१. सर्वप्रथम स्वस्तिक बनाकर एक हाथ लम्बा चौड़ा गड्ढा खोदकर भूमि परीक्षण करें। गड्ढे से खोदी गई मिट्टी ही उसमें भरे, कम रहे तो अशुभ, सम रहे तो मध्यम और गड्ढे से अधिक हो तो उत्तम।
२. पूरा गड्ढा पानी से भर दे, प्रात: देखें। पूरा रहे तो अशुभ, कुछ पानी सूख जावे तो मध्यम, कुछ पानी शेष रहे तो शुभ।
३. शिलान्यास स्थल पर भगवान की प्रतिमा विराजमान करके मंगलाष्टक पढ़ें पुन: भगवान का एवं विनायक यंत्र का अभिषेक और शांतिधारा करें।
४. पुन: नवदेवता पूजन, चौबीस भगवान एवं विनायक यंत्र की पूजन करें।
५. शिलान्यास किये जाने वाले गड्ढे में २²२ फुट के चौकोर स्थल में समतल ईंटों से चबूतरा बना लें, उस चबूतरे को पुण्याहवाचन का मंत्र (पृ. ७९ से) बोलकर गंधोदक से शुद्ध कर लें। सफेद चावल बिछाकर पीले चावल से बीच में स्वस्तिक बना दें पुन: भूमिशोधन विधि (पृ. ६७ से ७१ तक) पंचकुमार की स्थापना करें।
६. चौबीस तीर्थंकरों के शासन देव-देवी की स्थापना करें, उन्हें यथायोग्य अर्घ्य समर्पित करें।
७. पुन: वास्तुविधान की पुस्तक से वास्तुविधान करें अथवा समयाभाव हो तो संक्षिप्त वास्तुविधान कर लें।
ॐ ह्राँ णमो अरहंताणं, ह्रां पूर्वदिशात: समागतविघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा।
(प्रत्येक मंत्र पढ़ने के पश्चात् पीली सरसों या पुष्प छोड़ें)
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं, ह्रीं दक्षिणदिशात: समागतविघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा।
ॐ ह्रौं णमो आइरियाणं, ह्रूं पश्चिमदिशात: समागतविघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा।
ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं, ह्रौं उत्तरदिशात: समागतविघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा।
ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं, ह्र: सर्वदिशात: समागतविघ्नान् निवारय निवारय मां रक्ष रक्ष स्वाहा।
(सब दिशाओं में पीली सरसों या पुष्प क्षेपण करें)
(निम्न मंत्र पढ़कर गेती पर जल के छींटे देवे)
ॐ ह्रीं अर्हं अ सि आ उ सा पञ्च परमेष्ठिभ्यो नम: क्षीं भू: अमृतजलेन खन्ति शुद्धिं करोमि।
ॐ क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्ष: खन्ति चन्दनलेपं करोमि।
(यह पढ़कर गेंती पर चन्दन से साँथियां बनावे)
एते वास्तुसुरा: समस्तधरणीसंवाहिनी वाहिता:।
प्रत्यूहाद्यविधायिनस्त्वपचिता: प्रत्यूहसंहारका:।
आद्या: प्रापितपूजना: प्रमुदिता: सर्वप्रभाभान्विता-
यष्टुर्याजकभूपमन्त्रिसुजनानां च श्रियै सन्तु ते।।१।।
पृथ्वीविकारात् सलिलप्रवेशात्, अग्नेर्विदाहात् पवनप्रकोपात्।
चौरप्रयोगादपि वास्तुदेवा:, चैत्यालयं रक्षतु वास्तुदेव:।।२।।
ॐ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
