अतीन्द्रिय सुपदार्थ।
एक समय में देखते, ‘अतीन्द्रियार्थदृक्’ नाथ।।४३८।।
ॐ ह्रीं अतीन्द्रियार्थदृशे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्रिय विरहित आप हैं आत्म सौख्य परिपूर्ण।
अत: ‘अनिंद्रिय’ मुनि कहे, नमत सर्व दुखचूर्ण।।४३९।।
ॐ ह्रीं अनिंद्रियाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अहमिंद्रों से पूज्य प्रभु, ‘अहमिन्द्रार्च्य’ महान।
अहं अहं कह संपदा, मिले जजत ही आन।।४४०।।
ॐ ह्रीं अहमिन्द्रार्च्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बड़े-बड़े सब इंद्र से, पूजित आप जिनेश।
सभी ‘महेन्द्रमहित’ कहें नमूूँ हरो भवक्लेश।।४४१।।
ॐ ह्रीं महेन्द्रमहितायनम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउविध पूजासे महित१, त्रिभुवन पूज्य ‘महान्’।
नमूँ सदा मैं भाव से, करो स्वात्म धनवान्।।४४२।।
ॐ ह्रीं महते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबसे ऊँचे उठ चुके, ‘उद्भव’ जगत्प्रसिद्ध।
जन्म श्रेष्ठ जग में धरा, पूजत करो समृद्ध।।४४३।।
ॐ ह्रीं उद्भाव नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मसृष्टि के बीजप्रभु, ‘कारण’ आप प्रसिद्ध।
भविजन मुक्ती हेतु हो, नमत कार्य सब सिद्ध।।४४४।।
ॐ ह्रीं कारणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
युग कि आदि में सृष्टि के ‘कर्ता’ आप जिनेश।
असि मषि आदिक षट् क्रिया उपदेशी परमेश।।४४५।।
ॐ ह्रीं कर्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भवसमुद्र के पार को, पहँुचे ‘पारग’ नाथ।
मुझको पार उतारिये, नमूँ नमूँ नत माथ।।४४६।।
ॐ ह्रीं पारगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव-सागर सुपांचविध, इससे तारणहार।
‘भवतारग’ तुमको जजूँ भरो सौख्य भण्डार।।४४७।।
ॐ ह्रीं भवतारगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अगह्य’ नहिं अन्य के अवगाहन के योग्य।
तुम गुणपार न पा सकें, पूजत सौख्य मनोज्ञ।।४४८।।
ॐ ह्रीं अगाह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीित स्वाहा।
योगिगम्य प्रभु अति गहन आप अलक्ष्य स्वरूप।
जजूँ ‘गहन’ अतिशय कठिन आप रूप चिद्रूप।।४४९।।
ॐ ह्रीं गहनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुह्य’ योगि गोचर तुम्हीं, सर्वजनों से गुप्त।
नमूँ नमूँ मुझ मन वसो, करो मोह अरि सुप्त।।४५०।।
ॐ ह्रीं गुह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परार्ध्य’ स्वामी सबमें प्रधाना।
उत्कृष्ट ऋद्धी सुख के निधाना।।
पूजॅूँ तुम्हें नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।४५१।।
ॐ ह्रीं पराध्यार्य नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘परमेश्वर’ आप ही हैं।
उत्कृष्ट मुक्ती श्रीनाथ ही हैं।।पूजूँ.।।४५२।।
ॐ ह्रीं परमेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंत ऋद्धी प्रभु आप में हैं।
अत: ‘अनंतर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४५३।।
ॐ ह्रीं अनंतर्द्धये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमेय ऋद्धी मर्याद हीना।
अत: ‘अमेयर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४५४।।
ॐ ह्रीं अमेयर्द्धये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचिन्त्य ऋद्धि नहिं सोच सकते।
अत: ‘अचिन्त्यर्द्धि’ प्रभो! तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४५५।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्यर्द्धये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘समग्रधी’ ज्ञेयप्रमाण बुद्धी।
वैवल्यज्ञानी प्रभु आप ही हो।।पूजूँ.।।४५६।।
ॐ ह्रीं समग्रधिये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! तुम मुख्य सभी जनों में।
हो ‘प्राग्र्य’ इससे मैं नित्य वंदूँ।।पूजूँ.।।४५७।।
ॐ ह्रीं प्राग्र्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रत्येक मंगल शुभ कार्य में ही।
तुम्हें स्मरंते प्रभु ‘प्राग्रहर’ हो।।पूजूँ.।।४५८।।
ॐ ह्रीं प्राग्रहराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकाग्र के सम्मुख हो रहे हो।
‘अभ्यग्र’ इससे मुनिनाथ कहते।।पूजूँ.।।४५९।।
ॐ ह्रीं अभ्यग्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रत्यग्र’ नूतन संपूर्ण जन में।
प्रभो! विलक्षण तुम ही कहाते।।पूजूँ.।।४६०।।
ॐ ह्रीं प्रत्यग्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सभी के तुम ‘अग्र्य’ मानें।
मैंने शरण ली अतएव आके।।पूजूँ.।।४६१।।
ॐ ह्रीं अग्रयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संपूर्ण जन में प्रभू अग्रसर हो।
अतएव ‘अग्रिम’ कहते सुरेन्द्र।।पूजूँ.।।४६२।।
ॐ ह्रीं अग्रिमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ज्येष्ठ सबमें ‘अग्रज’ कहाते।
त्रैलोक्य में नाथ तुम्हीं बड़े हो।।पूजूँ.।।४६३।।
ॐ ह्रीं अग्रजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महातपा’ घोर सुतप किया है।
बारह तपों को मुझको भि देवो।।पूजूँ.।।४६४।।
ॐ ह्रीं महातपसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तेजोमयी पुण्य प्रभो! धरे हो।
‘महासुतेजा’ तुम तेज पैâला।।पूजूँ.।।४६५।।
ॐ ह्रीं महातेजसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महोदर्क’ तुम्हें कहे हैं।
महान तप का फल श्रेष्ठ पाया।।पूजूँ.।।४६६।।
ॐ ह्रीं महोदर्काय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऐश्वर्य भारी प्रभु आपका है।
अत: ‘महोदय’ जगमें तुम्हीं हो।।पूजूँ.।।४६७।।
ॐ ह्रीं महोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कीर्ती चहूँदिश प्रभु की सुपैली।
‘महायशा’ नाम कहा इसी से।।
पूजॅूँ तुम्हें नाम सुमंत्र गाऊँ।
स्वात्मैक सिद्धी प्रभु शीघ्र पाऊँ।।४६८।।
ॐ ह्रीं महायशसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाधाम’ तुम्हीं कहाते।
विशाल ज्ञानी सुप्रताप धारी।।पूजूँ.।।४६९।।
ॐ ह्रीं महाधाम्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासत्त्व’ अपार शक्ती।
हे नाथ! मुझको निज शक्ति देवो।।पूजूँ.।।४७०।।
ॐ ह्रीं महासत्त्वाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाधृती’ धैर्य असीम धारी।
आपत्ति में धैर्य रहे मुझे भी।।पूजूँ.।।४७१।।
ॐ ह्रीं महाधृतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाधैर्य’ त्रिलोक में भी।
क्षोभादि भय से नहिं आकुली थे।।पूजूँ.।।४७२।।
ॐ ह्रीं महाधैर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महावीर्य’ अनंतशक्ती।
महान तेजोबल वीर्य शाली।।पूजूँ.।।४७३।।
ॐ ह्रीं महावीर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महासंपत्’ सर्वसंपत्।
समोसरण में तुम पास शोभे।।पूजूँ.।।४७४।।
ॐ ह्रीं महासंपदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘महाबल’ तनु शक्ति भारी।
ऐसी जगत् में नहिं अन्य के हो।।पूजूँ.।।४७५।।
ॐ ह्रीं महाबलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाशक्ती’ धारो त्रिभुवन गुरू आप सच में।
महा उत्साही थे बहुविध तपा आप तप भी।।
प्रभू की नामावलि नितप्रति जपूँ भावमन से।
मिले ऐसी शक्ती पृथक कर लूँ आत्म तन से।।४७६।।
ॐ ह्रीं महाशक्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाज्योती’ स्वामी, अद्भूत परंज्ञानमय हो।
मुझे ज्ञानज्योति झटिति प्रभू दो पूर्ण सुख हो।।प्रभू.।।४७७।।
ॐ ह्रीं महाज्योतिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाभूती’ स्वामी, विभव अतिशायी जगत मेंं
प्रभो राजें सिंहासन मणिमय पे अधर ही।।प्रभू.।।४७८।।
ॐ ह्रीं महाभूतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु की जो शोभा ‘महाद्युति’ नामा धरत है।
नहीं ऐसी कांती रतनमणि में भी दिखत है।।प्रभू.।।४७९।।
ॐ ह्रीं महाद्युतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाबुद्धी पूर्णा ‘महामति’ का नाम धरती।
हमें भी दे दीजे सुमति भगवन्! होय सुगती।।प्रभू.।।४८०।।
ॐ ह्रीं महामतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानीती’ धारो सकल जन का न्याय करते।
महा दुष्कर्मों से अलग करके सौख्य भरते।।प्रभू.।।४८१।।
ॐ ह्रीं महानीतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाक्षान्ती’ स्वामी परम करुणा भव्य जन पे।
निकालो दु:खों से करम अरि को माफ करते।।प्रभू.।।४८२।।
ॐ ह्रीं महाक्षान्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महादय’ हो स्वामी, सकल भवि प्राणी पर दया।
किया शिष्यों से भी सतत पलवायी अहिंसा।।प्रभू.।।४८३।।
ॐ ह्रीं महादयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाविद्वान् भगवान् शिवपद ‘महाप्राज्ञ’ तुम हो।
मुझे दीजे बुद्धी भवदधि तरूँ युक्ति करके।।
प्रभू की नामावलि नितप्रति जपूँ भावमन से।
मिले ऐसी शक्ती पृथक कर लूँ आत्म तन से।।४८४।।
ॐ ह्रीं महाप्राज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाभागी स्वामी सुखकर ‘महाभाग’ तुम हो।
महा पूजा पायी सुरपति किया भक्ति रुचि से।।प्रभू.।।४८५।।
ॐ ह्रीं महाभागाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजानंदात्मा हो सुखमय ‘महानंद’ प्रभु हो।
मुझे दीजे स्वामी सकल सुखकर मोक्षपदवी।।प्रभू.।।४८६।।
ॐ ह्रीं महानंदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकवि’ हे स्वामिन्! सकल सुखदायी वचन हैं।
प्रभो दीजे शक्ती मुझ वचन सिद्धी प्रगट हो।।प्रभू.।।४८७।
ॐ ह्रीं महाकवये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामह’ हे स्वामिन्! सुरपति करें आप अर्चा।
महा तेजस्वी हो अखिल जनता सौख्य भरता।।प्रभू.।।४८८।।
ॐ ह्रीं महामहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकीर्ती’ स्वामी सुयश तुम व्यापा भुवन में।
प्रभू पादाम्बुज को सतत प्रणमूँ स्वात्मनिधि दो।।प्रभू.।।४८९।।
ॐ ह्रीं महाकीर्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकान्ती’ धारो अतुल छवि है आप तनु की।
सभी आधी व्याधी हरण करके स्वस्थ कर दो।।प्रभू.।।४९०।।
ॐ ह्रीं महाकान्तये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ऊँचे देही, ‘महावपु’ तुम ही चरम हो।
मिटा दो बाधायें विघन हरता आज जग में।।प्रभू.।।४९१।।
ॐ ह्रीं महावपुषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अहिंसा जीवों की अभयद ‘महादान’ करते।
हमारी रक्षा भी झटिति प्रभु कीजे जगत् से।।
प्रभू की नामावलि नितप्रति जपूँ भावमन से।
मिले ऐसी शक्ती पृथक कर लूँ आत्म तन से।।४९२।।
ॐ ह्रीं महादानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! केवलज्ञानी युगपत् ‘महाज्ञान’ गुण से।
सभी लोकालोकं विशद त्रयकालिक लखत हो।।प्रभू.।।४९३।।
ॐ ह्रीं महाज्ञानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! एकाग्री हो शिवप्रद ‘महायोग’ गुण से।
स्वयं में ही साधा निजसुख महाध्यान बल से।।प्रभू.।।४९४।।
ॐ ह्रीं महायोगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणों की खानी हो अतिशय ‘महागुण’ मुनि कहें।
गुणों को दे दीजे सकल मुझ दोषादि हन के।।प्रभू.।।४९५।।
ॐ ह्रीं महागुणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुमेरु पे तेरा न्हवन करते इंद्रगण भी।
महापूजा पायी ‘महामहपति’ आप जग में।।प्रभू.।।४९६।।
ॐ ह्रीं महामहपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरेंद्रो के द्वारा प्रभु ‘प्राप्तमहाकल्याणपंचक’।
गरभ जन्मादी में उत्सव किया देवगण ने।।प्रभू.।।४९७।।
ॐ ह्रीं प्राप्तमहाकल्याणपंचकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सभी के स्वामी हो अतिशय ‘महाप्रभु’ भुवन में।
निवारो मोहारी बहुत दुख देता जु मुझको।।प्रभू.।।४९८।।
ॐ ह्रीं महाप्रभवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाप्रातीहार्याधिश’ चमर छत्रादिक लहा।
शतेन्द्रों से पूजित त्रिभुवन विभव आप चरणों।।प्रभू.।।४९९।।
ॐ ह्रीं महाप्रातिहार्याधीशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महेश्वर’ हो स्वामी सुरपति अधीश्वर तुमहि हो।
सुभक्ती से वंदूँ झटिति शिव लक्ष्मी वरद१ हो।।
प्रभू की नामावलि नितप्रति जपूँ भावमन से।
मिले ऐसी शक्ती पृथक कर लूँ आत्म तन से।।५००।।
ॐ ह्रीं महेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री वृक्षलक्षणादिक सौ ये तुम नाममंत्र अतिशयकारी।
मैं पूजूँ ध्याऊँ भक्ति करूँ, पा जाऊँ जिन संपति सारी।।
बहिरात्म अवस्था छोड़ नाथ! अंतर आतम शुद्धात्म बनूँ।
तुम भक्ति युक्ति से शक्ति पाय मुक्तीपद पा जिनराज बनूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीवृक्षलक्षणादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
‘महामुनि’ प्रभु आप, मुनियों में उत्तम कहे।
नाममंत्र तुम नाथ! पूजत ही सुखसंपदा।।५०१।।
ॐ ह्रीं महामुनये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि हो मौन धरंत, प्रभु ‘महामौनी’ तुम्हीं।
नाम मंत्र पूजंत, रोग शोक संकट टले।।५०२।।
ॐ ह्रीं महामौनिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म शुक्लद्वय ध्यान, धार ‘महाध्यानी’२ हुये।
नाममंत्र का ध्यान, करते ही सब सुख मिले।।५०३।।
ॐ ह्रीं महाध्यानिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण जितेन्द्रिय आप, नाम ‘महादम’ धारते।
नाममंत्र तुम नाथ! पूजत आतम निधि मिले।।५०४।।
ॐ ह्रीं महादमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ क्षमा के ईश, नाम ‘महाक्षम’ सुर कहें।
नाममंत्र नत शीश, पूजूं मैं अतिभाव से।।५०५।।
ॐ ह्रीं महाक्षमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह सहस सुशील, ‘महाशील’ तुम नाम है।
पूरण हो गुण शील, नाममंत्र मैं पूजहूँं।।५०६।।
ॐ ह्रीं महाशीलाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप अग्नी में आप, कर्मेंधन को होमिया१।
‘महायज्ञ’ तुम नाथ, पूजूँ भक्ति बढ़ायके।।५०७।।
ॐ ह्रीं महायज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पूज्य जिनेश! नाम ‘महामख’ धारते।
पूजूँ भक्ति समेत, नाममंत्र प्रभु सुख मिले।।५०८।।
ॐ ह्रीं महामखाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच महाव्रत ईश, नाम ‘महाव्रतपति’ धरा।
जजूँ नमाकर शीश, नाममंत्र प्रभु आपके।।५०९।।
ॐ ह्रीं महाव्रतपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मह्य’ आप जगपूज्य, गणधर साधू गण नमें।
मिलें स्वात्मपद पूज्य, नाममंत्र को पूजते।।५१०।।
ॐ ह्रीं मह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकान्तिधर’ आप अतिशय कांतिनिधान हो।
