जय जय तीर्थंकर तीर्थनाथ, जय जय प्रभु धर्मचक्र ईश्वर।
जय जयतु अनंतचतुष्टयमय, अंतर लक्ष्मीपति परेमश्वर।।
जय जय जय प्रभु तुम समवसरण, त्रिभुवन लक्ष्मीयुत अतिशायी।
जय जय जय सुरपति आज्ञा से, धनपति रचता जग सुखदायी।।१।।
जय बारह योजन गोल शिला, या योजन एक१ नीलमणि की।
धनपति ने पाँच सहस धनु ऊपर नभ में उसे अधर रख दी।।
जय भूतल से इस हाथ उपरि, सब सीढ़ी बीस हजार बनीं।
जय बालक वृद्ध सभी चढ़ते, अंतर्महूर्त में शांति घनी।।२।।
जय समवसरण के चार कोट अरु पाँच वेदियाँ अति सोहें।
जय इन नव के मधि आठ भूमि, मुनिगण से संस्तुत मन मोहें।।
जय धूलिसाल प्राकार प्रथम, पंचरंगी रत्नमीय सुंदर।
जय द्वितिय कोट है स्वर्णमयी, जय तृतिय कोट चांदी मनहर।।३।।
जय चौथा परकोटा सुन्दर स्फटिकमणी का शोभ रहा।
ये परकोटे चूड़ी समान आकार धरें अतिशायि महा।।
जय पाँचों वेदी स्वर्णमयी, उपरिम कंगूरे शोभ रहें।
इन चार कोट पणवेदी में, चउदिश चउ चउ महाद्वार कहें।।४।।
सुर ज्योतिष प्रथम साल पर हैं दूजे पर व्यंतर द्वारपाल।
भावन सुर तृतिय साल रक्षक कल्पासुर खड़े स्फटिक साल।।
इन दरवाजों पर नवनिधियाँ, वसु मंगल द्रव्य धूप घट हैं।
बहु देव देवियाँ नृत्य करें जिनगुण गावें जन मनहर हैं।।५।।
सो विजय वैजयंतरु जयंत अपराजित नाम कहाये हैं।
प्राकार चार के उभय तरफ दो-दो नाटकशालाएँ हैं।।
इनमें प्रवेश करके सुरनर जय जय ध्वनि करते जाते हैं।
क्रम क्रम से आठ भूमियोें की शोभा निरखें सुख पाते हैं।।६।।
जय जय जय चैत्य महल भूमी, जय जय जिनमंदिर जिनप्रतिमा।
हम नमन करें निज शीश झुका, जय समवसरण की गुणगरिमा।।
जय द्वितीय खातिका भू पवित्र, अति स्वच्छ मधुर जल पूर्ण भरी।
निज सम मुझ चित्त पवित्र करे, फूलें कमलों से गंधकरी।।७।।
जय तृतीय लता भूमी सुन्दर, बहु रंग विरंगे फूल खिलें।
जय इनका नामस्मरण किये मेरी मन कलिका पूर्ण खिले।।
जय जय उपवन भूमी सुंदर, चहुँदिश चउविध उद्यान फलें।
इनमें चारों दिश एक एक हैं ‘चैत्यवृक्ष’ सुरवंद्य भलें।।८।।
जय जय इन चैत्यवृक्ष की जय, जय जय जय हो जिनबिम्बों की।
मैं नमूँ अनंतों बार प्रभो! मनवांछित फल देवो जल्दी।।
जय जय जय पंचमध्वजा भूमि, दश चिन्हों सहित ध्वजाएँ हैं।
सब जिनवर का यश विस्तारें, नभ को छूती लहराएँ हैं।।९।।
जय जय जय कल्पवृक्ष भूमी, दशविध के कल्पवृक्ष फलते।
इनमें चारों दिश एक एक, सिद्धार्थ वृक्ष इच्छित फल दें।।
जय जय सिद्धार्थ वृक्ष की जय, जय जय सिद्धों के बिम्बों की।
मुझको सवार्थसिद्धि दे दो, मैं नमूँ नमॅूं गुण गाऊँ भी।।१०।।
जय जय जय सप्तम भवन भूमि, देवों के सुंदर भवन बने।
उनमें जिनप्रतिमाओं का नित, अभिषेक करें सुर भक्त घने।।
इस भू की चारों गलियों में, नव नव स्तूप बनें सुन्दर।
उनमें प्रतिमा अर्हंतों की, सिद्धों की भी राजें मनहर।।११।।
जय जय इन सब प्रतिमाओं को मैं हाथ जोड़कर नमन करूँ।
प्रभु ऐसी शक्ती दो मुझको, इंद्रिय कषाय का दमन करूँ।।
जय जय जय श्रीमंडपभूमी, इसमें बारह कोठे सुंदर।
जय जय यह सभाभूमि प्रभू की, उपदेश सुने सुरनर पशुगण।।१२।।
जय पहली कटनी पे चहुँदिश, वर धर्मचक्र अति दीप रहें।
जय दुतयी पर महध्वजा आठ, जय गंधकुटी तृतयी पर हैं।।
जय गंधकुटी में सिंहासन, जय सहस्र दल कमलासन हैं।
वेदिकाबद्ध वीथिकाबीच, ‘कल्याणजयांगण१’ शोभ रहा।