ह्रौं सर्वशान्तिं कुरुत स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं अक्षीणमहानसर्द्धिभ्यो नम: स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं अक्षीणमहालयर्द्धिभ्यो नम: स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं दशदिशात: आगतविघ्नान् निवारय निवारय सर्वं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं दुर्मुहूर्तदु:शकुनादिकृतोपद्रवशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं वास्तुदेवेभ्य: स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं परकृतमन्त्रतन्त्रडाकिनीशाकिनीभूतपिशाचादिकृतोपद्रवशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वविघ्नोपशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वाधिव्याधिशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वत्र क्षेमं आरोग्यतां विस्तारय विस्तारय सर्वं ह्रष्ट-पुष्टं प्रसन्नचित्तं कुरु कुरु स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं यजमानादीनां सर्वसंघस्य शान्तिं तुष्टिं पुष्टिं ऋद्धिं वृद्धिं समृद्धिं अक्षीणर्द्धिं पुत्रपौत्रादिवृद्धिं आयुवृद्धिं धनधान्यसमृद्धिं कुरु कुरु स्वाहा।।११।।
ॐ क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षं क्ष: णमोऽर्हते सर्वं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।१२।।
ॐ भूर्भुव: स्व: नम: स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं क्रौं आं अनुत्पन्नानां द्रव्याणामुत्पादकाय, उत्पन्नानां द्रव्याणां वृद्धिकराय चिन्तामणिपार्श्वनाथाय वसुदाय नम: स्वाहा।।१४
(अर्घ्य चढ़ावे)
(यहाँवास्तुविधान की पुस्तक से हिन्दी का विधान भी कर सकते हैं)
ॐ ह्रीं क्रौं ब्रह्मवास्तुदेवाय स्वाहा।।१।।
ॐ ह्रीं क्रौं इन्द्र-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२।।
ॐ ह्रीं क्रौं अग्नि-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३।।
ॐ ह्रीं क्रौं यम-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४।।
ॐ ह्रीं क्रौं नैऋत्य-वास्तुदेवाय स्वाहा।।५।।
ॐ ह्रीं क्रौं वरुण-वास्तुदेवाय स्वाहा।।६।।
ॐ ह्रीं क्रौं पवन-वास्तुदेवाय स्वाहा।।७।।
ॐ ह्रीं क्रौं कुबेर-वास्तुदेवाय स्वाहा।।८।।
ॐ ह्रीं क्रौं ऐशान-वास्तुदेवाय स्वाहा।।९।।
ॐ ह्रीं क्रौं आर्य-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१०।।
ॐ ह्रीं क्रौं विवस्वान्-वास्तुदेवाय स्वाहा।।११।।
ॐ ह्रीं क्रौं मित्र-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१२।।
ॐ ह्रीं क्रौं भूधर-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१३।।
ॐ ह्रीं क्रौं शचीन्द्र-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१४।।
ॐ ह्रीं क्रौं प्राचीन्द्र-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१५।।
ॐ ह्रीं क्रौं इन्द्र-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१६।।
ॐ ह्रीं क्रौं इन्द्रराज-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१७।।
ॐ ह्रीं क्रौं रुद्र-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१८।।
ॐ ह्रीं क्रौं रुन्द-वास्तुदेवाय स्वाहा।।१९।।
ॐ ह्रीं क्रौं आप-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२०।।
ॐ ह्रीं क्रौं आप-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२१।।
ॐ ह्रीं क्रौं पर्जन्य-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२२।।
ॐ ह्रीं क्रौं जयन्त-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२३।।
ॐ ह्रीं क्रौं भास्कर-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२४।।