नाममंत्र तुम जाप, करे अतुल सुखसंपदा।।५११।।
ॐ ह्रीं महाकांतिधराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सबके स्वामी इष्ट, अत: ‘अधिप’ सुरगण कहें।
नाशो सर्व अनिष्ट, नाममंत्र तुम पूजहूूँ।।५१२।।
ॐ ह्रीं अधिपाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामैत्रिमय’ नाथ! सबसे मैत्रीभाव है।
नाममंत्र तुम जाप, त्रिभुवन को वश में करे।।५१३।।
ॐ ह्रीं महामैत्रीमयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनविध गुण के नाथ, तुम्हें ‘अमेय’ मुनी कहें।
पूजत बनूूँ सनाथ, नाममंत्र प्रभु आपके।।५१४।।
ॐ ह्रीं अमेयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महोपाय’ तुम नाथ! शिव के श्रेष्ठ उपाययुत।
जजत सर्व सुखसाथ, नाममंत्र को नित जपूँ।।५१५।।
ॐ ह्रीं महोपायाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ!‘महोमय’ आप, अति उत्सव अरु ज्ञानयुत।
नाममंत्र तुम जाप, सर्व उपद्रव नशाता।।५१६।।
ॐ ह्रीं महोमयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकारुणिक’ आप, दया धर्म उपदेशिया।
नाममंत्र का जाप, करत जन्म मृत्यु टले।।५१७।।
ॐ ह्रीं महाकारुणिकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मंता’ आप महान, सब पदार्थ को जानते।
जजूँ नाम गुणखान, पूर्ण ज्ञान संपति मिले।।५१८।।
ॐ ह्रीं मंत्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व मंत्र के ईश, ‘महामंत्र’ तुम नाम है।
तुम्हें नमें गणधीश, नाममंत्र मैं भी जजूँ।।५१९।।
ॐ ह्रीं महामंत्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यतिगण में अतिश्रेष्ठ, नाम ‘महायति’ आपका।
पूजत ही पद श्रेष्ठ, नाममंत्र को पूजहूँ।।५२०।।
ॐ ह्रीं महायतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानाद’ प्रभु आप, दिव्यध्वनी गंभीर धर।
नमत बनूँ निष्पाप, नाममंत्र भी मैं जजूँ।।५२१।।
ॐ ह्रीं महानादाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यध्वनी गंभीर, योजन तक सुनते सभी।
जजत मिले भवतीर, ‘महाघोष’ तुम नाम को।।५२२।।
ॐ ह्रीं महाघोषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘महेज्य’ सुनाम, महती पूजा पावते।
सौ इन्द्रों से मान्य, नाममंत्र मैं पूजहूूँ।।५२३।।
ॐ ह्रीं महेज्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महसांपति’ प्रभु आप, सर्व तेज के ईश हो।
तुम प्रताप भवताप, हरण करे मैं पूजहूँ।।५२४।।
ॐ ह्रीं महसांपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान यज्ञ को धार, नाम ‘महाध्वरधर’ प्रभु।
मिले सर्व सुखसार, नाममंत्र मैं पूजहूूँ।।५२५।।
ॐ ह्रीं महाध्वरधराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धुर्य’ हो मुक्ति के मार्ग में श्रेष्ठ हो।
कर्म-भू आदि में सर्व में ज्येष्ठ हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५२६।।
ॐ ह्रीं धुर्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महौदार्य’ अतिशायि ऊदार हो।
आप निर्ग्रन्थ भी इष्ट दातार हो।।आप.।।५२७।।
ॐ ह्रीं महौदार्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य वाक्याधिपति सु ‘महिष्ठवाक्’ हो।
दिव्यवाणी सुधावृष्टि कर्ता सु हो।।आप.।।५२८।।
ॐ ह्रीं महिष्ठवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक आलोक व्यापी ‘महात्मा’ तुम्हीं।
अंतरात्मा पुन: सिद्ध आत्मा तुम्हीं।।आप.।।५२९।।
ॐ ह्रीं महात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व तेजोमयी ‘महसांधाम’ हो।
आत्म के तेज से सर्व जग मान्य हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५३०।।
ॐ ह्रीं महासांधाम्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व ऋषि में प्रमुख हो ‘महर्षि’ तुम्हीं।
ऋद्धि सिद्धी धरो आप सुख ही मही।।आप.।।५३१।।
ॐ ह्रीं महर्षये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ भव धारके आप ‘महितोदया’।
तीर्थंकर नाम से पूज्य धर्मोदया।।आप.।।५३२।।
ॐ ह्रीं महितोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महाक्लेशअंकुश’ परीषहजयी।
क्लेश के नाश हेतू सुअंकुश सही।।आप.।।५३३।।
ॐ ह्रीं महाक्लेशांकुशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शूर’ हो कर्मक्षय दक्ष हो लोक में।
नाथ! मेरे हरो कर्म आनंद हो।।आप.।।५३४।।
ॐ ह्रीं शूराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाभूतपति’ गणधराधीश हो।
नाथ! रक्षा करो आप जगदीश हो।।आप.।।५३५।।
ॐ ह्रीं महाभूतपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आपही हो ‘गुरु’ धर्म उपदेश दो।
तीन जग में तुम्हीं श्रेष्ठ हो सौख्य दो।।आप.।।५३६।।
ॐ ह्रीं गुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महापराक्रम’ के धनी।
केवलज्ञान से सर्ववस्तु भणी।।आप.।।५३७।।
ॐ ह्रीं महापराक्रमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘अनंत’ आपका अंत ना हो कभी।
नाथ! दीजे अनंतों गुणों को अभी।।आप.।।५३८।।
ॐ ह्रीं अनन्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाक्रोधरिपु’ क्रोध शत्रू हना।
सर्व दोषारिनाशा सुमृत्यु हना।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।।।५३९।।
ॐ ह्रीं महाक्रोधरिपवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप इंद्रिय ‘वशी’ लोक तुम वश्य में।
आत्मवश मैं बनूँ चित्त को रोक के।।आप.।।५४०।।
ॐ ह्रीं वशिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! हो ‘महाभवाब्धिसंतारि’ भी।
आप संसार सागर तरा तारते।।आप.।।५४१।।
ॐ ह्रीं महाभवाब्धिसंतारिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही ‘महामोहाद्रिसूदन’ कहे।
मोह पर्वत सुभेदा सुज्ञाता बनें।।आप.।।५४२।
ॐ ह्रीं महामोहाद्रिसूदनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महागुणाकर’ लोक में।
रत्नत्रय की खनी भव्य पूजें तुम्हें।।आप.।।५४३।।
ॐ ह्रीं महागुणाकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्त’ हो सर्वपरिषह उपद्रव सहा।
आपकी भक्ति से हो क्षमा गुण महा।।आप.।।५४४।।
ॐ ह्रीं क्षान्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महायोगिश्वर’ गणधरादी पती।
योगियों में धुरंधर जगत के पती।।आप.।।५४५।।
ॐ ह्रीं महायोगिश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शमी’ शांत परिणाम से विश्व में।
पूर्ण शांती मिले पूजहूँ नाथ! मैं।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।५४६।।
ॐ ह्रीं शमिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाध्यानपति’ शुक्लध्यानीश हो।
शुक्ल परिणाम्ा हों नाथ! वरदान दो।।आप.।।५४७।।
ॐ ह्रीं महाध्यानपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ध्यातमहाधर्म’ सब जीव रक्षा करी।
शुभ अहिंसामयी धर्म के हो धुरी।।आप.।।५४८।।
ॐ ह्रीं ध्यातमहाधर्माय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाव्रत’ प्रभो! पाँच व्रत श्रेष्ठ धर।
पूर्ण होवें महाव्रत बनूूँ मुक्तिवर।।आप.।।५४९।।
ॐ ह्रीं महाव्रताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाकर्म अरिहा’ महावीर हो।
कर्म अरि को हना आप अरिहंत हो।।आप.।।५५०।।
ॐ ह्रीं महाकर्मारिघ्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज स्वरूप विदित ‘आत्मज्ञ’ हो।
सब चराचर लोक सुविज्ञ हो।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५५१।।
ॐ ह्रीं आत्मज्ञाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व देवन मधि ‘महादेव’ हो।
सुर असुर पूजित महादेव हो।।जजतहूँ.।।५५२।।
ॐ ह्रीं महादेवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महत समरथवान ‘महेशिता’।
सकल ऐश्वर धारि जिनेशिता।।जजतहूँ.।।५५३।।
ॐ ह्रीं महेशित्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवक्लेशापह’ दुख नाशिये।
सकल ज्ञान सुधामयसाजिये।।जजतहूँ.।।५५४।।
ॐ ह्रीं सर्वक्लेशापहाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज हितंकर ‘साधु’ कहावते।
स्वपर हित साधन बतलावते।।जजतहूँ.।।५५५।।
ॐ ह्रीं साधवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरबदोषहरा’ जिन आप हो।
सकल गुणरत्नाकर नाथ हो।।जजतहूँ.।।५५६।।
ॐ ह्रीं सर्वदोषहराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हर’ तुम्हीं सब पाप विनाशते।
प्रभु अनंतसुखाकर आप हीे।।जजतहूँ.।।५५७।।
ॐ ह्रीं हराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘असंख्येय’ प्रभु आप ही।
गिन नहीं सकते गुण साधु भीे।।जजतहूँ.।।५५८।।
ॐ ह्रीं असंख्येयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रमेयात्मा’ जिन आप हो।
अनवधी शक्तीधर नाथ हो।।जजतहूँ.।।५५९।।
ॐ ह्रीं अप्रमेयात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘शमात्मा’ शांतस्वरूप हो।
सकल कर्मक्षयी शिवभूप हो।।जजतहूँ.।।५६०।।
ॐ ह्रीं शमात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रगट ‘प्रशमाकर’ शमखानि हों
जगत शांतिसुधा बरसावते।।जजतहूँ.।।५६१।।
ॐ ह्रीं प्रशमाकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवयोगीश्वर’ मुनि ईश हो।
गणधरादि नमावत शीश को।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५६२।।
ॐ ह्रीं सर्वयोगीश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन में तुम ईश! ‘अचिन्त्य’ हो।
नहिं किसी जन के मन चिन्त्य हो।।जजतहूँ.।।५६३।।
ॐ ह्रीं अचिन्त्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘श्रुतात्मा’ सब श्रुतरूप हो।
सकल भाव श्रुतांबुधि चन्द्र हो।।जजतहूँ.।।५६४।।
ॐ ह्रीं श्रुतात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल जानत ‘विष्टरश्रव’ कहे।
धरम अमृतवृष्टि करो सदा।।जजतहूँ.।।५६५।।
ॐ ह्रीं विष्टरश्रवसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वश किया मन ‘दान्तात्मा’ प्रभो।
सुतप क्लेश सहा जिन आपने।।जजतहूँ.।।५६६।।
ॐ ह्रीं दान्तात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘दमतीरथईश’ हो।
सकल इन्द्रियनिग्रह तीर्थ हो।।जजतहूँ.।।५६७।।
ॐ ह्रीं दमतीर्थेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल ध्यात सु ‘योगात्मा’ तुम्हीं।
शुकल योगधरा जिन आपने।।जजतहूँ.।।५६८।।
ॐ ह्रीं योगात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सदा तुम ‘ज्ञानसुसर्वगा’।
जगत व्याप्त किया निज ज्ञान से।।जजतहूँ.।।५६९।।
ॐ ह्रीं ज्ञानसर्वगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रधान’ तुम्हीं त्रय लोक में।
प्रमुख हो निज आतम ध्यान से।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५७०।।
ॐ ह्रीं प्रधानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘आत्मा’ ज्ञान स्वरूप हो।
सकल लोक अलोक सुजानते।।जजतहूँ.।।५७१।।
ॐ ह्रीं आत्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रकृति’ हो तिहुँलोक हितैषि हो।
प्रकृतिरूप धरम उपदेशि हो।।जजतहूँ.।।५७२।।
ॐ ह्रीं प्रकृतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परम’ हो सबमें उत्कृष्ट हो।
परम लक्ष्मीयुत जिनश्रेष्ठ हो।।जजतहूँ.।।५७३।।
ॐ ह्रीं परमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत ‘परमोदय’ जिननाथ हो।
परम वैभव से तुम ख्यात हो।।जजतहूँ.।।५७४।।
ॐ ह्रीं परमोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रक्षीणाबंध’ जिनेश हो।
सकल कर्म विहीन तुम्हीं कहे।।जजतहूँ.।।५७५।।
ॐ ह्रीं प्रक्षीणबंधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘कामारी’ जग सिद्ध।
किया तुम काम महाअरि विद्ध।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।५७६।।
ॐ ह्रीं कामारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘क्षेमकृता’ अभिराम।
जगत् कल्याण किया सुखधाम।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।५७७।।
ॐ ह्रीं क्षेमकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘क्षेमसुशासन’ सिद्ध।
किया मंगल उपदेश समृद्ध।।जजूँ.।।५७८।।
ॐ ह्रीं क्षेमशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणव’ तुमही ओंकार स्वरूप।
सभी मंत्रों मधि शक्तिस्वरूप।।जजूँ.।।५७९।।
ॐ ह्रीं प्रणवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणय’ सबका तुम्ही में प्रेम।
नहीं तुम बिन होता सुख क्षेम।।जजूँ.।।५८०।।
ॐ ह्रीं प्रणयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘प्राण’ जगत् के त्राण।
दिया सब ही को जीवन दान।।जजूँ.।।५८१।।
ॐ ह्रीं प्राणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘प्राणद’ बलदातार।
सभी जन रक्षक नाथ उदार।।जजूँ.।।५८२।।
ॐ ह्रीं प्राणदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणतेश्वर’ भव्यन ईश।
नमें तुमको उनके प्रभु ईश।।जजूँ.।।५८३।।
ॐ ह्रीं प्रणतेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणाम’ तुम्हीं जग ज्ञान धरंत।
तुम्हें भवि प्रा होते भगवंत।।जजूँ.।।५८४।।
ॐ ह्रीं प्रमाणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणिधी’ निधियों के स्वामि।
अनंत गुणाकर अंतर्यामि।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।५८५।।
ॐ ह्रीं प्रणिधये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘दक्ष’ समर्थ सदैव।
करो मुझ कर्म अरी का छेव।।जजूँ.।।५८६।।
ॐ ह्रीं दक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘दक्षिण’ हो सर्व प्रवीण।
सरल अतिशायि महागुणलीन।।जजूँ.।।५८७।।
ॐ ह्रीं दक्षिणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘अध्वर्यु’ सुयज्ञ करंत।
महा शिवमार्ग दिया भगवंत।।जजूँ.।।५८८।।
ॐ ह्रीं अध्वर्यवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अध्वर’ शिवपथ दर्शंत।
सदा ऋजु ही परिणाम धरंत।।जजूँ.।।५८९।।
ॐ ह्रीं अध्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमही ‘आनंद’ अनूप।
मुझे सुखदेव सदा सुखरूप।।जजूँ.।।५९०।।
ॐ ह्रीं आनन्दाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा सबको आनंद करंत।
तुम्हीं प्रभु ‘नंदन’ नाम धरंत।।जजूँ.।।५९१।।
ॐ ह्रीं नंदनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘नन्द’ समृद्धि निधान।
सदा करते तुम ज्ञान सुदान।।जजूँ.।।५९२।।
ॐ ह्रीं नन्दाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘वंद्य’ सुरासुर पूज्य।
सभी वंदन करते अनुकूल्य ।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान्।।५९३।।
ॐ ह्रीं वंद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनिंद्य’ तुम्हीं सब दोष विहीन।
