वर द्वीप नंदीश्वर सुअष्टम, तीन जग में मान्य है।
बावन जिनालय देवगण से, वंद्य अतिशयवान हैं।।
प्रत्येक दिश तेरह सु तेरह, जिनगृहों की वंदना।
थापूँ यहाँ जिनबिंब को, नितप्रति करूँ जिन अर्चना।।१।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्ब- समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्ब- समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्ब- समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
स्वर्णभृंग में सुशीत गंगनीर लाइये।
शाश्वते जिनेन्द्र बिंब पाद में चढ़ाइये।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।१।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अंतरंग ताप ज्वर विनाश हेतु गंध है।
नाथ पाद पूजते मिले निजात्म गंध है।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।२।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतियों के हारवत् सफेद धौत शालि हैं।
आप को चढ़ावते निजात्म सौख्यमालि है।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।३।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मालती गुलाब कुंद मोगरा चुनाइये।
आप पाद पूजते सुकीर्ति को बढ़ाइये।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।४।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपूप खज्जकादि पूरियाँ चढ़ाइये।
भूख व्याधि जिष्णु को अनंतशक्ति पाइये।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।५।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नादि काल से लगे अनंत मोहध्वांत को।
दीप से जिनेश पूज नाशिये कुध्वांत को।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।६।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप लाल चंदनादि मिश्र अग्नि में जले।
आतमा विशुद्ध होत कर्म भस्म हो चलें।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।७।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
इक्षुदंड सेव दाडिमादि थाल में भरें।
मोक्ष संपदा मिले जिनेश अर्चना करें।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।८।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट द्रव्य ले अनर्घ्य मूर्तियों को पूजिये।
अष्ट कर्म नाश के त्रिलोकनाथ हूजिये।।
आठवें सुद्वीप में जिनेन्द्र देव आलया।
पूजते जिनेन्द्रबिंब सत्यबोध पा लिया।।९।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपसंबंधिचतुर्दिक्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अमल बावड़ी नीर, धार देय जिनपद कमल।
मिले भवोदधि तीर, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कमल केतकी पुष्प, हर्षित मन से लायके।
जिनवर चरण समर्प्य, सर्व सौख्य संपति बढ़े।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
बावन जिनगृह चार दिश, पूजूँ चित्त लगाय।
श्रावक की त्रेपन क्रिया, पूर्ण करो जिनराय।।१।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
नंदीश्वर वर द्वीप, चारों दिश मधि जानो।
अंजनगिरि गुण नाम, अतिशय रम्य बखानो।।
ईश निरंजन सिद्ध, प्रभु का निलय कहा है।
पूजूूँ अर्घ्य चढ़ाय, मन संताप दहा है।।१।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपेपूर्वदिक्अंजनगिरिसिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजनगिरि की चार, दिश में चउ द्रह जानो।
नीर भरे कमलादि, कुमुदों से पहचानो।।
पूरब नंदा वापि, दधिमुख नग जिनगेहा।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, मेटूँ मन संदेहा।।२।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदावापिकामध्यस्थितदधिमुखपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदवती द्रह माहिं, दधिमुख दधिसम सोहैं।
तापे जिनवर धाम, सुर किन्नर मन मोहैं।।
तिन में श्रीजिनबिंब, सुवरण रतनमयी हैं।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, पाऊँ मोक्ष मही है।।३।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदवतीवापिकामध्यस्थितदधिमुखपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदोतरा सुवापि, मधि दधिमुख नग भारी।
पश्चिम दिश में जान, लख योजन द्रह भारी।।
तापे श्रीजिनधाम, शाश्वत सिद्ध सही है।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, पाऊँ मोक्ष मही है।।४।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदोत्तरावापिकामध्यस्थितदधिमुखपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदीघोषा वापि, उत्तर दिश में जानो।
तामधि दधिमुख आदि, उसपे जिनगृह मानो।।
त्रिभुवन जिनबिंब, अनुपम रत्नमयी हैंं।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, पाऊँ मोक्ष मही है।।५।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदीघोषावापिकामध्यस्थितदधिमुखपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदा द्रह ईशान कोण में, रतिकर नग स्वर्णाभा।
ताके ऊपर सिद्धकूट है, जिनमंदिर रत्नाभा।।
रतिपति विजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।६।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदावापी-ईशानकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदा द्रह आग्नेय दिशा में, रतिकर दुतिय कहा है।
तापे सिद्धकूट जिनमंदिर, अतिशय रम्य कहा है।।
रतिपति विजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।७।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदावापी-आग्नेयकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदावती द्रह अग्निकोण में, रतिकर तृतिय सुहाता।
