स्थापना (गीताछंद)
वर द्वीप तेरहवाँ रुचकवर, बहुरुचिक विख्यात है।
इस मध्य वलयाकार सुंदर, रुचकवर नग ख्यात है।।
योजन चुरासी सहस विस्तृत, तुंग भी इतना कहा।
चारों दिशा के जिनभवन को, भक्तिवश पूजूँ यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक (राग टप्पा—मोहिराखो हो शरना)
सुरसरिता का मधुर सलिल ले, कनक कलश में भरना।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।१।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयज केशर गंध सुगंधित, कनक कटोरी भरना।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।२।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल तंदुल धोय अखंडित, पुंज चरण डिग धरना।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।३।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंद कमल मचकुंद चमेली, ले आयो तुम चरना।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।४।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक फेनी घेवर आदिक, कनक थाल में भरना।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।५।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक में कर्पूर जलाकर, अंतरंग तम हरना।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।६।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
दीपंं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुगंधित अग्निपात्र में, ख्वत ही अघ हरना।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।७।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल सेव कपित्थ सुपारी, पूर्ण थाल फल भरना।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।८।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिल गंध अक्षत आदिक ले, अर्घ्य करूँ जिन चरणा।
रुचकवराचल चारों दिश में, जिनगृह पूजन करना।।
मैं आयो तुम शरणा, श्री स्वयंसिद्ध जिनराजजी।।
मैं आयो तुम शरणा.।।९।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा— जिनपद सरसिज मांहि, मैं जल से धारा करूँ।
भव जल को जल देय, परम शांति पाऊँ सदा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हरसिंगार सुलेय, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।
आतम गुण की गंध, पैले चारों दिश विषें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा— चिच्चेतन चिंतामणी, अनुपम सुख दातार।
पुष्पांजलि कर पूजहूँ, मिले सर्व सुखसार।।
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-गीता छंद-
जो मुक्तिकन्या परिणयन हित, अतुल मंडप सम दिखे।
जिनवर जिनालय सासता, मुनिगण जहाँ निजरस चखें।।
जल गंध आदिक अर्घ लेकर, पूजते सब सुख मिले।
मन कामना सब पूर्ण हों, भविजन हृदय सरसिज खिले।।१।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितपूर्वदिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिरत्न कंचन से जड़ित, शाश्वत जिनालय सोहता।
पर्वत रुचकवर के उपरि, दक्षिणदिशी मन मोहता।।
जल गंध आदिक अर्घ लेकर, पूजते निधियाँ मिलें।
मन कामना सब पूर्ण होकर, हृदय की कलियाँ खिलें।।२।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितदक्षिणदिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस रुचकपर्वत के उपरि, पश्चिम दिशा में जानिये।
वर सिद्धकूट सुवर्णमय पर, जैनमंदिर मानिये।।
जल गंध आदिक अर्घ लेकर, पूजते निधियाँ मिलें।
मन कामना सब पूर्ण होकर, हृदय की कलियाँ खिलें।।३।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितपश्चिमदिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सौ इंद्र से पूजित चरण-पंकज जिनेश्वर देव हैं।
ईप्सित पदारथ हेतु भविजन, करें तुम पद सेव हैं।।