अनंत गुणों के पुंज प्रवीण।।जजूँ.।।५९४।।
ॐ ह्रीं अनिंद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अभिनंदन’ जग आनंद।
प्रशंसित हो त्रिभुवन में वंद्य।।जजूँ.।।५९५।।
ॐ ह्रीं अभिनंदनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘कामह’ काम हनंत।
विषयविषमूर्च्छित को सुखकंद।।जजूँ.।।५९६।।
ॐ ह्रीं कामघ्ने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘कामद’ हो जग इष्ट।
सभी अभिलाष करो तुम सिद्ध।।जजूँ.।।५९७।।
ॐ ह्रीं कामदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोहर ‘काम्य’ सभी जन इष्ट।
तुम्हें नित चाहत साधु गणीश।।जजूँ.।।५९८।।
ॐ ह्रीं काम्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोरथ पूरण ‘कामसुधेनु’।
करो मुझ वांछित पूर्ण जिनेन्द्र।।जजूँ.।।५९९।।
ॐ ह्रीं कामधेनवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अरिंजय’ आप करम अरि जीत।
हरो मुझ कर्म तुम्हीं जगमीत।।जजूँ.।।६००।।
ॐ ह्रीं आरिंजयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु महामुनी से ले करके सौ नाम तुम्हारे जग पूजें।
जो भक्ति वंदना नित्य करें वो भव भव से दुख के छूटें।।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके मेरी भव भव की व्याधि हरो।
प्रभु सात परम स्थान देय, जिनगुण संपत्ती पूर्ण करो।।६।।
ॐ ह्रीं महामुन्यादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
‘असंस्कृतसुसंस्कार’ नामा तुम्हीं।
बिना संस्कारे सुसंस्कृत तुम्हीं।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६०१।।
ॐ ह्रीं असंस्कृतसुसंस्काराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्राकृत’१ तुम्हीं तो स्वभावीक हो।
धरा अष्टमें वर्ष व्रत देश को।।जजूँ.।।६०२।।
ॐ ह्रीं अप्राकृताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘वैकृतांतकृत’ आप ही।
विकारादि दोषा विनाशा तुम्हीं।।जजूँ.।।६०३।।
ॐ ह्रीं वैकृतांतकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अंतकृत’ दु:ख को नाशिया।
जनम मृत्यु का भी समापन किया।।जजूँ.।।६०४।।
ॐ ह्रीं अंतकृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘कांतगू’ श्रेष्ठ वाणी धरो।
मुझे हो वचोसिद्धि ऐसा करो।।जजूँ.।।६०५।।
ॐ ह्रीं कांतगवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महारम्य सुंदर प्रभो! ‘कांत’ हों।
त्रिलोकीपती साधु में मान्य हो।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६०६।।
ॐ ह्रीं कांताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘चिंतामणी’ रत्न हो।
सभी इच्छती वस्तु देते सदा।।जजूँ.।।६०७।।
ॐ ह्रीं चिंतामणये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभीष्टद’ अभीप्सित लहें भक्त ही।
मुझे दीजिये नाथ! मुक्ती मही।।जजूँ.।।६०८।।
ॐ ह्रीं अभीष्टदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न जीते गये हो ‘अजित’ आप हो।
प्रभो! मोह जीतूँ यही शक्ति दो ।।जजूँ.।।६०९।।
ॐ ह्रीं अजिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जितकामअरि’ लोक मेंं।
विषय काम क्रोधादि जीता तुम्हीं।।जजूँ.।।६१०।।
ॐ ह्रीं जितकामारये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमित’ माप होता नहीं आपका।
अनंते गुणों की खनी आप हो।।जजूँ.।।६११।।
ॐ ह्रीं अमिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अमितशासना’ धर्म अनुपम कहा।
मुझे आप सम नाथ कीजे अबे।।जजूँ.।।६१२।।
ॐ ह्रीं अमितशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितक्रोध’ हो आप शांती सुधा।
महा शांति से क्रोध जीता सभी।।जजूँ.।।६१३।।
ॐ ह्रीं जितक्रोधाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितामित्र’ कोई न शत्रु रहा।
प्रभो! आप ही सर्वप्रिय लोक में।।जजूँ.।।६१४।।
ॐ ह्रीं जितामित्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितक्लेश’ सब क्लेश जीता तुम्हीं।
सभी क्लेश मेरे निवारो अबे।।जजूँ.।।६१५।।
ॐ ह्रीं जितक्लेशाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जितांतक’ प्रभो! मृत्यु को नाशियां।
समाधी मिले अंत में भी मुझे।।जजूँ.।।६१६।।
ॐ ह्रीं जितांतकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘जिनेन्द्र’ हो विश्व मेंं
तुम्हीं श्रेष्ठ हो कर्मजयि साधु में।।जजूँ.।।।६१७।।
ॐ ह्रीं जिनेंद्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो आप ही ‘परमआनंद’ हो।
मुझे आत्म आनंद दीजे अबे।।जजूँ.।।६१८।।
ॐ ह्रीं परमानंदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘मुनींद्र’ हो लोक में।
मुनीनाथ मानें नमें साधु भी ।।जजूँ.।।६१९।।
ॐ ह्रीं मुनींद्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘दुंदुभीस्वन’ ध्वनी आपकी।
सुगंभीर दुंदभि सदृश ही खिरे।।जजूँ.।।६२०।।
ॐ ह्रीं दुंदुभिस्वनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महेन्द्रासुवंद्या’ प्रभो आपही।
सभी इंद्र से वंद्य हो पूज्य हो।।जजूँ.।।६२१।।
ॐ ह्रीं महेन्द्रवंद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘योगीन्द्र’ हो विश्व में।
सभी ध्यानियों में तुम्हीं श्रेष्ठ हो।।जजूँ.।।६२२।।
ॐ ह्रीं योगीन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘यतीन्द्रा’ मुनी साधु में।
सदा श्रेष्ठ मानें गणाधीश में।।
जजूँ नाम मंत्रावली भक्ति से।
पिऊँ आत्म पीयूष भी युक्ति से।।६२३।।
ॐ ह्रीं यतीन्द्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘नाभिनन्दन’ तुम्हीं मान्य हो।
नृपति नाभि के पुत्र विख्यात हो।।जजूँ.।।६२४।।
ॐ ह्रीं नाभिनंदनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! आप ‘नाभेय’ हो पूज्य हो।
महानाभिराजा से उत्पन्न हो।।जजूँ.।।६२५।।
ॐ ह्रीं नाभेयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! आप ‘नाभिजा’ शतेंद्रवृन्द पूज्य हो।
त्रिलोक में महान् हो सभासरोज सूर्य हो।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६२६।।
ॐ ह्रीं नाभिजाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अजात’ हो जिनेश! जन्मशून्य आप सिद्ध हो।
मुझे प्रभो! भवाब्धि से निकालिये समर्थ हो।।मुनीन्द्र.।।६२७।।
ॐ ह्रीं अजाताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘सुव्रत’ आप श्रेष्ठ संयमादि धारियो।
महाव्रतादि पूर्ण कीजिये मुझे सुतारियो।।मुनीन्द्र.।।६२८।।
ॐ ह्रीं सुव्रताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘मनू’ समस्त कर्मभूमि को सुथापिया।
कुलंकरों से जन्म लेय तीर्थ चक्र धारिया।।मुनीन्द्र.।।६२९।।
ॐ ह्रीं मनवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘उत्तमा’ त्रिलोक में महान श्रेष्ठ हो।
मुनीशवृन्द पूज्य हो असंख्य जीव ज्येष्ठ हो।।मुनीन्द्र.।।६३०।।
ॐ ह्रीं उत्तमाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अभेद्य’ हो किन्हीं जनों से छेद भेद योग्य ना।
समस्त जन्म मृत्यु रोग नाश के सुखी घना।।मुनीन्द्र.।।६३१।।
ॐ ह्रीं अभेद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनत्ययो’ न नाश हो अनंत काल आपका।
मुझे सुखी सदा करो न अंत हो सुज्ञान का।।मुनीन्द्र.।।६३२।।
ॐ ह्रीं अनत्ययाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनाशवान्’ भोजनादि से विहीन आप हैं।
महान तप किया प्रभो समस्त वीश्वास्य हैं।।मुनीन्द्र.।।६३३।।
ॐ ह्रीं अनाश्वते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अधीक’ उत्कृष्ट आत्मा तुम्हीं कहे।
सुपाय वास्तवीक सौख्य को अधिक तुम्हीं रहें।।मुनीन्द्र.।।६३४।।
ॐ ह्रीं अधिकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक के गुरु ‘अधीगुरु’ तुम्ही महान हो।
नमाय माथ को सदा सुआप को प्रणाम हो।।मुनीन्द्र.।।६३५।।
ॐ ह्रीं अधिगुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुगी’ सुवाणि आपकी अतीव शोभना कही।
अनंत दुख से निकाल मोक्ष में धरे वही।।मुनीन्द्र.।।६३६।।
ॐ ह्रीं सुगिरे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुमेधसा’ महान् बुद्धि से सुकेवली भये।
प्रभो! अपूर्व ज्ञान दो अनंत गुण मिले भये।।मुनीन्द्र.।।६३७।।
ॐ ह्रीं सुमेधसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पराक्रमी समस्त कर्म नाशहेतु शूर हो।
अतेव ‘विक्रमी’ कहावते अपूर्व सूर्य हो।।मुनीन्द्र.।।६३८।।
ॐ ह्रीं विक्रमिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक ‘स्वामि’ हो समस्त भव्य जीव पालते।
अनंत धाम में धरो भवाब्धि से निकालते।।
मुनीन्द्र आप नाममंत्र ध्यावते सुध्यान में।
जजूँ सदैव मैं यहाँ लहूँ निजात्म धाम मैं।।६३९।।
ॐ ह्रीं स्वामिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दुरादिधर्ष’ कोई ना अनादरादि कर सके।
प्रभो! तुम्हीं समस्त भव्य बन्धु हो जगत् विषे।।मुनीन्द्र.।।६४०।।
ॐ ह्रीं दुराधर्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘निरुत्सुको’ तुम्हीं समस्त आश शून्य हो।
सुमुक्तिवल्लभा विषे हि औत्सुक्य पूर्ण हो।।मुनीन्द्र.।।६४१।।
ॐ ह्रीं निरुत्सुकाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विशिष्ट’ आप ही विशेष रूप श्रेष्ठ विश्व में।
गणीन्द्र शीश नावते न फेर विश्व में भ्रमें।।मुनीन्द्र.।।६४२।।
ॐ ह्रीं विशिष्टाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘शिष्टभुक्’ तुम्हीं सुसाधुलोक पालते।
अनिष्ट को निकाल सत्य ज्ञान आप धारते।।मुनीन्द्र.।।६४३।।
ॐ ह्रीं शिष्टभुजे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘शिष्ट’ श्रेष्ठ आचरण तुम्हीं धरा यहाँ।
अशेष मोहशत्रु नाश के अनिष्ट को दहा।।मुनीन्द्र.।।६४४।।
ॐ ह्रीं शिष्टाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! ‘प्रत्ययो’ प्रतीति योग्य आप एकही।
समस्त ज्ञानरूप हो पुनीत पुण्यरुप ही।।मुनीन्द्र.।।६४५।।
ॐ ह्रीं प्रत्ययाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरम्य ‘कामनो’ प्रभो! त्रिलोक चित्तहारि हो।
न आपके समान रूप इंद्र नेत्रहारि हो।।मुनीन्द्र.।।६४६।।
ॐ ह्रीं कामनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनघ’ जिनेश! पापहीन पुण्य के निधान हो।
अनंत जीवराशि आपको नमें प्रमाण हो।।मुनीन्द्र.।।६४७।।
ॐ ह्रीं अनघाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘क्षेमि’ सर्वक्षेम युक्त आप विश्व में।
समस्त रोग शोक दु:ख मेट दो तुम्हें नमें।।मुनीन्द्र।।६४८।।
ॐ ह्रीं क्षेमिणे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘क्षेमंकरो’ त्रिलोक क्षेमकारि हो।
दरिद्र दु:ख मेट सौख्य दो सदैव भारि हो।।मुनीन्द्र.।।६४९।।
ॐ ह्रीं क्षेमंकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘अक्षयो’ तुम्हीं सदैव क्षय विहीन हो।
मुझे अखंडधाम दो सदा स्वयं अधीन जो।।मुनीन्द्र.।।६५०।।
ॐ ह्रीं अक्षयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षेमधरमपति’ क्षेम करो हो, सर्व अमंगल दोष हरो हो।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६५१।।
ॐ ह्रीं क्षेमधर्मपतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘क्षमी’ सुसहिष्णु कहे हो।
श्रेष्ठ क्षमा उपदेश रहे हो।।आप.।।६५२।।
ॐ ह्रीं क्षमिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप जिनेश! ‘अग्राह्य’ कहाते।
अल्प सुज्ञानी जान न पाते।।आप.।।६५३।।
ॐ ह्रीं अग्राह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञान निग्राह्य’ प्रभो! जग में हों।
ज्ञान स्वसंविद से ग्रह ही हो।।आप.।।६५४।।
ॐ ह्रीं ज्ञाननिग्राह्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ज्ञानसुगम्य’ सुध्यान करें जो।
नाथ तभी तुम जान सके वो।।आप.।।६५५।।
ॐ ह्रीं ज्ञानगम्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘निरुत्तर’ आप कहे हो, सर्व जगत् उत्कृष्ट भये हो।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६५६।।
ॐ ह्रीं निरुत्तराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘सुकृती’ तुम पुण्य धरन्ता।
पुण्य करें जन भक्ति करन्ता।।आप.।।६५७।।
ॐ ह्रीं सुकृतिने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘धातु’ तुम्हीं सब शब्द जनंता।
चिन्मय धातु तनू भगवंता।।आप.।।६५८।।
ॐ ह्रीं धातवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘इज्यार्ह’ कहाये।
इन्द्र मुनी गण पूज्य सुगायें।।आप.।।६५९।।
ॐ ह्रीं इज्यार्हाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘सुनय’ सहपेक्ष नयों से।
सत्य सुधर्म कहा अति नीके।।आप.।।६६०।।
ॐ ह्रीं सुनयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीसुनिवास’ तुम्हीं प्रभु माने।
सम्पति धाम तुम्हें मुनि जाने।।आप.।।६६१।।
ॐ ह्रीं श्रीसुनिवासाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘चतुरानन’ ब्रह्मा।
दीख रहे मुख चार सभा मा।।आप.।।६६२।।
ॐ ह्रीं चतुराननाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘चतुर्वक्त्र’ तुमको सुर पेखें।
नाथ! समोसृति में तुम देखें।।आप.।।६६३।।
ॐ ह्रीं चतुर्वक्त्राय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘चतुरास्य’ तुम्हें भवि वंदे।
जन्म जरामृति तीनहिं खंडे।।आप.।।६६४।।
ॐ ह्रीं चतुरास्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘चतुर्मुख’ चौमुख धर्ता, द्वादश गण जनता मन हर्ता।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६६५।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुखाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यात्मा’ प्रभु सत्य स्वरूपी।
दिव्य ध्वनी मय वाक्य निरूपी।।आप.।।६६६।।
ॐ ह्रीं सत्यात्मने नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यविज्ञान’ प्रभो! तुम ही हो।
केवलज्ञान लिये चिन्मय हो।।आप.।।६६७।।
ॐ ह्रीं सत्यविज्ञानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसुवाक्’ प्रभो सत भंगी।
वाक्यसुधा तुम गंगतरंगी।।आप.।।६६८।।
ॐ ह्रीं सत्यवाचे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसुशासन’ नाथ तुम्हारा।
भव्य जनों हित एक सहारा।।आप.।।६६९।।
ॐ ह्रीं सत्यशासनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्याशिष्’ शुभ आशिस् देते।
सर्व अमंगल भी हर लेते।।आप.।।६७०।।
ॐ ह्रीं सत्याशिषे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यसुसन्धान’ सुविभु नामा।
सत्य प्रतिज्ञ तुम्हें सुर माना।।आप.।।६७१।।
ॐ ह्रीं सत्यसंधानाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्य’ प्रभो! तुम सत्पथदर्शी।