तापे सिद्धकूट जिनमंदिर, इंद्रादिक मन भाता।।
रतिपति विजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।८।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदवतीवापी-आग्नेयकोणे-रतिकरपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदावती वापी नैऋत में, रतिकर नग अति सोहै।
सिद्धकूट जिन आलय तापे, सुर वनिता मन मोहै।।
रतिपति विजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।९।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदवतीनैऋत्यकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिमवापी नंदोत्तर है, नैऋत्यकोण सुहावे।
रतिकरनग पर सिद्धकूट में, जिनमंदिर मन भावे।।
रतिपति विजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।१०।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदोत्तरवापीनैऋत्यकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापी नंदोत्तरा अपरदिश, ता वायव्यदिशा में।
रतिकर स्वर्ण अचल के ऊपर, सिद्धकूट अभिरामें।।
रतिपति विजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।११।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नंदोत्तरावापिकावायव्यकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदीघोषा वापी विदिशा, वायु कोण में जानो।
रतिकर पर्वत सिद्धकूट में, जिनमंदिर मन भानो।।
रतिपति विजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।१२।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नन्दिघोषावापीवायव्यकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रह नंदीघोषा ईशाने, रतिकर पीत सुहाता।
तापे सिद्धकूट चैत्यालय, पूजत मन हरषाता।।
रतिपति विजयी जिनप्रतिमा है, अकृत्रिम सुखदाता।
परमातम परकाशन हेतू, पूजूँ तिहुँजग त्राता।।१३।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे नन्दिघोषावापी-ईशानकोणे रतिकरपर्वतसिद्धकूटजिनालय- जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदीश्वर के दक्षिण दिश में, मधि ‘अंजनगिरि’ तुंग महान।
इंद्रनीलमणि सम छवि ऊपर, नित्य निरंजन का गृह मान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।१४।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अंजनगिरिसिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजनगिरि के पूरब ‘अरजा’, वापी सजल कमल की खान।
ताके मधि दधिमुख पर्वत पर, जिनमंदिर अविचल सुखदान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।१५।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अरजावापिकामध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजन नग दक्षिण दिश वापी, विरजा कही अमल जल खान।
मध्य अचल दधिमुख के ऊपर, जिन चैत्यालय पावन जान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।१६।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि विरजावापिकामध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजन नग पश्चिम दिश वापी, नाम अशोका शुच उपहार।
बीच अचल दधिमुख के ऊपर, शोक रहित जिनगृह सुखकार।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।१७।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अशोकावापिकामध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर दिश में अंजनगिरि के, वापि वीतशोका अमलान।
दधिमुख पर्वत सिद्धकूट पर, वीतशोक जिनमंदिर जान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।१८।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि वीतशोकावापिकामध्यदधिमुखपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरजाद्रह ईशान कोण पर, रतिकर पर्वत सुंदर जान।
सिद्धकूट जिन चैत्यालय में, रतनमयी जिनबिम्ब महान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।१९।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अरजावापिका-ईशानकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अरजा वापी अग्निकोण में, रतिकर दुतिय स्वर्ण द्युतिमान।
सिद्धकूट जिनमंदिर सुंदर, जिनप्रतिमा सब सौख्य निधान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।२०।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अरजावापिका-आग्नेयकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विरजावापी आग्नेय पर, रतिकर नग अद्भुत मणिमान।
सिद्धकूट जिननिलय अकृत्रिम, मणिमय जिन आकृति शिवदान।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।२१।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि विरजावापिका-आग्नेयकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विरजावापी नैऋत दिश में, रतिकर पर्वत पीत सुहाय।
सिद्धकूट जिनभवन अकृत्रिम, जिनवर छवि वरणी नहिं जाय।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।२२।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे-दक्षिणदिशि-विरजावापिकानैऋत्यकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाम अशोकाद्रह नैऋत में, रतिकर पर्वत अतुल निधीश।
सिद्धकूट जिनमहल अनूपम, जिनवर प्रतिमा त्रिभुवन ईश।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।२३।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अशोकावापिकावायव्यकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापि अशोका वायुविदिश में, रतिकर नग शोभे स्वर्णाभ।