नग रुचकगिरि उत्तरदिशी, जिनगृह जजत निधियाँ मिलें।
मनकामना सब पूर्ण होकर, हृदय की कलियाँ खिलें।।४।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितउत्तरदिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्य:
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
इस तेरवें पर्वत उपरि, चारों दिशी जिनधाम हैं।
ये विघ्नपर्वत चूर्ण हेतू, वज्रसम सुखधाम हैं।।
जल गंध आदिक अर्घ लेकर, पूजते निधियाँ मिलें।
मन कामना सब पूर्ण होकर, हृदय की कलियाँ खिलें।।१।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयेभ्य: पूर्णार्घ्यं
निर्वपामीति स्वाहा।
इन चार जिनवर धाम में, जिनमूर्तियाँ मणिरत्न की।
सब चार सौ बत्तीस हैं, सुर अप्सराएँ वंदतीं।।
जल गंध आदिक अर्घ लेकर, पूजते निधियाँ मिलें।
मन कामना सब पूर्ण होकर, हृदय की कलियाँ खिलें।।२।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्जिनालयमध्यविराजमानचतु:शत-
द्वात्रिंशत् जिनप्रतिमाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं त्रयोदशद्वीपसंबंधिनवदेवताभ्यो नम:।
दोहा— रुचकवराद्री स्वर्णमय, महातीर्थ महनीय।
गाऊँ जयमाला सुखद, महाताप हरणीय।।१।।
—शंभु छंद—
वर द्वीप तेरहवेंं के मधि में, स्वर्णाभ रुचकवर अद्री है।
योजन चौरासी सहस तुंग, इतना ही विस्तृत अद्री है।।
इसपे सु चवालिस दिव्यकूट, जिनका वर्णन है मन भाता।
पूरब दिश आठ सुकूट जहाँ, दिक्कन्याओं का नित दाता।।१।।
विजया विजयंत जयंता अरु, अपराजित नंदा नंदवती।
नंदोत्तर नंदीषेणा जिन-जन्मोत्सव में झारी धरतीं।।
दक्षिण दिश आठ कूट ऊपर, इच्छा रु समाहारा देवी।
सुप्रकीर्णा यशोधरा लक्ष्मी, अर शेषवती चित्रगुप्ता भी।।२।।
अष्टम हैं वसुंधरा देवी, ये दिक्कन्याएँ रहती हैं।
जिन जन्मकल्याणक में आकर, दर्पण को धारण करती हैं।।
पश्चिम के आठ कूट ऊपर, हैं इला सुरादेवी पृथ्वी।
पद्मा अरु इकनासा नवमी, सीता भद्रा आठों देवी।।३।।
जिन जन्मोत्सव में जिनमाता के, ऊपर छत्र लगाती हैं।
उत्तर दिश आठों कूटों की, दिक्कन्या चंवर ढुराती हैं।।
इन नाम अलंभूषा दूजी, मिश्रकेशि तथा पुंडरीकिणि हैं।
वारुणी रु आशा सत्या ह्री, श्री देवी ये अतिरूपिणि हैं।।४।।
इन कूट वेदि के अभ्यंतर, उत्तर दिश के क्रम में जानोें।
वर चार महाकूटों पे भी, दिक्कन्याओं को पहचानों।।
सौदामिनि कनका शत्रपदा, औ कनकसुचित्रा रहती हैं।
जिन जन्मकल्याणक में ये सब, दशदिश को निर्मल करती हैं।।५।।
इन कूटों अभ्यंतर भागे, पूर्वादि दिशाओं के क्रम से।
चारों कूटों पे दिक्कन्या, रहती हैं अगणित वैभव से।।
रुचका औ रुचककीर्ति देवी, सुरुचककान्ता अर रुचकप्रभा।
जिनमाता का ये जातकर्म, करती हैं भक्ती भरित शुभा।।६।।
इन चालिस कूटों की चालिस, देवी जिन जन्मकल्याणक में।
निज-निज परिवार विभव संयुत, बहु पुण्य कमाती हैं सच में।।
इन कूटों के अभ्यंतर में, श्रीसिद्धकूट हैं चार कहे।
जो पूरब दक्षिण अपरोत्तर, चारों दिश मणिमय भास रहे।।७।।
इनपे शाश्वत जिन चैत्यालय, अकृत्रिम जिनवर प्रतिमाएँ।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, उनको शिवमारग दर्शाएँ।।
मैं भी श्रद्धा से आ करके, जिनवर की पूजन करता हूँ।
निज केवल ‘‘ज्ञानमती’’ हेतू, सब विघन करम को हरता हूूँ।।८।।
—दोहा—
अचल रुचकवर चार दिश, जिनवर भवन विशाल।
विघ्नहरण मंगलकरण, नमूँ-नमूँ नत भाल।।९।।
ॐ ह्रीं रुचकवरपर्वतस्थितचतुर्दिक्सिद्धकूटजिनालयजिनबिम्बेभ्यो जयमाला
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
श्री तेरहद्वीप विधान भव्य, जो भावभक्ति से करते हैं।
वे नित नव मंगल प्राप्त करें, सम्पूर्ण दु:ख को हरते हैं।।
फिर तेरहवाँ गुणस्थान पाय, अर्हंत अवस्था लभते हैं।
कैवल्य ‘ज्ञानमति’ किरणों से, त्रिभुवन आलोकित करते हैं।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।