भव्य जनों हित वाक्य प्रदर्शी।।आप.।।६७२।।
ॐ ह्रीं सत्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सत्यपरायण’ नाथ! हितैषी।
तीन जगत के हित उपदेशी।।आप.।।६७३।।
ॐ ह्रीं सत्यपरायणाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्थेयान्’ प्रभु नित स्थिर हो, नाथ! मुझे स्थिर धाम दिला दो।
आप सुनाम जजूँ मन लाके, सर्व अमंगल दूर भगाके।।६७४।।
ॐ ह्रीं स्थेयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्थवीयान्’ प्रभु आप बड़े हो।
सर्व गणी गण में भि बड़े हो।।आप.।।६७५।।
ॐ ह्रीं स्थवीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘नेदिययान’ निज भक्तन के।
अति सन्निधि हो मन में बसते।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६७६।।
ॐ ह्रीं नेदीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘दवीयान्’ पाप हना।
निज आत्म सुधारस पीय घना।।तुम.।।६७७।।
ॐ ह्रीं दवीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दूरसुदर्शन’ हो तुम ही।
अणुरूप नहीं मुनि के मन ही।।तुम.।।६७८।।
ॐ ह्रीं दूरदर्शनाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम नाथ! ‘अणोरणियान्’ कह्यो।
अति सूक्ष्म योगि सुगोचर हो।।तुम.।।६७९।।
ॐ ह्रीं अणोरणीयसे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनणू’ तुम ज्ञान शरीर कहे।
अणु-पुद्गल नाहिं महान् कहें।।तुम.।।६८०।।
ॐ ह्रीं अनणवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गुरुराद्यगरीयस’ के जग में।
गुरुओं मधि श्रेष्ठ गुरु प्रभु हैं।।तुम.।।६८१।।
ॐ ह्रीं गरीयसामाद्यगुरवे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सदयोग’ सदा तुम योग धरा।
सब योगि सदा तुम ध्यान धरा।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६८२।।
ॐ ह्रीं सदायोगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सदभोग’ सुपुष्प सदा बरसें।
सुर दुंदुभि आदि करें हरसें।।तुम.।।६८३।।
ॐ ह्रीं सदाभोगाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सद्तृप्त’ सदाप्रभु तृप्त रहो।
क्षुध प्यास नहीं प्रभु तुष्ट रहो।।तुम.।।६८४।।
ॐ ह्रीं सदातृप्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदाशिव’ हो जग में।
नहिं कर्म कलंक छुआ तुमने।।तुम.।।६८५।।
ॐ ह्रीं सदाशिवाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदागति’ ज्ञानमयी।
गति पंचम मोक्ष लिया तुमही।।तुम.।।६८६।।
ॐ ह्रीं सदागतये नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सदसौख्य’ सदा प्रभु सौख्य लह्यो।
सब सात असात सुखादि हर्यो।।तुम.।।६८७।।
ॐ ह्रीं सदासौख्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सदाविद्य’ हो जगमें।
शुचि केवलज्ञान धरो निज में।।तुम.।।६८८।।
ॐ ह्रीं सदाविद्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिननाथ! ‘सदोदय’ आप रहें।
नित उदितरूप रवि आप कहें।।तुम.।।६८९।।
ॐ ह्रीं सदोदयाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ध्वनि उत्तमनाथ! ‘सुघोष’ तुम्हीं।
इक योजन जीव सुनें सबहीं।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६९०।।
ॐ ह्रीं सुघोषाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुमुख’ सुंदर मुख हो।
विकसंत कमल मंदस्मित हो।।तुम.।।६९१।।
ॐ ह्रीं सुमुखाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सौम्य’ तुम्हीं शशि सुंदर हो।
तुम गावत गीत पुरंदर हो।।तुम.।।६९२।।
ॐ ह्रीं सौम्याय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुखदं’ सब जीव शुभंकर हो।
सुखदायि जिनेश्वर आपहि हो।।तुम.।।६९३।।
ॐ ह्रीं सुखदाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुहितं’ प्रभु सर्वहितंकर हो।
मुझको निज दास करो शिव हो।।तुम.।।६९४।।
ॐ ह्रीं सुहिताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुहृत्’ सबके मितु हो।
मुझ चित्त बसों सब ही वश हों।।तुम.।।६९५।।
ॐ ह्रीं सुहृदे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुगुप्त’ सुरक्षित हो।
तुम भक्त सभी अरि रक्षित हों।।तुम.।।६९६।।
ॐ ह्रीं सुगुप्ताय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गुप्तिभृता’ त्रयगुप्ति धरी।
तुम भक्ति किया मुझ धन्य घरी।।तुम.।।६९७।।
ॐ ह्रीं गुप्तिभृते नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘गोप्ता’ रक्षक हो जग के।
मुझ पे अब नाथ कृपा कर दे।।
तुम नाम सुमंत्र जपूँ नित ही।
भव वारिध पार करो अब ही।।६९८।।
ॐ ह्रीं गोप्त्रे नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘लोकअघ्यक्ष’ त्रिलोकपती।
मुझ व्याधि उपाधि हरो जलदी।।तुम.।।६९९।।
ॐ ह्रीं लोकाध्यक्षाय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘दमेश्वर’ हो नित ही।
सब इंद्रिय जीत अतीन्द्रिय ही।।तुम.।।७००।।
ॐ ह्रीं दमेश्वराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु असंस्कृतादि से लेकर सौ नाम पढ़े जो भव्य सदा
सब भूत पिशाच उपद्रव भी नश जांय सभी नशती विपदा।।
ज्वर कुष्ठ भंगदर कामल आदिक रोग सभी नशते क्षण में।
पूर्णार्घ चढ़ाकर वंदत हूँ प्रभु आप बसो नित मुझ मन में।।७।।
ॐ ह्रीं असंस्कृतसुसंस्कारादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
‘बृहद्वृहस्पति’ प्रभु नाम है। सुरपति के गुरु सरनाम हैं।
पूजते ही मिले मोक्षधाम है। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों को होवे खातामा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नितही।।७०१।।
ॐ ह्रीं बृहद्वृहस्पतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वाग्मी’ तुम्हीं त्रिभुवन में। शुभवचन द्वादशों गण में।
पूजते पाप नश जाय क्षण में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों को होवे खातामा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नितही।।७०२।।
ॐ ह्रीं वाग्मिने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘वाचस्पती’ आप जग में। वचनों के स्वामी सहज में।
नाम लेते मिले शांति मन में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०३।।
ॐ ह्रीं वाचस्पतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम नाम ‘उदारधी’ है। ज्ञानदान का मूल वही है।
पूजते आप सुख ही मही हैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०४।।
ॐ ह्रीं उदारधिये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘मनीषी’ कहाये। केवलज्ञान सद्बुुद्धि पाये।
शत इंद्र सदा गुण गायें। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०५।।
ॐ ह्रीं मनीषिणे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आपको ही ‘धिषण’ साधु कहते। सर्वज्ञानैक बुद्धी धरते।
भक्त पूजत स्वपर ज्ञान लहते। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०६।।
ॐ ह्रीं धिषणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘धीमान्’ त्रैलोक्य में हैं। ज्ञान पंचम धरें श्रेष्ठ ही हैं।
भक्त भी स्वात्म ज्ञानी बने हैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०७।।
ॐ ह्रीं धीमते ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शेमुषीश’ आप ही हैं। सर्व ही ज्ञान के नाथ ही हैं।
दीजिये अब मुझे सुमती है। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०८।।
ॐ ह्रीं शेमुषीशाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘गिरांपति’ जग में। सर्वभाषामयी ध्वनि भवि में।
हो सत्य महाव्रत मुझमें। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७०९।।
ॐ ह्रीं गिरांपतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘नैकरूप’ मुनिगण में। विष्णु ब्रह्म महेश्वर सच में।
भक्त नाशें करमरिपु क्षण में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१०।।
ॐ ह्रीं नैकरूपाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘नयोत्तुंग’ मानें। सब नयों में श्रेष्ठ बखानें।
मन अनेकांत सरधाने। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७११।।
ॐ ह्रीं नयोत्तुंगाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नैकात्मा’ तुम्हीं त्रिभुवन में। गुण बहुते धरें प्रभु निज में।
गुणपूर्व भरूँ मैं निज में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१२।।
ॐ ह्रीं नैकात्मने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘नैकधर्मकृत्’ तुम हो। बहुधर्म वस्तु के कहहो।
निजधर्म अनंत मुझे हों। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१३।।
ॐ ह्रीं नैकधर्मकृते ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अविज्ञेय’ ही हो। जन जानन योग्य नहीं हो।
मुझ आत्म स्वभाव प्रगट हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ म् नित ही।।
आवो पूजें.।।७१४।।
ॐ ह्रीं अविज्ञेयाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘अप्रतर्क्यात्मा’ । न तर्कादि गोचर महात्मा।
मुझे कीजे तुरत अंतरात्मा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१५।।
ॐ ह्रीं अप्रतर्क्यात्मने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘कृतज्ञ’ कहे हो। सभी कृत्य तुम्हीं जानते हो।
नाथ! मुझमें यही गुण प्रगट हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें जिनेश्वर नामा। जिससे पावें निजातम धामा।
सर्व कर्मों को होवे खातामा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नितही।।७१६।।
ॐ ह्रीं कृतज्ञाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृतलक्षण’आप भुवन में। वस्तु लक्षण कहते हो ध्वनि में।
मैं धारूँ सुलक्षण हृदय में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१७।।
ॐ ह्रीं कृतलक्षणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘ज्ञानगर्भ’ तुमही हो। सब ज्ञेय सुज्ञान मही हो।
मेरा भी ज्ञान सही हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१८।।
ॐ ह्रीं ‘ज्ञानगर्भाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘दयागर्भ’ त्रिभुवन में। तुम दयासिंधु भविजन में।
मैं धरूँ दया निजपर में। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७१९।।
ॐ ह्रीं दयागर्भाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘रत्नगर्भ’ मुनि नाथा। रत्नवर्षे पंचदश मासा।
मैं नमूँ नमाकर माथा। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२०।।
ॐ ह्रीं रत्नगर्भाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘प्रभास्वर’ ही हो। त्रैलोक्य प्रकाशि रवी हो।
मुझ हृदय ज्ञान ज्योति हो।सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२१।।
ॐ ह्रीं प्रभास्वराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘पद्मगर्भ’ तुम सच में। रहे कमलाकार गरभ मेंं।
लहूँ गर्भ प्रभो! तुम सम मैं। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२२।।
ॐ ह्रीं पद्मगर्भाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘जगद्गर्भ’ तुम भासें। तुम ज्ञान में जग प्रतिभासे।
हो ज्ञान मेरा तम नाशे। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२३।।
ॐ ह्रीं जगद्गर्भाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘हेमगर्भ’ तुम ही हो। गर्भ बसत स्वर्णमय भू हो।
मुझ रोग शोक हर तुम हो। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें. ।।७२४।।
ॐ ह्रीं हेमगर्भाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘सुदर्शन’ मानें। तुम दर्शन सुखकर जानें।
पूजत सब संकट हानें। सुनाम मंत्र अर्चन करूँ मैं नित ही।।
आवो पूजें.।।७२५।।
ॐ ह्रीं सुदर्शनाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘लक्ष्मीवन्’ भुवि गुरु हो।
अन्तर बहि संपद धर जिन हो।।
तुुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद्र विनाश, अतुलनिधि हो।।७२६।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीवते ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘त्रिदशाध्यक्ष’ सुर गणपति हो।
त्रिभुवन धर भानु अतुल रवि हो।।तुम.।।७२७।।
ॐ ह्रीं त्रिदशाध्यक्षाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अतुल ‘दृढ़ीयन्’ इस जग में।
नहिं तुम सम हों दृढ़ मुनि जग में।।
तुुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद्र विनाश, अतुलनिधि हो।।७२८।।
ॐ ह्रीं दृढीयसे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब त्रिभुवन ईश तुमहि ‘इन’ हो।
मुझ सब अघ नाशत सुखप्रद हो।।तुम.।।७२९।।
ॐ ह्रीं इनाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समरथयुत ‘ईशित’ तुमहि कहे।
मुझ अहित निवारण तुम पद हैं।।तुम.।।७३०।।
ॐ ह्रीं ईशित्रे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘मनोहर’ त्रिभुवन में।
हरि हर परब्रह्म न तुम सम हैं।।तुम.।।७३१।।
ॐ ह्रीं मनोहराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु सुभग ‘मनोज्ञांग’ अतिशय ही।
भवि जपत तुम्हें दुख विनशत ही।।तुम.।।७३२।।
ॐ ह्रीं मनोज्ञांगाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय धृति ‘धीर’ भविक गण में।
तुम जपत हि पीर टरत क्षण में।।तुम.।।७३३।।
ॐ ह्रीं धीराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय ‘गंभीर शासन’ जग में।
शिवपद कर धर्म शरण जग में।।तुम.।।७३४।।
ॐ ह्रीं गंभीरशासनाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभय ‘धरमयूप’ शुभ धरम हो।
सुर सुखप्रद नाथ! मुकति गृह हो।।तुम.।।७३५।।
ॐ ह्रीं धर्मयूपाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘दयायाग’ सुखप्रद हो।
सब अशुभ हरो सुअभयप्रद हो।।तुम.।।७३६।।
ॐ ह्रीं दयायागाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखद ‘धर्मनेमि’ जिनवर हों।
इसजग मधि आप, धरम धुरि हो।।तुम.।।७३७।।
ॐ ह्रीं धर्मनेमये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘मुनीश्वर’ मुनिपति हो।
सब गुण मणि भूषित सुखनिधि हो।।तुम.।।७३८।।
ॐ ह्रीं मुनीश्वराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘धरमचक्रायुध’ यम अरि हो।
तुम दरसन से मुझ अघ क्षय हो।।तुम.।।७३९।।
ॐ ह्रीं धर्मचक्रायुधाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निजगुणरत ‘देव’ सुरगप्रद हो।
मुझ गुणमणि देव परमगति हो।।तुम.।।७४०।।
ॐ ह्रीं देवाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुखद ‘कर्महा’ अघरिपु हन हो।
समरस सुखदा शिव तियपति हो।।तुम.।।७४१।।