सिद्धकूट जिनवेश्म अमल हैं, श्रीजिनबिंब अतुल रत्नाभ।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।२४।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि अशोकावापिकावायव्यकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापी सजल वीतशोका के, वायु कोण रतिकर रतिनाथ।
रतिपतिविजयी जिनमंदिर में, रुचिकर जिनछवि त्रिभुवननाथ।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।२५।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि वीतशोकावापिकावायव्यकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीतशोकद्रह में ईशान पर, रतिकर तप्तस्वर्ण सम कांत।
सिद्धकूट जिनआलय दुखहर, जिनवरबिंब सौम्यछवि शांत।।
जल फल आदिक अर्घ्य सजाकर, नित प्रति पूज करूँ गुणगान।
प्रभू आपकी कृपा दृष्टि से, पाऊँ सप्तपरमस्थान।।२६।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे दक्षिणदिशि वीतशोकावापिका-ईशानकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वीप आठवें पश्चिम दिश, अंजनगिरी।
तापे जिनगृह अतुल सौख्य संपति भरी।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।२७।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि अंजनगिरिसिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयावापी मध्य, दधीमुख जानिये।
सिद्धकूट पर शाश्वत जिनगृह मानिये।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।२८।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि विजयावापीमध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजन दक्षिण वैजयंति वापी कही।
बीच अचल दधिमुख पे जिनगृह सुखमही।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।२९।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि वैजयन्तीवापिकामध्यदधिमुखपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजन पश्चिम वापि जयंती सोहती।
मधि दधिमुख पे जिनगृह से मन मोहती।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३०।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि जयंतीवापिकामध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजनगिरि उत्तर, वापी अपराजिता।
मधि दधिमुख पर्वत पे जिनगृह शासता।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३१।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि अपराजितावापीrमध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयावापी रुद्रकोण पे रतिकरा।
तापे सिद्धकूट जिनगृह भवि मनहरा।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३२।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि विजयावापी-ईशानकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयाद्रह आग्नेय कोण रतिकरगिरी।
सिद्धकूट जिनमंदिर से अनुपम सिरी।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३३।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि विजयावापी-आग्नेयकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैजयंतिवापी के अग्निकोण में।
रतिकर गिरि पर श्रीजिनवर के वेश्म में।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३४।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि वैजयंतीवापी-आग्नेयकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैजयंतद्रह के नैऋत में जानिये।
रतिकर नग में अकृत्रिम गृह मानिये।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३५।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि वैजयंतीवापीनैऋत्यकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापि जयंती नैऋत में रतिकर कहा।
सिद्धकूट जिनमंदिर निज सुखकर कहा।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३६।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि जयंतीवापीनैऋत्यकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापि जयंती वायु, विदिश रतिकर महा।
सिद्धकूट अकृत्रिम जिनगृह दु:ख दहा।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३७।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि जयंतीवापीवायव्यकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अपराजिता सुवापी वायवकोण में।
रतिकर पर्वत पे जिनगृह अतिरम्य में।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३८।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि अपराजितावापीवायव्यकोणे रतिकरपर्वत- सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रह अपराजित की विदिशा ईशान है।
तापे रतिकर चामीकर छवि शान हैे।।
स्वयंसिद्ध जिनमूर्ति जजूँ नित चाव से।
भवसागर को तिरुँ भक्ति की नाव से।।३९।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे पश्चिमदिशि अपराजितावापीईशानकोणे रतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तरदिश इस द्वीप में, अंजनगिरि नीलाभ।
सिद्धकूट जिनसद्म को, पूज मिले शिवलाभ।।४०।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि अंजनगिरिसिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजननग पूरबदिशी, रम्यावापी स्वच्छ।
मधि दधिमुख गिरि जिनभवन, पूजत कर्म विपक्ष।।४१।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रम्यावापीमध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजन के दक्षिण दिशी, रमणीया द्रह जान।
दधिमुख नग पर जिननिलय, पूजत हो निजथान।।४२।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रमणीयावापीमध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजन के पश्चिम दिशी, द्रह सुप्रभा अनूप।
