–श्री पावापुरी सिद्धक्षेत्र पूजा
-स्थापना (चौबोल छंद)
महावीर प्रभु जिस धरती से, कर्मनाश कर मोक्ष गये।
सिद्धशिला के स्वामी बनकर, सब कर्मों से छूट गये।।
पावापुर निर्वाणभूमि, तीरथ का अर्चन करना है।
आह्वानन स्थापन करने, जलमंदिर में चलना हैै।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्र! अत्र अवतर
अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्र! अत्र तिष्ठ
तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्र! अत्र मम
सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (शंभु छंद)-
प्रभुवर ने जन्म जरा मृत्यू का, नाश किया शिवपद पाया।
जलधारा इसीलिए करने को, वीरचरण में मैं आया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय जन्मजरा-
मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सन्मतिजिन ने संसारताप को, तप के द्वारा नष्ट किया।
मैंने शीतल चन्दन लेकर, जिनवर के पद में चर्च दिया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय संसारताप-
विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
नश्वर तन द्वारा वीर प्रभू ने, अविनश्वर पद को पाया।
मोती सम अक्षत पुंजों को, इसलिए चढ़ाने मैं आया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
यौवन में भी प्रभु वर्धमान को, विषयभोग नहिं लुभा सके।
वे पुष्प भी महिमाशाली हैं, जो प्रभुपद में हम चढ़ा सके।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय कामबाण-
विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
उग्रोग्र तपस्या के द्वारा, प्रभु ने क्षुधरोग विनाश किया।
मैंने नैवेद्य थाल द्वारा, प्रभु पूजन में विश्वास किया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय क्षुधारोग-
विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सन्मति ने शुक्लध्यान द्वारा,निज मोहकर्म का नाश किया।
घृतदीप जला आरति करके, मैंने निज ज्ञान प्रकाश किया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय मोहान्धकार
विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
निज ध्यान अग्नि में घातिकर्म को, भस्म वीर ने कर डाला।
मैंने उनके सम्मुख अग्नी में, धूप जलाकर सुख माना।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर घाति अघाती कर्म नाश, प्रभु ने मुक्तीफल प्राप्त किया।
मैंने शिवफल की आशा से, प्रभु को अर्पित फल थाल किया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।८।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस वसुधा से प्रभु महावीर ने, अष्टम वसुधा प्राप्त किया।
‘‘चन्दनामती’’ उस वसुधा को, दे अर्घ्य सहज सुख प्राप्त हुआ।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवर बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।९।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
पावापुरी सरोवर से स्वच्छ जल लिया।
प्रभु वीर के चरण में त्रयधार कर दिया।।
त्रयरत्न प्राप्ति हेतु मैंने प्रभु शरण लिया।
त्रयताप शांति हेतु मैंने यह यतन किया।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पावापुरी सरोवर कमलों से भरा है।
कुछ पुष्प वही लेके मैंने थाल भरा है।।
पुष्पांजलि कर वीर प्रभु से याचना करूँ।
आतम गुणों की प्राप्ति हेतु प्रार्थना करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
(इति मंडलस्योपरि त्रयोविंशतितमदले पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
-दोहा-
जलमंदिर में हैं बने, वीर चरण प्राचीन।
उनको अर्घ्य चढ़ाय मैं, करूं प्रदक्षिण तीन।।१।।