ॐ ह्रीं कर्मघ्ने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘धर्मघोषण’ शिव भरता।
अतिशय शिव के गुणमणि करता।।तुम.।।७४२।।
ॐ ह्रीं धर्मघोषणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘अमोघवच’ जगत में।
तुम विरथ न वाक्य कबहुँ सच में।।तुम.।।७४३।।
ॐ ह्रीं अमोघवाचे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन मधि ‘अमोघाज्ञ’ तुमहि हो।
निष्फल नहिं आज्ञा सुर शिर धर्यो।। तुम.।।७४४।।
ॐ ह्रीं अमोघाज्ञाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु जिनवर ‘निर्मल’ शुचिकर हो।
मल विरहित कर्म रहित शिव हो।।
तुुम जजत सुनाम सकल सुख हो।
दुख दरिद्र विनाश, अतुलनिधि हो।।७४५।।
ॐ ह्रीं निर्मलाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवर सु ‘अमोघशासन’ तुम हो।
नहिं निष्फल शासन कबहुंक हो।। तुम.।।७४६।।
ॐ ह्रीं अमोघशासनाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमहि ‘सुरूप’ असुर सुर में।
नहिं तुम सम रूप दिखत जग में।। तुम.।।७४७।।
ॐ ह्रीं सुरूपाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम ‘सुभग’ महाप्रभु अतिशय हो।
बहुविध शुभ ऐश्वर गुण युत हो।। तुम.।।७४८।।
ॐ ह्रीं सुभगाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब कुछ पर त्याग वनन विचरें।
जिनवर तुम ‘त्यागी’ सुरन उचरें।। तुम.।।७४९।।
ॐ ह्रीं त्यागिने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वपर जानकर शिव भये।
अनुपम प्रभु ‘ज्ञातृ’ शिवपद भये।। तुम.।।७५०।।
ॐ ह्रीं ज्ञात्रे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘समाहित’ सुसमाधि ध्यानी, प्राणी समाधान लहें तुम्हीं से।
पूजूँ सदा नाम सुमंत्र वंदूूँ, मोहारिशत्रू क्षण में नशेगा।।७५१।।
ॐ ह्रीं समाहिताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘सुस्थित’ सुख से निवासा।
मुक्तीरमा आप स्वयं वरे हैं।।पूजूँ.।।७५२।।
ॐ ह्रीं सुस्थिताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरोग्य आत्मा प्रभु ‘ स्वास्थ्यभाक्’ हो।
संसार व्याधी नहिं पूर्णस्वस्था।।पूजूँ.।।७५३।।
ॐ ह्रीं स्वास्थ्यभाजे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘स्वस्थ’ स्वामी भवरोग नाहीं।
आत्मस्थ हो सर्वविकार शून्या।।पूजूँ.।।७५४।।
ॐ ह्रीं स्वस्थाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नीरजस्को’ नहिं कर्मधूली।
मेरे प्रभो! कर्म समूल नाशो।।पूजूँ.।।७५५।।
ॐ ह्रीं नीरजस्काय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निरूद्धव’ जग में कहाते।
संपूर्ण ही उत्सव इंद्र कीने।।पूजूँ.।।७५६।।
ॐ ह्रीं निरुद्धवाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरे सभी लेप हटाय दीजे।।पूजूँ.।।७५७।।
ॐ ह्रीं अलेपाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘निष्कलंकात्मन्’ इन्द्र पूजें।
मैं भी सदा शीश नमाय वंदूूँ।।पूजूँ.।७५८।।
ॐ ह्रीं निष्कलंकात्मने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वीतरागी’ गतराग द्वेषा।
रागादि मेरे मन से हटा दो।।पूजूँ.।।७५९।।
ॐ ह्रीं वीतरागाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘गतस्पृह’ तुम ही यहाँ पे।
इच्छा निवारी जग के गुरु हो।।पूजूँ.।।७६०।।
ॐ ह्रीं गतस्पृहाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सु ‘वश्येन्द्रिय’ आप ही हो।
पाँचों हि इन्द्री वश में किया था।।पूजूँ.।।७६१।।
ॐ ह्रीं वश्येन्द्रियाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानें ‘विमुक्तात्मन्’ आप ही हैं।
कर्मारि बन्धन तुम काट डाले।।
पूजूँ सदा नाम सुमंत्र वंदूूँ।
मोहारिशत्रू क्षण में नशेगा।।७६२।।
ॐ ह्रीं विमुक्तात्मने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नि:सपत्ना’ नहिं शत्रु कोई।
संपूर्ण प्राणी तुम मित्र मानें।।पूजूँ.।।७६३।।
ॐ ह्रीं नि:सपत्नाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जीता स्व इन्द्रीय ‘जितेन्द्रियों’ हो।
जीतूं स्व इन्द्री प्रभु शक्ति देवों।।पूजूँ.।।७६४।।
ॐ ह्रीं जितेंद्रियाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्पूर्ण शांतीश ‘प्रशांत’ माने।
वंदूँ तुम्हें शांति मिले मुझे भी।।पूजूँ।।७६५।।
ॐ ह्रीं प्रशांताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आनन्तधामर्षि’ ऋषी गणों में।
तेजस्विता आप अनंत धारो।।पूजूँ.।।७६६।।
ॐ ह्रीं अनंतधामर्षये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी यहाँ ‘मंगल’ आप ही हैं।
नाशो अमंगल भवि प्राणियों के।।पूजूँ.।।७६७।।
ॐ ह्रीं मंगलाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पापारि नाशा ‘मलहा’ कहाये।
सम्पूर्ण धोये मल कर्म जैसे।।पूजूँ.।।७६८।।
ॐ ह्रीं मलघ्ने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अनघ’ पाप निमूल नाशा।
कीजे सभी पाप विनाश मेरा।।पूजूँ.।।७६९।।
ॐ ह्रीं अनघाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हूये ‘अनीदृक्’ नहिं आप जैसा।
इन्द्रादि वन्दे रुचि से तुम्हें ही।।पूजूँ.।।७७०।।
ॐ ह्रीं अनीदृशे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ! ‘उपमाभुत’ इन्द्र भी तो।
दें आप की तो उपमा तुम्हीं से।।पूजूँ.।।७७१।।
ॐ ह्रीं उपमाभूताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो भव्य भाग्योदय हेतु स्वामी।
‘दिष्टी’ कहाते जग में इसी से ।।पूजूँ.।।७७२।।
ॐ ह्रीं दिष्टये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘दैव’ प्राणी शुभ भाग्य होते।
वंदूँ तुम्हें दैव समस्त नाशूँ।।पूजूँ.।।७७३।।
ॐ ह्रीं दैवाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैवल्यज्ञानी नभ में विहारी।
होते ‘अगोचर’ नहिं सर्व जानें।।पूजूँ.।।७७४।।
ॐ ह्रीं अगोचराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रूपादि से शून्य ‘अमूर्त’ स्वामी।
आत्मा अमूर्तीक मिले मुझे भी।।पूजूँ.।।७७५।।
ॐ ह्रीं अमूर्ताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मूर्तीमन्’ की पूजा करिये, नाहीं मन में शंका धरिये।
नामावलि को पूजूँ नित ही, व्याधी तन से भागे झट ही।।७७६।।
ॐ ह्रीं मूर्तिमते ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘एक’ तुम्हें ही साधू कहते।
दूजा नहिं कोई भी तुमसे।।नामा.।।७७७।।
ॐ ह्रीं एकाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नानागुण की पूर्ती तुम में,स्वामी तुम ही ‘नैक’ जगत में।।
नामावलि को पूजूँ निज ही, व्याधी तन से भागे झट ही।।७७८।।
ॐ ह्रीं नैकाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘नानैकतत्त्वदृक्’ तुम ही।
आत्मा तज ना देखे कुछ ही।।नामा.।।७७९।।
ॐ ह्रीं नानैकतत्त्वदृशे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अध्यातमगम्या’ हो प्रभु जी।
आत्म ग्रंथ से जाने मुनि जी।।नामा.।।७८०।।
ॐ ह्रीं अध्यात्मगम्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माने ‘अगम्यात्मा’ तुम हो।
मिथ्यादृश ना जाने तुम को।।नामा.।।७८१।।
ॐ ह्रीं अगम्यात्मने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘योगविद्’ की जो श्ारणे।
मुक्ती तिय को निश्चित परणे।।नामा.।।७८२।।
ॐ ह्रीं योगविदे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘योगिवंदित’ हो जग में।
योगी जन ध्याते भी मन में।।नामा.।।७८३।।
ॐ ह्रीं योगिवंदिताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वत्रग’ व्यापा त्रै जग को।
सो ही ज्ञान अपेक्षा समझो।।नामा.।।७८४।।
ॐ ह्रीं सर्वत्रगाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘सदाभावी’ हो जग में।
तिष्ठो नित ना नाश स्वपन में।।नामा.।।७८५।।
ॐ ह्रीं सदाभाविने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘त्रिकालविषयार्थ’ सुदृक् ही।
त्रैकालिक जाना सब कुछ ही ।।नामा.।।७८६।।
ॐ ह्रीं त्रिकालविषयार्थदृशे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंकर’ भी भव्यन सुख दो।
नाशो मुझ दोषादी दुख को।।नामा.।।७८७।।
ॐ ह्रीं शंकराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शंवद’ शं सौख्यंकर ही।
तीनों जग में वंदे मुनि भी।।नामा.।।७८८।।
ॐ ह्रीं शंवदाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! चित्त अश्व का जीता।
‘दांत’ कहाये धर्म समेता।।नामा.।।७८९।।
ॐ ह्रीं दांताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! दमी इंद्रियाँ दमते।
पूरी मन की इच्छा करते।।नामा.।।७९०।।
ॐ ह्रीं दमिने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्तिपरायण’ मानें तुमही।
ध्याते तुम को मृत्यू नश ही।।नामा.।।७९१।।
ॐ ह्रीं क्षान्तिपरायणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘अधिप’ बखाने जग में।
इंद्रादिक पूजें आनंद में।।नामा.।।७९२।।
ॐ ह्रीं अधिपाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘परमानंद’ तृपत हो।
आत्मा मुझ आनंद मगन हो।।नामा.।।७९३।।
ॐ ह्रीं परमानंदाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो नाथ! ‘परात्मज्ञ’ अतुल ही।
जाना पर को आत्मा निज भी।।नामा.।।७९४।।
ॐ ह्रीं परात्मज्ञाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो आप ‘परात्पर’ भी जग में।
श्रेष्ठों मधि श्रेष्ठाधिप सब में।।नामा.।।७९५।।
ॐ ह्रीं परात्पराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगद्वल्लभ’ तुम हो,तीनों जग में मनभावन हो।।
नामावलि को पूजूँ निज ही, व्याधी तन से भागे झट ही।।७९६।।
ॐ ह्रीं त्रिजगद्वल्लभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी तुम ‘अभ्यर्च्य’ सुरन से।
सौ इंद्रन से साधू गण से।।नामा.।।७९७।।
ॐ ह्रीं अभ्यर्च्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘त्रिजगन्मंगलोदय’ हो।
तीनों जग में मंगल कर हो।।नामा.।।७९८।।
ॐ ह्रीं त्रिजगन्मंगलोदयाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्री’ तुम हो।
सौ इंद्रन से पूज्य चरण हो।।नामा.।।७९९।।
ॐ ह्रीं त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रीलोकाग्रशिखामणि’ जिन हो।
लोक शिखर के चूड़ामणि हो।।नामा.।।८००।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकाग्रशिखामणये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वृहद्वृहस्पति आदि नाम सौ, भक्ति भाव से नित मैं पूजूँ।
सर्व अमंगल दोष नशाकर, आधि व्याधि संकट से छूटूँ।।
भूत प्रेत डाकिनि शाकिनि भी, तुम भक्तों से दूर भगे हैं।
नि नव मंगल संपति संतति यश भाग्योदय श्रेष्ठ जगे हैं।।८।।
ॐ ह्रीं वृहद्वृहस्पतयादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
स्वामी ‘त्रिकालदर्शी’ हो, सभी पदार्थ देखते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०१।।
ॐ ह्रीं त्रिकालदर्शिने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘लोकेश’ माने हो, तीन लोक प्रभु कहे।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०२।।
ॐ ह्रीं लोकेशाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘लोकधाता’ तुम्हीं माने, तीनों जगत् पोषते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०३।।
ॐ ह्रीं लोकधात्रे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘दृढव्रत’ व्रतों में, स्थैर्य धारते।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०४।।
ॐ ह्रीं दृढव्रताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वलोकातिग’ स्वामिन्! सभी जग में श्रेष्ठ हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०५।।
ॐ ह्रीं सर्वलोकातिगाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा के योग्य हो स्वामिन्! ‘पूज्य’ माने सभी सदा।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०६।।
ॐ ह्रीं पूज्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभीष्ट में पहुँचाते, ‘सर्वलोवैâकसारथी’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०७।।
ॐ ह्रीं सर्वलोवैâकसारथये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्राचीन सबमें ही हो, माने ‘पुराण’ आपको।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०८।।
ॐ ह्रीं पुराणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुणों को श्रेष्ठ आत्मा के, पाया ‘पुरूष’ आप हैं।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८०९।।
ॐ ह्रीं पुरुषाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व प्रथम होने से ‘पूर्व’ माने तुम्हीं प्रभो!।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१०।।
ॐ ह्रीं पूर्वाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंग पूर्वादि विस्तारे, ‘कृतपूर्वांग-विस्तर:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८११।।
ॐ ह्रीं कृतपूर्वांगविस्तराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवों में मुख्य होने से, ‘आदिदेव’ तुम्हीं कहे।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१२।।
ॐ ह्रीं आदिदेवाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुराणाद्य’ प्रभो! माने, प्राचीनों में सुआदि हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१३।।
ॐ ह्रीं पुराणाद्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पुरुदेव’ तुम्हीं माने, श्रेष्ठ देव महान हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१४।।
ॐ ह्रीं पुरुदेवाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देवों के देव होने से, तुम्हीं हो ‘अधिदेवता’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१५।।
ॐ ह्रीं अधिदेवतायै ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगमुख्य’ युगादी के, माने प्रधान आप हैं।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१६।।
ॐ ह्रीं युगमुख्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘युगज्येष्ठ’ कहे स्वामी, युग में सर्व श्रेष्ठ हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१७।।
ॐ ह्रीं युगज्येष्ठाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
युगादी में उपदेशा, ‘युगादिस्थितिदेशक:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१८।।
ॐ ह्रीं युगादिस्थितिदेशकाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणवर्ण’ कांती से, सुवर्ण सम हो तुम्हीं।।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८१९।।