केले के वृक्ष बहुत ऊँचे, उनसे यह जन मन मोह रहा।।
इनके आगे सिद्धार्थ वृक्ष, उनके आगे इक मंदिर है।
बारह स्तूप इसे शोभित, करते मानों मेरू गिरि हैं।।१४।।
इन आगे चार दिशाओं में, बावड़ियाँ चार सुशोभित हैं।
उनमें स्नान करें भविजन, निज पूरव भव अवलोकत हैं।।
इन आगे एक ‘जयांगण’ है, त्रैलोक्य विजय आधार कहा।
जय जय श्रेष्ठ जयांगण यह, ध्वज तोरण से बहु शोभ रहा।।१५।।
जय आंगन मध्य इन्द्रध्वज है मणिमयी ‘पताका’ लहराये।
किंकिणि रत्नों की मालाएँ किरणों से ध्वज को चमकायें।।
जय एक हजार स्तंभों पर वह खड़ा ‘महोदय’ मंडप है।
जय मूर्तिमती ‘श्रुतिदेवि’ वहाँ पर राजें सतत बोधप्रद है।।१६।।
इनको दायें कर मुनिगण में, श्रुतकेवलि श्रुत व्याख्यान करें।
इस मंडप के परिवार चार मंडप भी जन अज्ञान हरें।।
जय जय विजयांगण कोनों में, जय चार ‘लोकस्तूप’ बनें।
ये तीन लोक आकार धरें, इक योजन ऊँचे रम्य घने।।१७।।
जय स्वच्छ फटिक मणि से निर्मित इनमें तीनों जग की रचना।
स्पष्ट झलकते नरक स्वर्ग भवि देख रहे सुख दुख भरना।।
जय मध्यलोक इनके आगे, जो मध्य लोक दरसाते हैं।
जय जय जम्बूद्वीपादि असंख्यों द्वीप समुद्र दिखाते हैं।।१८।।
जय जय जय जय मंदर स्तूप, जय जय चहूँ दिश की प्रतिमाएँ।
जय ‘कल्पवासस्तूप’ कल्पवासी सुर वैभव दिखलाएँ।।
जय जय ग्रैवेयकस्तूप नवों ग्रैवेयक वैभव दिखलाते।
जय जय अनुदिश के नवस्तूप अहमिन्द्र सौख्य को झलकाते।।१९।।
जय जय सर्वार्थसिद्धी स्तूप पंचानुत्तर सुख दिखलाएँ।
जय जय जय ‘सिद्धस्तूप’ सिद्ध प्रभु की छाया को झलकाएँ।।
जय ‘भव्यकूटस्तूप’ जिन्हें नहिं देख सकें हि अभव्य जीव।
जय जय ‘प्रमोहस्तूप’ जिन्हें देखत जन दिग्भ्रम हों सदीव।।२०।।
जय जय ‘प्रबोधस्तूप’ जिन्हें, देखे प्रबोध को प्राप्त करें।
निज तत्त्वज्ञान को पाय साधु, बनते निश्चित भवजलधि तरें।।
जय जय जय दश स्तूप और, जो परिधी तक अति शोभ रहें।
परिधी भीतर कर्णिका एक जो मंडल से अतिदीप्त रहे।।२१।।
वहाँ गणधर प्रभु की इच्छा से शुभ एक ‘दिव्यपुर१’ बन जाता।
वह तीर्थंकर के अतिशय से त्रिभुवन के जीव समा पाता।।
जय जय जिनवर की दिव्य ध्वनी, सम्यग्दृष्टी ही सुनते हैं।
जय जय गणधर गुरु ऋद्धिपती, वदंन से विघ्न विनशते हैं।।२२।।
जय जय जिन मुद्राधर मुनिवर, शत शत ‘नमोस्तु’ मेरा उनको।
जय जय जिन सती आर्यिकायें, शत शत ‘वंदामी’ उन सबको।।
जय जय जिनवर के मात पिता, जय जय आयू तनु वंश रूप।
जय पंचकल्याणक तीर्थ क्षेत्र, जय जय कल्याणक तिथि अनूप।।२३।।
जय जय जिनशासन यक्षदेव, जय जय जिन शासन यक्षिणियां।
जय जिनशासन अनादि अनिधन, जय जिन सहस्र नामावलियां।।
जय जय जय जिनवर समवसरण, मैं नमूँ अनंतों बार यहाँ।
यह केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी, मुझको दो पंचकल्याण जहाँ।।२४।।
ॐ ह्रीं समवसरणपद्मसूर्यवृषभादिवर्द्धमानान्तेभ्यो नम: जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह ‘‘कल्पद्रुम’’ पूजा करें।
मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें।।
फिर पंचकल्याणक अधिप, हो धर्मचक्र चलावते।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करें, जिनगुण अनंतों पावते।।
इति श्री कल्पद्रुममहायज्ञविधानं संपूर्णम्।
इति भद्रं भूयात्।
वर्द्धताम् जिनशासनम्।