ॐ ह्रीं पावापुरीसरोवरस्य मध्यस्थितजलमंदिरे भगवन्महावीर-चरणकमलयोः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गौतम गणधर के चरण, पूजूँ मैं चितलाय।
केवलज्ञान हुआ वहीं, नमूँ मोह नश जाय।।२।।
ॐ ह्रीं पावापुरीसरोवरस्य मध्यस्थितजलमंदिरे गौतमगणधरचरणेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य सुधर्मा स्वामि के, गणधर चरण महान।
उनको अर्घ्य चढ़ाय मैं, पाऊँ सम्यक् ज्ञान।।३।।
ॐ ह्रीं पावापुरीसरोवरस्य मध्यस्थितजलमंदिरे श्रीसुधर्मास्वामि-
गणधरचरणेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनमंदिर प्रांगण विषै, कई जिनालय जान।
उनमें स्थित बिम्ब सब, पूजूँ करूँ प्रणाम।।४।।
ॐ ह्रीं पावापुरीसिद्धक्षेत्रस्यदिगम्बरजिनमंदिरपरिसरे निर्मित जिनालयेषु
विराजित समस्त जिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छंद-
जलमंदिर के सम्मुख इक पांडुकशिला नाम उद्यान कहा।
प्रभु महावीर की खड्गासन प्रतिमा, से वह जिनधाम रहा।।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती ने, पुण्य कार्य यह कर डाला।
उन महावीर को अर्घ्य चढ़ा, मैं जपूँ वीर की ही माला।।५।।
ॐ ह्रीं पावापुरीसिद्धक्षेत्रे जलमंदिरसम्मुखे विराजमान तीर्थंकरमहावीर
खड्गासन जिनबिम्बेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।
-स्रग्विणी छंद-
अर्चना मैं करूँ पावापुरि तीर्थ की,
जो है निर्वाणभूमी महावीर की।
वन्दना मैं करूं पावापुरि तीर्थ की,
जो है वैवल्यभूमी गणाधीश की।।टेक.।।
जैनशासन के चौबीसवें तीर्थंकर,
जन्मे कुण्डलपुरी राजा सिद्धार्थ घर।
रानी त्रिशला ने सपनों का फल पा लिया,
बोलो जय त्रिशलानंदन महावीर की।।१।।
वीर वैरागी बनकर युवावस्था में,
दीक्षा ले चल दिये घोर तप करने को।
मध्य में चन्दना के भी बंधन कटे,
बोलो कौशाम्बी में जय महावीर की।।२।।
प्रभु ने बारह बरस तक तपस्या किया,
केवलज्ञान तब प्राप्त उनको हुआ।
राजगिरि विपुलाचल पर प्रथम दिव्यध्वनि,
खिर गई बोलो जय जय महावीर की।।३।।
तीस वर्षों में, प्रभु का भ्रमण जो हुआ,
सब जगह समवसरणों की रचना हुई।
पावापुर के सरोवर से शिवपद लिया,
बोलो जय पावापुर के महावीर की।।४।।
मास कार्तिक अमावस के प्रत्यूष में,
कर्मों को नष्ट कर पहुँचे शिवलोक में।
तब से दीपावली पर्व है चल गया,
बोलो सब मिल के जय जय महावीर की।।५।।
पावापुर के सरोवर में फूले कमल,
आज भी गा रहे कीर्ति प्रभु की अमर।
वीर प्रभु के चरण की करो अर्चना,
बोलो जय सिद्ध भगवन् महावीर की।।६।।
पंक में खिल के पंकज अलग जैसे हैं,
मेरी आत्मा भी संसार में वैसे है।
उसको प्रभु सम बनाने का पुरुषार्थ कर,
जय हो अंतिम जिनेश्वर महावीर की।।७।।
पूरे सरवर के बिच एक मंदिर बना,
जो कहा जाता जल मंदिर है सोहना।
पारकर पुल से जाकर करो वंदना,
बोलो जय पास जाकर महावीर की।।८।।
लोग प्रतिवर्ष दीपावली के ही दिन,
पावापुर में मनाते हैं निर्वाणश्री।
भक्त निर्वाणलाडू चढ़ाते जहाँ,
बोलो उस भूमि पर जय महावीर की।।९।।
वीर के शिष्य गौतम गणीश्वर ने भी,
पाया कैवल्यपद वीर सिद्धि दिवस।
पूजा महावीर के संग करो उनकी भी,
बोलो गौतम के गुरु जय महावीर की।।१०।।
पावापुर में नमूँ वीर के पदकमल,
और गौतम, सुधर्मा के गणधर चरण।
‘‘चन्दनामति’’ चरणत्रय का अर्चन करो,
बोलो त्रयरत्नपति प्रभु महावीर की।।११।।
थाल पूर्णार्घ्य का यह सजाया प्रभो,
मैंने जयमाल में वह चढ़ाया प्रभो।
इससे आतमविशुद्धी बढ़े नित्य ही,
भाव से बोलो जय प्रभु महावीर की।।१२।।
धाम सिद्धी स्वयंवर का है तीर्थ ये,
जिसने प्रभु वीर से पाई यशकीर्ति है।।
यदि वरण करना है वैसी सिद्धी प्रिया,
अर्चना कर लो पावापुरी तीर्थ की।।१३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय जयमाला
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।
।। इत्याशीर्वाद:।।