ॐ ह्रीं कल्याणवर्गाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘कल्याण’ भव्यों के, हितकर्ता प्रसिद्ध हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२०।।
ॐ ह्रीं कल्याणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्य’ नीरोग होने से, तत्पर मुक्ति हेतु हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२१।।
ॐ ह्रीं कल्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लक्षण हितकारी हैं, अत: ‘कल्याणलक्षण:’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२२।।
ॐ ह्रीं कल्याणप्रकृतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कल्याणप्रकृती’ स्वामी, हो कल्याण स्वभाव ही।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२३।।
ॐ ह्रीं कल्याणप्रकृतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णवत् प्रभु दीप्तात्मा, ‘दीप्रकल्याणआतमा’।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२४।।
ॐ ह्रीं दीप्रकल्याणात्मने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विकल्मष’ तुम्हीं स्वामी, कालिमाकर्म शून्य हो।
नाम मंत्र जजूँ प्रीत्या, आत्म सौख्य सुधा मिले।।८२५।।
ॐ ह्रीं विकल्मषाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म कलंकादी निरमुक्ता, हो ‘विकलंका’ कर्म हरो मे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२६।।
ॐ ह्रीं विकलंकाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देह कला से हीन रहे हो ,नाथ! ‘कलातीते’ जग में हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२७।।
ॐ ह्रीं कलातीताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘कलिलघ्न’ तुम्हीं अघ हीना, पाप हमारे क्षालन कीजे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२८।।
ॐ ह्रीं कलिलघ्नाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘कलाधर’ सर्व कला से, पूर्ण तुम्हीं हो सर्व गुणों से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८२९।।
ॐ ह्रीं कलाधराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘देवदेव’ हो तीन जगत् में, नाथ! सुदेवों के अधिदेवा।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३०।।
ॐ ह्रीं देवदेवाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगन्नाथा’ जगस्वामी, जन्म मरण के दु:ख हरोगे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३१।।
ॐ ह्रीं जगन्नाथाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘जगद्बंधू’ भवि बंधू, भव्यजनों के पूर्ण हितैषी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३२।।
ॐ ह्रीं जगद्बंधवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘जगद्विभु’ तीन भुवन में, पालक हो सामर्थ्य समेता।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३३।।
ॐ ह्रीं जगद्विभवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘जगत्’ हितैषी तीन जगत में, सर्वजनों को सौख्य दिया है।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३४।।
ॐ ह्रीं जगद्वितैषिणे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप कहे ‘लोकज्ञ’ जगत् को, जान लिया है पूर्ण तरह से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३५।।
ॐ ह्रीं लोकज्ञाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सर्वग’ तीनों लोक सभी में, व्याप्त हुये ये ज्ञान किरण से।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३६।।
ॐ ह्रीं सर्वगाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘जगदग्रज’ ज्येष्ठ जगत में, सर्व दुखों को दूर करोगे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३७।।
ॐ ह्रीं जगदग्रजाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘चराचरगुरु’ कहे हो, स्थावर त्रस के पालक भी हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३८।।
ॐ ह्रीं चराचरगुरवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गोप्य’ मुनी रक्खें मन में ही, नाथ! करो रक्षा अब मेरी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८३९।।
ॐ ह्रीं गोप्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभु ‘गूढ़ात्मा’ तुम आत्मा, गोचर इन्द्री के नहिं होती।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४०।।
ॐ ह्रीं गूढ़ात्मने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘गूढ़ सुगोचर’ गूढ़ तुम्हीं हो, योगिजनों के गम्य तुम्हीं हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४१।।
ॐ ह्रीं गूढ़गोचराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे प्रभु ‘सद्योजात’ कहे हो, तत्क्षण जन्में रुप रहे हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४२।।
ॐ ह्रीं सद्योजाताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ‘प्रकाशात्मा’ मुनि मानें, ज्ञान सुज्योती रूप बखानें।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४३।।
ॐ ह्रीं प्रकाशात्मने ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘ज्वलज्जलनसप्रभ’ हो, अग्निप्रभा सी कांति धरे हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४४।।
ॐ ह्रीं ज्वलज्जलनसप्रभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रविव्रत् ‘आदित्यवरण’ स्वामी, हो प्रभु तेजस्वी जग नामी।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४५।।
ॐ ह्रीं आदित्यवर्णाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्ण छवी ‘भर्माभ’ कहाये, देह दिपे भास्वत् शरमाये।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४६।।
ॐ ह्रीं भर्माभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सुप्रभ’ शोभे कांति तुम्हारी, सूर्य शशी क्रोड़ों लजते हैं।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४७।।
ॐ ह्रीं सुप्रभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘कनकप्रभ’ स्वर्ण प्रभा सी, कांति दिखे उत्तुंग तनु हो।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४८।।
ॐ ह्रीं कनकप्रभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘सुवर्णवर्ण’ सुर गायें, देह सुवर्णी दीप्ति धराये।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८४९।।
ॐ ह्रीं सुवर्णवर्णाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप प्रभो! ‘रुक्माभ’ कहाये, स्वर्ण छवी सी दीप्ति करो मे।
पूजन करते सौख्य मिलेगा, आतम ज्ञानानंद बढ़ेगा।।८५०।।
ॐ ह्रीं रुक्माभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सूर्यकोटिसमप्रभ’ विभो! क्रोड़ सूरज लजाते।
दीप्ती ऐसी तुम तनु विषे आत्मदीप्ती अनोखी।।
पूजूँ नामावलि तुम प्रभो! सर्वव्याधी निवारो।
ज्ञानज्योति प्रगटित करो मोहशत्रू भगाके।।८५१।।
ॐ ह्रीं सूर्यकोटिसमप्रभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप्ते सोने सदृश ‘तपनीयनिभ’ दीप्ती धरे हो।
कर्मों का भी मल सब हटा स्वात्म निर्मल किया है।।पूजूँ.।।८५२।।
ॐ ह्रीं तपनीयनिभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऊँचीदेही धर कर विभो! ‘तुंग’ माने गये हो।
ऊँचे भावों सहित तुमही मोक्ष प्रासाद पाया।।पूजूँ.।।८५३।।
ॐ ह्रीं तुंगाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘बालार्काभो’ प्रभु तनु धरा ऊगते सूर्य कांती।
मेरी आत्मा सुवरण करो कर्म पंकील१धो दो।।पूजूँ.।।८५४।।
ॐ ह्रीं बालार्काभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा शुद्ध्या ‘अनलप्रभ’ हो अग्नि कांती सदृश हो।
मेरी आत्मा निरमल करो श्रेष्ठ तप से तपाके।।पूजूँ.।।८५५।।
ॐ ह्रीं अनलप्रभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संध्यालाली सदृश छवि है नाथ!‘संध्याभ्रबभू’।
भक्ती लाली शुभ तम रहे नाथ मेरे हदै में।।पूजूँ.।।८५६।।।
ॐ ह्रीं संध्याभ्रबभ्रवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आत्मा निर्मल सुवरण तनू आप ‘हेमाभ’ मानें।
रागादी को हृदयगृह से दूर कीजे अभी ही।।पूजूँ.।।८५७।।
ॐ ह्रीं हेमाभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तप्ताचाभीकर प्रभ’ तपे स्वर्ण जैसी प्रभा है।
मेरी आत्मा अतिशय धुला कर्म से मुक्त होवे।।पूजूँ.।।८५८।।
ॐ ह्रीं तप्तचामीकरप्रभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्धात्मा हो जिनवृषभ! ‘निष्टप्तकनकच्छाय’ हो।
कांती धारी अद्भुत महादीप्त त्रैलोक्य स्वामी।।पूजूँ.।।८५९।।
ॐ ह्रीं निष्टप्तकानकच्छायाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
देदीप्यात्मा जिनवर ‘कनत्कांचनासन्निभ’ देही।
वैâवल्यात्मा चमचम करे नाथ! कीजे अबे ही।।पूजूँ.।।८६०।।
ॐ ह्रीं कनत्कांचनासन्निभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्तीकांतावर प्रभु ‘हिरण्यवर्ण’ इंद्रादि गायें।
दीजे शक्ती निजसम खिले चित्तपंकज सुहाये।।पूजूँ.।।८६१।।
ॐ ह्रीं हिरण्यवर्णाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोने जैसी छवि तुमहिं ‘स्वर्णाभ’ साधु जनों में।
व्याधी हीना मुझ तनु बने रत्नत्रै साध लू मैं।।
पूजूँ नामावलि तुम प्रभो! सर्वव्याधी निवारो।
ज्ञानज्योति प्रगटित करो मोहशत्रू भगाके।।८६२।।
ॐ ह्रीं स्वर्णाभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव्यों को भी करत शुचि भो! ‘शातकुंभनिभप्रभ’ हो।
मेरी आत्मा स्वपर विद हो ज्ञानज्योति जला दो।।पूजूँ.।।८६३।।
ॐ ह्रीं शांतकुंभनिभप्रभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुन्दर सोने सदृश तनु है आप ‘द्युम्नाभ’ स्वामी।
दीजे सिद्धी निजसुख मिले ना पुनर्भव कभी हो।।पूजूँ.।।८६४।।
ॐ ह्रीं द्युम्नाभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जन्में जैसे विकृति रहिते ‘जातरुपाभ’ स्वामी।
रागादी मुझ विकृति हरिये दीजिये मुक्ति लक्ष्मी।।पूजूँ.।।८६५।।
ॐ ह्रीं जातरुपाभाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘तप्तजाम्बुनदद्युति’ प्रभो! श्रेष्ठ स्वर्णिम शरीरी।
दीजे शक्ती द्विदश तपसे आत्म शुद्धी करूँ मैं।।पूजूँ.।।८६६।।
ॐ ह्रीं तप्तजाम्बूनदद्युतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धोये उज्ज्वल कनक से हो पाप क्षालो हमारे।
दीपे आत्मा जिनवर ‘सुधौतकलधौतश्री’ हो।।पूजूँ.।।८६७।।
ॐ ह्रीं सुधौतकलधौतश्रिये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपे देही जिनरवि ‘प्रदीप्त’ आप लोकाग्र राजें।
जो भी पूजें सकल दुख भी नाशते सौख्य देते।।पूजूँ.।।८६८।।
ॐ ह्रीं प्रदीप्ताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी हो ‘हाटकुद्युति’ तनू स्वर्ण दीप्ती लजाते।
मैं भी ध्याऊँ हृदय धरके आपको शीश नाऊँ।।पूजूँ.।।८६९।।
ॐ ह्रीं हाटकद्युतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वामी सौ भी सुरपति जजें आप ‘शिष्टेष्ट’ मानें।
प्रीती से शिष्ट जन सब तुम्हें इष्ट भगवान् मानें।।पूजूँ.।।८७०।।
ॐ ह्रीं शिष्टेष्टाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्टी कर्ता त्रिभुवन जनों आप ‘पुष्टिद’ कहे हो।
स्वामिन्! पोषो दुखित मुझको पास आया इसी से।।पूजूँ.।।८७१।।
ॐ ह्रीं पुष्टिदाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परमौदारिक तनुधर प्रभो! ‘पुष्ट’ हो सौख्यभृत हो।
मेरी पुुष्टी तुरत करिये रोग शोकादि हरके।।पूजूँ.।।८७२।।
ॐ ह्रीं पुष्टाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी युगपत् तुम्हीं लोक को जानते हो।
कर्मों का मुझ तुरत क्षय हो ‘स्पष्ट’ स्वामी तुम्हीं से।।पूजूँ.।।८७३।।
ॐ ह्रीं स्पष्टाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वाणी प्रभु की विशद अतिशै ‘स्पष्टाक्षर’ इसी से।
मेरी वाणी हितकर करो दिव्यवाणी ब्ने भी।।पूजूँ.।।८७४।।
ॐ ह्रीं स्पष्टाक्षराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सामर्थ्यात्मा प्रभु ‘क्षम’ तुम्हीं मोह शत्रू हना है।
शत्रू मृत्यू अति दुख दिया नाथ! नाशो इसे ही।।पूजूँ.।।८७५।।
ॐ ह्रीं क्षमाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्म शत्रु को मारा, इसीलिये ‘शत्रुघ्न’ सुरेंद्र कहें।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७६।।
ॐ ह्रीं शत्रुघ्नाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अप्रतिघ’ तुम्हीं हो, शत्रु न कोई रहा यहाँ जग में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७७।।
ॐ ह्रीं अप्रतिघाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘अमोघ’ हो नित ही, स्वयं सफल हो किया सफल सबको।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७८।।
ॐ ह्रीं अमोघाय अप्रतिघाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रशास्ता’ तुम हो, सर्वोत्तम उपदेश दिया तुमने।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८७९।।
ॐ ह्रीं प्रशास्त्रे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो ‘शासिता’ तुमही, रक्षा करते सदैव भक्तों की।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८०।।
ॐ ह्रीं शासित्रे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘स्वभू’ स्वयं जन्मे हो, मात पिता बस निमित बने सच में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८१।।
ॐ ह्रीं स्वभुवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांतिनिष्ठ’ प्रभु तुमहो, पूर्ण शांति को पाया पाप हना।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८२।।
ॐ ह्रीं शांतिनिष्ठाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘मुनिज्येष्ठ’ कहाते, गणधर मुनि में बड़े तुम्हीं माने।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८३।।
ॐ ह्रीं मुनिज्येष्ठाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘शिवताति’ जगत में, सब कल्याण परंपरा देते।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८४।।
ॐ ह्रीं शिवतातये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शिवप्रद’ नाथ तुम्हीं हो, भविजन को सब सुख शिवसुख भी देते।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८५।।
ॐ ह्रीं शिवप्रदाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शांतिद’ नाथ सभी को, शांति दिया है सुख भरपूर दिया।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८६।।
ॐ ह्रीं शांतिदाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘शांतिकृत्’ जग में, शांति करो मुझको भी शांति करो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८७।।
