(श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
भव्यात्माओं! आचार्यों ने श्रावकों के देवपूजा , गुरुपास्ति , स्वाध्याय , संयम , तप और दान ये षट् आवश्यक कर्तव्य बताए हैं। उनमें भी आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘दाणं पूजा मुक्खो’ दान और पूजा को मुख्य बताया है। मैं आपको दान के विषय में विस्तार से बता रही हूँ – जो अपने और दूसरों के उपकार के लिए दिया जाता है उसे दान कहते हैं। जिससे अपना भी कल्याण हो और अन्य मुनियों के रत्नत्रय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उन्नति हो वही दान है।
गृहस्थों को विधि, देश, द्रव्य, आगम, पात्र और काल के अनुसार दान देना चाहिए। जैसे मेघों से बरसा हुआ पानी भूमि को पाकर विशिष्ट फल देने वाला हो जाता है वैसे ही दाता, पात्र, विधि और द्रव्य की विशेषता से दान में भी विशेषता आ जाती है। जो प्रेमपूर्वक देता है वह दाता है। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से विभूषित हैं वे ही पात्र हैं।
आदरपूर्वक देने का नाम विधि है और जो तप तथा स्वाध्याय में सहायक हो वही द्रव्य है। सज्जन पुरुष तीन प्रकार से अपने धन को खर्च करते है। ‘परलोक में हमें सुख प्राप्त होगा’ कोई इस बुद्धि से अपना धन खर्च करते हैं। कोई इस लोक में सुख-यश आदि की प्राप्ति के लिए ही धन का दान करते हैं और कोई उचित समझकर ही धन खर्चते हैं किन्तु इससे विपरीत जिन्हें न परलोक का ध्यान है, न इहलोक का ध्यान है और न औचित्य का ही ध्यान है वे न धर्म कर सकते हैं, न अपने लौकिक कार्य कर सकते हैं और न यश ही कमा सकते हैं।