(२६०)
आवरण मोह का हटा देख, उनने निज रूप दिखाया था।
परिचय जब पूछा रघुवर ने, तब सबकुछ उन्हें बताया था।।
हे नाथ! जटायू पक्षी हम, और ये है सेनापति नाथ।
इतने दिन से विपत्ति प्रभू पर, हमको ना हो सका ज्ञात।।
(२६१)
जब कर्मोदय से हे रघुवर! आया विपत्ति का अंतसमय।
अनजानी शक्ती ने प्रभुवर, तब ध्यान दिलाया उसी समय।।
वैसे यह जीव स्वयं बंधता, और स्वयं मुक्ति का दाता है।
बन जाते हैं निमित्तमात्र पर, वह खुद का भाग्य विधाता है।।
(२६२)
श्रीरामचंद्र ने फिर उनका, अहसान मानकर विदा किया।
पुनरपि परिजन के साथ लखन की,कर दी उनने दाह क्रिया।।
सबसे छोटे भ्राता शत्रुघ्न से, कहा राज्य सम्भालो तुम ।
मै भी शिव का पथ अपनाऊँ, अब बंधन में ना डालो तुम ।।
(२६३)
यह कहकर के शत्रुघ्न चले, मुनिवर से दीक्षा लेने को ।
जब नेह घटा धन वैभव से, सब लगा पराया सा उनको।।
इस मोह कर्म ने ही अब तक, हमको घर में बांधे रक्खा।
अब समझ गया हूँ हे भ्राता! इन क्षणिक सुखों में क्या रक्खा।।
(२६४)
तब नगर अयोध्या का राजा,लव के सुपुत्र को बना दिया।
प्रियनाम अनंतलवण उनका,निजनाम रूप ही राज्य किया।।
जब सुना राम ने मेरे लिए, सब मुनी व्यथा को प्राप्त हुए।
तब दर्शन—वंदन करने को, प्रात: उपवन की ओर गए।।