दधिमुख ऊपर जिनभवन, पूजत हो शिवभूप।।४३।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सुप्रभावापीमध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंजननग उत्तर दिशी, सर्वतोभद्रा वापि।
मधि दधिमुख पे जिनसदन, जजत न जन्म कदापि।।४४।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सर्वतोभद्रावापीमध्यदधिमुखपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रम्याद्रह ईशान में, रतिकरनग स्वर्णाभ।
सिद्धकूट जिनगेह को, पूजत हो निष्पाप।।४५।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रम्यावापीईशानकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट-जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रम्याह्रद आग्नेयदिशि, रतिकर गिरि अमलान।
जिनमंदिर शाश्वत जजूँ, मिले नवों निधि आन।।४६।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रम्यावापीआग्नेयकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रमणीया द्रह अग्नि दिश, रतिकर नग सिरताज।
सिद्धकूट पर जैनगृह, जजत मोक्ष साम्राज।।४७।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रमणीयावापीआग्नेयकोणेरतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रमणीया द्रह नैऋते, रतिकरनग सुखदान।
शाश्वत जिनमंदिर जजूँ, मिले स्वपर विज्ञान।।४८।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि रमणीयावापीनैऋत्यकोणेरतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापिसुप्रभा नैऋते, रतिकर पर्वत सिद्ध।
मणिमय जिनमंदिर जजूँ, पाऊँ ऋद्धि समृद्ध।।४९।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सुप्रभानैऋत्यकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
द्रह सुप्रभा सुवायु दिशि, रतिकरनग रतिकार।
तापे जिनगृह नित जजूँ, मिले स्वपद अविकार।।५०।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सुप्रभावापीवायव्यकोणेरतिकरपर्वतसिद्धकूट- जिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापि सर्वतोभद्रिका, रतिकर वायव कोण।
जिनमंदिर शाश्वत जजूँ, मिले भवोदधि कोण।।५१।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सर्वतोभद्रावापीवायव्यकोणेरतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वापि सर्वतोभद्रिका, रतिकर दिशि ईशान।
तापे जिनगृह पूजते, हो अनंत श्रीमान्।।५२।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे उत्तरदिशि सर्वतोभद्रावापीईशानकोणेरतिकरपर्वत-सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदीश्वर में चार दिश, बावन जिनगृह सिद्ध।
नमूँ-नमूँ नित भक्ति से, पाऊँ सौख्य समृद्ध।।१।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे चतुर्दिक्संबंधिद्वापंचाशत्जिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छप्पन सौ सोलह कही, जिनप्रतिमा अभिराम।
पूजूँ अर्घ चढ़ाय के, शत-शत करूँ प्रणाम।।२।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे द्वापंचाशत्जिनालयमध्यविराजमानपंचसहस्रषट्शतषोडश- जिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं त्रैलोक्यजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
चिन्मूरति परमात्मा, चिदानंद चिद्रूप।
गाऊँ गुणमाला अबे, स्वल्पज्ञान अनुरूप।।१।।
जय आठवाँ जो द्वीप नाम नंदिश्वरा है।
जय बावनों जिनालयों से पुण्यधरा है।।
इक सौ तिरेसठे करोड़ लाख चुरासी।
विस्तार इतने योजनों से द्वीप विभासी।।२।।
चारों दिशा के बीच में अंजनगिरी कहे।
जो इंद्रनील मणिमयी रत्नों से बन रहे।।
चौरासी सहस योजनों विस्तृत व तुंग हैं।
जो सब जगह समान गोल अधिक रम्य हैं।।३।।
इस गिरि के चार दिश में चार-चार वापियाँ।
जो एक लाख योजन जलपूर्ण वापियाँ।।
पूर्वादिक्रम दिशा से नंदा नंदवती हैं।
नंदोत्तरा व नंदिघोषा नाम प्रभृति हैं।।४।।
प्रत्येक वापियों में कमल फूल रहे हैं।
प्रत्येक के चउदिश में भी उद्यान घने हैं।।
अशोक सप्तपत्र चंप आम्र वन कहे।
पूर्वादि दिशा क्रम से अधिक रम्य दिख रहे।।५।।
दधिमुख अचल इन वापियों के बीच में बने।
योजन हजार दश उत्तुंग, विस्तृते इतने।।
प्रत्येक वापियों के दोनों बाह्य कोण में।
रतिकर गिरी हैं शोभते जो आठ-आठ हैं।।६।।
योजन हजार एक चौड़े तुुंग भी इतने।
सब स्वर्ण वर्ण के कहे रतिकर गिरी जितने।।
दधिमुख दधी समान श्वेत वर्ण धरे हैं।।
ये बावनों की अद्रि सिद्धकूट धरे हैं।।७।।
इनमें जिनेन्द्र भवन आदि अंत शून्य हैं।
जो सर्व रत्न से बने जिनबिंब पूर्ण हैं।।
उन मंदिरों में देव इंद्रवृंद जा सकें।
वे नित्य ही जिनेन्द्र की पूजादि कर सकें।।८।।
आकाशगामी साधु मनुज खग न जा सकें।
वे सर्वदा परोक्ष में ही भक्ति कर सकें।।
मैं भी यहाँ परोक्ष में ही अर्चना करूँ।
जिनमूर्तियों की बार-बार वंदना करूँ।।९।।
प्रभु आपके प्रसाद से भवसिंधु को तिरूँ।
मोहारि जीत शीघ्र ही जिनसंपदा वरूँ।।
हे नाथ! बार मेरी अब न देर कीजिये।
अज्ञानमती विज्ञ में अब फेर दीजिये।।१०।।
नंदीश्वर के चार दिश, जिनमंदिर जिनदेव।
उनको पूजूँ भाव से, ‘‘ज्ञानमती’’ हित एव।।११।।
ॐ ह्रीं नंदीश्वरद्वीपे चतुर्दिग्द्वापंचाशत्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, त्रैलोक्य जिन पूजा करें।
सब रोग-शोक विनाश कर, भवसिंधु जल सूखा करें।।
चिंतामणी चिन्मूर्ति को, वे स्वयं में प्रगटित करें।
‘‘सुज्ञानमति’’ रविकिरण से, त्रिभुवन कमल विकसित करें।।
।।इत्याशीर्वाद:।।