ॐ ह्रीं शांतिकृते ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘शांति’ हो जगमें, त्रिभुवन में भी शांति करो भगवन् ।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८८।।
ॐ ह्रीं शांतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कांतिमान्’ प्रभु मानें, सर्व कांतियुत सभामध्य तेजस्वी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८८९।।
ॐ ह्रीं कांतिमते ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कामितप्रद’ भगवंता, भक्तों के मनरथ पूर्ण किया है।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९०।।
ॐ ह्रीं कामितप्रदाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रेयोनिधि’ जिनराजा, भविजन के हित तुम सब सुख के दाता।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९१।।
ॐ ह्रीं श्रेयोनिधये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अधिष्ठान’ तुमही हो, त्रिभुवन में दयाधर्म आधारा।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९२।।
ॐ ह्रीं अधिष्ठानाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रतिष्ठ’ हो भगवन्! परकृत बिना प्रतिष्ठा के पूजित हो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९३।।
ॐ ह्रीं अप्रतिष्ठाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रतिष्ठित’ जग में, नर सुरगण में महायशस्वी हो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९४।।
ॐ ह्रीं प्रतिष्ठिताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुस्थिर’ त्रिभुवन में, अतिशय थिरता मिली तुम्हें निज में।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९५।।
ॐ ह्रीं सुस्थिराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ! तुम्हीं ‘स्थावर’ हो, समवसरण में गमन रहित राजें।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९६।।
ॐ ह्रीं स्थावराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘स्थाणु’ कहाये, अचल रूपधर यहीं विराजे हो।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९७।।
ॐ ह्रीं स्थाणवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रथीयान्’ प्रभु मानें, अतिशय विस्तृत कहें सुरासुर भी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९८।।
ॐ ह्रीं प्रथीयसे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन्! ‘प्रथित’ तुम्हीं हो, त्रिभुवन में भी प्रसिद्ध अतिशायी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।८९९।।
ॐ ह्रीं प्रथिताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘पृथु’ ज्ञानादि गुणों से, गणि मुनिगण में महान हो प्रभुजी।
नाममंत्र मैं पूजूँ, पाप हरो शुभ करो स्वामी।।९००।।
ॐ ह्रीं पृथवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु त्रिकालदर्शी से लेकर नाम शतक अतिशायी हैं।
गणधर मुनिगण चक्रवर्ति भी नाम जपें सुखदायी हैंं।।
सुरपति खगपति पूजन करते वदंन कर शिर नाते हैं।
हम भी पूजें अर्घ चढ़ाकर निज समकित गुण पाते हैं।।९।।
ॐ ह्रीं त्रिकालदर्श्यादिशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
‘दिग्वासा’ हो वस्त्र दिश् ही तुम्हारे।
ऐसी मुद्रा हो कभी नाथ मेरी।।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्र।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९०१।।
ॐ ह्रीं दिग्वाससे ्नाम: अर्घ्यं निवपामीति स्वाहा।
स्वामी सुन्दर ‘वातरशना’ तुम्हीं हो।
धारी वायू करधनी है कटी में।।श्रद्धा.।।९०२।।
ॐ ह्रीं वातरशनाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
स्वामी ‘निग्रंथेश’ हो बाह्य अंत:।
चौबीसों ही ग्रन्थ में मुक्त मानें।।श्रद्धा.।।९०३।।
ॐ ह्रीं निग्रंथेशाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
स्वामी भूमी पे ‘दिगम्बर’ तुम्हीं हो।
धारा अम्बर दिक्मयी शील पूरे।।श्रद्धा.।।९०४।।
ॐ ह्रीं दिगम्बराय ्नाम: अघ्यं& निवपामीति स्वाहा।
‘निष्कचन’ हो नाथ सव&स्व त्यागा।
आत्मांनते सद्गुणों से भरी है।।श्रद्धा.।।९०५।।
ॐ ह्रीं नििंष्कचनाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
इच्छा त्यागी हो ‘निराशंस’ स्वामी।
आशा मेरी पूरिये सिद्धि पाऊँ।।श्रद्धा.।।९०६।।
ॐ ह्रीं निराशंसाय ्नाम: अघ्यं& निवपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी ज्ञान ही नेत्र पाया।
स्वामी मेरे ‘ज्ञानचक्षू’ तुम्हीं हो।।श्रद्धा.।।९०७।।
ॐ ह्रीं ज्ञानचक्षुषे ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
नाशा मोहारी ’अमोमुह’ कहाये।
स्वामी मेरे मोह रागादि नाशो।।श्रद्धा.।।९०८।।
ॐ ह्रीं अमोमुहाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
‘तेजोराशी’ तेज के पुंज स्वामी।
चंदा से भी सौम्य शीतल भये हो।।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्र।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९०९।।
ॐ ह्रीं तेजोराशये ्नाम: अघ्य निवपामीति स्वाहा।
नंते ओजस्वी ‘अनंतौज’ स्वामी।
मेरी शक्ति को बढ़ा दो सभी ही।।श्रद्धा.।।९१०।।
ॐ ह्रीं अनंतौजसे ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
हो ‘ज्ञानाब्धी’ ज्ञान के सिंधु स्वामी।
स्वामी मेरे ज्ञान को पूण कीजे।।श्रद्धा.।।९११।।
ॐ ह्रीं ज्ञानाब्धये ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
शीलों से भृत ‘शीलसागर’ तुम्हीं हो।
अठरा साहस्र शील को पूरिये भी।।श्रद्धा.।।९१२।।
ॐ ह्रीं शीलसागराय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
‘तेजोमय’ हो नाथ! तेज: स्वरूपी।
आत्मा तेजोरूप मेरी करो भी।।श्रद्धा.।।९१३।।
ॐ ह्रीं तेजोमयाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
‘अमितज्योती’ आप ज्योति अनंती।
मेरी आत्मा ज्योति से पूर दीजे।।श्रद्धा.।।९१४।।
ॐ ह्रीं अमितज्योतिषे ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
‘ज्योतिमूती’ ज्योतिमय देह धारा।
मेरे घट में ज्ञान ज्योति भरीजे।।श्रद्धा.।।९१५।।
ॐ ह्रीं ज्योतिमूतये ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
मोहारी हन के ‘तमोपह’ तुम्हीं हो।
मेरे चित्त का सव अज्ञान नाशो।।श्रद्धा.।।९१६।।
ॐ ह्रीं तमोपहाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
सकल ‘जगच्चूड़ामणी’ आप ही हो।
तीनोें लोकों के शिखारत्न स्वामी।।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्र।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९१७।।
ॐ ह्रीं जगच्चूड़ामणये ्नाम: अघ्यं निपामीति स्वाहा।
देदीप्यात्मा ‘दीप्त’ स्वामी तुम्हीं हो।
मेरी आत्मा दीप्त कीजे गुणों से।।श्रद्धा.।।९१८।।
ॐ ह्रीं दीप्ताय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
‘शंवान्’ स्वामी सौख्य शांती तुम्हीं में।
मेरी आत्मा सौख्य से पूण कीजे।।श्रद्धा.।।९१९।।
ॐ ह्रीं शंवते ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
स्वामी मेरे ‘विघ्नवीनायका’ हो।
मेरे विघ्नों को हरो नाथ! जल्दी।।श्रद्धा.।।९२०।।
ॐ ह्रीं विघ्नविनायकाय ्नाम: अघ्यं निव&पामीति स्वाहा।
तीनों लोकों में ‘कलिघ्ना’ तुम्हीं हो।
मेरे कलिमल नाश के सौख्य दीजे।।श्रद्धा.।।९२१।।
ॐ ह्रीं कलिघ्नाय ्नाम: अघ्यं निव&पामीति स्वाहा।
मेरे स्वामी ‘कमशत्रुघ्न’ ही हो।
दुष्कमों को नष्ट कीजे प्रभू जी।।श्रद्धा.।।९२२।।
ॐ ह्रीं कमशत्रुघ्नाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
हो ‘लोकालोक प्रकाशक’ जिनेशा।
देखा तीनों लोक अलोक भी तो।।श्रद्धा.।।९२३।।
ॐ ह्रीं लोकालोकप्रकाशकाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
जागे आत्मा में ‘अनिद्रालु’ स्वामी।
मेरी आत्म मोह निद्रा तजे भी।।श्रद्धा.।।९२४।।
ॐ ह्रीं अनिद्रालवे ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
आलस नाशा हो ‘अतन्द्रालु’ स्वामी।
मेरी आत्मा ज्ञान से स्वस्थ होवे।
श्रद्धा से मैं पूजहूँ नाम मंत्र।
दीजे शक्ती आत्म संपत्ति पाऊँ।।९२५।।
ॐ ह्रीं अतन्द्रालवे ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
जाग्रत संतत ‘जागरूक’ हो।
मोह कि नींद हरो तुम ध्याऊँ।।
नाम सुमंत्र जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९२६।।
ॐ ह्रीं जागरूकाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रमामय’ ज्ञानमयी हो।
ज्ञान गुणाधिक हो मुझ आत्मा।।नाम.।।९२७।।
ॐ ह्रीं प्रमामयाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
स्वामिन्! ‘लक्ष्मीपति’ जग में हो।
नंत चतुष्टय श्रीपति जिन हो।।नाम.।।९२८।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीपतये ्नाम: अघ्यं निव&पामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जगज्ज्योती’ कहलाये।
ज्योति भरो तम को हर लीजे।।नाम.।।९२९।।
ॐ ह्रीं जगज्ज्योतिषे ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
धमदयापति ‘धमराज’ हो।
नाथ हृदे मुझ धम विराजे।।नाम.।।९३०।।
ॐ ह्रीं धमराजाय ्नाम: अघ्यं निपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रजाहित’ सव प्रज्ञा की।
पालन रीति नृपाल सिखायी।।नाम.।।९३१।।
ॐ ह्रीं प्रजाहिताय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘मुमुक्षु’ कहें मुनि ज्ञानी।
इच्छुक कम अरी सब छूटें।।
नाम सुमंत्र जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९३२।।
ॐ ह्रीं मुमुक्षवे ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
‘बंधमोक्षज्ञा’ हो तुम स्वामी।
जानत बंध रु मोक्ष विधी को।।नाम.।।९३३।।
ॐ ह्रीं बंधमोक्षज्ञाय ्नाम: अघ्यंनिवपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘जिताक्ष’ जिता पण इंद्री।
जीत सकें विषयों को हम भी।।नाम.।।९३४।।
ॐ ह्रीं जिताक्षाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
हो ‘जितमन्मथ’ काम विजेता।
काम अरी मुझ मार भगावो।।नाम.।।९३५।।
ॐ ह्रीं जितमन्मथाय ्नाम: अघ्यं& निव&पामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रशांतरसशैलुष’ हो।
किया प्रदश&न शांतिरसों का।।नाम.।।९३६।।
ॐ ह्रीं प्रशांतरसशैलूषाय ्नाम: अघ्यं निवपामीति स्वाहा।
‘भव्यनपेटकनायक’ मानें।
भव्य समूह कहें तुम स्वामी।।नाम.।।९३७।।
ॐ ह्रीं भव्यपेटवनायकाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म प्रधान कहा युग आदी।
‘मूलसुकर्ता’ आप बखाने।।नाम.।।९३८।।
ॐ ह्रीं मूलकर्त्रे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व पदारथ पूर्ण प्रकाशा।
नाथ! ‘अखिलज्योती’ सुर गाते।।नाम.।।९३९।।
ॐ ह्रीं अखिलज्योतिषे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘मलघ्न’ सभी मल हाने।
सर्व अघों मल नाश करो मे।।
नाम सुमंत्र जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९४०।।
ॐ ह्रीं मलघ्नाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मूूलसुकारण’ मुक्ति सुपथ के।
नाथ! मुझे शिवमार्ग दिखा दो।।नाम.।।९४१।।
ॐ ह्रीं मूलकारणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘आप्त’ यथारथ देव तुम्हीं हो।
नाथ! तपोनिधि दो सुखदाता।।नाम.।।९४२।।
ॐ ह्रीं आप्ताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘वागीश्वर’ दिव्यधुनी के।
लोल तरंग वचोऽमृत गंगा।।नाम.।।९४३।।
ॐ ह्रीं वागीश्वराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘श्रेयान्’ प्रभो! श्रिय दाता।
अंतर बाहिर श्री मुझको दो।।नाम.।।९४४।।
ॐ ह्रीं श्रेयसे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रायसउक्ति’ हितंकर वाणी।
नाथ! मुझे निज रत्नत्रयी दो।।नाम.।।९४५।।
ॐ ह्रीं श्रायसोक्तये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सार्थकवाच ‘निरुक्तवाक्’ हो।
आप धुनी मन शांति करेगी।।नाम.।।९४६।।
ॐ ह्रीं निरुक्तवाचे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘प्रवक्ता’ श्रेष्ठ वचों से।
धर्मसुधा बरसा जन तोषा।।नाम.।।९४७।।
ॐ ह्रीं प्रवक्त्रे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! तुम्हीं ‘वचसामिश’ मानें।
धर्म वचन के ईश्वर ही हो।।
नाम सुमंत्र जपूँ मन लाके।
आत्म सुधारस पान करूँ मैं।।९४८।।
ॐ ह्रीं वचसामीशाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मारजीता’ प्रभु कामजयी हो।
सर्व मनोरथ पूर्ण करो जी।।नाम.।।९४९।।
ॐ ह्रीं मारजिते ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘विश्वभाववित्’ तीन जगत् को।
जान लिया मुझ ज्ञान सुधा दो।।नाम.।।९५०।।
ॐ ह्रीं विश्वभावविदे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नाथ ‘सुतनु’ हो, उत्तमतनु हो, अतिशय दीप्ती, धारता हो।
हन आधी व्याधी, मेट उपाधी, पूर्ण निरामय कारक हो।।
प्रभु नाममंत्र तुम, अतिशय उत्तम, जो जन पूजें भक्ति करें।
सब आपद टालें, संपति पालें, निज आतम में तृप्ति धरें।।९५१।।
ॐ ह्रीं सुतनवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु देहरहित हो, ज्ञानदेह हो, ‘तनुनिर्मुक्त’ कहाते हो।
तनु बंधन काटूं, अघ अरि पाटूूं, भवितनुमल, को नाशे हो।।प्रभु.।।९५२।।
ॐ ह्रीं तनुनिर्मुक्तये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘सुगत’ तुम्हीं हो, अधर गमन हो, आत्मरूप में लीन रहे।
मुझ सुगति करोगे, सौख्य भरोगे, दो शक्ति शिवमार्ग लहें।।प्रभु.।।९५३।।
ॐ ह्रीं सुगताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु‘हतदुर्नय’ हो, स्वयं सुनय हो, मिथ्यानय को दूर किया।
जो नहिं निरपेक्षी, नित सापेक्षी, सम्यकनय का कथन किया।।प्रभु.।।९५४।।
ॐ ह्रीं हतदुर्नयाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘श्रीश’ हो, मुक्ति ईश हो, अंतर बाहिर लक्ष्मी से।
श्री आदि देवियां, मात सेविया, तुम महिमा सुर भक्ती से।।
प्रभु नाममंत्र तुम, अतिशय उत्तम, जो जन पूजें भक्ति करें।
सब आपद टालें, संपति पालें, निज आतम में तृप्ति धरें।।९५५।।
ॐ ह्रीं श्रीशाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री-लक्ष्मी सेवित, चरणकमलयुग, प्रभु ‘श्रीश्रितपादाब्ज’ तुम्हीं।
धन लक्ष्मी इच्छुक, भविजन अर्चत, सभी सौख्य श्री देत तुम्हीं।।
प्रभु.।।९५६।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रितपादाब्जाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘वीतभी’, प्राप्त अभयधी, भविजन को निर्भीक करो।
हत जन्म मरण भय, शिवपद निर्भय, देकर मुझभय शीघ्र हरो।।
प्रभु. ।।९५७।।