ॐ ह्रीं क्रौं सत्य-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२५।।
ॐ ह्रीं क्रौं भृश-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२६।।
ॐ ह्रीं क्रौं अन्तरीक्ष-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२७।।
ॐ ह्रीं क्रौं पुष्प-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२८।।
ॐ ह्रीं क्रौं वितथ-वास्तुदेवाय स्वाहा।।२९।।
ॐ ह्रीं क्रौं राक्षस-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३०।।
ॐ ह्रीं क्रौं गन्धर्व-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३१।।
ॐ ह्रीं क्रौं भृङ्गराज-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३२।।
ॐ ह्रीं क्रौं मृषदेव-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३३।।
ॐ ह्रीं क्रौं दौवारिक-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३४।।
ॐ ह्रीं क्रौं सुग्रीव-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३५।।
ॐ ह्रीं क्रौं पुष्पदन्त-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३६।।
ॐ ह्रीं क्रौं असुर-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३७।।
ॐ ह्रीं क्रौं शेष-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३८।।
ॐ ह्रीं क्रौं राेग-वास्तुदेवाय स्वाहा।।३९।।
ॐ ह्रीं क्रौं नागराज-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४०।।
ॐ ह्रीं क्रौं मुख्य-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४१।।
ॐ ह्रीं क्रौं भल्लारक-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४२।।
ॐ ह्रीं क्रौं भृङ्ग-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४३।।
ॐ ह्रीं क्रौं आदित्य-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४४।।
ॐ ह्रीं क्रौं उदित-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४५।।
ॐ ह्रीं क्रौं विचारदेव-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४६।।
ॐ ह्रीं क्रौं पूतना-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४७।।
ॐ ह्रीं क्रौं पापराक्षसी-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४८।।
ॐ ह्रीं क्रौं चरकी-वास्तुदेवाय स्वाहा।।४९।।
ॐ ह्रीं क्रौं इन्द्रादि चरकीपर्यन्त एकोनपंचाशत् वास्तुदेवा: इदं जलं गंधं अक्षतं पुष्पं चरुं दीपं धूपं फलं अर्घ्यं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं स्वाहा।
तिर्यक्प्रचारादशने: प्रपातात् बीजप्ररोहाद् द्रुमखण्डपातात्।
कीटप्रवेशादपि वास्तुदेव! चैत्यालयं रक्षतु सर्वकालम्।
अब गड्ढे में तांबे के पंचकलश की स्थापना मंत्रोच्चारणपूर्वक करें। उन कलशों के अंदर पहले से ही हल्दी गांठ, सरसों, सुपारी और चांदी के या सामान्य रुपये के १-१ सिक्के डालकर, कलशों में केशर से स्वस्तिक बनाकर उन्हें पंचरंगी सूत्र से वेष्टित करें।
पुन: सर्वप्रथम गड्ढे में बिछाये गये चावल के चारों कोनों पर एवं मध्य में चाँदी के १-१ स्वस्तिक स्थापित करें। उसके बाद उन स्वस्तिकों के ऊपर कलश स्थापित करवाएँ।
स्वस्तिक स्थापना का मंत्र-
ॐ ह्रीं श्रीजिनमंदिरशिलान्यासक्रियायां रजतस्वस्तिकं स्थापयामि स्वाहा।