ॐ ह्रीं वीतभिये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन ‘अभयंकर’ जग क्षेमंकर, भव्य हितंकर आप कहे।
मेरे दुख टारो, भव निरवारो, मुझ आत्मा निज सौख्य लहे।।
प्रभु. ।।९५८।।
ॐ ह्रीं अभयंकराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘उत्सन्नादोष’ हो, रत्नकोश हो, सब दोषों को दूर किया।
मुझ दोष दूर हों, सौख्य पूर हो, इस आशा से शरण लिया।।
प्रभु.।।९५९।।
ॐ ह्रीं उत्सन्नदोषाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब विघ्न विरहिते, मंगल सहिते, कर्म हते, निर्विघ्न भये।
मुझ शिवमारग में, दिन प्रतिदिन में, विघन घने, तुम जजत गये।।
प्रभु.।।९६०।।
ॐ ह्रीं निर्विघ्नाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु अतिशय सुस्थिर, ज्ञान चराचर, मुनिगण ‘निश्चल’ तुमहिं कहें।
मुझ चित्त विमल हो, ध्यान अचल हो, पद भी निश्चल, शीघ्र लहें।।
प्रभु.।।९६१।।
ॐ ह्रीं निश्चलाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुमपद प्रीती, सुद्रुण नीती, हरत अनीती, प्रेम भरे।
तुम ‘लोकसुवत्सल’, हरत करममल, भरत महाबल, नेह धरें।।
प्रभु.।।९६२।।
ॐ ह्रीं लोकवत्सलाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘लोकोत्तर’ सर्व अनुत्तर, नमत सुरासुर, भविक भजें।
जो तुमपद ध्यावें, निज सुख पावें, कर्म नशावें, सुगुण सजें।।
प्रभु.।।९६३।।
ॐ ह्रीं लोकोत्तराय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘लोकपति’ हो, त्रिजग अधिप हो, भवि रक्षक हो, त्रिभुवन में।
अतिशय सुखदाता, हरत असाता, मोक्ष विधाता, मुनिगण में।।
प्रभु.।।९६४।।
ॐ ह्रीं लोकपतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु भविक नयन हो, ‘लोकचक्षु’ हो, जगत लखत हो, प्रतिक्षण में।
मुझ ज्ञाननेत्र दो, भ्रम तमहर दो, निज रुचि भर दो, रग रग में।।
प्रभु.।।९६५।।
ॐ ह्रीं लोकचक्षुषे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम ‘अपारधी’, अनवधिबुद्धी, हरत कुबुद्धी, ज्ञानमयी।
मुझ कुमति हटा दो, सुमति बढ़ा दो, मोह मिटा दो, दु:खमयी।।
प्रभु.।।९६६।।
ॐ ह्रीं अपारधिये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘धीरधी’ सुस्थिर बुद्धी, अतुलित बुद्धी, महामना।
मुझ ज्ञान विमल हो, सौख्य अमल हो, जन्म सफल हो, धर्मघना।।
प्रभु.।।९६७।।
ॐ ह्रीं धीरधिये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु भवदधि पारग, भवि शिवमारग, आप ‘बुद्धसन्मार्ग’ कहे।
पथ स्वयं चले हो, कहत भले हो, तुमसे ही, जन मार्ग लहें।।
प्रभु.।।९६८।।
ॐ ह्रीं बुद्धसन्मार्गाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु आप ‘शुद्ध’ हो, स्वात्मसिद्ध हो, भविजन शुद्ध, बने तुमसे।
मुझ कलिमल नाशो, आत्म प्रकाशो, मन में भासो, नमुं रुचि से।।
प्रभु.।।९६९।।
ॐ ह्रीं शुद्धाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सत्यपवित्रा, वचन धरित्रा, ‘सत्यसूनृतवाक्’ तुम्हीं।
तुम वचन औषधी, सर्व औषधी, मेटत जामन मरण मही।।
प्रभु.।।९७०।।
ॐ ह्रीं सत्यसूनृतवाचे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु चरमसीम पे, बुद्धी पहुँचे, ‘प्रज्ञापारमिता’ तुम हो।
मुझ ज्ञान अल्पश्रुत, बने पूर्ण श्रुत, ज्ञान ध्यान शिव कारक हो।।
प्रभु.।।९७१।।
ॐ ह्रीं प्रज्ञापारमिताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्राज्ञ’ कहाये, मोह नशाये, सुरगण गायें, गुण नित ही।
मुझ विद्यादाता, दो सुखसाता, हरो असाता, हो सुख ही।।
प्रभु.।।९७२।।
ॐ ह्रीं प्राज्ञाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु विषय विरत हो, स्वात्म निरत हो, महाव्रतिक हो, ‘यति’ तुमही।
इंद्रिय विषयन को, कषाय गण को, दूर करो जो, दुखद मही।।
प्रभु.।।९७३।।
ॐ ह्रीं यतये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु!‘नियमिइंद्रिय’ जित पण इंद्रिय, जीत लिया हिय, जिन तुमही।
मुझ इंद्रिय मन की, जीतन शक्ती, दीजे युक्ती, नमित मही।।
प्रभु.।।९७४।।
ॐ ह्रीं नियमितेन्द्रियाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भगवन् ! ‘भदंत’ तुम, पूज्य कहें मुनि, सुरनर यतिगण, तुम वंदे।
हम तज बहिरात्मा, अंतर आत्मा, हों परमात्मा गुण मंडे।।
प्रभु.।।९७५।।
ॐ ह्रीं भदंताय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमहिं ‘भद्रकृत्’ सकल लोक कल्याणकृत्।
नमूूँ अतुल भक्ति से त्वरित सौख्य दीजे मुझे।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।९७६।।
ॐ ह्रीं भद्रकृते ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमहिं ‘भद्र’ हो सकल जीव श्रेयस् करो।
अमंगल हरो सदा अखिल विश्व मंगल करो।।जजूँ.।।९७७।।
ॐ ह्रीं भद्राय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुमहिं ‘कल्पवृक्ष’ मन चाहि वांछा भरो।
अत: सकल भव्यजीत नित भक्ति से पूजते।।जजूँ.।।९७८।।
ॐ ह्रीं कल्पवृक्षाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘वरप्रद’ जिनेशा एक वरदान दे दीजियें
मिले तुरत सिद्धिधाम बस और ना चाहिये।।जजूँ.।।९७९।।
ॐ ह्रीं वरप्रदाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! यम नाशके ‘समुन्मूलिता कर्म अरि’ हो।
उखाड़ जड़मूल से करम शत्रु नाशा तुम्हीं।।जजूँ.।।९८०।।
ॐ ह्रीं समुन्मूलितकर्मारिये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! तुम ‘कर्मकाष्ठाशुशुक्षणी’ लोक में।
समस्त अठ कर्म इंधन जलावते अग्नि हो।।जजूँ.।।९८१।।
ॐ ह्रीं कर्मकाष्ठाशुशुक्षणये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त शिव कार्य में निपुण आप ‘कर्मण्य’ हो।
प्रभो! निमित्त आप पाय सब कार्य मेरे बनें।।जजूँ.।।९८२।।
ॐ ह्रीं कर्मण्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त कर्मारि के हनन में सुमामर्थ्य है।
अतेव ‘कर्मठ’ तुम्हीं सकल कार्य में दक्ष हो।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।९८३।।
ॐ ह्रीं कर्मठाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समर्थ प्रभु आप ही सतत ‘प्रांशु’ सर्वोच्च भी।
समस्त अघ नाश के सकल सौख्य संपद् भरो।।जजूँ.।।९८४।।
ॐ ह्रीं प्रांशवे ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! बस आप ‘हेयआदेयवीचक्षण:’।
हिताहित विचारशील तुम सा नहीं अन्य है।।जजूँ.।।९८५।।
ॐ ह्रीं हेयादेयविचक्षणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त जग जानते प्रभु ‘अनंतशक्ती’ तुम्हीं।
अनंत गुण पूरिये हृदय में सदा राजिये।।जजूँ.।।९८६।।
ॐ ह्रीं अनंतशक्तये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
न छिन्न भिन्न हों कभी प्रभु सदैव ‘अच्छेद्य’ हो।
मुझे स्वपर ज्ञान हो स्वयम् ही स्वयंभू बनूँ।।जजूँ.।।९८७।।
ॐ ह्रीं अच्छेद्याय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘त्रिपुरारि’ हो त्रिविध कर्म को नाशके।
जरा जनम मृत्यु तीन पुर नाश कीने तुम्हीं।।जजूँ.।।९८८।।
ॐ ह्रीं त्रिपुरारये ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिलोचन’ त्रिकालवर्ति सब वस्तु को देखते।
जिनेन्द्र! श्रुतज्ञान से विमल स्वात्म चिंतन करूँ।।जजूँ.।।९८९।।
ॐ ह्रीं त्रिलोचनाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘त्रिनेत्र’ तुम जन्म से मति श्रुतावधी ज्ञानि थे।
पुन: त्रिजग देख के सकल ज्ञानधारी भये।।जजूँ.।।९९०।।
ॐ ह्रीं त्रिनेत्राय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिलोक पितु आप ‘त्र्यंबक’ कहें मुनीनाथ भी।
मुझे भी प्रभु पालिये निजगुणादि से पूरिये।।जजूँ.।।९९१।।
ॐ ह्रीं त्र्यंबकाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘त्र्यक्ष’ हो सतत रत्नत्रैरूप हो।
मुझे भि त्रय रत्न दो सकल लोक स्वामी बनूँ।।जजूँ.।।९९२।।
ॐ ह्रीं त्र्यक्षाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वघाति चउ नाश ‘केवलज्ञानवीक्षण’ बनें।
विघात घन घाति मैं सकल ज्ञान पाऊँ प्रभो।।जजूँ.।।९९३।।
ॐ ह्रीं केवलज्ञानवीक्षणाय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘समंतभद्र’ सब ओर मंगलमयी।
अमंगल हरो सभी भुवन में सुमंगल करो।।जजूँ.।।।९९४।।
ॐ ह्रीं समंतभद्राय ्नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! सकल शत्रु शांतकर आप ‘शांतरि’ हो।
मुझे करम शत्रु शांतकर शक्ति दे दीजिये।।जजूँ.।।९९५।।
ॐ ह्रीं श्तारये नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुधर्म संस्थाप के तुमहि, ‘धर्माचार्य’ हो।
प्रभो सकल विश्व में सदय१ धर्मनेता तुम्हीं।।जजूँ.।।९९६।।
ॐ ह्रीं धर्माचार्याय नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘दयानिधि’ तुम्हीं सभी जन दया के भंडार हो।
दयालु मुझपे दया अब करो दुखी जान के।।जजूँ.।।९९७।।
ॐ ह्रीं दयानिधये नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पदार्थ सब सूक्ष्म भी लखत ‘सूक्ष्मदर्शी’ प्रभों
मुझे अतुल शक्ति दो सकल लोक अलोक२ लूँ।।जजूँ.।।९९८।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मदर्शिने नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वकाम अरि-जीत के प्रभु तुम्हीं ‘जितानंग’ हो।
अभीप्सित सुपूरिये विषय काम को नाश के।।जजूँ.।।९९९।।
ॐ ह्रीं जितानंगाय नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘कृपालु’ करके कृपा सकल पाप को नाशिये।
अनंत सुख दीजिये भुवन शीश पे थापिये।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०००।।
ॐ ह्रीं कृपालवे नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! भुवि ‘धर्मदेशक’ तुम्हीं सुधर्माब्धि हो।
मुझे स्वपर भेदज्ञानमय धर्म दीजे अबे।।जजूँ.।।१००१।।
ॐ ह्रीं धर्मदेशकाय नाम:अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शुभंयु’ शुभ युक्त हो प्रभु सुखामृताम्भोधि हो।
मुझे शुभमयी करो तुरत शुद्ध आत्मा बने।।जजूँ.।।१००२।।
ॐ ह्रीं शुभंयवे नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! ‘सुखसाद्भूत’ अनुपं सुखाधीन हो।
अनंत सुख दो मुझे गुणसमूह से पूर्ण जो।।जजूँ.।।१००३।।
ॐ ह्रीं सुखसाद्भूताय नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! तुम ‘पुण्यराशि’ शुभ पुण्य भंडार हो।
पवित्र निज को किया मुझ पवित्र आत्मा करो।।जजूँ.।।१००४।।
ॐ ह्रीं पुण्यराशये नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनामय’ प्रभो! तुम्हें सकल व्याधि पीड़ा नहीं।
समस्त तनु रोग नाश भव व्याधि मेरी हरो।।जजूँ.।।१००५।।
ॐ ह्रीं अनामयाय नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! तुम ‘धर्मपाल’ जिन धर्म को रक्षते।
अनंत जिनधर्म हे हृदय में विराजो सदा।।जजूँ.।।१००६।।
ॐ ह्रीं धर्मपालाय नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘जगत्पाल’ हो भुवन प्राणि को रक्षते।
मुझे सतत रक्षिये जगपते! मनोरक्ष हो।।जजूँ.।।१००७।।
ॐ ह्रीं जगत्पालाय नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्०वाहा।
जिनेन्द्र! जगमध्य ‘धर्मसाम्राजनायक’ तुम्हीं।
सुमोक्षप्रद सार्वभौम जिनधर्म के ईश हो।।जजूँ.।।१००८।।
ॐ ह्रीं धर्मसाम्राज्यनायकाय नाम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिग्वासादिक नाम एक सौ, आठ आपके सुरपति गाते।
नाममंत्र को मन में ध्याकर, योगीजन निज संपति पाते।।
मैं भी प्रतिक्षण नाममंत्र को, हृदय कमल में धारण कर लूँ।
प्रभु ऐसी दो शक्ती मुझको, तुम भक्ती से भवदधि तर लूँ।।१०।।
ॐ ह्रीं दिग्वासादिअष्टोत्तरशतनामभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम:।
महातेज के धाम प्रभु, नमूँ नमूँ त्रयकाल।
एक हजार सुआठ तुम, नाममंंत्र जयमाल।।१।।
जय जय जिनेन्द्र! तुम असंख्य नाम गुण भरें।
जय जय जिनेन्द्र! तुम अनंत सौख्य गुण भरें।।
हे नाथ! तुम सहस्रनाम नित्य जो पढ़े।
वे हों पवित्र बुद्धि मोक्ष महल में चढ़ें।।२।।
हे नाथ! यदपि आप नाम वचन से कहें।
फिर भी वचन अगोचर मुनिगण तुम्हें कहें।।हे नाथ.।।३।।
तुम नाम संस्तवन सदा अभीष्ट को फलेंं
भगवन्! तुम्हीं तो भक्तों के बंधु हो भले।।हे नाथ.।।४।।
स्वाामिन्! जगत्प्रकाशी हो ‘एक’ ही तुम्हीं।
हो ज्ञानदर्श गुण से ‘दोरूप’ भी तुम्हीं।।हे नाथ.।।५।।
रत्नत्रयी शिवमार्ग से प्रभु ‘तीनरूप’ हो।
आनन्त्य चतुष्टय से प्रभु ‘चाररूप’ हो।।हे नाथ.।।६।।
हो पंच परमेष्ठी स्वरूप ‘पाँचरूप’ भी।
प्रभु पंच कल्याणक के भी ‘पाँचरूप’ ही।।
हे नाथ! तुम सहस्रनाम नित्य जो पढ़े।
वे हों पवित्र बुद्धि मोक्ष महल में चढ़ें।।७।।
जीवादि छहों द्रव्य जानते ‘छहरूप’ हो।
प्रभु सात नयों का निरूप ‘सातरूप’ हो।।हे नाथ.।।८।।
सम्यक्त्व आदि आठ गुण से ‘आठरूप’ हो।
नव केवली लब्धी से आप ‘नवस्वरूप’ हो।।हे नाथ.।।९।।
अवतार दश१ महाबलादि ‘दशस्वरूप’ हो।
हे ईश! दया कीजिये त्रैलोक्य भूप हो।।हे नाथ.।।१०।।
मैं आप विविध नाम पुष्प गूँथ गूँथ के।
स्तोत्र की माला बनाई पूजहूूँ उससे।।हे नाथ.।।११।।
भगवन्! प्रसन्न होय अनुग्रह करो मुझपे।
स्तोत्र से वच हों पवित्र शीश नमें से।।हे नाथ.।।१२।।
प्रभु नाम स्मृतिमात्र से भाक्तिक पवित्र हों।
जो भक्ति से पूजा करें कल्याण पात्र हों।।हे नाथ.।।१३।।
इस विध समवसरण में इंद्र ने स्तुति किया।
फिर श्री बिहार हेतु प्रभु से प्रार्थना किया।।हे नाथ.।।१४।।
हे नाथ! भव्य धान्य पाप अनावृष्टि से।
सूखें उन्हें सीचों सुधर्म सुधावृष्टि से।।हे नाथ.।।१५।।
भवगंत! आप विजय की उद्योग सूचना।
ये धर्मचक्र है तैयार शोभता घना।।हे नाथ.।।१६।।
हे देव! आप मोह शत्रु पे विजय किया।
शिवमार्ग के उपदेश का अवसर ये आ गया।।हे नाथ.।।१७।।
जिनवर स्वयं तैयार श्री विहार के लिये।
बस इंद्र की ये प्रार्थना नियोग के लिये।।हे नाथ.।।१८।।
तत्क्षण समवसरण सभी विलीन हो गया।
इंद्रों ने प्रभु विहार का उत्सव महा किया।।हे नाथ.।।१९।।
जय जय ध्वनी ऊँची उठी बाजें बजे घने।
संगीत गीत नृत्य करें देवगण घने।।हे नाथ.।।२०।।
आकाश के अधर सुवर्ण कमल रच दिये।
सुरभित कमल पे नाथ चरण धरत चल दिये।।हे नाथ.।।२१।।
गंधोद वृष्टि, पुष्पवृष्टि मंद पवन है।
अतिशय विभूति आपके विहार समय है।।हे नाथ.।।२२।।
आरे हजार धर्म चक्र चमचमा रहा।
जिनराज आगे-आगे चले शोभता महा।।हे नाथ.।।२३।।
हे देव! मेरी प्रार्थना को पूर्ण कीजिये।
‘वैवल्यज्ञानमती’ नाथ! तूर्ण१ दीजिये।।हे नाथ.।।२४।।
जय जिन नामावलि, स्तुति हारावलि, जो भविजन कंठे धरहीं।
उन स्मृति शक्ती, क्षण क्षण बढ़ती, अतिशय ज्ञान करें सबहीं।।२५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरअष्टोत्तरसहस्रनामसमूहाय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इत्याशीर्वाद:।