कलशस्थापना का श्लोक एवं मंत्र-
तीर्थाम्बुपूर्णशरणोत्तममङ्गलार्थं, संकल्पनादि समलंकृतशुभ्रकुम्भान्।
वेद्यष्टदिक्षु विनिवेश्य सपश्चवर्ण-सूत्रेण तांस्त्रिगुणमेव वृणोमि सिद्ध्यै।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनमंदिरशिलान्यासक्रियायां मंगलकुंभं स्थापयामि स्वाहा सर्वलोक शांतिर्भवतु।
(पाँच बार इस मंत्र को पढ़कर पृथक्-पृथक् पाँच कलश स्थापित करें)
पुन: मध्य के कलश में नवरत्न (मोती-माणिक-मूंगा-हीरा-नीलम-पन्ना-पुखराज-स्फटिक-गोमेद अथवा शक्ति अनुसार जो भी रत्न उपलब्ध हो सकें, उन्हें कलश में डालें) डालें-
नवरत्न स्थापन का मंत्र-
ॐ ह्रीं श्रीजिनमंदिरशिलान्यासक्रियायां नवरत्नानि निक्षिपामि स्वाहा सर्वलोक शांतिर्भवतु-शांतिर्भवतु-शांतिर्भवतु।
मध्य के कलश में पारा डालें-
ॐ ह्रीं श्रीजिनमंदिरशिलान्यासक्रियायां पारदद्रव्यं निक्षिपामि स्वाहा सर्वलोक शांतिर्भवतु-शांतिर्भवतु-शांतिर्भवतु।
(पुन: पाँचों कलशों के ऊपर या उनके पास नीचे घी के जलते हुए दीपक (मिट्टी या तांबे के) रखें।
दीपक रखने का मंत्र-
दिव्य-प्रदीप-कलिकोज्ज्वल-वर्ण-पूरै-र्नीराजनाथमुदितैर्वरभाजनस्थै:।
नीराजयामि भगवज्जिनयज्ञवेदी-मोजोगुणस्य यजतामभिवर्धनाय।।
ॐ ह्रीं श्रीजिनमंदिरशिलान्यासक्रियायां घृतदीपं स्थापयामि स्वाहा।
(सवा फुट की पाषाण की शिला पर स्वस्तिक बनाकर उसे कलावा से वेष्टित करके पहले से ही पीली सरसों एवं पीले पुष्पों से मंत्रित१ करके रख लें। उस पर सेंधा नमक एवं गुड़ की ढेली रख दें।)
स्वर्ण व रजत की ईंट स्थापित करने हेतु मंत्र-
ॐ ह्रीं श्री जिनमंदिर शिलान्यास क्रियायां स्वर्णइष्टिकां स्थापयामि स्वाहा।
ॐ ह्रीं श्री जिनमंदिर शिलान्यास क्रियायां रजतइष्टिकां स्थापयामि स्वाहा।
शिला स्थापित करने का मंत्र-
शिलां विशालां लवणेन विद्धां, सूत्रेण बद्धां समृदं सलोष्ठाम्।
भोगौघपुष्ट्यै दुरितौघपिष्ट्यै, वेद्या: अधस्ताद् विनिवेशयामि।।
ॐ ह्रीं सर्वजनानन्दकारिणि सौभाग्यवति तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा।
(शिला स्थापित करने के बाद शिला के चारों ओर दशों दिशाओं में १० कीलें गाढ़ें।)
बीच सोने की कील लगाने का मंत्र-
ॐ भगवते श्रीपार्श्वनाथाय धरणेन्द्रपद्मावतीसेविताय अट्टे मट्टे क्षुद्रविघट्टेभूतभविष्यत्वर्तमानाय स्वाहा।
(यह मंत्र पढ़कर बीच में सोने की एक कील गाढ़ें)
आठों दिशा में कील लगाने का मंत्र-
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।
(यह मंत्र पढ़कर आठ दिशाओं में पाँच अंगुलप्रमाण लोहे की शलाकाएँ गाड़ देवें। बीच की शलाका का प्रमाण सात अंगुल हो। इन शलाकाओं को तेल में भिगोकर तथा रुई में लपेटकर गाड़ें।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे पुण्यसहिताय शक्त्यनुसारेण द्रव्यस्थापनं करोमीति स्वाहा।
(यह मंत्र पढ़कर शक्ति के अनुसार रुपया, सोना, चांदी आदि द्रव्य डालें। फिर कारीगर को वस्त्र आदि से संतुष्ट कर नींव भर दें।)
(अनन्तर शांति विजर्सन करें)
आयुर्द्राघयतु व्रतं दृढ़यतु व्याधीन्व्यपोहत्वयं,
श्रेयांसि प्रगुणीकरोतु वितनोत्वासिन्धु शुभ्रं यश:।
शत्रून् शांतयतु श्रियोभिरमरत्वश्रान्तमुन्मुद्रय-
त्वानन्दं भजतां प्रतिष्ठित इह श्रीसिद्धनाथ: सताम्।।